कॉन्डम के लाखों पैकेट, मिनरल वॉटर की हजारों बोतलें और हजारों अन्य चीजें, ये उन सामानों की लिस्ट है जिन्हें अलग-अलग ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर नए साल के मौके पर ऑर्डर किया गया। इस तरह के आंकड़े ब्लिंकिट के अधिकारियों की ओर से ही शेयर किए गए थे लेकिन बाद में इन्हें डिलीट कर दिया गया। इस पोस्ट पर जब कॉमेडियन कुनाल कामरा ने कमेंट किया तो विवाद हो गया। विवाद कैसा? कुनाल ने अलबिंदर की पोस्ट को शेयर करते हुए लिखा कि क्या आप अपने डिलीवरी पार्टनर को मिलने वाले पैसों के बारे में भी बताएंगे? इस पोस्ट में बाकायदा डिलीवरी पार्टनर शब्द को कोट कर लिखा गया वह इसलिए ताकि फैशनेबल लगने वाले इस शब्द की असली सच्चाई से आप वाकिफ हो सकें जिसे यूट्यूब थमनेल की दुनिया में "डार्क ट्रुथ ऑफ" के नाम से जाना जाता है।

 

हम आपको बताएंगे कि जिन डिलीवरी पार्टनर्स यानी गिग वर्कर्स की बदौलत स्विगी, जोमैटो, ओला और ऊबर जैसी तमाम ई कॉमर्स और फूड डिलीवरी कंपनियां फल फूल रही हैं वे इन लोगों के लिए क्या कर रही हैं? सामान्य कर्मचारी से ज्यादा टैक्स अदा करने के बावजूद इन्हें दूसरे कर्मचारियों जैसी सुविधाएं क्यों नहीं मिलती हैं? क्यों ये गिग वर्कर्स छुट्टी और पर्याप्त नींद लिए बिना ही कंपनी के वादों को पूरा करने के लिए 10 मिनट में ही कई मील का सफर तय करके आपके दरवाजे आने को मजबूर हो जाते हैं। क्या है गिग वर्कर्स की पूरी और असली कहानी। फैंसी से लगने वाले शब्द पार्टनर और एम्पलॉयी के बीच क्या अंतर होता है? हमारी और आपकी जिंदगी को आसान बनाने वाले इन वर्कर्स की जिंदगी में क्या दिक्कते हैं? आइए सब जानते हैं।

 

21वीं सदी के पहले दशक के बाद ऑनलाइन शब्द ने कई क्षेत्रों में क्रांति की। पढ़ाई-लिखाई से परे घर बैठे खाना मंगाने, बिना सड़क पर हाथ हिलाए और इंतजार किए घर के दरवाजे तक टैक्सी मंगाने और दुकान दर दुकान रेट और सामान की तुलना किए बिना घर बैठे सबकुछ आसानी से मंगा लेना। इन सुविधाओं ने जब आमजन के जीवन में दस्तक दी तो लोगों ने पहले तो इससे परहेज किया लेकिन धीरे-धीरे इसके ऐसे आदी हुए कि इस पूरे ईकोसिस्टम में शुरू हुआ कॉम्पिटीशन। कॉम्पिटीशन सस्ते दाम में सुविधा देने का। कॉम्पिटीशन दूसरी कंपनी से जल्दी सामान डिलीवर करने का और ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों को अपने साथ जोड़ने का।

कौन सहता है तकलीफ?

 

आपने भी देखा होगा कि कोई भी ऑनलाइन सर्विस देने वाली कंपनी हमेशा दूसरी कंपनी से जल्दी और उससे अच्छी पर उससे कम दाम में सर्विस देने की बात कहती है लेकिन अगर आप बिजनेस की कार्यशैली से थोड़ा भी वाकिफ होंगे तो जानते होंगे कि इस सबमें कुछ कॉम्प्रोमाइज करने होते हैं। हम जिस ईकोसिस्टम की बात कर रहे हैं यहां कॉम्प्रोमाइज कंपनी के मालिक को नहीं बल्कि उन लोगों को ज्यादा करने पड़ते हैं तो जो इस पूरे ईकोसिस्टम में सबसे नीचे आते हैं यानी जो उत्पाद को उपभोक्ता तक पहुंचाते हैं। ये कॉम्प्रोमाइजेज़ कभी नींद से होते हैं कभी खाने से। कभी पैसों से होते हैं तो कभी-कभी जान से भी हो जाते हैं। माने जिस रोटी के लिए रोज़ी कर रहे हैं, कंपनी के एक इनसेंटिव के चक्कर में उन्हें उसके लिए भी वक्त नहीं मिलता और तो और कंपनी के फास्ट सर्विस के कमिटमेंट की वजह से जान हथेली पर लेकर सड़कों पर रफ्तार भरे वो अलग। इसके एवज में उन्हें सुविधाओं के नाम पर कुछ खास भी नहीं मिलता है। क्यों? क्योंकि वो जिस ईकोसिस्टम का पार्ट हैं उसकी कहानी ही कुछ ऐसी है।

