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बिहार की गिद्धौर रियासत का इतिहास क्या है?

बिहार की गिद्धौर रियासत ने मुगल सल्तनत के सामने जमकर संघर्ष किया और अपनी चालाकी से अपना वजूद बनाए रखा था। पढ़िए गिद्धौर की कहानी।

Gidhaur Riyasat

गिद्धौर रियासत की कहानी, Photo Credit: Khabargoan

दिल्ली में शहंशाह अकबर का दरबार, जहां सोने-चांदी की खनक से दीवारें गूंजती थीं और उस दिल्ली से सैकड़ों कोस दूर, आज के बिहार के जमुई ज़िले के घने जंगलों के बीच एक छोटी सी, गुमनाम राजपूत रियासत। नाम था- गिद्धौर। दिल्ली और गिद्धौर के बीच कोई वास्ता नहीं था लेकिन एक पत्थर ने दोनों के बीच की दूरी पाट दी। गिद्धौर की लोककथाओं के अनुसार, यह किस्सा गिद्धौर के राजा पूरणमल से जुड़ा है। हुआ यूं कि दिल्ली से एक कवि गिद्धौर घूमने आया। वह राजा पूरणमल की दरियादिली और मेहमाननवाज़ी से इतना खुश हुआ कि उसने राजा से इनाम में पारसमणि मांग ली, पारसमणि। यानी वह पत्थर जो लोहे को छू ले तो उसे सोना बना दे।

 

राजा पूरणमल ने वचन दे दिया कि अगर उन्हें कभी पारसमणि मिली तो वह उस कवि को ही देंगे। कहानी कहती है कि कुछ समय बाद राजा पूरणमल को सच में वह जादुई पत्थर मिल गया। राजा ने वह बेशक़ीमती पत्थर उस कवि को तोहफ़े में भिजवा दिया। जब वह कवि बादशाह अकबर के दरबार में पहुंचा तो उसने राजा पूरणमल के वचन की कहानी सुनाई और सबूत के तौर पर उस पत्थर से एक शाही तलवार को सोना बनाकर दिखा दिया लेकिन इससे पहले कि अकबर कुछ समझ पाते, कवि ने वह पत्थर यमुना नदी में फेंक दिया।

 

बादशाह अकबर हैरान रह गए। उन्हें यकीन हो गया कि गिद्धौर के पास पारसमणि का खज़ाना है। उन्होंने राजा पूरणमल को दिल्ली हाज़िर होने का हुक्म दिया लेकिन तब तक पूरणमल की मौत हो चुकी थी। बादशाह को लगा कि यह कोई चाल है। नतीजा? पूरणमल के बेटे, हरि सिंह को दिल्ली में बंधक बना लिया गया।

 

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एक तरफ थी दिल्ली की सल्तनत की अकूत ताकत और दूसरी तरफ एक छोटी सी रियासत। इस टकराव का अंजाम क्या हुआ? क्या हरि सिंह दिल्ली की कैद से आज़ाद हो पाए और कैसे गिद्धौर ने मुगल सल्तनत के सामने अपनी पहचान को ज़िंदा रखा? आज जानेंगे बिहार की गिद्धौर रियासत की कहानी

 

 कोल्हू, पगहा और तलवार 

 

हर बड़ी रियासत की कहानी एक छोटे से क़दम से शुरू होती है। मुग़लों और सुल्तानों के दौर से बहुत पहले, बिहार का दक्षिणी हिस्सा घने जंगलों और ताक़तवर क़बीलों का इलाक़ा था। इस ज़मीन पर क़िस्मत एक नए ख़ानदान की कहानी लिखने वाली थी। एक ऐसी कहानी जो तलवार की नोक से शुरू हुई। बात है 13वीं सदी की यानी आज से लगभग 750 साल पहले। हिंदुस्तान की सियासत में बड़ी उथल-पुथल मची हुई थी। पृथ्वीराज चौहान के हाथों हार और फिर तुर्क हमलावरों की मार ने बड़े-बड़े सूरमाओं को अपनी ज़मीन छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। इन्हीं में से एक थे आज के उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में स्थित महोबा के चंदेल राजपूत। ये वही चंदेल थे जिन्होंने खजुराहो के शानदार मंदिर बनवाए थे लेकिन अब वक़्त बदल चुका था। उनकी ताक़त बिखर गई थी।

