कर्नाटक का प्रसिद्ध करगा उत्सव हर साल चैत्र पूर्णिमा के अवसर पर मनाया जाता है। यह उत्सव बेंगलुरु के थिगला समुदाय के लिए सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। यह समुदाय देवी द्रौपदी को अपनी कुल-देवी मानता है और करगा को उनके दिव्य स्वरूप का प्रतीक माना जाता है। माना जाता है कि महाभारत काल में जब देवी द्रौपदी ने तिमिरासुर नामक राक्षस का वध किया था, तब उन्होंने वीरकुमारों को वचन दिया था कि वे हर वर्ष चैत्र मास में पृथ्वी पर लौटकर अपने भक्तों को दर्शन देंगी। उसी वचन की पूर्ति के रूप में यह करगा उत्सव मनाया जाता है।
11 दिनों तक चलने वाले इस त्योहार में देवी की मूर्ति को मिट्टी के करगा-पॉट में स्थापित किया जाता है और फिर करगा वाहक पूरी रात उस पाट को अपने सिर पर रखकर बेंगलुरु के पुराने हिस्सों में शोभायात्रा निकालते हैं। इस जुलूस में हजारों श्रद्धालु शामिल होते हैं। इसे देवी की विजय-यात्रा माना जाता है।
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करगा उत्सव की मान्यता
करगा उत्सव कर्नाटक के बेंगलुरु (विशेष रूप से पुराने पेटे क्षेत्र) में थिगला समुदाय के लोगों के जरिए मनाया जाने वाला एक प्रमुख सामाजिक-धार्मिक पर्व है। यह त्योहार मुख्य रूप से देवी द्रौपदी (जिसे करगा पोट द्वारा प्रतीक रूप में धारण किया जाता है) और उनके जरिए बुराई पर विजय के कथा-सिंहावलोकन पर आधारित है।
थिगला समुदाय के लिए क्यों विशेष है करगा?
- थिगला समुदाय स्वयं को वीरकुमारों का वंशज मानता है, जिन्होंने महाभारतकालीन द्रौपदी-राक्षस युद्ध में द्रौपदी की सहायता की थी।
- इस समुदाय का मूल पेशा बागवानी और पेड़ लगाने का है, इसलिए इसका जुड़ाव प्रकृति, जलाशयों और शहर से भी है।
- करगा के माध्यम से थिगला-समुदाय अपनी सांस्कृतिक पहचान, सामाजिक एकता और धार्मिक प्रतिबद्धता को सदियों से व्यक्त करता आ रहा है।
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करगा से जुड़ी पौराणिक कथा
कहानी के अनुसार, जब पांडव और द्रौपदी स्वर्ग की ओर जा रहे थे, तब एक राक्षस तिमिरासुर द्रौपदी को ललकारता है। द्रौपदी अपनी दिव्य शक्ति (आदि शक्ति) का रूप धारण करती है, वीरकुमारों को उत्पन्न करती है और राक्षस का नाश करती है। युद्ध के बाद वीरकुमारों ने उनसे निवेदन किया कि वह उनके साथ बनी रहें। द्रौपदी ने वचन दिया कि वह हर वर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा से पूर्व तीन दिन के लिए पृथ्वी पर आएंगी। इस वचन-पूर्ति के रूप में करगा उत्सव मनाया जाता है।

करगा के हर दिन की विशेषता क्या है?
- प्रारंभिक दिवस (पहला दिन): ध्वजारोहन (झण्डा फहराना) से शुरुआत होती है।
- मध्य-दिन/रात में: षष्ठी से त्रयोदशी तक अलग-अलग मंदिरों, जलाशयों और गराड़ी गोदामों की तीर्थयात्रा और देवी की शुद्धि-यात्रा।
- हासी करगा (त्रयोदशी की रात): मुख्य अनुष्ठान जिसमें करगा-पॉट मृदा से तैयार किया जाता है और आस्था-यात्रा की शुरुआत होती है।
- पारंपरिक विरुद्धक्रीड़ा-पोंगल सेवा (चतुर्दशी दिन): इनमें मीठे चावल पकाने, दक्षिण-भारतीय गीत-कथा के साथ देवी की पूजा होती है।
- मुख्य शोभायात्रा (पूर्णिमा की रात): करगा-पॉट सिर पर लेकर पुरानी शहर की गलियों में रात भर जुलूस निकलता है।
- समापन-दिन: इस दिन हल्दी जल छिड़काव के साथ जश्न और झंडा उतारना।
