चेन्नई की एक शाम। श्मशान में चिताएं धधक रही हैं। धुएं की लकीरें आसमान को छू रही हैं और इस सब के बीच चल रहा है एक नृत्य। एक आदमी डमरू बजाकर ताल दे रहा है और उसके साथी घुंघरू बांधे नाच रहे हैं। यह सावुकूथु है- मृत्यु का नृत्य। इस नृत्य के साक्षी हैं नटराज- आदिदेव भगवान शिव। तांडव करते हुए शिव जिनके एक हाथ में सृजन का डमरू है और दूसरे में प्रलय की अग्नि। जिनके एक पैर के नीचे अज्ञान का दैत्य कुचला हुआ है, और दूसरा पैर मुक्ति की ओर उठा हुआ।
कौन हैं नटराज? धातु में ढला हुआ शिव का ये रूप घर-घर तक कैसे पहुंचा? कैसे नटराज अंतरिक्ष में स्थापित हुए? क्या है नटराज की मूर्ति 2000 साल पुराना का रहस्य?
1912 की बात है। जियोलॉजिस्ट आनंद कुमारस्वामी ने एक निबंध लिखा- "डांस ऑफ शिव"। भारतीय कला पर लिखे गए सबसे प्रभावी निबंध में से एक। जिसमें कुमारस्वामी ने नटराज की मूर्ति के हर एक अंग का मतलब समझाया। उन्होंने बताया कि कैसे यह मूर्ति पूरी कायनात के पांच हिस्सों को दर्शाती है। सृष्टि यानी क्रिएशन, स्थिति यानी प्रिजर्वेशन, संहार यानी डिस्ट्रक्शन (Samhara), तिरोभाव यानी इल्यूजन और अनुग्रह यानी साल्वेशन। इस निबंध में कुमारस्वामी लिखते हैं। “डमरू सृजन का प्रतीक है और अग्नि संहार का”
इस तरह कुमारस्वामी के एक निबंध ने नटराज को ब्रह्मांड का प्रतीक बना दिया। नटराज को "कॉस्मिक डांस ऑफ शिव" भी कहा जाता है। यह नाम भी कुमारस्वामी ने ही दिया था। इस नए नाम के चलते ही दुनियाभर के इंटेलेक्चुअल्स का ध्यान इस मूर्ति की तरफ खींचा।
फ्रांस के मशहूर मूर्तिकार ऑगस्ट रोडिन, अमेरिका के कार्ल सागन और फ्रिटजॉफ कापरा- ये ऐसे नाम थे जिन्होंने अपनी कला में और साइंस में नटराज के प्रतीक का इस्तेमाल किया किया। नटराज का प्रतीक क्या महत्व रखता है- इस बात से समझिए कि साल 1993 में अमेरिकी मूर्तिकार आर्थर वुड्स ने नटराज से प्रेरित होकर एक मूर्ति बनाई - "कॉस्मिक डांसर"। और इसे कहां रखा गया? स्पेस में! यह मूर्ति मीर स्पेस स्टेशन में लगाई गई।
कौन हैं नटराज?
स्कंद पुराण में एक कथा है। एक बार कुछ ऋषियों ने अपने अहंकार में शिव और पार्वती को नहीं पहचाना, जो भिखारियों के रूप में उनके पास आए थे। ऋषियों ने उन पर विषैले सांप छोड़ दिए। शिव ने सांपों को मार दिया। तब ऋषियों ने अपस्मार नाम के दैत्य को आदेश दिया कि वह शिव को मार दे। इस पर शिव ने अपने डमरू से ऐसी ध्वनि उत्पन्न की कि दैत्य बेहोश हो गया और शिव ने उसे अपने पैर तले कुचल दिया। शिव का यही तांडव करता हुआ रूप कहलाया नटराज। ये पौराणिक कहानी है। नटराज की मूर्ति के इतिहास की बात करें तो नटराज का सबसे पुराना रूप दूसरी सदी का है।
आंध्र प्रदेश का एक छोटा सा गांव - गुडिमल्लम। यहां एक शिवलिंग मिला, जो आज तक का सबसे पुराना माना जाता है। इस शिवलिंग पर एक अनोखी मूर्ति है- शिव एक बौने पर खड़े हैं। शिव का शरीर लिंग के अंदर है, केवल सिर बाहर निकला हुआ है। इसके अलावा विजयवाड़ा के पास मोगलराजपुरम की गुफा में एक और मूर्ति मिली। ये 5वीं सदी में बनाई गई थी। इस मूर्ति में शिव नाच रहे थे। उनके चार हाथ थे।
नटराज अपने वर्तमान रूप में कैसे साकार हुए?
