बात है तेरहवीं सदी की। उड़ीसा जिसे अब ओड़िशा कहते हैं उसके तट पर समंदर की लहरें शोर मचा रही थीं। काले घने बादल आसमान में ऐसे मंडरा रहे थे, मानो कोई बड़ी आफत आने वाली हो। और आफत भी वाकई बड़ी थी। पिछले 12 साल से, 1200 कारीगर दिन-रात एक करके एक ऐसा मंदिर बना रहे थे, जो पहले कभी किसी ने न देखा हो और ना ही सुना हो। सूर्य देवता का एक जीता-जागता रथ, जो पत्थर से बना था लेकिन अब काम एक ऐसी जगह अटक गया था, जहां से आगे बढ़ना नामुमकिन लग रहा था। मंदिर का सबसे ऊंचा हिस्सा, उसका भव्य शिखर, जिसे 'अमलका' कहते हैं, वह अपनी जगह पर बैठ ही नहीं पा रहा था। मंदिर के मुख्य वास्तुकार, बिशु महाराणा की चिंता बढ़ती जा रही थी। राजा नरसिंहदेव का हुक्म था कि काम जल्द से जल्द पूरा हो। अगर ऐसा नहीं हुआ तो उन 1200 कारीगरों की जान खतरे में पड़ सकती थी, वे कारीगर जिन्होंने अपनी जिंदगी के बारह साल इस मंदिर को दिए थे।
रात का अंधेरा और गहरा होता जा रहा था। समंदर का शोर भी बढ़ रहा था, मानो वह भी राजा के गुस्से की गवाही दे रहा हो। तभी, उस तूफानी रात में, एक नौजवान परछाई मंदिर के शिखर की तरफ बढ़ती दिखी। उसकी आंखों में एक अजीब सी चमक थी और चाल में गजब की तेजी। वह कोई और नहीं बल्कि बिशु महाराणा का ही बारह साल का बेटा था- धरमपद। धरमपद सालों पहले घर छोड़कर चला गया था। आज जब वह लौटा, तो उसने देखा कि उसके पिता और बाकी कारीगर किस मुश्किल में हैं। वह चुपचाप मंदिर की चोटी पर चढ़ गया। उसने कुछ गणनाएं की, कुछ पत्थरों को इधर-उधर किया और देखते ही देखते, उसने वह भारी पत्थर, वह अमलका, अपनी सही जगह पर टिका दिया।
नीचे खड़े सब कारीगर हैरान रह गए। यह एक चमत्कार था। बिशु महाराणा की आंखों में खुशी के आंसू थे लेकिन धरमपद के चेहरे पर अब चिंता की लकीरें थीं। वह जानता था कि अगर राजा को पता चला कि एक बारह साल के लड़के ने वह कर दिखाया जो बड़े-बड़े महारथी नहीं कर पाए तो उन 1200 कारीगरों की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी और हो सकता है राजा गुस्से में उन्हें कोई सज़ा दे दे।
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कहते हैं, अपने पिता और उन हजारों कारीगरों की इज्जत और जान बचाने के लिए, उसी रात, धरमपद ने मंदिर के शिखर से अंधेरे समंदर में छलांग लगा दी। इसके बाद वह हमेशा के लिए लहरों में खो गया। यह लोककथा, जो आज भी ओडिशा के गांवों में सुनाई जाती है, वह उस महान मंदिर से जुड़ी है, जिसे हम कोणार्क के सूर्य मंदिर के नाम से जानते हैं। किसने बनवाया था यह अजूबा? क्या खासियत है इसकी? और आखिर इतना शानदार मंदिर एक खंडहर में कैसे बदल गया?
