मुंबई के विलेपार्ले में स्थित 90 साल पुराने पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर को BMC 16 अप्रैल को ढहा दिया। जिसके बाद जैन समाज में इस कार्रवाई पर गुस्से का माहौल है। जैन धर्म के इतिहास में भगवान पार्श्वनाथ का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। वह दिगंबर संप्रदाय के 23वें तीर्थंकर थे और महावीर स्वामी से लगभग 250 वर्ष पहले इस धरती पर जन्मे थे। उन्होंने अहिंसा, तप और सत्य के मार्ग पर चलते हुए आत्मज्ञान प्राप्त किया और लोगों को मोक्ष का मार्ग दिखाया।

कौन थे भगवान पार्श्वनाथ?

भगवान पार्श्वनाथ का जन्म लगभग 877 ईसा पूर्व में हुआ था। उनका जन्म स्थान वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में माना जाता है। उनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामादेवी था। उनका परिवार एक समृद्ध और प्रभावशाली क्षत्रिय कुल से था। पार्श्वनाथ बचपन से ही बहुत तेजस्वी, शांत स्वभाव और धर्म की ओर झुकाव रखने वाले बालक थे।

 

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शिक्षा और आरंभिक जीवन

राजपरिवार में जन्म लेने की वजह से पार्श्वनाथ को अच्छी शिक्षा मिली। उन्होंने वेद, दर्शन, राजनीति, युद्धकला आदि विषयों में दक्षता प्राप्त की। हालांकि उनका मन सांसारिक सुखों की बजाय अध्यात्म में अधिक लगता था। कहा जाता है कि एक बार उन्होंने एक तपस्वी को देखा जो हवन में लकड़ी जला रहा था। पार्श्वनाथ ने उसमें से एक जीवित नाग को बचाया। बाद में वही नाग धरणेन्द्र, जो जैन धर्म में देवता हैं, जिन्हें पद्मावती देवी के साथ एक साथ पूजते हैं, के रूप में उनकी साधना में सहायक बना।

संन्यास और तपस्या का मार्ग

जब पार्श्वनाथ की उम्र लगभग 30 वर्ष हुई, तब उन्होंने सांसारिक जीवन को त्याग कर दीक्षा ली और सन्यास धारण किया। इसके बाद वह वर्षों तक जंगलों और पर्वतों में घोर तपस्या करते रहे। उन्होंने कठोर साधना की, बिना वस्त्रों के दिगंबर रूप में विहार किया और कई कठिनाइयों का सामना करते हुए अपनी आत्मा को शुद्ध किया।

 

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केवलज्ञान की प्राप्ति

लगभग 83 दिन की तपस्या के बाद, पार्श्वनाथ को केवलज्ञान (परम ज्ञान) प्राप्त हुआ। उन्होंने समझ लिया कि आत्मा और शरीर अलग हैं, और जीवन-मरण का चक्र केवल कर्मों के बंधन के कारण होता है। केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद वह तीर्थंकर कहलाए और लोगों को धर्म का उपदेश दिया। पार्श्वनाथ ने जो चार मुख्य सिद्धांत बताए, वे आज भी जैन धर्म के मूल आधार हैं:

 

अहिंसा – किसी भी जीव को कष्ट न देना

सत्य – हमेशा सच बोलना

अस्तेय – बिना अनुमति किसी वस्तु को न लेना

अपरिग्रह – संग्रह न करना

 

इन चार नियमों को बाद में महावीर स्वामी ने पांचवां सिद्धांत ब्रह्मचर्य जोड़कर विस्तार दिया। जीवन के अंतिम वर्षों में भगवान पार्श्वनाथ ने गहन साधना के माध्यम से अपने सारे कर्मों का नाश कर लिया। अंत में उन्होंने सम्मेद शिखर (झारखंड में स्थित) नाम के पर्वत पर समाधि ली और यह स्थान आज जैन धर्म का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है।