साल 1260, मिस्र की राजधानी काहिरा के शाही दरबार में मौत जैसा सन्नाटा पसरा है। सुल्तान के अमीर, वज़ीर और सलाहकार, सब खौफ में हैं। अभी-अभी खबर आई है, बग़दाद राख हो चुका है। मंगोलों का तूफ़ान अब मिस्र के दरवाज़े पर है। सिंहासन पर बैठे सुल्तान सैफ़ुद्दीन कुतुज़ को अतीत से निकला एक जिन्न याद आता है। मंगोलों ने सालों पहले परिवार समेत उन्हें गुलाम बनाकर बाज़ार में बेच दिया था। आज वही ताकत, उसका सब कुछ छीनने के लिए फिर से सामने खड़ी थी। चंद रोज बाद दरबार में मंगोल सरदार हुलागू खान के चार दूत दाखिल हुए हैं। वह सुल्तान को एक खत देते हैं जिसमें लिखा था- 'हमारी बात मान लो, वरना तुम्हारा अंजाम भी बगदाद जैसा होगा।'

 

यह सुनकर सुल्तान कुतुज़ मंगोल दूतों को घूरकर देते है और फिर एक शांत मगर फौलादी आवाज में अपने सिपाहियों को हुक्म देते हैं। हुक्म था- इन चारों दूतों का सिर कलम कर दो और इनके सिरों को काहिरा के मुख्य दरवाज़े, बाब ज़ुवेला पर लटका दो। इस आदेश का एक ही मतलब था - जंग।

 

सुल्तान कुतुज ने दुनिया की सबसे ताकतवर फौज को जंग का न्यौता तो दे दिया था लेकिन सवाल यह था कि उन्हें हराया कैसे जाए? मंगोल सिर्फ़ ताकतवर नहीं थे, वह जंग के मैदान के सबसे बड़े बाज़ीगर थे। उनकी रणनीतियों का कोई तोड़ नहीं था। फिर मामलूकों ने ऐसा क्या किया जो कोई नहीं कर सका था? क्या थी मामलूकों की वह चाल जिसमें दुनिया के सबसे होशियार सेनापति भी फंस गए? कैसे एक झूठे हमले और मैदान से भागने के नाटक ने इतिहास की सबसे बड़ी जीत की बुनियाद रखी? आज पढ़िए इस्लामी इतिहास की सबसे निर्णायक लड़ाई की कहानी। कहानी उस जंग की, जिसके बाद मंगोल भी इस्लाम कबूल करने को मजबूर हो गए।


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मंगोलों की कहानी

 

यह कहानी एक तूफान की है। वह तूफान जो मध्य एशिया के सपाट, बंजर मैदानों से उठा था। जहां साल के ज़्यादातर महीने बर्फ़ जमी रहती है और हवाएं चाबुक की तरह बरसती हैं। इसी ऊसर ज़मीन पर पैदा हुई थी वह क़ौम, जिसे दुनिया मंगोल के नाम से जानती है। उनके सरदार का नाम था चंगेज़ खान। चंगेज़ ख़ान ने अपनी ज़िंदगी में मंगोलों को एक ऐसी अजेय शक्ति बना दिया था, जिसके सामने बड़ी-बड़ी सल्तनतें ताश के पत्तों की तरह ढह गईं।

 

 

हमारी कहानी चंगेज़ की मौत के कई साल बाद शुरू होती है। अब मंगोल साम्राज्य की बागडोर उसके पोतों के हाथ में थी। इन्हीं में से एक था हुलागू खान। हुलागू को उसके बड़े भाई, यानी मंगोलों के सबसे बड़े खान ने एक मिशन दिया था। मिशन था- पश्चिम की तरफ़ बढ़ो और तब तक मत रुको जब तक तुम्हारे घोड़ों के खुर भूमध्य सागर के पानी को न छू लें। रास्ते में जो भी सल्तनत आए, उसे या तो झुका दो या मिटा दो।

