दर्जनों कहानियां, सैकड़ों रामायण, आखिर कौन था असली रावण?
रावण नाम की सबसे प्रचलित कहानी एक ऐसे शख्स के रूप वाली है जिसमें उसने भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण किया था। क्या आप जानते हैं कि रावण की कई और कहानियां भी हैं?

रावण की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
रावण नाम सुनते ही ज़हन में आता है-10 सिरों वाला एक राक्षस। महर्षि वाल्मीकि की रामायण से लेकर गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस तक, हमें रावण की यही छवि मिलती है और यही वह छवि है जो आज सबसे ज़्यादा लोकप्रिय और सर्वमान्य है लेकिन रावण की यह इकलौती छवि नहीं है। आज से लगभग दो हज़ार साल पहले, पहली सदी के आस-पास, प्राकृत भाषा में लिखी गई जैन रामायण, 'पउमचरियं' के अनुसार, रावण के 10 सिर नहीं थे। इस ग्रंथ के लेखक, जैन मुनि विमलसूरि बताते हैं कि जब रावण का जन्म हुआ तो उसकी मां को किसी ने नौ मणियों का एक हार तोहफ़े में दिया। वह हार बेहद चमकदार था। जब मां ने वह हार अपने शिशु के गले में डाला तो उन नौ मणियों में उसके चेहरे का प्रतिबिंब दिखने लगा। एक उसका अपना चेहरा और नौ मणियों में नौ प्रतिबिंब। कुल मिलाकर 10 चेहरे एक साथ दिखाई दिए और बस इसी घटना की वजह से उस बालक का नाम पड़ गया- 'दशमुख', यानी 10 मुंह वाला।
ऐसी कितनी ही और कहानियां हैं। रावण -जिसे हम एक महाकाव्य के विलेन के तौर पर जानते हैं उसके व्यक्तित्व के कई पहलू ऐसे हैं, जो सिर्फ़ रामायण या रामचरितमानस से पूरे नहीं होते।
कौन था रावण?
आज हम वाल्मीकि की रामायण से बाहर निकलकर उन दूसरी कहानियों की पड़ताल करेंगे। हम जानेंगे कि जैन धर्म में रावण कौन था, लोक कथाओं में रावण को किस तरह दिखाया गया है और कैसे वह एक महापंडित और शिवभक्त के रूप में भी जाना गया। हमारा मक़सद किसी एक कहानी को सही या ग़लत साबित करना नहीं, बल्कि भारत की कथा परंपरा की उस विविधता को देखना है, जहां एक ही किरदार के सैकड़ों रूप मिलते हैं। पढ़िए अलग-अलग रावणों के बारे में।
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वाल्मीकि का रावण
सबसे पहले उस रावण से मिलते हैं, जिससे हम सब वाकिफ़ हैं। वह रावण, जिसकी कहानी महर्षि वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य रामायण में हमें सुनाई है क्योंकि दूसरी कहानियों के रावण को समझने के लिए पहले इस मूल किरदार को जानना ज़रूरी है। वाल्मीकि के रामायण में रावण कोई साधारण राक्षस नहीं है। वह ताकत और ज्ञान का एक अद्भुत संगम है। उसके पिता थे महान ऋषि विश्रवा, जो स्वयं ब्रह्मा के पड़पोते थे और उसकी मां थी कैकेसी, जो एक राक्षसी राजकुमारी थी। रावण के दो सगे भाई थे - विशालकाय कुम्भकर्ण और धर्म का पालन करने वाला विभीषण और एक सौतेला भाई था, कुबेर- धन का देवता, जो उस वक़्त सोने की लंका का राजा था।
