21वीं सदी में जलवायु परिवर्तन वैश्विक नीतियों का केंद्र बन गया है। इससे न केवल ऊर्जा, उद्योग और जीवनशैली में बदलाव आ रहा है, बल्कि वैश्विक व्यापार भी इसकी परिधि में आ चुका है। विकसित देशों ने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए सख्त नियम बनाए हैं, लेकिन अब वे इन नियमों को अपने व्यापारिक भागीदारों पर भी लागू करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। यूरोपीय संघ (EU) ने इसी क्रम में एक नया सिस्टम लागू किया है जिसे CBAM यानी 'Carbon Border Adjustment Mechanism' कहा जाता है। यह प्रणाली औद्योगिक उत्पादन में उत्सर्जित कार्बन की कीमत को सीमा शुल्क में शामिल कर देती है, जिससे उन देशों को नुकसान हो सकता है जो अब भी कोयले और पारंपरिक ईंधनों पर आधारित उत्पादन कर रहे हैं।
CBAM एक टैक्स के रूप में नहीं, बल्कि एक 'मैकेनिज्म' के रूप में लागू किया गया है जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि यूरोप में आयात होने वाले उत्पादों का पर्यावरणीय वेटेज वहां के घरेलू उत्पादों के बराबर हो। इसे 1 अक्टूबर 2023 को मंजूरी मिली है जिसके बाद से अभी यह संक्रमणकालीन रूप में लागू किया गया है, जहां कंपनियों को केवल रिपोर्टिंग करनी होगी, और 1 जनवरी 2026 से इसे पूरी तरह लागू किया जाएगा जब इसके तहत शुल्क वसूलना शुरू किया जाएगा। भारत, जो यूरोपीय संघ का एक प्रमुख व्यापारिक साझेदार है, अब इस नीति के चलते अपनी निर्यात संरचना में महत्वपूर्ण बदलावों के मुहाने पर खड़ा है। विशेष रूप से भारत का MSME सेक्टर, जिसकी तकनीकी और वित्तीय क्षमता सीमित है, इस मैकेनिज्म से सबसे अधिक प्रभावित हो सकता है।
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क्या है CBAM का उद्देश्य
CBAM का मुख्य उद्देश्य 'कार्बन लीकेज' को रोकना है। कार्बन लीकेज वह स्थिति होती है जब सख्त पर्यावरणीय नियमों वाले देशों की कंपनियां उत्पादन को उन देशों में स्थानांतरित कर देती हैं जहां कार्बन उत्सर्जन से संबंधित नियम ढीले हैं, जिससे वैश्विक उत्सर्जन में कोई वास्तविक कमी नहीं होती। यूरोपीय संघ ने 2050 तक 'नेट-ज़ीरो' उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित किया है, और CBAM उस दिशा में एक रणनीतिक उपकरण के रूप में देखा जा रहा है।
इस प्रणाली के अंतर्गत, जब भी कोई कंपनी यूरोपीय संघ में स्टील, एल्युमिनियम, सीमेंट, फर्टिलाइज़र, हाइड्रोजन और बिजली जैसे उत्पादों का आयात करती है, तो उसे यह साबित करना होगा कि इन उत्पादों के निर्माण में कितना ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन हुआ है। इसके आधार पर उन्हें CBAM सर्टिफिकेट खरीदने होंगे जो एक तरह से उन उत्पादों की कार्बन लागत को दिखाते हैं। इन सर्टिफिकेट्स की कीमत EU Emission Trading System (EU ETS) की कीमतों के समान होगी। अगर आयातक देश में पहले से कार्बन टैक्स दिया जा चुका है, तो उस हिस्से को इसमें समायोजित किया जाएगा।
भारत पर क्या होगा असर?