 

 

इसी बिखरे हुए चंदेल वंश की एक शाखा मध्य प्रदेश की बर्दी रियासत में राज करती थी। वहीं के राजा के छोटे भाई थे बीर बिक्रम शाह। एक राजकुमार, जिसके पास अपनी कोई रियासत नहीं थी। 'बिहार डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर: मुंगेर', के अनुसार पारिवारिक कहानियां बताती हैं कि बीर बिक्रम शाह को भगवान शिव का बुलावा आया, जिसने उन्हें पूरब की ओर एक नई किस्मत आज़माने का रास्ता दिखाया। बीर बिक्रम शाह अपनी छोटी सी टोली के साथ निकल पड़े। उनका सफ़र आज के बिहार के दक्षिणी हिस्से में आकर रुका जहां आदिवासी क़बीले रहते थे।

 

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जिस इलाके को बीर बिक्रम ने चुना, वह दोसाध क़बीले के अधिकार में था और दोसाधों के सरदार थे नागोरिया। नागोरिया और बीर बिक्रम शाह के बीच 1262 ईस्वी के आस-पास एक निर्णायक जंग हुई, जिसमें जीत बीर बिक्रम शाह को मिली। लड़ाई जीतने के बाद, बीर बिक्रम शाह पास के एक तालाब पर गए और वहां उन्होंने ख़ून से सनी अपनी तलवार को धोया। इस तालाब को गिद्धौर के लोग 'खड़वा पोखर' यानी 'तलवार वाला तालाब' के नाम से जानते हैं। इलाके पर जीत के बाद बीर बिक्रम शाह ने अपनी राजधानी आज के जमुई ज़िले में मौजूद खैरा क़स्बे में बसाई जहां आज भी पुराने पत्थर के क़िले के खंडहर मिलते हैं। यहीं से उस गिद्धौर रियासत की कहानी शुरू हुई, जो अगले लगभग सात सौ सालों तक बिहार की सियासत का एक अहम हिस्सा बनी रही।

पारसमणि, बादशाह और बंटवारा 

 

राजा बीर बिक्रम शाह के बाद गिद्धौर पर कई शासकों ने राज किया, जिनमें एक रघुनाथ सिंह ने हुमायूं के साथ युद्ध में शेर शाह सूरी का साथ दिया था। इनके पोते राजा पूरणमल अकबर के समकालीन थे। पूरणमल एक चालाक शासक थे। उन्होंने बादशाह अकबर की हुकूमत तो कबूल कर ली थी लेकिन उनकी असली सियासत बिहार की ज़मीन पर चलती थी, जहां सबसे बड़ा ख़तरा दिल्ली नहीं, बल्कि पड़ोसी थे।

 

पूरणमल के सबसे बड़े दुश्मन थे खड़गपुर रियासत के राजा संग्राम सिंह। दोनों रियासतों में पुरानी अदावत थी। इतिहासकार ताहिर हुसैन अंसारी अपनी किताब 'Mughal Administration and the Zamindars of Bihar' में ज़िक्र करते हैं कि पूरणमल ने एक बड़ा दांव खेला। उन्होंने मुग़ल सूबेदार शाहबाज़ ख़ान से नज़दीकियां बढ़ाईं। अपनी दोस्ती का इस्तेमाल करके, उन्होंने मुग़ल सेना की मदद से खड़गपुर पर हमला कर दिया और अपने दुश्मन संग्राम सिंह को जंगलों में भागने पर मजबूर कर दिया। इस जीत ने पूरणमल को इलाके का सबसे ताक़तवर राजा बना दिया लेकिन सियासत में वक़्त बदलते देर नहीं लगती। पूरणमल का एक पुराना सिपाही, जो अब संग्राम सिंह से जा मिला था, उसने शाहबाज़ ख़ान को मारने की साज़िश रची। उसने धोखे से हमला किया लेकिन ग़लती से शाहबाज़ ख़ान की जगह कोई और मारा गया। मुग़ल सूबेदार को शक हुआ कि इस साज़िश के पीछे पूरणमल का हाथ है। दोस्ती दुश्मनी में बदल गई और शाहबाज़ ख़ान ने पूरणमल को क़ैद कर लिया।