बचपन से ही रावण की नज़रें कुबेर की लंका और उसकी सत्ता पर थीं। उसने अपने भाइयों के साथ मिलकर हज़ारों साल तक कठोर तपस्या की। इतनी कठोर कि ब्रह्मा को ख़ुद उनके सामने प्रकट होना पड़ा। ब्रह्मा ने वरदान मांगने को कहा तो रावण ने अमरता मांगी। उसने कहा, 'मुझे कोई देवता, कोई असुर, कोई यक्ष, कोई गंधर्व, कोई किन्नर मार न सके।' उसने हर शक्तिशाली प्रजाति का नाम लिया लेकिन अपने अहंकार में उसने दो नाम छोड़ दिए - मनुष्य और वानर। उसे लगा कि ये छोटे, कमज़ोर जीव भला उसका क्या बिगाड़ लेंगे।
वरदान की शक्ति मिलते ही रावण ने अपना असली रूप दिखाया। उसका पहला निशाना बना उसका अपना भाई, कुबेर। उसने कुबेर को लंका से खदेड़ दिया, सोने के उस शानदार शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया और कुबेर का उड़ने वाला पुष्पक विमान भी छीन लिया। रावण तीनों लोकों का स्वामी बनना चाहता था। उसने देवताओं पर हमले किए, उन्हें हराया। पृथ्वी पर वह ऋषियों-मुनियों के यज्ञों में बाधा डालने लगा और उनके आश्रमों को उजाड़ने लगा। किसी भी सुंदर स्त्री को देखता तो उसका हरण कर लेता। पूरे ब्रह्मांड में उसके नाम का आतंक फैल गया। वह ज्ञानवान था, वेदों का ज्ञाता था लेकिन सत्ता के नशे में वह धर्म का रास्ता भूल चुका था और फिर कहानी एक मोड़ पर पहुंची।
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पंचवटी का जंगल, जहां राम, सीता और लक्ष्मण वनवास काट रहे थे। एक दिन, रावण की बहन शूर्पणखा वहां पहुंची और अपमानित होकर लौटी। अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए रावण ने सीता का हरण कर लिया। यह था वाल्मीकि की रामायण का रावण। अपार शक्तिशाली, महान ज्ञानी, घोर तपस्वी लेकिन साथ ही, उतना ही अहंकारी, क्रूर और अधर्मी। एक ऐसा एंटैगनिस्ट, जिसके एक ग़लत काम ने एक पूरे युग का इतिहास लिख दिया।
वाल्मीकि के इसी रावण को भारत की आधुनिक पीढ़ी ने असल में जिया और महसूस किया रामानंद सागर के प्रसिद्ध टीवी सीरियल 'रामायण' के ज़रिए। अभिनेता अरविंद त्रिवेदी ने रावण के किरदार को जिस तरह पर्दे पर उतारा - वह बुलंद आवाज़, वह अट्टहास और वह अहंकार- उसने इस पौराणिक पात्र को घर-घर में एक जीवित चरित्र बना दिया। आज भी जब हम रावण की कल्पना करते हैं तो कहीं न कहीं हमारे ज़हन में वही छवि उभरती है लेकिन जैसा हमने पहले कहा ये सबसे मशहूर छवि है लेकिन इकलौती नहीं।
जैन धर्म का त्रासद नायक
वाल्मीकि की रामायण से बाहर निकलें तो हमें रावण की कुछ अलग तस्वीरें भी मिलती है। जैन परंपरा में ख़ास तौर पर विमलसूरि के ग्रंथ 'पउमचरियं' के अनुसार, रावण कोई ज़मीन पर घूमने वाला दैत्य नहीं बल्कि एक 'विद्याधर' है। विद्याधर, यानी वे लोग जिनके पास जादुई विद्याएँ होती हैं जो मन की गति से उड़ सकते हैं और जिनका साम्राज्य आकाश में होता है। जिस राक्षस वंश का हम ज़िक्र सुनते हैं, जैन परंपरा के अनुसार, असल में वह विद्याधर राजवंश था।