हुलागू ने एक विशाल सेना तैयार की। कहते हैं, उस दौर की यह सबसे बड़ी सेना थी। मंगोल इतिहास में हर 10 में से एक फौजी को इस सेना में शामिल होने का हुक्म दिया गया था। इसमें सिर्फ मंगोल नहीं थे। चीन से आए माहिर इंजीनियर थे जो पत्थर फेंकने वाली विशाल मशीनें चलाते थे। आर्मीनिया के ईसाई सैनिक थे जो मुसलमानों से अपनी पुरानी दुश्मनी का बदला लेना चाहते थे। फारस के सिपाही थे जो मंगोलों के सामने पहले ही घुटने टेक चुके थे। यह एक ऐसी फौज थी जो सिर्फ़ लड़ना नहीं, बल्कि शहरों को नेस्तनाबूद करना जानती थी।

 

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इस तूफ़ान का पहला बड़ा निशाना था दुनिया का सबसे अमीर, सबसे शानदार शहर - बग़दाद।

आज का बग़दाद एक आम शहर लग सकता है लेकिन उस दौर में यानी साल 1258 में बग़दाद दुनिया का दिल था। 500 सालों से यह शहर अब्बासिद सल्तनत की राजधानी था। यह वह जगह थी जहां दुनिया भर के विद्वान, वैज्ञानिक, कवि इकट्ठा होते थे। यहां की लाइब्रेरी, बैत-अल-हिक़मत में हजारों किताबें थीं। शहर के बीच से दजला नदी बहती थी और उस पर बने महल पूरी दुनिया में अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर थे।

बग़दाद पर राज कर रहा था खलीफ़ा अल-मुस्तअसिम। जब हुलागू ने उसे खत भेजा कि वह हथियार डाल दे तो खलीफा ने जवाब में अपनी अकड़ दिखाई। उसने कहा, 'अगर तुमने बगदाद पर हमला किया तो पूरब से लेकर पश्चिम तक के सारे मुसलमान मेरे लिए लड़ने आ जाएंगे।'

 

यह उसकी सबसे बड़ी भूल थी। कोई मुसलमान उसकी मदद के लिए नहीं आया। जनवरी 1258 में हुलागू की फौज ने बगदाद को चारों तरफ से घेर लिया। मंगोलों ने शहर के बाहर खाइयां खोदीं और अपनी पत्थर फेंकने वाली मशीनें लगा दीं। कुछ ही दिनों में शहर की दीवारों पर इतने भारी पत्थर बरसाए गए कि उनमें दरारें पड़ गईं। खलीफ़ा को अपनी गलती का एहसास हुआ लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। 10 फरवरी को मंगोल सैनिक टूटी हुई दीवारों से शहर में दाखिल हुए।

 

इसके बाद जो हुआ, वह इंसानियत के इतिहास के सबसे काले पन्नों में से एक है। हुलागू ने अपनी फौज को खुली छूट दे दी। एक हफ्ते तक बग़दाद में कत्लेआम मचा रहा। सैनिक गलियों में घूम-घूमकर हर मर्द, औरत और बच्चे को मार रहे थे। शहर की नालियां खून से लाल हो गईं। महल, मस्जिदें, अस्पताल, सब जला दिए गए। वह महान लाइब्रेरी, बैत-अल-हिक़मत, जिसमें सदियों का ज्ञान था, उसे भी नहीं बख्शा गया। लाखों किताबें दजला नदी में फेंक दी गईं। इतिहासकार लिखते हैं कि किताबों की स्याही से नदी का पानी कई दिनों तक काला बहता रहा।

 

अब सवाल था खलीफ़ा का क्या किया जाए। मंगोलों का एक अंधविश्वास था। वह शाही खून को ज़मीन पर बहाना अपशकुन मानते थे। जामी अल-तवारीख में इतिहासकार रशीद-अल-दीन लिखते हैं कि हुलागू ने खलीफ़ा को मारने का एक नायाब तरीका निकाला। खलीफ़ा अल-मुस्तअसिम को एक कालीन में कसकर लपेटा गया। फिर उस कालीन को ज़मीन पर रखकर उसके ऊपर सैकड़ों घोड़े दौड़ा दिए गए। खलीफ़ा की मौत हो गई और उसका खून ज़मीन पर भी नहीं गिरा।