श्राप और सूर्य देव का वरदान
कोणार्क की कहानी सिर्फ इतिहास की किताबों में नहीं मिलती। इसकी जड़ें इससे भी ज्यादा गहरी हैं, इतनी गहरी कि ये हमें पुराणों के दौर में ले जाती हैं। पुराणों में एक कथा आती है - भगवान कृष्ण के पुत्र, साम्ब की। कंवर लाल अपनी किताब 'मिरेकल ऑफ कोणार्क' में इस कथा का विस्तार से वर्णन करते हैं। कहते हैं एक बार साम्ब ने ऋषि दुर्वासा का अपमान कर दिया। दुर्वासा ऋषि अपने गुस्से के लिए जाने जाते थे। उन्होंने आव देखा न ताव, साम्ब को श्राप दे दिया। श्राप यह कि साम्ब का खूबसूरत शरीर कोढ़ यानी कुष्ठ रोग से गल जाएगा। कुछ ही दिनों में श्राप का असर दिखने लगा। साम्ब का चमकता शरीर बदरंग होने लगा। वह उदास रहने लगे। तब भगवान कृष्ण ने उन्हें सलाह दी कि वह सूर्य देव की उपासना करें। सिर्फ सूर्य देव ही उन्हें इस रोग से मुक्ति दिला सकते हैं।
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साम्ब ने ठीक वैसा ही किया। वह महल छोड़कर चले गए और कई सालों तक सूर्य देव की कठिन तपस्या की। तपस्या के लिए साम्ब ने जिस जगह को चुना, वह थी चंद्रभागा नदी का तट। यह वही जगह है जहां आज कोणार्क मंदिर खड़ा है।
साम्ब से ही जुड़ी हुई एक और कहानी है। कहानी कुछ यूं है कि साम्ब को अपने रूप पर बहुत घमंड था। देवर्षि नारद, जो हमेशा अपनी लीलाओं के लिए जाने जाते हैं, उन्होंने साम्ब के इस घमंड को तोड़ने की सोची। नारद ने साम्ब को उकसाया कि वह जाकर कृष्ण की रानियों को उनके स्नान के समय देखें, जो उस वक्त निर्वस्त्र थीं। साम्ब, नारद की बातों में आ गए और उन्होंने ऐसा ही किया। जब भगवान कृष्ण को इस बात का पता चला तो वह बहुत क्रोधित हुए। उन्हें लगा कि उनके अपने ही बेटे ने उनके साथ विश्वासघात किया है। गुस्से में कृष्ण ने साम्ब को श्राप दे दिया कि उनका वह सुंदर शरीर, जिस पर उन्हें इतना घमंड है, वह कुष्ठ रोग यानी कोढ़ से गल जाएगा।
जब कृष्ण का गुस्सा शांत हुआ, तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ लेकिन श्राप वापस नहीं लिया जा सकता था। तब उन्होंने ही साम्ब को सलाह दी कि वह सूर्य देव की उपासना करें। साम्ब अपना राज-पाट छोड़कर चले गए और उन्होंने चंद्रभागा नदी के तट पर, जो उस समय समंदर के किनारे बहती थी, 12 वर्षों तक सूर्य देव की कठोर तपस्या की।
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एक दिन, जब साम्ब नदी में स्नान कर रहे थे, उन्हें पानी में सूर्य देव की सुनहरी झलक दिखाई दी। सूर्य देव उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए और उन्होंने साम्ब को उनके भयानक रोग से मुक्ति दे दी। इसके बाद साम्ब ने फैसला किया कि वह उसी स्थान पर सूर्य देव का एक ऐसा भव्य मंदिर बनवाएंगे, जैसा दुनिया में कहीं और न हो। कहते हैं, कोणार्क में सबसे पहला सूर्य मंदिर साम्ब ने ही बनवाया था और इसी पौराणिक कथा के कारण, यह जगह 'अर्क क्षेत्र' यानी सूर्य का क्षेत्र कहलाई और एक पवित्र तीर्थ स्थान बन गई।
राजा का भव्य सपना