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जैन ग्रंथों में 63 शलाकापुरुषों का एक सिद्धांत आता है। ये वे आत्माएं हैं जो हर कालचक्र में जन्म लेती हैं। इनमें 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती और 9 बलदेव, 9 वासुदेव और 9 प्रति-वासुदेव होते हैं। जैन परंपरा में रावण की कहानी के लिए हमें बस आख़िरी तीन को समझना है। हर युग में तीन भाइयों जैसी एक तिकड़ी होती है:
बलदेव: बड़ा भाई, जो शांत, अहिंसक और धर्मपरायण होता है। वह मोक्ष प्राप्त करता है। जैन परंपरा में बलदेव हैं राम।
वासुदेव: छोटा भाई, जो योद्धा होता है। वह धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करता है, युद्ध लड़ता है और दुनिया पर राज करता है। रामायण की कहानी में जैन परंपरा के हिसाब से लक्ष्मण वासुदेव हैं।
प्रति-वासुदेव: एक और महान राजा, जो शक्ति और वैभव में वासुदेव के बराबर होता है लेकिन अपने किसी जुनून या अहंकार के कारण वह वासुदेव के ख़िलाफ़ खड़ा हो जाता है। जैन परंपरा के अनुसार रावण एक प्रति-वासुदेव है।
इस ढांचे में रावण कोई अचानक पैदा हुआ खलनायक नहीं है। वह एक नायक ही है, बस जो नियति के खेल में नायकों के विपक्ष में खड़ा है। चलिए अब जैन और वाल्मीकि रामायण के कुछ मुख्य अंतरों को देखते हैं।
मसलन जैन रामायण के अनुसार जब अंतिम युद्ध होता है तो राम रावण से नहीं लड़ते। एक बलदेव होने के नाते, वह अहिंसा के मार्ग पर हैं और मोक्ष के अधिकारी हैं। वह इस तरह की बड़ी हिंसा में शामिल नहीं हो सकते। यह कर्तव्य लक्ष्मण का है, जो एक वासुदेव हैं। नियति ने तय किया है कि हर युग का वासुदेव ही उस युग के प्रति-वासुदेव का वध करेगा। इसलिए, जैन रामायणों में लक्ष्मण ही अपने चक्र से रावण का वध करते हैं।
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अब आख़िरी और सबसे चौंकाने वाली बात। जैन धर्म कर्म के सिद्धांत पर चलता है। रावण चूंकि मूल रूप से एक शलाकापुरुष था, इसलिए उसके पुण्य कर्म भी गिने जाते हैं। जैन परंपरा का मानना है कि अपने कर्मों का फल भोगने के बाद, भविष्य में एक दिन रावण की आत्मा इतनी पवित्र हो जाएगी कि वह अगले तीर्थंकरों में से एक के रूप में जन्म लेगी।
300 रामायण
शिकागो यूनिवर्सिटी में भाषा विज्ञान के प्रोफ़ेसर रह चुके भारतीय स्कॉलर, ए. के. रामानुजन ने साल 1987 में एक निबंध पब्लिश किया -Three Hundred Ramayanas। इस निबंध में रामानुजन भारत से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक, रामायण की अलग-अलग कहानियों के बारे में बताते हैं। इनमें से कुछ में रावण सीता प्रसंग एकदम अलग तरीके से आता है। कुछ परंपराओं में तो सीता को रावण की बेटी तक बताया गया है।
थाईलैंड के राष्ट्रीय महाकाव्य 'रामकियेन' और प्राचीन जैन ग्रंथ 'वासुदेवहिन्दी' के अनुसार जब रावण और मंदोदरी को पहली संतान होने वाली थी तो ज्योतिषियों ने चेतावनी दी कि यह कन्या ही रावण के कुल का नाश करेगी। डर से रावण ने अपनी ही नवजात बेटी को एक संदूक में रखकर मिथिला के खेतों में दफ़नवा दिया। सालों बाद, वही बच्ची राजा जनक को मिली और 'सीता' कहलाई।