 

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बग़दाद की तबाही की खबर जब बाकी मुस्लिम दुनिया में पहुंची तो लोगों को लगा जैसे क़यामत का दिन आ गया है। इस्लाम का सबसे बड़ा नेता, उनका खलीफ़ा, इतनी बेबस मौत मारा गया था। उनका सबसे महान शहर अब लाशों और राख का ढेर था। मंगोल एक ऐसा डर बन चुके थे जिसका कोई इलाज नहीं था। बग़दाद को जीतने के बाद, हुलागू की नज़र अपने अगले शिकार पर थी। सीरिया और उसके बाद मिस्र।

मिस्र के गुलाम बादशाह और मामलूक

 

बग़दाद जब जल रहा था और पूरा मिडिल ईस्ट मंगोलों के खौफ से कांप रहा था, तब दुनिया की आखिरी बड़ी इस्लामी सल्तनत नील नदी के किनारे सांस ले रही थी। यह मिस्र था, फिरौन और पिरामिडों की धरती और यहां राज कर रहे थे इतिहास के सबसे अनोखे बादशाह।


उन्हें मामलूक कहा जाता था। मामलूक का अरबी में मतलब होता है, 'वह जिस पर किसी का हक़ हो', यानी गुलाम। यह कोई मजाक नहीं था। मिस्र पर राज करने वाले ये लोग सच में गुलाम थे।

कई सौ सालों से मिस्र के सुल्तान, ख़ासकर सुल्तान सलादीन के अय्यूबिद वंश के लोग, अपनी हिफ़ाज़त के लिए भाड़े के सैनिक नहीं रखते थे। वे बाज़ारों से छोटे-छोटे लड़के ख़रीदते थे। ये लड़के ज़्यादातर किपचक तुर्क होते थे- काले सागर और मध्य एशिया के बीच के मैदानी इलाकों की एक लड़ाका क़ौम। मंगोल हमलों की वजह से हज़ारों किपचक बच्चे अनाथ हो गए थे और ग़ुलामों के बाज़ार में बिकने आ गए थे।

 

इन लड़कों को हज़ारों मील दूर मिस्र की राजधानी काहिरा लाया जाता था। यहां उन्हें एक मिलिट्री स्कूल या बैरक में रखा जाता था, उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया जाता था, अरबी सिखाई जाती थी और फिर शुरू होती थी दुनिया की सबसे सख़्त मिलिट्री ट्रेनिंग। उन्हें घुड़सवारी और तीरंदाज़ी में माहिर बनाया जाता था। उन्हें सिखाया जाता था कि तूफ़ानी रफ़्तार से घोड़े दौड़ाते हुए कैसे पलक झपकते ही पीछे घूमकर सटीक निशाना लगाया जाए। उन्हें तलवारबाज़ी और रणनीति के हर दांव-पेंच सिखाए जाते थे। उनकी सिर्फ़ एक वफ़ादारी होती थी - अपने मालिक, यानी सुल्तान के प्रति।

 

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ट्रेनिंग पूरी होने पर उन्हें आज़ाद कर दिया जाता था और सल्तनत की फ़ौज में बड़े पद दिए जाते थे। यही मामलूक आगे चलकर मिस्र के सुल्तान बने। मामलूक ताकतवर थे लेकिन एक कमी थी। दरअसल, ट्रेनिंग के दौरान मामलूक जितने अपने मालिक के प्रति वफ़ादार होते थे, उतने ही एक-दूसरे के दुश्मन भी। हर मामलूक अमीर बनने, ताक़तवर बनने और एक दिन खुद सुल्तान बनने का सपना देखता था और इसलिए, वे आपस में लड़ते रहते थे। एक-दूसरे के ख़िलाफ़ साज़िश करते थे और क़त्ल करने से भी नहीं हिचकिचाते थे। इसी कारण मामलूकों के मिस्र की सत्ता हासिल करने के बाद उन्हें आपस में खास बनती नहीं थी। हंगामा चलता रहता था।

 