पौराणिक कथाएं तो अपनी जगह हैं लेकिन आज हम जिस कोणार्क के सूर्य मंदिर को देखते हैं, उसकी कहानी हमें इतिहास के पन्नों पर मिलती है और इस कहानी का नायक है पूर्वी गंग वंश का एक बहुत ही बहादुर और कला-प्रेमी राजा - राजा नरसिंहदेव प्रथम। नरसिंहदेव ने ओडिशा पर तेरहवीं सदी में, सन 1238 से 1264 तक राज किया। नरसिंहदेव का दौर भारत के लिए एक बहुत ही उथल-पुथल का समय था। उत्तर भारत के बड़े हिस्से पर मुस्लिम शासकों का कब्जा हो चुका था और उनकी सेनाएं बंगाल तक पहुंच चुकी थीं। ऐसा लग रहा था कि अब ओडिशा की बारी है लेकिन नरसिंहदेव एक आम राजा नहीं थे। वह एक महान योद्धा थे। उन्होंने इंतजार करने के बजाय, खुद हमला करने की नीति अपनाई। अपनी छोटी सी सेना के साथ, उन्होंने बंगाल के शासकों पर कई बार हमले किए और उन्हें बुरी तरह हराया।
माना जाता है कि अपनी इन्हीं शानदार जीतों का जश्न मनाने और सूर्य देवता के प्रति अपनी कृतज्ञता दिखाने के लिए, उन्होंने कोणार्क में इतना विशाल और भव्य मंदिर बनवाने का फैसला किया। यह मंदिर सिर्फ एक पूजा स्थल नहीं था, बल्कि नरसिंहदेव की ताकत, उनकी जीत और उनके गौरव का प्रतीक था, एक कीर्ति-स्तंभ था।
यह मंदिर इतना शानदार था कि इसकी चर्चा सदियों तक होती रही। मुगल बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक, अबुल फ़ज़ल ने अपनी मशहूर किताब 'आइन-ए-अकबरी' में कोणार्क मंदिर के बारे में लिखा है। उन्होंने लिखा, 'जगन्नाथ के पास सूर्य को समर्पित एक मंदिर है। इसकी लागत प्रांत के बारह वर्षों के राजस्व से पूरी की गई थी। यहां तक कि जिनकी परख बहुत कठोर होती है और जिन्हें खुश करना मुश्किल होता है, वे भी इसे देखकर चकित रह जाते हैं।'
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अबुल फ़ज़ल ने यह भी लिखा कि उनके समय से लगभग 730 साल पहले राजा नरसिंह देव ने इस विशाल संरचना को पूरा किया था। हालांकि, ज़्यादातर इतिहासकार मानते हैं कि अबुल फ़ज़ल शायद किसी पुराने मंदिर की बात कर रहे होंगे क्योंकि सभी सबूत राजा नरसिंहदेव प्रथम को ही तेरहवीं सदी में इसका निर्माता बताते हैं।
बाद में जब अंग्रेज़ भारत आए तो वे भी इसकी कारीगरी देखकर दंग रह गए। जेम्स फर्ग्यूसन, जो भारतीय वास्तुकला के बड़े जानकार माने जाते हैं, उन्होंने कोणार्क की तारीफ में कहा था कि यह मंदिर अपनी बारीक नक्काशी और सुंदरता में पुरी और भुवनेश्वर के महान मंदिरों से भी कहीं ज़्यादा बढ़कर है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया था कि अपने आकार के हिसाब से यह दुनिया की सबसे ज़्यादा सजी हुई इमारत हो सकती है लेकिन एक सवाल कोणार्क के साथ हमेशा जुड़ा रहा - क्या यग मंदिर कभी पूरा भी हुआ था? कुछ लोगों का मानना है कि इसका शिखर इतना भारी और ऊंचा था कि कारीगर उसे कभी अपनी जगह पर स्थापित ही नहीं कर पाए। वहीं, यूरोपियन नैतिकता के चलते पर्सी ब्राउन जैसे कुछ ब्रिटिश विद्वानों का मानना था कि मंदिर में जिस तरह की कामुक मूर्तियां हैं, शायद उसी वजह से देवताओं ने इसे पूरा नहीं होने दिया और यह एक खंडहर में तब्दील हो गया।
सूर्य देव का चलता-फिरता रथ
