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जीवित समाधि से महासमाधि तक, कैसे शरीर त्यागते हैं संत?

साधु-संतों के जीवन में समाधि को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। आइए जानते हैं, कितने प्रकार की होती है समाधि, इसकी प्रक्रिया और इससे जुड़ी मान्यताएं।

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कुंभ में समाधी अवस्था में साधु।(Photo Credit: @BharathMuthya/X)

साधु-संतों के जीवन में समाधि का विशेष महत्व होता है। यह न केवल उनकी आध्यात्मिक यात्रा का अंतिम चरण होता है, बल्कि यह उनके जीवन के उद्देश्य और साधना का प्रतीक भी होता है। बता दें कि समाधि के कई अर्थ हैं लेकिन साधु या संतों के संदर्भ में इसका मतलब होता है उनके भौतिक शरीर को त्यागने की प्रक्रिया। यह सामान्य मृत्यु से अलग होती है क्योंकि इसे एक प्रक्रिया मानी जाती है।

 

समाधि की प्रक्रिया अत्यंत पवित्र मानी जाती है और इसे ध्यान, तपस्या व ध्यान की उच्च अवस्था के बाद प्राप्त किया जाता है। जब कोई साधु या संत समाधि लेने का निर्णय करता है, तो उसे एक विशेष प्रक्रिया के तहत पूरा किया जाता है। साधारण रूप से जब कोई साधु-सन्यासी को यह अनुभव हो जाता है कि उनका सांसारिक कार्य पूरा हो चुका है और भगवान की शरण में जाने के लिए तैयार हैं, तो वह समाधि लेने का संकेत अपने शिष्यों या अनुयायियों को देते हैं।

 

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समाधि के प्रमुख प्रकार होते हैं

जीवित समाधि: इसमें साधु अपने जीवनकाल में ही समाधि लेने का निर्णय लेते हैं और ध्यान की गहन अवस्था में जाकर धीरे-धीरे अपने प्राण त्याग देते हैं। जीवित समाधि के दौरान संत अपने शरीर को किसी विशेष मुद्रा में स्थिर रखते हैं और सांसारिक चेतना से ऊपर उठ जाते हैं। यह प्रक्रिया पूर्ण रूप से नियंत्रित और स्वेच्छिक होती है। जीवित समाधि के स्थानों को तीर्थस्थल का दर्जा दिया जाता है।

 

महासमाधि: यह वह अवस्था है जब कोई सिद्ध योगी या संत अपने जीवन के अंतिम क्षणों में पूर्ण आत्मज्ञान की स्थिति में पहुंचकर शरीर का त्याग करता है। इसे साधारण मृत्यु से अलग माना जाता है क्योंकि यह पूरी तरह से चेतन अवस्था में होता है। महासमाधि लेने वाले साधु-संत अपने शिष्यों को पूर्व सूचना देकर अपने अंतिम समय की तैयारी करते हैं। यह योग साधना की अंतिम अवस्था मानी जाती है।

 

अचल समाधि: इसमें संत या साधु के शरीर को सुरक्षित रूप से समाधि स्थल पर रखा जाता है। इस प्रकार की समाधि में यह मान्यता होती है कि संत का आध्यात्मिक प्रभाव और ऊर्जा समाधि स्थल पर बनी रहती है, जिससे श्रद्धालुओं को आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होता है।

 

निर्जीव समाधि: जब किसी संत का सामान्य रूप से देहांत हो जाता है, तो उनके शरीर को धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार समाधि दी जाती है। इसे सामान्य मृत्यु से अलग नहीं माना जाता लेकन संत के जीवन के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए इस अनुष्ठान को किया जाता यही ।

 

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समाधी के समय किया जाता है ये अनुष्ठान

समाधि की प्रक्रिया के दौरान कुछ विशेष अनुष्ठान और नियमों का पालन किया जाता है। सबसे पहले, सन्यासी के पार्थिव शरीर को पवित्र जल से स्नान कराया जाता है और उन्हें नए और साफ वस्त्र पहनाए जाते हैं। इसके बाद, शरीर को ध्यान मुद्रा या विशेष योगिक मुद्रा में बिठाया जाता है। समाधि स्थल का चयन भी बहुत महत्वपूर्ण होता है, अक्सर यह किसी शांत, पवित्र और प्राकृतिक स्थान पर होता है। समाधि स्थल को सजाने और वहां वातावरण को शुद्ध रखने के लिए धूप, दीप और मंत्रोच्चारण किया जाता है।

 

समाधि स्थल को बाद में एक धार्मिक स्थल के रूप में विकसित किया जाता है, जहां श्रद्धालु दर्शन और प्रार्थना के लिए आते हैं। ऐसे स्थलों को 'समाधि स्थल' या 'मठ' कहा जाता है। भारत में अनेक प्रसिद्ध समाधि स्थल हैं, जैसे कि महाराष्ट्र के शिर्डी में साईं बाबा की समाधि, ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद की समाधि, और तिरुवनंतपुरम में श्री नारायण गुरु की समाधि।

समाधी से जुड़ी मान्यताएं

समाधि के पीछे यह मान्यता है कि संत अपने शरीर को त्यागकर परमात्मा में शरण में जा चुके हैं समाधि स्थल पर जाकर कई लोग न केवल आध्यात्मिक शांति प्राप्त करते हैं, बल्कि अपने जीवन के उद्देश्यों को समझने की दिशा में भी प्रेरित होते हैं। समाधि लेना एक सन्यासी के जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य माना जाता है। इसे न सिर्फ उनके भगवत प्राप्ति का संकेत माना जाता है, बल्कि यह उनकी साधना के सफल होने का प्रमाण होता है।

 

Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारी सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं। Khabargaon इसकी पुष्टि नहीं करता।

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