मंगोलों के हमले के वक्त मिस्र के मामलूक सुल्तान थे- सैफ़ुद्दीन कुतुज़। कुतुज़ जानते थे कि वे अकेले मंगोलों का सामना नहीं कर सकते। उन्हें ज़रूरत थी मिस्र के सबसे क़ाबिल और सबसे ख़तरनाक जनरल की। एक ऐसा जनरल, जो ख़ुद सुल्तान का सबसे बड़ा दुश्मन भी था।


उसका नाम था रुकनुद्दीन बेबर्स। बेबर्स भी कुतुज़ की तरह एक किपचक तुर्क था, जिसकी अपनी कहानी भी काफ़ी दिलचस्प है। जब उसे गुलाम बनाकर बाज़ार में लाया गया, तो उसकी एक आंख में मोतियाबिंद देखकर किसी ने उसे नहीं खरीदा। उसे एक 'नुक्स' वाला माल समझा गया। आखिरकार एक मामलूक अमीर ने उसे बहुत सस्ते में यह सोचकर खरीद लिया कि चलो, इससे अस्तबल की देखभाल ही करवा लेंगे। कहते हैं, सालों बाद जब बेबर्स दुनिया का सबसे मशहूर योद्धा बन गया तो उसका वह पुराना मालिक अक्सर कहता था, 'मैंने सोचा नहीं था कि मेरा यह'खराब आंख' वाला गुलाम एक दिन अपनी इसी आंख से पूरी दुनिया पर नज़र रखेगा।'

 

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वह लंबा-चौड़ा, सांवले रंग का और बेहद ताक़तवर था। उसकी एक आंख मोतियाबिंद की वजह से नीली थी, जो उसे और भी डरावना बनाती थी। बेबर्स जितना बहादुर था, उतना ही क्रूर भी। वह सुल्तान बनने का सपना देखता था और इसके लिए कई बार कुतुज़ को रास्ते से हटाने की कोशिश कर चुका था। इसी वजह से कुतुज़ ने उसे देश निकाला दे दिया था और वह सीरिया में भटक रहा था। मंगोलों का सामना करने के लिए कुतुज़ को बेबर्स की जरूरत थी। उसने बेबर्स को माफ़ी का पैगाम भेजा और मंगोलों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए वापस काहिरा बुला लिया।

 

गोलायथ के मैदान में क्या हुआ?

 

जब सुल्तान कुतुज़ और बेबर्स काहिरा में अपनी दुश्मनी भुलाकर एक हो रहे थे, तब हजारों मील दूर मंगोल खेमे में कुछ ऐसा हुआ जिसने लड़ाई का पूरा समीकरण ही बदल दिया। मंगोलों के सबसे बड़े बादशाह, द ग्रेट खान मोंगके खान की चीन में मौत हो गई। यह खबर जब सीरिया में मौजूद हुलागू खान तक पहुंची, तो वह एक दुविधा में पड़ गया। मंगोल परंपरा के मुताबिक, ग्रेट खान की मौत के बाद राज परिवार के सभी शहज़ादों को नए खान के चुनाव के लिए वापस राजधानी काराकोरम पहुंचना होता था। हुलागू खुद भी अगला ग्रेट खान बनने का एक तगड़ा दावेदार था। अगर वह नहीं जाता, तो उसका कोई और चचेरा भाई यह पद हासिल कर लेता। हुलागू ने एक मुश्किल फैसला लिया। वह अपनी फौज का बड़ा और सबसे बेहतरीन हिस्सा लेकर वापस फारस की तरफ लौट गया लेकिन मिस्र को जीतने का सपना उसने छोड़ा नहीं था। उसने अपनी फौज का एक हिस्सा, करीब 20,000 सैनिकों की टुकड़ी, सीरिया में ही छोड़ दी। इस फौज की कमान उसने अपने सबसे भरोसेमंद और बहादुर जनरल को सौंपी। उसका नाम था कितबुका नोयन।

 

कितबुका एक आम मंगोल नहीं था। वह तुर्क था और उसने ईसाई धर्म अपना लिया था। वह एक अनुभवी, निडर और बेहद काबिल सेनापति था, जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी मंगोलों के लिए लड़ते हुए बिताई थी। हुलागू को यकीन था कि कितबुका की फौज मिस्र के मामलूकों को कुचलने के लिए काफी है। आखिर आज तक दुनिया की कोई ताकत मंगोलों के सामने टिकी ही कहां थी?

