सनातन धर्म और विशेष रूप से सन्यास परंपरा में नागा साधु एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नागा साधुओं का जीवन आम साधु-संतों के जीवन से बहुत अलग होता है। ये साधु विशेष रूप से कुंभ मेलों में बड़ी संख्या में दिखाई देते हैं, जहां वे आकर्षण का प्रमुख केंद्र होते हैं।

 

13 जनवरी से प्रयागराज में महाकुंभ मेले का आयोजन होने जा रहा है। यह कुंभ मेला 12 वर्षों के बाद आयोजित होगा और आस्था के इस महा आयोजन में नागा साधुओं के आने का क्रम भी शुरू हो चुका है। विभिन्न अखाड़ों के ये नागा साधु कुंभ में निर्वस्त्र रहकर और शरीर पर भस्म की धुनि रमाकर रहते हैं और शाही स्नान करते हैं। हालांकि, कई लोगों के मन में ये सवाल रहता है कि कुंभ से पहले या इसके बाद ये साधु कहां रहते हैं और उनकी जीवनशैली कैसी होती है? आइए जानते हैं कुंभ से पहले नागा साधुओं का निवास स्थान, जीवनशैली और क्या ये हमेशा निर्वस्त्र रहते हैं।

नागा साधुओं का निवास

नागा साधु सामान्य रूप से हिमालय के दुर्गम क्षेत्र, गुफाओं, जंगलों और तीर्थस्थलों पर रहते हैं। उनके निवास स्थानों का चयन उनके कठोर तप और साधना के अनुकूल होता है। नागा साधु समाज और सांसारिक जीवन से पूरी तरह दूर रहते हैं। वे अपनी दिनचर्या को साधना, योग और ध्यान में समर्पित करते हैं। शहरी या ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति बहुत कम होती है।

 

कुंभ से पहले, नागा साधु अखाड़ों में रहते हैं, जो साधुओं के संगठन होते हैं। यह उनके आध्यात्मिक, सामाजिक और शारीरिक प्रशिक्षण का केंद्र होते हैं।

 

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भारत में मुख्य रूप से 13 अखाड़े हैं और प्रत्येक अखाड़े का एक अपना विशेष महत्व और अनुशासन होता है। नागा साधु इन्हीं अखाड़ों में रहकर योग, ध्यान, वेद अध्ययन और शस्त्र विद्या का अभ्यास करते हैं। बता दें कि सबसे अधिक नागा साधुओं की संख्या भारत के सबसे प्राचीन अखाड़ा जूना अखाड़े में है। हालांकि, समय के साथ-साथ अब कई शाखाएं बनाई गई हैं, जहां पर यह साधु शस्त्र और शास्त्र विद्या लेते हैं। हिमालय के दुर्गम इलाकों के साथ-साथ नागा साधु देश बने विभिन्न आश्रमों में गोपनीय रूप से रहते हैं और लोगों के सामने अधिक नहीं आते हैं।

नागाओं के निर्वस्त्र रहने की परंपरा

नागा साधु निर्वस्त्र रहने के लिए जाने जाते हैं, जो उनकी वैराग्य और सांसारिक मोह से मुक्ति का प्रतीक है। ‘नागा’ का अर्थ होता है नग्न होता है और यह नाम उनके त्याग और तपस्या को दर्शाता है। उनका निर्वस्त्र रहना इस बात का प्रतीक है कि उन्होंने संसार के सभी भौतिक बंधनों और मोह-माया को त्याग दिया है। हालांकि, कुछ साधु शरीर पर भभूत (राख) लगाते हैं, जो उनकी आध्यात्मिक शक्ति और साधना का हिस्सा है। भभूत उन्हें गर्मी, ठंड और अन्य प्राकृतिक चुनौतियों से बचाने में भी सहायक होती है।

 

यह ध्यान देने योग्य है कि नागा साधु हमेशा निर्वस्त्र नहीं रहते। कुंभ जैसे बड़े धार्मिक आयोजनों और विशेष अवसरों पर वे निर्वस्त्र होकर अपनी परंपरा का पालन करते हैं। अन्य समय में, वे आवश्यकता के अनुसार वस्त्र धारण कर सकते हैं। यह उनकी साधना और परिस्थिति पर निर्भर करता है।

 

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कैसा होता है नागा साधुओं का जीवन?

नागा साधु बनने की प्रक्रिया भी अपने आप में एक तपस्या है। व्यक्ति को नागा साधु बनने के लिए पहले गुरु शिष्य परंपरा का पालन करना पड़ता है। इसके साथ उन्हें कुछ वर्षों तक ब्रह्मचर्य, कठोर अनुशासन और भिक्षा से मिले भोजन को ग्रहण करना पड़ता है। इसके बाद ही उन्हें गुरु के द्वारा दीक्षा प्राप्त होती है और वह नागा साधु बनते हैं।

 

ऐसा नहीं है कि सिर्फ अखाड़ों में ही नागा साधुओं को दीक्षा दी जाती है, बल्कि कुंभ के दौरान भी नागा साधुओं को दीक्षा प्राप्त होती है और वह अपने साधु जीवन की शुरुआत करते हैं। बता दें कि हरिद्वार के कुंभ में बने नागा साधुओं को बर्फानी नागा, प्रयागराज कुंभ में जिन्हें दीक्षा मिलती है उन्हें नागा, उज्जैन के साधुओं को खूनी नागा और नासिक कुंभ में जिन नागा साधुओं दीक्षा प्राप्त हुई, उन्हें खिचड़िया नागा के नाम से जानते हैं।

 

इसके साथ नागा साधुओं को पदवी भी मिलती है, जिनमें- कोतवाल, पुजारी, बड़ा कोटलवाल, कोठारी, बड़ा कोठारी, भंडारी, महंत और सचिव शामिल हैं। नागा साधु साधना के साथ-साथ युद्ध कला में भी निपुण होते हैं। इतिहास के पन्नों में नागा साधुओं के पराक्रम के कई कथाएं दर्ज हैं। जिनमें से एक करीब 1666 में हुए हरिद्वार कुंभ से जुड़ा हुआ है। इस दौरान औरंजेब की सेना ने आक्रमण किया था। उस समय नागा साधुओं ने भी युद्ध में हिस्सा लिया था और अपने प्राणों को न्योछावर कर धर्म की रक्षा की थी।

 

वहीं तैमूर ने भी कुंभ के दौरान आक्रमण किया था और समय कई हजारों कि संख्या में नागा साधुओं ने मोर्चा संभाला था। हालांकि आजादी के बाद से नागा साधुओं ने युद्ध में हिस्सा न बनने का फैसला किया। ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय सेना के पास इसकी जिम्मेदारी है लेकिन आज भी उन्हें शस्त्र विद्या दी जाती है।