इसी कहानी का एक और संस्करण, संस्कृत में लिखे गए 'अद्भुत रामायण' ग्रंथ में मिलता है, जिसके अनुसार, रावण ने कई महान ऋषियों का वध किया था। अपने पराक्रम के प्रतीक के तौर पर, उसने उन सभी ऋषियों का ख़ून एक कलश में जमा कर लिया। उसकी पत्नी मंदोदरी अपने पति की इस क्रूरता से तंग आ चुकी थी। एक दिन, जीवन से निराश होकर उसने आत्महत्या करने का फ़ैसला किया। उसने उस कलश को उठाया, यह सोचकर कि ऋषियों का रक्त ज़रूर किसी घातक विष की तरह काम करेगा और वह उसे पी गई लेकिन वह मरी नहीं। बल्कि उस रक्त से, वह गर्भवती हो गई। उससे जिस कन्या का जन्म हुआ, वह देवी सीता थीं।
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सीताहरण की कहानी जो हमें वाल्मीकि रामायण में मिलती है, कुछ दूसरे वर्जन में इस कहानी में भी थोड़ा अन्तर है। वाल्मीकि रामायण में रावण सीता को बाल पकड़कर या उठाकर ले जाता है लेकिन तमिलनाडु में प्रसिद्ध 'कम्ब रामायण' के अनुसार, रावण सीता को छूता नहीं। वह अपनी शक्ति से उस पूरी ज़मीन के टुकड़े को, जिस पर सीता खड़ी थीं (उनकी कुटिया समेत), उखाड़ लेता है और उसे अपने रथ पर रखकर लंका ले जाता है।
महापंडित रावण
रावण की कहानी में अब तक हम तीन किरदारों से मिल चुके हैं। वाल्मीकि का खलनायक, जैनियों का त्रासद नायक, और लोक कथाओं का एक अभागा पिता। लेकिन रावण की एक और पहचान है, जो इन सबसे भी ज़्यादा जटिल और दिलचस्प है। यह पहचान है एक महापंडित और एक परम भक्त की।
भागवत पुराण के अनुसार, रावण और उसका भाई कुम्भकर्ण असल में भगवान विष्णु के धाम, वैकुंठ के द्वारपाल जय और विजय थे। उन्हें एक ऋषि ने श्राप दिया था कि उन्हें तीन जन्मों तक पृथ्वी पर भगवान विष्णु के शत्रु के रूप में जन्म लेना होगा। पहले जन्म में वे हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु बने, दूसरे में रावण और कुम्भकर्ण, और तीसरे में शिशुपाल और दंतवक्र। इस कहानी के अनुसार, रावण का पूरा जीवन एक लीला थी। वह जानता था कि भगवान विष्णु के अवतार (राम) के हाथों मृत्यु पाकर ही उसे मोक्ष मिलेगा और वह वापस वैकुंठ जा पाएगा। इस नज़रिए से उसका सीता हरण और राम से शत्रुता, मोक्ष पाने का एक जानबूझकर चुना गया रास्ता था।
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इसके अलावा रावण को परम शिव भक्त भी माना गया है। इसकी सबसे प्रसिद्ध कथा जुड़ी है कैलाश पर्वत से। अपनी शक्तियों के घमंड में चूर, रावण एक दिन कैलाश पर्वत के पास पहुंचा। उसने देखा कि पर्वत के ऊपर भगवान शिव और पार्वती विराजमान हैं। अहंकार में आकर रावण ने सोचा क्यों न इस पूरे पर्वत को ही उठाकर लंका ले चलूं ताकि मेरे भगवान हमेशा मेरे पास रहें। यह सोचकर उसने अपनी बीस भुजाओं से पूरे कैलाश पर्वत को उखाड़ने की कोशिश की। जब पर्वत हिलने लगा, तो भगवान शिव ने सब कुछ समझ लिया। उन्होंने मुस्कुराते हुए, अपने पैर के सिर्फ़ एक अंगूठे से पर्वत पर हल्का सा दबाव डाला।
कैसे रचा गया शिव तांडव स्तोत्रम्?
बस इतना ही काफ़ी था। कैलाश पर्वत वापस अपनी जगह पर बैठ गया और रावण की भुजाएं उसके नीचे दब गईं। असहनीय पीड़ा में उसने अपनी एक भुजा उखाड़ी, अपनी आंतों को निकालकर उसके तार बनाए और उसे एक वीणा की तरह इस्तेमाल करके उसी क्षण भगवान शिव की स्तुति में एक स्तोत्र रच दिया। इसे ही 'शिव तांडव स्तोत्रम्' के नाम से जाना जाता है। कहते हैं कि इस स्तोत्र को सुनकर भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने न सिर्फ़ रावण को मुक्त किया, बल्कि उसे 'रावण' नाम दिया, जिसका एक अर्थ है 'भयानक दहाड़ वाला'। साथ ही, उन्होंने उसे अपनी दिव्य तलवार, चंद्रहास भी भेंट की।
'शिव तांडव स्तोत्रम्' के अलावा, यह भी माना जाता है कि रावण ने एक वाद्य यंत्र का अविष्कार किया था, जिसे आज भी राजस्थान और गुजरात के लोक संगीतकार इस्तेमाल करते हैं। इसका नाम है 'रावणहत्था'- यह वायलिन जैसा एक तार वाला वाद्य यंत्र है और इसे दुनिया के सबसे पुराने वाद्य यंत्रों में से एक माना जाता है। रावण की शख़्सियत का एक और पहलू था उसका ज्ञान। पिता ऋषि होने के कारण, उसे चारों वेदों और छह शास्त्रों का गहरा ज्ञान था। वह एक कुशल वीणा वादक और संगीत का ज्ञाता था। ज्योतिष और तंत्र के क्षेत्र में आज भी 'रावण संहिता' नाम के एक ग्रंथ का ज़िक्र होता है, जिसे रावण की ही रचना माना जाता है।
रावण के ज्ञान और धर्म के पालन की सबसे अद्भुत कहानी वह है, जिसमें वह अपने सबसे बड़े शत्रु का पुरोहित बनता है। यह कहानी लोक परंपरा से आती है। जब राम अपनी सेना के साथ समुद्र तट पर पहुंचे तो लंका पर चढ़ाई करने से पहले उन्हें विजय के लिए भगवान शिव का आशीर्वाद चाहिए था। इसके लिए एक यज्ञ होना था। यज्ञ के लिए एक ऐसे पुरोहित की ज़रूरत थी जिसे वेदों का पूरा ज्ञान हो और जो परम शिवभक्त हो। जामवंत और हनुमान ने कहा कि इस समय पूरी दुनिया में इस योग्यता का सिर्फ़ एक ही व्यक्ति है और वह है लंका का राजा रावण।
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यह एक असंभव सी स्थिति थी। राम उस यज्ञ की तैयारी कर रहे थे जो रावण के ही विनाश के लिए था और उस यज्ञ का पुरोहित भी स्वयं रावण को ही होना था। राम ने निमंत्रण भेजा। रावण के सामने धर्मसंकट था। एक राजा के तौर पर उसका धर्म था कि वह अपने शत्रु का निमंत्रण ठुकरा दे लेकिन एक ब्राह्मण और शिवभक्त के तौर पर उसका धर्म था कि वह यज्ञ के निमंत्रण को स्वीकार करे और रावण ने अपने ब्राह्मण धर्म को चुना।
वह युद्ध भूमि में आया, जहां उसका शत्रु अपनी सेना के साथ खड़ा था। रावण ने पूरे विधि-विधान से यज्ञ संपन्न कराया। जब यज्ञ पूरा हुआ तो रीति के अनुसार यजमान यानी राम को पुरोहित से आशीर्वाद लेना था। राम ने हाथ जोड़कर रावण से विजय का आशीर्वाद मांगा। रावण पुरोहित के आसन पर था। अपने कर्तव्य से बंधकर उसने अपने शत्रु के सिर पर हाथ रखा और कहा- 'विजयी भवः' यानी तुम्हारी विजय हो और फिर वह चुपचाप अपनी सेना में युद्ध करने के लिए लौट गया।
निष्कर्ष
रावण की ये अलग-अलग कहानियां उसे एक जटिल किरदार के रूप में पेश करती हैं। इन कहानियों का होना ही इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि भारत की परंपरा किसी एक किताब या एक विचार में बंधी हुई नहीं है। यह एक विशाल और ज़िंदा नदी की तरह है, जिसमें हज़ारों धाराएं आकर मिलती हैं। हर परंपरा ने रावण के किरदार को अपने नज़रिए, अपने मूल्यों और अपनी ज़रूरतों के हिसाब से गढ़ा है। रावण एक ऐसा कैनवास है, जिस पर हर युग और हर परंपरा ने अपनी समझ के रंग भरे हैं और शायद यही वजह है कि हज़ारों साल बाद भी, रावण की कहानी कभी पुरानी नहीं होती। वह आज भी हमारे बीच ज़िंदा है - अलग-अलग रूपों में, अलग-अलग आवाज़ों में।
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