 

उधर काहिरा में सुल्तान कुतुज़ ने अपने सभी मामलूक अमीरों की एक आपातकालीन बैठक बुलाई। सवाल एक ही था- क्या किया जाए? क्या हम मिस्र में रहकर मंगोलों के हमले का इंतज़ार करें या अपनी पूरी ताकत के साथ मिस्र से बाहर निकलकर सीरिया में उनका सामना करें?

 

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कुछ अमीरों का मानना था कि इंतज़ार करना चाहिए लेकिन बेबर्स इसके लिए तैयार नहीं था। उसने दरबार में एक जोरदार भाषण दिया। जिसे सुनकर सारे अमीरों में जोश भर गया। उन्होंने एक साथ कसम खाई कि वह आखिरी सांस तक लड़ेंगे। फैसला हो चुका था, मामलूक फौज मिस्र से बाहर जाकर मंगोलों का सामना करेगी। जल्द ही मामलूक फौज काहिरा से निकल पड़ी। वह सीधे फ़लस्तीन की तरफ बढ़े लेकिन उनके रास्ते में एक और बड़ी रुकावट थी- ईसाई धर्मयोद्धाओं का राज्य, जिसका केंद्र एकर शहर था। यह वही यूरोपियन योद्धा थे जो सौ साल से मुसलमानों के खिलाफ लड़ रहे थे। मामलूक उनके पुराने दुश्मन थे।

कुतुज़ ने अपने दूत एकर भेजे। संदेश साफ था, 'हम तुम्हारे दुश्मन हैं और मंगोल भी तुम्हारे दुश्मन हैं। हम तुमसे लड़ने नहीं आए हैं। हमें सिर्फ अपनी ज़मीन से गुज़रने दो और हमें रसद खरीदने दो। अगर तुम हमारे दोस्त नहीं बन सकते, तो कम से कम हमारे दुश्मन के दोस्त भी मत बनो।'

 

क्रूसेडर मान गए। उन्होंने मामलूकों को अपनी ज़मीन से गुजरने और अपनी सेना के लिए खाना-पानी खरीदने की इजाज़त दे दी। यह मामलूकों के लिए एक बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत थी। अब मामलूक फौज ताज़ा दम होकर उस जगह पहुंची जहां उन्हें मंगोलों का सामना करना था। वह जगह थी ऐन जालूत। 'ऐन जालूत' का मतलब होता है 'गोलायथ का चश्मा।' इस जगह का नाम बाइबल की एक मशहूर कहानी से जुड़ा है। दाऊद और गोलायथ की कहानी।

 

कहानी कुछ यूं है कि एक तरफ थी फलिस्तीनी सेना और उनका विशालकाय योद्धा, गोलायथ। वह लोहे के कवच में ढका रहता था और रोज़ इजरायली सेना को ललकारता था, 'है कोई जो मुझसे अकेले लड़ सके?' इजरायली फौज में कोई भी उस दानव जैसे योद्धा से लड़ने की हिम्मत नहीं कर पाता था। तभी दाऊद नाम का एक नौजवान गड़रिया, जो सिपाही भी नहीं था, आगे आया। उसने बादशाह का दिया भारी-भरकम कवच और तलवार लेने से इनकार कर दिया। हाथ में ली तो बस अपनी गुलेल और नदी से चुने हुए पांच चिकने पत्थर। दाऊद ने अपनी गुलेल से एक पत्थर सीधा गोलायथ के माथे पर दे मारा और वह ढेर हो गया।