कोणार्क मंदिर सिर्फ अपनी कहानियों के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी बेमिसाल वास्तुकला और मूर्तिकला के लिए दुनिया भर में मशहूर है। आज भी यह सोचना हैरान करता है कि लगभग 800 साल पहले, बिना किसी आधुनिक मशीन के कारीगरों ने इतने विशाल और भारी पत्थरों को कैसे काटा, कैसे तराशा और कैसे उन्हें सैकड़ों फीट की ऊंचाई तक पहुंचाया होगा।
इस मंदिर का डिज़ाइन ही अपने आप में एक अजूबा है। यह कोई आम मंदिर जैसा नहीं है। इसे बनाया गया है सूर्य देवता के एक विशाल रथ के रूप में। ऐसी कल्पना की गई है कि सूर्य देव खुद सात घोड़ों पर सवार होकर अपने विशाल रथ पर बैठकर आकाश में यात्रा कर रहे हैं।
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इस पत्थर के रथ में 24 बड़े-बड़े पहिए लगे हैं, हर तरफ बारह पहिए। ये पहिये सिर्फ सजावट नहीं हैं। माना जाता है कि ये चौबीस पहिये साल के चौबीस पखवाड़ों को दर्शाते हैं - यानी बारह कृष्ण पक्ष और बारह शुक्ल पक्ष। कुछ लोग इन्हें दिन के चौबीस घंटों का प्रतीक भी मानते हैं। हर पहिये का व्यास लगभग 10 फीट है और उस पर इतनी बारीक नक्काशी की गई है कि देखने वाला देखता रह जाए।
इन विशाल पहियों को खींचने के लिए, मंदिर के सामने सात शक्तिशाली घोड़ों की मूर्तियां बनाई गई हैं। ये सात घोड़े सप्ताह के सात दिनों के प्रतीक हैं। इन घोड़ों को इस तरह बनाया गया है मानो वे सच में पूरी ताकत से रथ को खींच रहे हों। अब अगर मंदिर की बनावट की बात करें, तो इसके मुख्य रूप से तीन बड़े हिस्से थे। सबसे आगे था 'नाट मंदिर', यानी नृत्य का हॉल, जिसकी छत अब नहीं है। यहां शायद देवता को प्रसन्न करने के लिए धार्मिक नृत्य और संगीत के कार्यक्रम होते होंगे। इसके बाद आता है 'जगमोहन', जो कि प्रार्थना करने का मुख्य हॉल था। आज भी यह हिस्सा काफी हद तक सही-सलामत है और इसकी दीवारों और छत पर की गई अद्भुत नक्काशी आज भी देखी जा सकती है।
सबसे आखिर में था मुख्य मंदिर, यानी 'गर्भगृह', जहां सूर्य देव की मुख्य मूर्ति स्थापित थीं। यह मंदिर का सबसे ऊंचा और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था, जिसका शिखर शायद 200 फीट से भी ऊंचा रहा होगा। अफसोस कि आज यह हिस्सा लगभग पूरी तरह टूट चुका है।
इस मंदिर की एक और खासियत है इसकी मूर्तिकला। ऐसा लगता है मानो पत्थर के कैनवास पर पूरी दुनिया की कहानी लिख दी गई हो। कंवर लाल लिखते हैं कि मंदिर की बाहरी दीवारों पर कोई भी ऐसी जगह नहीं है, जहां नक्काशी न की गई हो। यहां देवी-देवता हैं, इंसान हैं, जानवर हैं, पौराणिक जीव हैं, फूल-पत्तियां हैं। इन मूर्तियों का एक उद्देश्य यह दिखाना था कि सूर्य देव जब अपने रथ पर निकलते हैं तो वह पूरी दुनिया को देखते हैं - हर अच्छी-बुरी चीज, जीवन का हर रंग। इसीलिए मंदिर की दीवारों पर जीवन के हर पहलू को उकेरा गया है।
इस मंदिर को यूरोप के नाविक 'ब्लैक पैगोडा' के नाम से जानते थे क्योंकि समंदर से देखने पर इसका गहरा रंग और विशाल आकार एक पहचान चिह्न का काम करता था।
ब्लैक पैगोडा क्या है?
