राजा परीक्षित के अंतिम सात दिनों की यात्रा, पुराणों में वर्णित एक अत्यंत गूढ़ और मार्मिक प्रसंग है। यह सिर्फ मृत्यु का इंतजार नहीं था, बल्कि आत्मा की गहराई तक उतरने, जीवन को समझने और मोक्ष की ओर बढ़ने की चेतना का समय था। इस यात्रा के मार्गदर्शक बने स्वयं वेद-वेदांग के मर्मज्ञ ऋषि श्री शुकदेव जी, जिन्होंने भागवत पुराण का दिव्य ज्ञान राजा परीक्षित को सुनाया।

 

राजा परीक्षित, अर्जुन के पौत्र और अभिमन्यु के पुत्र थे। एक बार उन्होंने तप में लीन एक ऋषि के गले में मृत सर्प डाल दिया, यह समझे बिना कि ऋषि समाधि में हैं। जब यह बात ऋषि के पुत्र श्रृंगी को पता चली, तो उन्होंने क्रोध में आकर राजा को सातवें दिन तक्षक नाग के काटने से मृत्यु का श्राप दे दिया।

राजा परीक्षित को शाप और जीवन का अंतिम समय

राजा परीक्षित को जब इस श्राप का पता चला, तो उन्होंने अपना सिंहासन छोड़ दिया और नदी के किनारे कुशा का आसन बिछाकर ध्यानमग्न हो गए। उन्होंने सोचा, 'अब जीवन के शेष दिन व्यर्थ नहीं जाने दूंगा, बल्कि आत्मा और ब्रह्म को जानने की कोशिश करूंगा।'

 

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शुकदेव जी का आगमन

इन्हीं विचारों में डूबे राजा के पास पहुंचे महामुनि शुकदेव, जो स्वयं ज्ञान के सागर थे। शुकदेव मात्र 16 वर्ष के बालक दिखाई देते थे लेकिन उनका वैराग्य और विवेक दिव्य था। राजा ने उन्हें प्रणाम कर पूछा, 'भगवन, अब जब मेरे जीवन के केवल सात दिन शेष हैं, तो मुझे बताइए- मनुष्य को क्या सुनना चाहिए, क्या स्मरण करना चाहिए, और क्या करना चाहिए ताकि आत्मा का कल्याण हो?' शुकदेव जी मुस्कराए और बोले, 'राजन्, यह समय मृत्यु से नहीं, अमरत्व की यात्रा से जुड़ा है। तुम सौभाग्यशाली हो कि मृत्यु का समय निश्चित है, अब तुम परम सत्य को समझ सकते हो।'

प्रथम दिन: संसार की अस्थिरता और ईश्वर की अनंतता

पहले दिन शुकदेव जी ने संसार की अस्थिरता बताई। उन्होंने कहा, 'यह शरीर नश्वर है, इसे तुमने अर्जित किया है लेकिन यह तुम्हारा नहीं है। आत्मा इस शरीर की सवारी है, जो जन्म और मृत्यु से परे है। जो स्वयं को केवल शरीर समझता है, वह अज्ञान में है।'

दूसरा दिन: श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन

दूसरे दिन उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं और उनके चरित्र का वर्णन किया। उन्होंने बताया कि कैसे भगवान स्वयं इस पृथ्वी पर अवतरित होकर धर्म की स्थापना करते हैं। शुकदेव जी ने कहा, 'जो श्रीकृष्ण के नाम, रूप और लीलाओं को सुनता है, उसका चित्त निर्मल हो जाता है और उसे मोक्ष प्राप्त होता है।'

तीसरे से पांचवें दिन: विविध अवतार, भक्ति और धर्म की कथा

इन दिनों में शुकदेव जी ने विष्णु के दशावतार, प्रह्लाद चरित्र, ध्रुव कथा, भरत और जड़ भरत की कथा, ऋषियों के उपदेश जैसे प्रसंग सुनाए। उन्होंने बार-बार यह बताया कि 'भक्ति ही एकमात्र ऐसा मार्ग है जो आत्मा को ब्रह्म से जोड़ता है।'

 

उन्होंने कहा, 'जिस प्रकार दीपक अंधकार में प्रकाश देता है, उसी प्रकार ईश्वर का स्मरण अज्ञान के अंधकार को नष्ट करता है।'

छठे दिन: आत्मा, पुनर्जन्म और कर्म का रहस्य

छठे दिन उन्होंने आत्मा की गहराई से व्याख्या की। उन्होंने कहा, 'आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है। वह केवल विभिन्न शरीरों में यात्रा करती है। मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार नया शरीर प्राप्त करता है। इसलिए यह जानना आवश्यक है कि कर्म और विचार दोनों ही आत्मा की दिशा तय करते हैं।'

 

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सातवें दिन: श्रीनारायण की महिमा और मोक्ष का मार्ग

सातवें और अंतिम दिन शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को भगवदधाम का वर्णन किया। उन्होंने बताया कि मृत्यु कोई अंत नहीं, बल्कि आत्मा के लिए नया आरंभ है। 'अंतिम समय में यदि कोई ईश्वर का नाम लेता है, तो वह जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है।'

 

राजा परीक्षित ने संपूर्ण सात दिन केवल भगवान की कथा, ध्यान और नाम-स्मरण में बिताए। उनका मन मृत्यु का भय छोड़ चुका था। अंतिम दिन, जब तक्षक नाग आया, तो राजा ध्यान में लीन थे। उन्होंने मुस्कराकर ईश्वर का नाम लिया और शरीर त्याग दिया।

जीवन और अध्यात्म का संदेश

यह प्रसंग केवल राजा परीक्षित की मृत्यु की कथा नहीं है, बल्कि हर मनुष्य के जीवन की दिशा का संकेत है। शुकदेव जी ने यह स्पष्ट किया कि जीवन चाहे जितना छोटा हो, यदि वह ईश्वर की स्मृति, भक्ति और सत्य ज्ञान में बीते, तो वह जीवन सफल होता है।

 

इस कथा में न केवल दर्शन है, बल्कि यह बताता है कि मृत्यु का भय केवल तब तक है जब तक हम स्वयं को शरीर समझते हैं। जैसे ही हम आत्मा का अनुभव करते हैं, मृत्यु एक मोक्षद्वार बन जाती है।