डेविड और गोलायथ की यह कहानी कमजोर की ताक़तवर पर जीत की कहानी है और यह कहानी ऐन जलूत के मैदान में घटी, ऐसा माना जाता है। इसी मैदान में 13वीं सदी में मंगोलों और मामलूकों को आमना सामना हुआ। जैसा पहले बताया इस समय तक हुलागू ख़ान मंगोल फौज के साथ नहीं था, फौज की कमान कितबुका नोयन के हाथ में थी। जब उसे पता चला कि मामलूक फौज ऐन जालूत तक पहुंच गई है, वह फौरन अपनी फौज लेकर उनका सामना करने निकल पड़ा। अब दुनिया की दो सबसे खतरनाक सेनाएं आमने-सामने थीं।


वह जंग जिसने इतिहास बदल दिया

 

3 सितंबर, 1260 की सुबह। ऐन जालूत के मैदान पर सूरज की पहली किरणें पड़ीं। एक तरफ मंगोल फौज अपने घोड़ों पर तैयार खड़ी थी। उनके लोहे के कवच और भाले सूरज की रोशनी में चमक रहे थे। वे शांत थे क्योंकि उन्हें जीत का यकीन था। उनके लिए यह बस एक और लड़ाई थी। दूसरी तरफ मामलूक फौज थी। उनके दिलों में जोश भी था और डर भी। वह जानते थे कि यह कोई आम लड़ाई नहीं है। यह उनके वजूद की जंग है।

 

मंगोल जनरल कितबुका ने दूर से मामलूक फौज के अगले दस्ते को देखा। यह दस्ता बहुत बड़ा नहीं था। कितबुका को लगा कि यही पूरी मामलूक फौज है। उसे अपनी जीत इतनी यकीनी लगी कि उसने अपनी पूरी ताकत से एक सीधा हमला करने का फैसला किया। उसने अपने सैनिकों को हुक्म दिया- चार्ज!

 

हजारों मंगोल सैनिक एक साथ अपने घोड़े दौड़ाते हुए आगे बढ़े। ज़मीन कांपने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे एक तूफान मामलूकों को निगलने के लिए आगे बढ़ रहा हो। मामलूक फौज के अगले दस्ते की कमान बेबर्स के हाथ में थी। जैसे ही मंगोल उन पर झपटे, बेबर्स और उसके सैनिक भी उनसे भिड़ गए। मैदान में तलवारें टकराने लगीं, तीरों की बारिश होने लगी। कुछ देर तक ज़बरदस्त लड़ाई चली और फिर जैसा कि तय था, बेबर्स ने वह किया जिसकी मंगोलों को उम्मीद नहीं थी। बेबर्स ने अपनी फौज को पीछे हटने का हुक्म दिया। मामलूक सैनिक लड़ने का नाटक करते-करते मैदान से भागने लगे। वह पास की एक घाटी और पहाड़ियों की तरफ भाग रहे थे। कितबुका ने जब यह देखा, तो वह ज़ोर से हंसा। उसे लगा कि मामलूक डर कर भाग रहे हैं। उसने अपनी पूरी फौज को हुक्म दिया कि इन कायरों का पीछा करो और एक को भी ज़िंदा मत छोड़ो।

 

मंगोल फौज, जो अपनी अनुशासित रणनीति के लिए जानी जाती थी, अब जीत के जोश में सारे नियम भूल चुकी थी। वह बेतरतीब ढंग से भागते हुए मामलूकों का पीछा करने लगे। वह धूल और शोर के गुबार में यह देख ही नहीं पाए कि वह एक जाल में फंसते जा रहे हैं। जैसे ही मंगोल फौज घाटी के अंदर घुसी, जाल बंद हो गया। सुल्तान कुतुज़, जो अपनी मुख्य सेना के साथ पहाड़ियों के पीछे छिपा हुआ था, उसने हमला करने का हुक्म दे दिया। तीन तरफ से हज़ारों मामलूक सैनिक 'अल्लाहू अकबर' के नारे लगाते हुए मंगोलों पर टूट पड़े।


मंगोल चारों तरफ से घिर चुके थे लेकिन मंगोल इतनी आसानी से हार मानने वाले नहीं थे। कितबुका ने अपनी फौज को फिर से इकट्ठा किया और एक ज़बरदस्त जवाबी हमला किया। एक पल के लिए ऐसा लगा कि मंगोल मामलूकों की घेराबंदी को तोड़कर निकल जाएंगे। मामलूक फौज का बायां हिस्सा मंगोलों के दबाव में टूटने लगा था।