इसकी कहानी शुरू होती है दो साम्राज्यों की टकराहट से - चालुक्य और पल्लव। सातवीं सदी का दक्षिण भारत। लाल बलुआ पत्थर की पहाड़ियों के बीच बादामी का किला खड़ा है। चालुक्य साम्राज्य की राजधानी। यहां की गुफाएं कला के अनमोल खजाने हैं। गुफा संख्या एक में एक विशाल मूर्ति है - नृत्य करते अठारह भुजाओं वाले शिव। 642 ईसवी की एक सुबह। पल्लव सम्राट नरसिंहवर्मन अपनी विशाल सेना के साथ बादामी की ओर बढ़ रहे थे। उसके मन में बदले की आग थी। 25 साल पहले चालुक्य राजा पुलकेशी ने उसके पिता महेंद्रवर्मन को पराजित किया था। वो उस अपमान का बदला लेने के लिए चालुक्यों पर आक्रमण कर देते हैं। और युद्ध में जीत हासिल करने के बाद फैसला करते हैं कि चालुक्यों की सांस्कृतिक विरासत को अपने नए राज्य का हिस्सा बनाएंगे।
इसके बाद नरसिंह वर्मन समंदर किनारे महाबलीपुरम नाम का एक नया नगर बसाते हैं। पल्लवों के बसाए इस शहर में आज भी चालुक्य कला का प्रभाव साफ दिखता है। चालुक्यों से प्रभावित होकर ही पल्लव काल में नटराज की मूर्तियां शुरू हुई। ये हालांकि बस एक संभावना भर है। क्योंकि कुछ विद्वान मानते हैं कि नटराज की जड़ें तमिल संस्कृति में हैं। तमिल के मशहूर विद्वान कामिल ज्वेलेबिल का मानना था कि नटराज की पूजा का आधार संगम साहित्य में मिलता है। उन्होंने मुरुगन के भक्तों के कावडी डांस का जिक्र किया। इस डांस में नर्तक एक पैर ऊपर उठाकर घूमते हैं, बिल्कुल नटराज की तरह। तमिलनाडु के स्ट्रीट परफॉर्मेंस थेरुकूठू में भी ऐसा ही डांस किया जाता है। नर्तक भारी घुंघरू पहनकर एक पैर पर नाचते हैं।
इनके अलावा महान तमिल संत करैक्काल अम्मैयार की कहानी भी इस रिश्ते की ओर इशारा करती हैं। कहानी कहती है कि अम्मैयार ने शिव से प्रार्थना की कि वे उन्हें एक भूतनी में बदल दें, ताकि वह श्मशान में उनके साथ नाच सके। इस कथा के चलते आज भी तिरुनागेश्वरम मंदिर में एक मूर्ति है, जहां कारैक्काल अम्मैयार नटराज के साथ नृत्य कर रही हैं। इसके अलावा कंबोडिया के बंतेय श्रेई मंदिर में 10वीं सदी की एक मूर्ति है। जिसमें शिव नाचते हुए दिखाई देते हैं। इस मूर्ति के साथ कारैक्काल अम्मैयार की मूर्ति भी हैं। जिसे झांझ बजाते हुए दिखाया गया है। ये सब चीजें नटराज और तमिल संस्कृति के ऐतिहासिक रिश्ते की ओर इशारा करती हैं।
पल्लव, चालुक्य या तमिल- ओरिजिन चाहे जो रहा हो, 6-7 वीं सदी की सांस्कृतिक उठा पटक के नतीजे में एक चीज हुई कि नटराज की मूर्ति धातु के रूप में साकार होनी शुरू हुई। सबसे पुरानी धातु की मूर्ति संभवतः पल्लव काल की है। और आज ये ब्रिटिश म्यूजियम में रखी हुई है। सातवीं सदी की ही एक और मूर्ति मिली है कांचीपुरम के पास कुरम के मंदिर में। ये भी 7वीं सदी की है। 9वीं सदी में चोल वंश सत्ता में आया। और इस दौरान नटराज की मूर्तियों का व्यापक रूप से निर्माण हुआ। चोल रानी सेम्बियन महादेवी ने कावेरी डेल्टा में कई मंदिरों का विस्तार किया। एक शिलालेख से पता चलता है कि उस समय कम्माला नाम के कारीगर धातु की मूर्तियां बनाते थे।