 

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इसी उथल-पुथल के बीच पारसमणि का वह मशहूर किस्सा हुआ। जो हमने आपको शुरुआत में सुनाया था। अकबर ने पूरणमल के बड़े बेटे और असली हक़दार, कुंवर हरि सिंह को दिल्ली में ही नज़रबंद कर लिया। हरि सिंह की ग़ैरमौजूदगी में उनके छोटे भाई बिशम्भर सिंह ने गिद्धौर की गद्दी संभाल ली। कई साल बाद जब हरि सिंह रिहा होकर लौटे तो रियासत पर दो भाइयों का दावा था। आपस में लड़कर रियासत को कमज़ोर करने के बजाय, दोनों ने एक समझौता किया। रियासत का बंटवारा हो गया। हरि सिंह गिद्धौर के मालिक बने और बिशम्भर सिंह को खैरा का इलाक़ा मिला, जहां से उनकी एक अलग शाखा शुरू हुई।

दारा शिकोह की चिट्ठी 

 

गिद्धौर रियासत का मुग़लों से दूसरी बार पाला पड़ा साल 1657 में। दिल्ली में मुग़ल सल्तनत का सूरज डूब रहा था। शाहजहां बीमार थे और उनके चार बेटे तख़्त के लिए एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गए थे। ऐसे वक्त में गिद्धौर जैसी छोटी रियासतों के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी, सही पाला चुनना। एक ग़लत फ़ैसला और रियासत का नामोनिशान मिट सकता था। उस वक़्त गिद्धौर की गद्दी पर थे राजा दूलन सिंह जिन्हें मुग़ल दस्तावेज़ों में दाल सिंह भी कहा गया है। वह बादशाह शाहजहां के वफ़ादार थे। खुद शाहजहां ने 1651 में एक फ़रमान जारी कर उन्हें 'राजा' का ख़िताब दिया था।

 

जब तख़्त की लड़ाई शुरू हुई तो गिद्धौर की अहमियत अचानक बढ़ गई। दारा शिकोह और शाह शुजा, दोनों ने राजा दूलन सिंह को मदद के लिए ख़त भेजे। शाह शुजा का फ़रमान 19 मार्च, 1658 को पहुंचा तो दारा शिकोह का ख़त 14 अप्रैल, 1658 को आया। राजा दूलन सिंह के सामने एक मुश्किल सवाल था। किसका साथ दें? शाह शुजा बंगाल में होने की वजह से पड़ोस में था। औरंगज़ेब की ताक़त का किसी को अंदाज़ा नहीं था और दारा शिकोह दिल्ली में बैठे बादशाह के चहेते थे। अंत में राजा दूलन सिंह ने दारा शिकोह का साथ देने का फैसला किया। राजनीतिक गुणा-भाग के अलावा इस फैसले का एक और बड़ा कारण था।

 

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दारा शिकोह ने दूलन सिंह को ऑफर दिया था कि अगर दूलन सिंह उनका साथ देते हैं तो उन्हें उनकी पड़ोसी और दुश्मन रियासत, खड़गपुर, की ज़मींदारी भी दे दी जाएगी। ऐसा इसलिए क्योंकि खड़गपुर के राजा बहरोज़ ने शाह शुजा का साथ देने का फ़ैसला किया था। यानी, मुग़ल सल्तनत की बड़ी लड़ाई में बिहार की छोटी-छोटी रियासतों की आपसी दुश्मनी भी एक मोहरा बन गई थी। दिलचस्प बात यह है कि दारा शिकोह और शाह शुजा के वह ख़त आज भी गिद्धौर के राजपरिवार के पास महफ़ूज़ हैं। बहरहाल, मुग़ल गद्दी की लड़ाई में हम सब जानते हैं, दारा शिकोह की हार हुई। इससे गिद्धौर को बड़ा नुकसान हो सकता था लेकिन किस्मत से ऐसा हुआ नहीं। शायद दिल्ली की गद्दी पर बैठे बादशाह से वफ़ादारी निभाने चलते गिद्धौर पर कोई बड़ी आफ़त नहीं आई। 

बक्सर की हार और 1857 का इनाम 

 

मुग़लों का दौर बीतने के बाद आया अंग्रेज़ी हुकूमत का दौर। इस दौर में भी गिद्धौर को ख़ुद को क़ायम रखना था।  साल 1764, आज के बिहार में स्थित बक्सर के मैदान में हिंदुस्तान की क़िस्मत का फ़ैसला होने वाला था। एक तरफ़ बंगाल के नवाब मीर क़ासिम की फ़ौज थी तो दूसरी तरफ़ अंग्रेज़ों की ताक़तवर सेना। गिद्धौर के तत्कालीन राजा, राजा अमर सिंह ने परंपरा और पुरानी वफ़ादारी का साथ दिया। उन्होंने बंगाल के नवाब का समर्थन करने का फ़ैसला किया।

 

यह एक ऐसा दांव था जो बुरी तरह ग़लत साबित हुआ। बक्सर की लड़ाई में क़ासिम को हार मिली और इस हार की सज़ा गिद्धौर को भी भुगतनी पड़ी। अंग्रेज़ों ने रियासत का एक बड़ा हिस्सा ज़ब्त कर लिया। इस ज़ब्त की हुई ज़मीन को अंग्रेज़ों ने 'घाटवाली' जागीरों में बांट दिया। यह एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें स्थानीय सरदारों को टैक्स-फ्री ज़मीन के बदले इलाके के पहाड़ी रास्तों (घाटों) की सुरक्षा और पुलिसिंग की ज़िम्मेदारी दी जाती थी।

 

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वक़्त का पहिया घूमा। लगभग 100 साल बीत गए। 1857 में हिंदुस्तान की धरती एक बार फिर लाल हुई। इस बार बग़ावत अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ थी। कई राजे-रजवाड़े इस बग़ावत में शामिल हो गए। ऐसे में गिद्धौर के महाराजा जयमंगल सिंह ने एक अलग रास्ता चुना। उन्होंने वह ग़लती नहीं दोहराई जो उनके पुरखों ने बक्सर में की थी।

 

जयमंगल सिंह ने 1857 के ग़दर के दौरान अंग्रेज़ों का साथ दिया। इससे पहले 1855 के संथाल विद्रोह (Santhal Rebellion) को कुचलने में भी उन्होंने अंग्रेज़ों की मदद की थी। लिहाजा अंग्रेज़ हुकूमत से उन्हें कई सम्मान मिले। 


1856 में उन्हें औपचारिक तौर पर 'राजा' का ख़िताब दिया गया।
1861 में उन्हें 3,000 रुपये सालाना की एक कर-मुक्त जागीर इनाम में मिली
1865 में उन्हें 'महाराजा' की उपाधि से नवाज़ा गया।
और 1877 में 'महाराजा बहादुर' का ख़िताब उनके परिवार के लिए वंशानुगत कर दिया गया।


मिंटो टावर और सफ़ेद बाघ 

 

यहां से कहानी में हम 20वीं सदी की शुरुआत तक पहुंचते हैं। हिंदुस्तान पर ब्रिटिश हुकूमत का सूरज अपने चरम पर था। तलवार और बगावत का दौर अब पुरानी बात हो चुका थी। गिद्दौर के महाराजा सर रावणेश्वर प्रसाद सिंह ने इस बात को बखूबी समझा। वह पढ़े-लिखे थे और बंगाल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य भी रहे। उन्होंने गिद्धौर में कई निर्माण करवाए। एक पक्का बाज़ार बनवाया, एक हाई स्कूल की नींव रखी और आम लोगों के लिए एक खैराती दवाखाना खुलवाया लेकिन उनके दौर की सबसे बड़ी पहचान बनी एक शानदार इमारत, जिसे आज भी गिद्धौर का दिल कहा जाता है - मिंटो टावर।