अब सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि इतना शानदार, इतना मजबूत और इतना भव्य मंदिर आखिर एक खंडहर में कैसे बदल गया? इसे लेकर कोई एक ठोस जवाब नहीं है, बल्कि कई अलग-अलग कहानियां और सिद्धांत हैं।
प्राकृतिक कारण: कुछ विद्वान मानते हैं कि मंदिर का मुख्य शिखर, जो बहुत ज्यादा ऊंचा और भारी था, वह शायद अपने ही बोझ से धीरे-धीरे धंस गया या गिर गया। यह भी हो सकता है कि इतने सालों में उसकी नींव कमजोर पड़ गई हो। समंदर के पास होने की वजह से इसे कई भयानक तूफानों और शायद भूकंप का भी सामना करना पड़ा होगा। बिजली गिरना भी इसके विनाश का एक कारण हो सकता है।
काला पहाड़ का आक्रमण: एक कहानी जो बहुत मशहूर है, वह है काला पहाड़ की। थॉमस डोनाल्डसन जैसे इतिहासकारों के अनुसार, मंदिर को जो नुकसान हुआ और उसकी जो आज की हालत है, उसे सोलहवीं सदी के अंत और सत्रहवीं सदी की शुरुआत के बीच का माना जा सकता है। उस समय के कुछ दस्तावेजों और मरम्मत के रिकॉर्ड से यह पता चलता है। इन रिकॉर्ड्स से यह भी पता चलता है कि सत्रहवीं सदी की शुरुआत में भी यह मंदिर पूजा का स्थल बना हुआ था।
काला पहाड़, जिसका असली नाम कालाचंद रॉय या राजिबलोचन भादुड़ी बताया जाता है, बंगाल सल्तनत का एक सेनापति था। कहानियों के अनुसार, वह पहले एक ब्राह्मण था, जिसने बाद में इस्लाम कबूल कर लिया था। उसने बंगाल के सुल्तान सुलेमान कर्रानी की बेटी से शादी करने के लिए या फिर ब्राह्मणों द्वारा बहिष्कृत किए जाने के बाद धर्म बदला था।
सुल्तान सुलेमान ने अपनी सल्तनत का विस्तार करने के लिए ओडिशा पर हमला करने के लिए अपनी सेना भेजी, जिसका नेतृत्व उसके बेटे बायजीद और सेनापति काला पहाड़ कर रहे थे। उन्होंने राजा मुकुंददेव को हराया और मार डाला। इसके बाद काला पहाड़ ने राज्य के अंदरूनी हिस्सों में जाकर काफी लूटपाट की और कई मंदिरों को तोड़ा। पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत में काला पहाड़ का नाम मंदिर तोड़ने वाले का पर्याय बन गया। कहा जाता है कि उसने पुरी के जगन्नाथ मंदिर, कोणार्क के सूर्य मंदिर और कामाख्या मंदिर जैसे कई प्रसिद्ध मंदिरों को नुकसान पहुंचाया था। हालांकि, कोणार्क को कितना और कैसे नुकसान हुआ, इस पर इतिहासकारों में मतभेद हैं लेकिन इस आक्रमण को भी मंदिर की बर्बादी का एक अहम कारण माना जाता है।
चुंबक का मिथक: एक और बहुत ही दिलचस्प कहानी है मंदिर के शिखर पर लगे एक शक्तिशाली चुंबक की। कंवर लाल अपनी किताब में इस लोककथा का जिक्र करते हैं। मान्यता थी कि मंदिर के मुख्य शिखर पर एक बहुत बड़ा और शक्तिशाली चुंबक लगा हुआ था। यह चुंबक इतना ताकतवर था कि जब भी कोई जहाज लोहे की कीलों के साथ पास से गुजरता तो यह उसे अपनी ओर खींच लेता था, जिससे जहाज किनारे से टकराकर टूट जाते थे। कहानी के अनुसार, इस मुसीबत से तंग आकर कुछ पुर्तगाली नाविकों ने किसी तरह उस चुंबक को मंदिर के शिखर से हटा दिया। जैसे ही चुंबक हटा, मंदिर के पत्थरों का संतुलन बिगड़ गया, जो शायद लोहे के क्लैंप और बीम के सहारे टिके हुए थे और देखते ही देखते मंदिर का मुख्य शिखर ढह गया। हालांकि, आज के इतिहासकार इस कहानी को सिर्फ एक दिलचस्प लोककथा ही मानते हैं क्योंकि इसका कोई वैज्ञानिक या ऐतिहासिक सबूत नहीं मिलता।
वजह चाहे जो भी रही हो, यह सच है कि आज कोणार्क का मुख्य मंदिर हमारे बीच नहीं है। सत्रहवीं सदी के आखिर में, मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगा खूबसूरत 'अरुण स्तंभ', जिस पर सूर्य देव के सारथी अरुण की मूर्ति है, उसे यहां से हटाकर पुरी के जगन्नाथ मंदिर के मुख्य द्वार पर लगा दिया गया। ये स्तंभ आज भी पुरी मंदिर की शोभा बढ़ा रहा है।