आदितुरै के मंदिर में आज भी नटराज और शिवकामी की मूर्तियां हैं। ये मूर्तियां शायद उसी समय की हैं। कोनेरिराजपुरम के उमा महेश्वर मंदिर में भी एक विशाल नटराज की मूर्ति है। ये साढ़े सात फीट ऊंची है। इस मूर्ति की दिलचस्प बात है कि इसमें नटराज के दाएं पैर के अंदरूनी टखने पर एक उभार दिखता है। इंसानी पैर में टखने की हड्डी पर एक उभार होता है। इससे पता चलता है कि कितनी बारीकी से तब मूर्तियां बनाई जाती थीं। चोल साम्राज्य में नटराज क्या महत्व रखते थे। इसका साक्षात दर्शन आज भी किया जा सकता है।
सुपरनोवा और नटराज
तमिलनाडु में एक छोटा सा शहर है चिदंबरम। यहां एक बहुत पुराना मंदिर है, जिसमें हर साल 20 लाख लोग दर्शन के लिए आते हैं। मंदिर में शिव की पूजा होती है लेकिन ये बाकी मंदिरों से इस मायने में अलग है कि अधिकांश शिव मंदिरों में शिवलिंग की पूजा होती है लेकिन चिदंबरम में नटराज भी पूजे जाते हैं। हर साल दिसंबर में यहां एक खास फेस्टिवल होता है और ये परम्परा इस ग्यारहवीं सदी से चली आ रही है। इस परंपरा का खगोल विज्ञान से भी एक दिलचस्प रिश्ता है।सन 1054 में अंतरिक्ष में क्रैब नाम के एक सुपरनोवा में विस्फोट हुआ था। इस बात का जिक्र चीनी सोर्सेस भी करते हैं। माना जाता है कि इस घटना के बाद चिदंबरम में एक नई परंपरा का जन्म हुआ। नटराज की मूर्ति को पहली बार मंदिर से बाहर लाया गया। तबसे यहां नटराज की पूजा होती है। चोल वंश के दौरान नटराज विशेष महत्व रखने लगे थे। इसलिए नटराज की मूर्तियां बनाने की एक खास कला भी विकसित हुई।
हजारों साल पहले जिस तरीके से नटराज की मूर्तियां बनाई जाती थी, उसे 'मधुच्छिष्ट विधान' या ‘लॉस्ट वैक्स’ तकनीक के नाम से जाना जाता है। तमिलनाडु के तंजावुर जिले के स्वामिमलै गांव में आज भी ये कला जिंदा है। हाल ही में इसे जीआई टैग मिला है। यानी अब ये एक संरक्षित आर्ट फॉर्म है। इस कला में कावेरी नदी की मिट्टी का इस्तेमाल होता है। प्रक्रिया कुछ यूं है:-
1- सबसे पहले मोम से मूर्ति का मॉडल बनाया जाता है।
2- फिर इस मॉडल पर मिट्टी की परत चढ़ाई जाती हैं।
3- इसे गर्म करके मोम पिघला दिया जाता है।
4- खाली जगह में पिघली हुई धातु भर दी जाती है।
5- ठंडा होने पर मिट्टी तोड़ दी जाती है।
6- और सामने आ जाती है एक खूबसूरत मूर्ति।
नटराज बनाने के लिए किस धातु का इस्तेमाल होता था?
ऐतिहासिक मेटलर्जी की विशेषज्ञ माने जाने वाली और पद्मश्री से पुरस्कृत डॉक्टर शारदा श्रीनिवासन ने नटराज मूर्तियों पर लम्बा शोध किया है। 150 मूर्तियों के chemical analysis के आधार पर वो बताती हैं कि कुछ मूर्तियां पीतल की होती थीं। लेकिन ज्यादातर मूर्तियां लेडेड ब्रॉन्ज यानी तांबे में टिन और सीसा मिलाकर बनाई जाती थीं। चेन्नई के सरकारी संग्रहालय में रखी 11वीं सदी की एक नटराज मूर्ति में तांबे के अलावा 8% टिन और 8% सीसा मिलता है। ऐसा शायद इसलिए किया जाता होगा क्योंकि इससे धातु को ढालना आसान हो जाता था।
ये धातुएं आती कहां से थीं?
श्रीनिवासन बताती है कि तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में पुरानी खानें मिली हैं। इसके अलावा मामंदूर, इंगलधल, कल्यादी और टिंटिनी में तांबे की खानें हुआ करती थीं। मेटलर्जी के मामले में भारत माहिर था। अधिकतर धातु भारत की खदानों से निकलती थी लेकिन टिन भारत में कम मिलता था। दक्षिण-पूर्व एशिया से टिन मंगवाया जाता था। अरब लेखक अबू जैद ने लिखा है कि सुमात्रा से टिन लाया जाता था। इजिप्ट की राजधानी काइरो के एक यहूदी मंदिर में मिले कुछ दस्तावेजों से पता चलता है कि यहूदी व्यापारी भी दक्षिण भारत के तटीय इलाकों में धातु के कारखानों से जुड़े थे।
इतना ही नहीं, न्यूजीलैंड में एक घंटे का टुकड़ा मिला है जिस पर 14वीं सदी का तमिल शिलालेख है। इस पर लिखा है कि ये घंटा 'मोयुदीन बख्श' के जहाज का था। शायद ये कोई तमिल मुस्लिम व्यापारी रहा होगा। ये सब बताता है कि उस समय भारत का व्यापार कितना फैला हुआ था। और इसी व्यापार ने नटराज को दुनिया भर में फैलाया। आधुनिक समय में भी नटराज के प्रतीक का महत्व हम दुनियाभर में देख सकते हैं।
स्विट्ज़रलैंड के जिनेवा शहर में दुनिया की सबसे बड़ी फिजिक्स लैब है- CERN। यहीं लार्ज हैड्रोन कोलाइडर भी मौजूद है। जिसके जरिए साल 2012 ने हिग्स बोसोन पार्टिकल की खोज की थी। हिग्स बोसॉन का भारत से एक अनूठा रिश्ता है, क्योंकि इस नाम के दूसरे हिस्से में जो नाम है, बोसॉन वो- भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्रनाथ बोस के नाम पर रखा गया है। इसके अलावा CERN में नटराज की 2 मीटर ऊंची एक मूर्ति लगाई गई है। ये मूर्ति साल 2004 में भारत सरकार ने भेंट की थी।
इस तरह हम देखते हैं कि नटराज की कहानी। सिर्फ एक मूर्ति की कहानी नहीं है। ये हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक धरोहर है, जो विज्ञान और अध्यात्म दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण प्रतीक है। नटराज प्रतीक हैं इस बात का कि जीवन एक नृत्य है - निरंतर चलने वाला और कभी न रुकने वाला कॉस्मिक डांस।