 

सुल्तान कुतुज़, जो एक ऊंची पहाड़ी से यह सब देख रहा था, समझ गया कि अगर अभी कुछ नहीं किया गया तो जीती हुई बाजी हाथ से निकल जाएगी और तब कुतुज़ ने वह किया जो एक सच्चा लीडर करता है। उसने अपना शाही हेलमेट उतारकर फेंक दिया ताकि उसके सैनिक उसका चेहरा पहचान सकें और फिर वह अपनी पूरी ताकत से चिल्लाया- 'या इस्लामाह!'

 

यह नारा सुनते ही पूरी मामलूक फौज में जैसे बिजली दौड़ गई। सुल्तान खुद अपनी जान की परवाह किए बिना मैदान में कूद पड़ा था। कुतुज़ अपनी रिज़र्व सेना को लेकर सीधा उस जगह पर जाकर भिड़ गया जहां उसकी फौज कमज़ोर पड़ रही थी। अपने सुल्तान को अपने बीच लड़ते देख मामलूक सैनिक जोश से भर गए। वे दोगुनी ताकत से मंगोलों पर टूट पड़े। अब लड़ाई का रुख पूरी तरह बदल चुका था। मंगोलों के पैर उखड़ने लगे। उनकी लाइनें टूट गईं और वे मैदान छोड़कर भागने लगे। मामलूक सैनिक मीलों तक उनका पीछा करते रहे और उन्हें मारते रहे।


मंगोल जनरल कितबुका भागा नहीं। उसने अपनी हार कबूल कर ली थी। वह कुछ वफादार सैनिकों के साथ आखिरी दम तक लड़ता रहा। आखिरकार, उसे ज़िंदा पकड़ लिया गया और सुल्तान कुतुज़ के सामने पेश किया गया। कुतुज़ के इशारे पर कितबुका का सर कलम कर दिया गया। ऐन जालूत की जंग खत्म हो चुकी थी। मैदान मंगोलों की लाशों से पटा पड़ा था। पचास सालों में यह पहली बार था, जब मंगोलों की अजेय सेना को किसी ने मैदान-ए-जंग में इतनी बुरी तरह हराया था। मंगोलों के कभी न हारने का मिथक टूट चुका था।

मंगोलों ने इस्लाम क्यों क़बूल किया?

 

ऐन जालूत की जीत की खबर जब दमिश्क और अलेप्पो पहुंची, तो वहां के लोगों ने सड़कों पर निकलकर जश्न मनाया। मंगोलों का खौफ खत्म हो चुका था। मामलूक फौज अब एक विजेता की तरह काहिरा लौट रही थी लेकिन इस जीत की कहानी में एक और मोड़ बाकी था। जिस वक्त पूरी फौज जीत के जश्न में डूबी थी, उस वक्त बेबर्स के दिमाग में सुल्तान बनने का पुराना सपना फिर से जाग उठा था। उसने देखा कि सुल्तान कुतुज़ ने जीत का सारा श्रेय खुद ले लिया है। बेबर्स को लगा कि उसके साथ नाइंसाफी हुई है। वापसी के रास्ते में शिकार खेलने के बहाने, बेबर्स और उसके कुछ वफादार साथियों ने सुल्तान कुतुज़ को अकेला पाकर उसका क़त्ल कर दिया।

 

इसके बाद बेबर्स सीधा काहिरा पहुंचा और खुद को मिस्र का नया सुल्तान घोषित कर दिया। सुल्तान बेबर्स एक बेहद काबिल और दूरदर्शी शासक साबित हुआ। उसने अगले 17 सालों तक मिस्र पर राज किया और मामलूक सल्तनत को इस्लामी दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बना दिया। उसने मंगोलों को कई बार हराया और ईसाई धर्म योद्धाओं को भी उनकी ज़मीन से खदेड़ दिया। ऐन जालूत में जो जीत हासिल हुई थी, बेबर्स ने उसे एक स्थायी विरासत में बदल दिया लेकिन इस जंग का सबसे बड़ा और दूरगामी असर खुद मंगोलों पर हुआ। वे मंगोल जो इस्लाम के सबसे बड़े दुश्मन थे, चंद दशकों में उन्हें भी इस्लाम काबुल करना पड़ा। यह कैसे हुआ, यह समझने के लिए कुछ चीजें समझनी होंगी। दरअसल, चंगेज़ खान के बाद उसका विशाल साम्राज्य उसके चार पो nuggets में बंट चुका था। इस कहानी के लिए इनमें से दो की बात करेंगे।