 

हम जिन लोगों की बात कर रहे हैं वे हैं गिग वर्कर्स और जिस इकोसिस्टम की कर रहे हैं वो जुड़ा है गिग इकोनॉमी से। जिसकी चर्चा बीते दशक में लगातार हो रही है। हम आपको आसान भाषा में समझाएंगे कि सड़कों पर घूम रहे ये लोग जिन्हें आप कभी देरी की वजह से डांट लगा देते हैं, प्रोडक्ट में कोई खराबी मिलने पर ऐसे लताड़ देते हैं मानो वो कंपनी के मालिक ही हों। उनकी असली पहचान, असली जगह कंपनी के लिए क्या है। वो जिन्हें कंपनी कर्मचारी नहीं बल्कि पार्टनर बनाती है और पार्टनर से ऐसी मजदूरी कराती है कि शायद मजबूरी ना हो तो वो कभी ऐसा काम करे भी नहीं और इसी पार्टनशिप की वजह से इन्हें बाकियों से ज्यादा टैक्स भी देने होते हैं। मतलब ज्यादा मेहनत, ज्यादा टैक्स, कम कमाई और  इज्जत कम। अब ऐसा क्यों है, चलिए समझते हैं।

   
कौन हैं गिग वर्कर्स?

 

गिग वर्क का मतलब होता है किसी बड़े काम को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटना, जिसे अलग-अलग लोग पूरा करते हैं। ज्यादातर कारोबार में कुछ काम ऐसे होते हैं जिनको स्थायी कर्मचारी के बजाए गैर स्थायी कर्मचारी से कराया जा सकता है। ऐसे काम के लिए कंपनियां कर्मचारियों को चुनती हैं। उनसे कुछ काम कराए जाते हैं और काम के आधार पर उन्हें पैसे दे दिए जाते हैं। आम बोलचाल की भाषा में इन्हें ठेका कर्मचारी और आधुनिक दुनिया की भाषा में फ्रीलांसर जैसा समझा जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो 'तय काम के बदले तय पेमेंट' के आधार पर रखे गए कर्मचारियों को गिग वर्कर कहा जाता है। हालांकि, ऐसे कर्मचारी कंपनी के साथ लंबे समय तक भी जुड़े रहते हैं। आपको अपने आस-पास जितने भी फूड़ डिलीवरी जैसे स्विगी, ज़ोमैटो वाले,  बाइक या कार टैक्सी जैसे ओला-उबर-रैपिडो वाले या सामान लाने-ले जाने वाले जैसे स्विगी जीनी या पोर्टर के लोग दिखते हैं वे ज्यादातर गिग वर्कर ही होते है। जिन्हें डिलीवरी पार्टनर या सर्विस के लिए पार्टनर कहा जाता है। 

 

यहां गिग वर्कर्स माने डिलीवरी पार्टनर और आम कर्मचारी के बीच का अंतर भी आपको बताते चलते हैं। स्कूल के नोट्स के अंदाज में कॉपी पर लकीर खींच लेते हैं, एक तरफ लिखते हैं पार्टनर और दूसरी तरफ एम्पलॉयी माने कर्मचारी। सबसे पहले नेचर ऑफ एम्पलॉयमेंट की बात करें तो डिलीवरी पार्टनर, इंडेपेंडेंट कॉन्ट्रैक्टर होते हैं। माने किसी कंपनी के डायरेक्ट कर्मचारी नहीं होते। जितना काम करते हैं उतना पैसा लेते हैं। वहीं एम्पलॉयी कंपनी के फिक्स कर्मचारी होते हैं। जिनका कंपनी के साथ एक एम्पलॉयमेंट कॉन्ट्रैक्ट होता है और कंपनी के नियम और शर्तों के हिसाब के काम करते हैं। जैसे आप और हम किसी कंपनी के लिए काम करते हैं तो उसके लिए एम्पलॉयी हुए। 

किसे, क्या मिलता है?

 

काम के घंटों की बात करें तो डिलीवरी पार्टनर इसे खुद तय कर सकते हैं। यानी वे जब और जितनी देर चाहें, काम कर सकते हैं। वहीं  एम्पलॉयी के लिए काम के घंटे तय होते हैं। 70 घंटे हर हफ्ते काम करने की वकालत करने वाले कॉरपोरेट कल्चर में हालांकि फिक्स्ड वर्क ऑवर नसीब वालों को ही मिलता है लेकिन कम से कम टेक्निकली सच यही है कि एम्पलॉयी के वर्किंग आवर फिक्स होते हैं।

 