भारत के लिए यह चिंता का विषय इसलिए है क्योंकि वह यूरोपीय संघ को लगभग 27% लोहे, स्टील और एल्युमिनियम का निर्यात करता है, जिसकी कुल कीमत करीब 8 बिलियन डॉलर है। ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (GTRI) के मुताबिक, इन उत्पादों पर CBAM लागू होने के बाद इनकी कीमतें यूरोपीय बाजार में 20 से 35% तक बढ़ सकती हैं, जिससे भारतीय निर्यात प्रतिस्पर्धा में पिछड़ सकता है।
इसके अतिरिक्त, जब CBAM भविष्य में अन्य क्षेत्रों तक विस्तारित होगा—जैसा कि यूरोपीय संघ के 2050 तक ‘नेट जीरो’ उत्सर्जन लक्ष्य से जाहिर है—तो भारत के खनिज, रसायन, ऑटो पार्ट्स, फार्मास्यूटिकल्स और वस्त्र जैसे अन्य निर्यात भी इसकी चपेट में आ सकते हैं। यही कारण है कि CBAM को भारत एक गैर-शुल्क बाधा (Non-Tariff Barrier) के रूप में देखता है, जो व्यापार को पारदर्शिता के बजाय प्रतिबंध के रास्ते पर ले जाती है।
भारत यूरोपीय संघ को हर वर्ष लगभग 70 बिलियन डॉलर का सामान निर्यात करता है जिसमें लगभग 10 बिलियन डॉलर का व्यापार उन क्षेत्रों में है जो CBAM के अंतर्गत आते हैं। इन क्षेत्रों में भारत की कंपनियां अभी भी पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों जैसे कोयला आधारित बिजली, डीजल जनरेटर, और पुराने फर्नेस पर निर्भर हैं।
CBAM लागू होने के बाद, यूरोपीय कंपनियां उन्हीं उत्पादों को प्राथमिकता देंगी जिनका उत्पादन कम कार्बन उत्सर्जन के साथ हुआ हो। इसका अर्थ है कि भारतीय निर्यातकों को न केवल अपनी उत्पादन प्रक्रियाएं बदलनी होंगी, बल्कि उन्हें एक नई प्रकार की तकनीक और पारदर्शिता को भी अपनाना होगा। यहां चुनौती यह है कि भारत की अधिकतर MSME इकाइयां अभी भी डिजिटल रिकॉर्ड-कीपिंग या उत्सर्जन डेटा संग्रह की प्रणाली से दूर हैं।
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उदाहरण के तौर पर, यदि एक स्टील उत्पाद को उत्पादन के हर टन पर 2.3 टन CO2 उत्सर्जन के साथ निर्मित किया गया है, और यूरोप में उस समय ETS की कीमत 90 यूरो प्रति टन CO2 है, तो उस आयातित उत्पाद पर 207 यूरो अतिरिक्त कर देना होगा। इससे भारतीय उत्पाद यूरोपीय बाजार में कीमत के मामले में प्रतिस्पर्धी नहीं रहेंगे, जब तक कि वे अपनी तकनीक को ग्रीन ऊर्जा पर आधारित न कर लें।
MSME सेक्टर के लिए चुनौतियां
भारत का MSME सेक्टर, जो देश की GDP का लगभग 30% और निर्यात का 48% योगदान करता है, CBAM के सबसे बड़े जोखिम में है। लगभग 6.3 करोड़ MSME इकाइयां देश में कार्यरत हैं, जिनमें से एक बड़ा हिस्सा ऐसे क्षेत्रों में है जो EU को उत्पाद निर्यात करता है। इनमें विशेषकर छोटे स्टील रोलिंग मिल्स, मिनी सीमेंट प्लांट्स, और एल्यूमिनियम रि-सायकिलिंग यूनिट्स प्रमुख हैं।
इन उद्यमों की सबसे बड़ी समस्या तकनीकी उन्नयन करने यानी कि तकनीकी रूप से अपने को अपडेट करने की है। CBAM के लिए आवश्यक GHG रिपोर्टिंग और प्रामाणिक डेटा कलेक्शन की प्रक्रिया के लिए न केवल प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता है, बल्कि इसके लिए मीटरिंग डिवाइसेज़, रीयल टाइम डेटा लॉगर, और ISO प्रमाणन जैसी प्रक्रियाएं भी जरूरी हैं। एक छोटे उद्यम के लिए यह निवेश अक्सर उसकी सालाना पूंजी से अधिक हो सकता है।
दूसरी समस्या वित्तीय पहुंच की है। भारतीय MSME पहले से ही औपचारिक बैंकिंग प्रणाली से वंचित रहते हैं। सरकार की ECLGS (Emergency Credit Line Guarantee Scheme) और CGTMSE (Credit Guarantee Trust for Micro and Small Enterprises) जैसी योजनाएं भी पर्यावरणीय उन्नयन के लिए विशेष रूप से डिज़ाइन नहीं हैं। ऐसी स्थिति में, CBAM का पालन करने के लिए निवेश जुटाना छोटे उद्यमों के लिए लगभग असंभव बन जाता है।
क्या है समाधान?
भारत सरकार ने WTO में CBAM को 'पर्यावरण के बहाने प्रोटेक्शनिज़्म का तरीका' बताते हुए विरोध दर्ज कराया है। इसके अलावा, भारत CBAM को एक प्रकार का नॉन-टैरिफ बैरियर (Non-Tariff Barrier) मानता है जो वैश्विक दक्षिण के देशों को तकनीकी और आर्थिक रूप से सीमित करता है। वाणिज्य मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय और MSME मंत्रालय के बीच संयुक्त रणनीति तैयार की जा रही है ताकि CBAM के प्रभाव को कम किया जा सके।
इसका एक संभावित समाधान यह हो सकता है कि सरकार विशेष MSME क्लस्टर्स को 'ग्रीन जोन' के रूप में चिह्नित करे, जहां सस्ती दरों पर अक्षय ऊर्जा उपलब्ध कराई जाए। इसके अलावा, एक डिजिटल प्लेटफॉर्म विकसित किया जाए जो छोटे उद्यमियों को GHG रिपोर्टिंग में तकनीकी सहायता दे। विदेश व्यापार महानिदेशालय (DGFT) द्वारा GHG इंटेंसिटी आधारित रेटिंग सिस्टम की घोषणा भी एक कदम हो सकता है जो MSME को प्रोत्साहित करे।
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अवसर भी बन सकता है
हालांकि, CBAM के नकारात्मक पक्षों के बावजूद, भारत और यूरोपीय संघ के बीच फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (FTA) एक बड़ा आर्थिक अवसर बन सकता है। यह समझौता भारत को यूरोप के 27 सदस्य देशों और 45 करोड़ उपभोक्ताओं के बाजार तक आसान पहुंच देगा। इससे वस्त्र, चमड़ा, दवाएं, ऑटोमोबाइल, आईटी सेवाएं और कृषि उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा मिलेगा। साथ ही यह विदेशी निवेशकों के लिए भरोसे का संकेत होगा कि भारत अब नियम-आधारित व्यापार प्रणाली की ओर बढ़ रहा है।
FTA का फायदा केवल भारत को ही नहीं होगा। यूरोपीय कंपनियां भारत के विशाल और तेजी से बढ़ते बाजार तक पहुंच बना पाएंगी, जो चीन पर निर्भरता कम करने की रणनीति के तहत भी अहम है। इससे यूरोपीय कंपनियों को भारत में मैन्युफैक्चरिंग लिंक बनाए रखने, जॉइंट वेंचर स्थापित करने और MSME के साथ सहयोग करने का मौका मिलेगा। साथ ही भारत और यूरोप जलवायु लक्ष्यों को लेकर एक साझेदारी भी विकसित कर सकते हैं, जिससे वैश्विक स्तर पर 'नेट जीरो' लक्ष्य हासिल करने में मदद मिलेगी।