समय के साथ भाषा, रहन-सहन, खान-पान जैसी विभिन्न चीजों में बदलाव देखा गया है। इसका एक बड़ा कारण आधुनिकीकरण को दिया जाता है। साथ ही, भारतीय संस्कृति पर भी इसका प्रभाव बढ़ रहा है, और कई पुरानी परंपराओं को छोड़कर नए व सुविधाजनक तरीकों को अपनाया जा रहा है, जिसमें रहन-सहन से लेकर कपड़े पहनने के ढंग तक सभी चीजें शामिल हैं। हालांकि, जहां एक तरफ बदलते समय के साथ चीजें आसान हो रही हैं, वहीं दूसरी तरफ कुछ चिंताएं भी बढ़ रही हैं।

 

ऐसी ही एक चिंता, जो माता-पिता और बड़े बुजुर्गों की चर्चाओं में दिखाई देती है, वह है बच्चों में कम होते ‘संस्कार’। वास्तव में संस्कार का अर्थ क्या है? क्या केवल अच्छा व्यवहार करना ही अच्छे संस्कार की श्रेणी में आता है? इस पर हरिद्वार के प्रसिद्ध श्री भगवानदास आदर्श संस्कृत महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य डॉ. भोला झा ने प्रकाश डाला और बताया कि वास्तव में संस्कार क्या होते हैं और वर्तमान समय में उनका अभाव क्यों दिख रहा है।

पहले जानिए संस्कार का वास्तविक अर्थ क्या है?

डॉ. भोला झा बताते हैं, 'संस्कार का शाब्दिक अर्थ ‘शुद्धीकरण’ या 'सुधार’ है। यह मनुष्य के आचरण, चरित्र और विचारों को शुद्ध, उत्तम और सभ्य बनाने की प्रक्रिया को दर्शाता है। संस्कार व्यक्ति के जीवन की नींव होते हैं, जो उसे सही-गलत में भेद करने की क्षमता प्रदान करते हैं। हमारे विचार, वाणी और कर्म, सभी संस्कारों से प्रभावित होते हैं। अच्छे संस्कार बचपन में परिवार, समाज और शिक्षकों से प्राप्त होते हैं। ये संस्कार व्यक्ति को जीवन में कठिनाइयों का सामना करने, उचित निर्णय लेने और सफलता पाने में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। कुल मिलाकर, अच्छे संस्कार ही व्यक्ति को सच्चे अर्थों में श्रेष्ठ और आदर्श इंसान बनाते हैं।'

 

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वर्तमान और पहले के समय में कितना अंतर है?

इस विषय पर आचार्य भोला झा ने कहा, 'पहले के समय जो युवा व किशोर वर्ग में संस्कार दिखाई देते थे, वे अब लगभग विलुप्त हो गए हैं। वर्तमान समय में अनुशासन का अभाव हो रहा है, जो कि एक चिंता का विषय है। आजकल पढ़े-लिखे शिक्षित वर्ग यह मानते हैं कि पहले की पीढ़ी को किसी भी विषय का ज्ञान नहीं था। इसलिए वे अपने हिसाब से जीवनयापन कर रहे हैं, जिसका दुष्प्रभाव आज के समाज में दिखाई दे रहा है।'

 

उन्होंने आगे बताया, 'आज से 20-25 वर्ष पूर्व तक गांव अथवा शहरों में वृद्धजन दूसरों के बच्चों को भी अपना बच्चा समझते थे और सभी को उचित निर्देश देते थे। उनके सामने कोई भी बच्चा अनुचित व्यवहार नहीं कर सकता था। यह परंपरा लंबे समय से चली आ रही थी, लेकिन आज के समय में किसी को भी उचित या अनुचित बात के लिए टोकना मुश्किल हो गया है। यदि कोई कुछ कहता भी है, तो बच्चों के साथ माता-पिता भी इसे बुरा मानते हैं। इसमें सबसे अधिक अनुशासन का अभाव दिखाई देता है।'

क्या पूजा-पाठ करना ही अच्छे संस्कार का प्रतीक है?

डॉ. भोला झा ने बताया, 'वर्तमान समय में अधिकांश जगहों पर पूजा-पाठ पारंपरिक पद्धति के अनुसार नहीं हो रहा है। कुछ चयनित लोग ही वास्तव में प्राचीन विधि से पूजा-पाठ करते हैं। अब अधिकतर पूजा-पाठ तभी किया जाता है, जब कोई मनोकामना हो। यह स्वार्थ तक ही सीमित रह गया है, और भगवान से कुछ मांगने के लिए ही पूजा-पाठ का सहारा लिया जा रहा है।'

 

वह आगे बताते हैं, 'वास्तविक पूजा वही होती है, जो बिना किसी लोभ, स्वार्थ और निष्काम भाव से की जाए। इसके साथ ही, कई भ्रांतियां भी प्रचलन में आ रही हैं, जिनके कारण समाज और परिवार विखंडित हो रहे हैं। जो समर्पण भाव पहले था, वह आज के समय में नहीं रह गया है। साथ ही, पश्चिमी प्रभाव भी बढ़ रहा है, जो संस्कारों के अभाव का बड़ा कारण है। संस्कार बच्चों को अपने माता-पिता से प्राप्त होते हैं। वहीं, वर्तमान समय में चल रही शिक्षा प्रणाली को भी थोड़ा दोष दिया जा सकता है। पहले विद्यालय शिक्षा और संस्कार देने के लिए होते थे, लेकिन अब सिर्फ किताबी ज्ञान पर अधिक जोर दिया जा रहा है। शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है, जिसका प्रभाव संस्कृति और संस्कारों पर पड़ रहा है।'

 

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वर्तमान समय में बच्चों में संस्कारों को कैसे बढ़ावा दें?

इस विषय पर उन्होंने कहा, 'बीते समय में समाज के विद्वान लोग मिल-बैठकर विभिन्न विषयों पर चिंतन करते थे। इन्हीं विषयों पर चर्चा के लिए कुंभ और धार्मिक मेलों का आयोजन किया जाता था, जहां देश के विभिन्न कोनों से सभी वर्गों के लोग और साधु-संत एकत्र होते थे। वे चिंतन-मनन करते थे कि समाज में कौन से दोष बढ़ रहे हैं और उन्हें दूर करने की क्या आवश्यकता है। साथ ही, युवा और समाज को सही मार्गदर्शन कैसे मिले, इस पर भी चर्चा होती थी।'

 

अच्छे संस्कार कैसे प्राप्त हों, इस पर सुझाव देते हुए डॉ. झा ने कहा, 'इसके लिए सरकार को भी सामने आना होगा कि देश के युवाओं में संस्कारों के अभाव को कैसे दूर किया जाए, ताकि देश समृद्धि के मार्ग पर आगे बढ़ता रहे। प्राचीन समय में ऋषि-मुनि और राजा, आदेशों का पालन करते थे, जिसमें युवाओं में संस्कारों को बढ़ावा देना भी शामिल था। इसलिए, अच्छे संस्कारों के लिए बच्चों को अनुशासन सिखाने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। साथ ही, धर्म का पालन करना भी आवश्यक है।'

 

उन्होंने धर्म का अर्थ बताते हुए कहा, 'धर्म का अर्थ है, समाज के द्वारा जिसे धारण किया जाता है—‘धारयति यः धर्मः’। इसके साथ जो ध्यान-उपासना को धारण करता है, उसे संप्रदाय कहा जाता है। संप्रदाय के अनुसार जो चलता है, उसे सांप्रदायिक कहा जाता है। यह बहुत ही अच्छा शब्द है, जिसे आज के समय में नकारात्मक बना दिया गया है। अच्छे संस्कारों के लिए इन सभी आचरणों का पालन करना बहुत आवश्यक है।'

शास्त्रों में संस्कारों के विषय में क्या कहा गया है?

संस्कारों के विषय पर आचार्य श्याम चंद्र मिश्र से बात करते हुए शास्त्रों में वर्णित विभिन्न श्लोक और नीतियों के बारे ने विस्तार से पता चला। आचार्य मिश्र ने बताया कि महाभारत में विदुर नीति और भीष्म के उपदेशों में संस्कारों का विशेष वर्णन मिलता है। इसमें कहा गया है कि एक व्यक्ति का असली धन उसका आचरण और संस्कार होते हैं, न कि उसकी संपत्ति या शक्ति।

 

आचारः परमं धर्मः श्रुतिः आचारसम्भवः।
यतोऽधर्मो विनश्यन्ति यत्राचारः प्रतिष्ठितः।।'

 

इसका अर्थ है कि आचरण ही सबसे बड़ा धर्म है और ज्ञान का मूल भी आचरण से ही उत्पन्न होता है। जिस समाज में अच्छे आचरण और संस्कार होते हैं, वहां अधर्म नष्ट हो जाता है।  इसके साथ महाभारत में भगवान श्री कृष्ण ने भी अर्जुन को बताया कि व्यक्ति के संस्कार ही उसे महान बनाते हैं और जो धर्म के मार्ग पर चलता है, वही सच्चा मानव कहलाता है।

 

आचार्य मिश्र आगे बताते हैं कि रामायण में भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है क्योंकि उन्होंने जीवनभर उच्चतम संस्कारों का पालन किया। उन्होंने माता-पिता की आज्ञा का पालन, धैर्य, क्षमा, करुणा और प्रजा के प्रति कर्तव्य को सर्वोपरि रखा। इसके लिए श्लोक भी वर्णित है, जिसमें कहा गया है कि

 

पितृ मातृ वचः सत्यं कृतज्ञत्वं तपः शमः।
एष धर्मः परो लोके यस्य नास्ति स दुर्मतिः।।

 

जिसका अर्थ ही कि माता-पिता की आज्ञा मानना, कृतज्ञता रखना, संयम और तपस्या करना- ये सभी श्रेष्ठ संस्कार हैं। जिनके पास ये नहीं होते, वे दुर्बुद्धि कहलाते हैं। साथ ही आचार्य मिश्र ने बताया कि पुराणों में सोलह संस्कारों का वर्णन मिलता है, जो व्यक्ति के जीवन को पवित्र और उन्नत बनाते हैं। संस्कार जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति के जीवन को सही दिशा प्रदान करते हैं।  गरुड़ पुराण में भी एक श्लोक में कहा गया है कि-

 

शौचं दया तपः सत्यं क्षमा धृति: श्रद्धया दमः।
अहिंसा चैव नृणां धर्मः सर्वेषामुदितः श्रुति:।।'

 

जिसका अर्थ है कि शुद्धता, दया, तपस्या, सत्य, क्षमा, धैर्य, श्रद्धा, संयम और अहिंसा—ये सभी मनुष्य के श्रेष्ठ संस्कार हैं और इन्हें धारण करना ही सच्चा धर्म है। इसलिए व्यक्ति को अपने आचरण को शुद्ध और सात्विक रखना चाहिए।