कमाई की बात करें तो डिलीवरी पार्टनर कमीशन और प्रति डिलीवरी के आधार पर कमाते हैं। इसलिए इनकी आय घटती-बढ़ती रहती है। माने जितना काम उतना पैसा। वहीं,  एम्पलॉयी की फिक्स्ड सैलरी होती है। जिसमें कोई खास उतार-चढ़ाव नहीं होता है। अन्य फायदों की बात करें तो गिग वर्कर्स आमतौर पर किसी भी सामाजिक सुरक्षा योजना (जैसे पीएफ, ईएसआई, हेल्थ इंश्योरेंस) के हकदार नहीं होते। उन्हें काम से जुड़ी हर चीज़ का खर्च (जैसे वाहन मेंटेनेंस, फ्यूल) खुद उठाना पड़ता है। वहीं एम्पलॉयी को पीएफ (प्रोविडेंट फंड), ईएसआई (ESI), बीमा, पेड लीव, बोनस, और कई अन्य फायदे मिलते हैं और काम से जुड़े खर्च कंपनी ही देती है।

 

जॉब सिक्योरिटी की बात करें तो डिलीवरी पार्टनर के पास नौकरी की स्थिरता नहीं होती। कंपनी किसी भी समय उनके साथ कॉन्ट्रैक्ट खत्म कर सकती है। वहीं एम्पलॉयी के साथ ऐसा नहीं होता। उन्हें निकालना हो तो कंपनी को लेबर लॉ का पालन करना पड़ता है। एकाउंटबिलिटी की बात करें तो डिलीवरी पार्टनर प्लेटफॉर्म पर काम करते हैं लेकिन सीधे तौर पर कंपनी के प्रति जवाबदेह नहीं होते। वहीं एम्पलॉयी सीधे तौर पर कंपनी के प्रति जवाबदेह होते हैं। इसलिए उन्हें कंपनी के दिशा-निर्देशों का पालन करना होता है।

 

दोनों के उदाहरण की बात करें तो ज्यादातर जोमैटो, स्विगी, उबर, या ओला के डिलीवरी बॉय और कैब ड्राइवर्स को डिलीवरी पार्टनर के तौर पर माना जाता है। वहीं, किसी कंपनी में काम करने वाले सामान्य कमर्चारी जैसे बैंक में काम करने वाला शख्स, फैक्ट्री में मजदूर या किसी कंपनी का कोई मैनेजर।

 

खैर डिलीवरी पार्टनर के इन उदाहरणों से आपको लग सकता है कि इस गिग वर्कर टर्म का उदय भी स्विगी, जोमैटो, ओला और ऊबर जैसी कंपनियों के साथ हुआ है लेकिन ऐसा है नहीं। गिग वर्कर्स का इतिहास एक सदी से भी पहले का है।  कुछ रिपोर्टस में जिक्र मिलता है कि यह कोई नई अवधारणा नहीं है। असल में 1905 के आसपास जैज़ संगीतकारों ने अपने काम को "गिग" कहना शुरू किया था।  इसलिए आज भी संगीत कार्यक्रमों को "गिग्स" कहा जाता है। 1940 के दशक में, खासकर द्वितीय विश्व युद्ध के समय, बड़ी कंपनियों ने अस्थायी कर्मचारियों की भर्ती शुरू की। इन लोगों से ऐसे काम पूरे कराए जाते थे जिनके लिए स्थायी कर्मचारियों की कमी थी।  इसे भी गिग वर्क का ही एक रूप माना जा सकता है।  ब्रिटिश इतिहासकार टॉनी पॉल का कहना है कि "19वीं सदी में औद्योगीकरण से पहले, ज्यादातर लोग अपनी आजीविका चलाने के लिए एक ही समय पर कई छोटे-मोटे काम किया करते थे। आज के समय में भी कई लोग अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए एक ही तरह से कई अलग-अलग काम करते हैं। आज के दौर में और भी ज्यादा विस्तृत हो गई है। इतनी की आज के दौर में इस इकोसिस्टम के बाकायदा एक इकोनॉमी बनी। नाम गिग इकोनॉमी।  

भारत में कितने गिग वर्कर्स?

 

भारत के लिए गिग वर्कर्स का विचार ज्यादा पुराना नहीं है लेकिन ये अब देश की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं क्योंकि गिग इकॉनमी का फायदा यह है कि यह काम को ज्यादा सरल बना देती है, जिससे लोग अपनी ज़रूरत और लाइफस्टाइल के हिसाब से काम कर सकते हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट, जिसका नाम है 'India's Booming Gig and Platform Economy' जून 2022 में प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट के अनुसार, 2020-21 में भारत में गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स की संख्या करीब 7.7 मिलियन थी। यह संख्या 2029-30 तक बढ़कर 23.5 मिलियन तक पहुंचने की उम्मीद है। माने इसमें अपार वृद्धि देखी जा रही है। हालांकि किताबी तौर पर यह व्यवस्था कर्मचारियों, व्यवसायों और ग्राहकों सभी के लिए फायदेमंद हो सकती है। पर वास्तव में ऐसा है नहीं। बल्कि इसके उलट ही देखा जा रह है।