 

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साल था 1909, हिंदुस्तान के वायसरॉय, लॉर्ड मिंटो, गिद्धौर के दौरे पर आने वाले थे। इसी दौरे की याद में महाराजा रावणेश्वर ने एक भव्य क्लॉक टावर गेटवे बनवाया, जिसका नाम 'मिंटो टावर' रखा गया। गिद्धौर के जमींदारों ने अंग्रेज़ों की तरह स्कूल और अस्पताल बनवाए लेकिन उनके चर्चे अपने राजसी शौक़ों के लिए लिए हुए। साल 1932 की बात है । उन दिनों गिद्धौर के लछुआड़ के जंगलों में एक अफ़वाह आग की तरह फैली हुई थी। एक विशाल, 10 फुट लंबे सफ़ेद बाघ की अफ़वाह। यह कोई मामूली जानवर नहीं था। सफ़ेद बाघ उस ज़माने में एक किंवदंती की तरह था, जिसे देखना भी नसीब नहीं होता था।

 

तब गिद्धौर के महाराजा थे चंद्रमौलेश्वर प्रसाद सिंह। शिकार के शौक़ीन। जब उन्होंने इस बाघ के बारे में सुना तो उन्होंने ठान लिया कि वह इसका शिकार करेंगे। 'प्रभात खबर' में छपे एक लेख के अनुसार, महाराजा ने इस ख़तरनाक जानवर का अकेले सामना किया और उसे मार गिराया। यह एक असाधारण कारनामा था। वह ऐसा करने वाले पूरे हिंदुस्तान में सिर्फ़ तीसरे इंसान बने। 

 

उनकी दिलेरी का वह सबूत आज भी ज़िंदा है। उस सफ़ेद बाघ की खाल को कोलकाता के इंडियन म्यूज़ियम में रखा गया है। 10 फीट लंबे बाघ को अकेले मार डालना आपको सुनने में अति लग सकता है लेकिन राजाओं के इर्द गिर्द इस तरह की कहानियां गढ़ देना आम था। आम है। खैर वक़्त किसी के लिए नहीं रुकता। न बादशाहों के लिए, न महाराजाओं के लिए। साल 1947 में हिंदुस्तान आज़द हुआ और राजे-रजवाड़ों का दौर ख़त्म होने लगा। 1952 में, बिहार भूमि सुधार अधिनियम के तहत, गिद्धौर की 700 साल पुरानी रियासत भी आधिकारिक तौर पर ख़त्म कर दी गई। वह क़िले, वह जागीरें, वह 'महाराजा बहादुर' के ख़िताब, सब अब इतिहास का हिस्सा थे तो क्या गिद्धौर की कहानी यहीं ख़त्म हो गई? नहीं। कहानी ने बस एक नया मोड़ लिया था।

 

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रियासत के आख़िरी महाराजा, प्रताप सिंह लोकतांत्रिक राजनीति में उतरे और चुनाव जीतकर भारत की संसद में सांसद बने। रियासत अब सियासत में बदल चुकी थी। यह विरासत आगे भी बढ़ी। उनके बाद परिवार से दिग्विजय सिंह राजनीति में आए और भारत सरकार में बांका लोकसभा क्षेत्र से केंद्रीय मंत्री के पद तक पहुंचे। उनके बाद उनकी पत्नी पुतुल कुमारी भी सांसद बनीं और आज उसी ख़ानदान की नई पीढ़ी, श्रेयसी सिंह जमुई से विधायक हैं लेकिन उनकी पहचान सिर्फ़ एक नेता की नहीं है। श्रेयसी सिंह एक विश्व-स्तरीय शूटर हैं, जिन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों में भारत के लिए गोल्ड मेडल जीता है। कहानी शुरू हुई थी एक तलवार से। ख़त्म हुई बंदूक़ पर, जंग के मैदान से खेल के मैदान तक। 

 

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