 

एक हिस्सा था इल्खानेट। यह फारस और इराक का इलाका था, जहां हुलागू खान और उसके वंशजों ने राज किया। ये वही मंगोल थे जिन्होंने बगदाद को तबाह किया था और ऐन जालूत में हारे थे। दूसरा और हमारे लिए सबसे ज़रूरी हिस्सा था गोल्डन होर्ड। यह रूस और मध्य एशिया के मैदानों का विशाल साम्राज्य था और यहां का खान था बर्के खान, जो हुलागू का चचेरा भाई था।

 

इन दोनों में एक बहुत बड़ा फर्क था। हुलागू बौद्ध धर्म को मानता था और उसकी मां और पत्नी ईसाई थीं इसलिए वह मुसलमानों से नफरत करता था लेकिन बर्के खान अपनी जवानी में ही इस्लाम कबूल कर चुका था। जब बर्के खान को पता चला कि हुलागू ने बगदाद में खलीफा को मार डाला है और लाखों बेगुनाह मुसलमानों का कत्ल किया है तो वह गुस्से से आग-बबूला हो गया। हालांकि, हुलागू उस वक्त बहुत ताकतवर था। बर्के खान अकेले उससे दुश्मनी मोल नहीं ले सकता था लेकिन जब उसे ऐन जालूत में मामलूकों की जीत की खबर मिली। बर्के को समझ आ गया कि हुलागू को हराया जा सकता है। बर्के खान ने फौरन सुल्तान बेबर्स को खत लिखा और उसके साथ एक गठबंधन बना लिया।

 

अब इतिहास में पहली बार मंगोल ही मंगोल के खिलाफ लड़ने जा रहा था। एक तरफ था गोल्डन होर्ड का मुसलमान खान बर्के और दूसरी तरफ था इल्खानेट का बौद्ध खान हुलागू। दोनों के बीच एक लंबी और खूनी जंग छिड़ गई। इस आपसी लड़ाई ने हुलागू को इतना कमज़ोर कर दिया कि वह फिर कभी मिस्र पर हमला करने की हिम्मत नहीं कर पाया। ऐन जालूत की हार और बर्के खान से दुश्मनी, इन दो वजहों से मंगोलों का पश्चिम की तरफ बढ़ता हुआ तूफान हमेशा के लिए रुक गया।

 

यहीं से इस्लाम का रास्ता मंगोलों के लिए खुलना शुरू हुआ। गोल्डन होर्ड तो पहले से ही एक मुस्लिम सल्तनत थी लेकिन अब इल्खानेट के मंगोलों ने भी देखा कि उनकी ताकत आपसी लड़ाई में बर्बाद हो रही है। उन्होंने यह भी महसूस किया कि फारस की जिस जनता पर वह राज कर रहे हैं, वह मुसलमान है। उन पर राज करने के लिए ज़रूरी था कि वह उनके धर्म को समझें और अपनाएं। हुलागू के कुछ दशकों बाद, उसके एक पड़पोते, ग़ाज़ान खान ने औपचारिक रूप से इस्लाम कबूल कर लिया। और उसके बाद, इल्खानेट के ज़्यादातर मंगोल मुसलमान बन गए। वह मंगोल, जो कभी इस्लाम को दुनिया से मिटाने निकले थे, अब खुद उसी धर्म का हिस्सा बन चुके थे। यह ऐन जालूत की जंग का सबसे बड़ा नतीजा था। एक ऐसी जंग, जिसने न सिर्फ एक सल्तनत को बचाया, बल्कि दुनिया के सबसे खूंखार लड़ाकों को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया।