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हजारों भारतीयों को मरवाने वाले ईदी अमीन की कहानी क्या है?

ईदी अमीन एक ऐसा शख्स था जिसने युगांडा में एक बॉक्सर के तौर पर अपनी पहचान बनाई लेकिन आगे चलकर वह हजारों हत्याओं की वजह बना।

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ईदी अमीन की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

अफ्रीका, हिंदुस्तान की अवाम के लिए यह नाम सुनते ही घने जंगलों, सवाना के मैदानों की तस्वीर उभरती है लेकिन अफ्रीका सिर्फ इतना नहीं है। यह वह महादेश भी है जिसने हिंदुस्तान की ही तरह गुलामी की जंजीरें तोड़ीं और अपनी किस्मत खुद लिखने की कोशिश की। इसी अफ्रीका के दिल में एक देश है युगांडा। इतना खूबसूरत कि ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने अपनी किताब, 'माय अफ्रीकन जर्नी' में इसे 'द पर्ल ऑफ अफ्रीका' कहा था। झीलों, पहाड़ों और हरियाली से सराबोर एक जन्नत लेकिन साल 1971 में इस जन्नत पर एक ऐसे शख्स का साया पड़ा, जिसने खुद को हिज एक्सेलेंसी, प्रेसिडेंट फॉर लाइफ, फील्ड मार्शल, विक्टोरिया क्रॉस, डीएसओ, एमसी, लॉर्ड ऑफ ऑल द बीस्ट्स ऑफ द अर्थ एंड फिशेज ऑफ द सी, एंड कॉन्करर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर जैसी दर्जनों उपाधियां दी थीं। दुनिया उसे- ईदी अमीन के नाम से जानती थी।

 

25 जनवरी, 1971 को अमीन ने देश के पहले प्रधानमंत्री, मिल्टन ओबोटे का तख्तापलट कर सत्ता पर कब्जा कर लिया। तख्तापलट के बाद हर तरफ खौफ था। हवा में फुसफुसाहट थी। कौन ज़िंदा बचेगा, कौन मरेगा, किसी को नहीं पता था। इसी अफरातफरी में ओबोटे सरकार के सेना प्रमुख, ब्रिगेडियर सुलेमान हुसैन को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें युगांडा की कुख्यात लुजिरा जेल ले जाया गया और वहां राइफल की बटों से पीट-पीटकर मार डाला गया।

 

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किस्सा यहां खत्म नहीं हुआ। किस्सा तो अब शुरू होना था। एक अफवाह, एक फुसफुसाहट, जिसने कंपाला की हवा में दहशत घोल दी। कहते हैं, ब्रिगेडियर का सिर कलम करके उस बंगले में पहुंचाया गया जहां अमीन रहता था और उस रात उस बंगले के फ्रिज में, दूध और फलों के बीच, एक इंसानी सिर रखा गया। पूरी रात।

 

 

यह सिर्फ एक हत्या नहीं थी। यह एक ऐलान था। यह उस नए शहंशाह का अपनी सल्तनत के लिए पहला फरमान था। यह संदेश था कि उसका दुश्मन मरने के बाद भी उसका कैदी रहेगा। यह उस कब्रिस्तान की पहली ईंट थी, जिसकी नींव में अगले आठ सालों तक लाखों लाशें बिछाई जानी थीं। आज हम जानेंगे अफ्रीका के कसाई ईदी अमीन की पूरी कहानी, जिसने 'अफ्रीका के मोती' को आंसुओं और खून के समंदर में डुबो दिया।

वह सिपाही जो राजा बन बैठा

 

ईदी अमीन। यह नाम सुनते ही ज़हन में एक 6 फुट 4 इंच लंबे, बेहद मज़बूत और बेडौल शरीर वाले इंसान की तस्वीर उभरती है। एक ऐसा चेहरा, जिसकी मुस्कान और वहशीपन पन में फर्क करना मुश्किल था लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। एक वक्त था जब ईदी अमीन सिर्फ एक नौजवान फौजी था। इतना ताकतवर कि उसने नौ साल तक युगांडा की हैवीवेट बॉक्सिंग चैंपियनशिप अपने नाम रखी। उसके ब्रिटिश अफसर उसे बहुत पसंद करते थे। अमीन को लेकर कहते थे, 'a tremendous chap to have around', यानी, ऐसा नौजवान जिसके साथ रहना मजेदार था लेकिन इस मज़े की कीमत युगांडा को हजारों मौतों से चुकानी पड़ी।

 

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अमीन का सफर युगांडा के उत्तर-पश्चिमी इलाके के कोबोको नाम के एक गांव से शुरू हुआ था। वह काकवा कबीले से था, एक ऐसा कबीला जो युगांडा से ज़्यादा कांगो और सूडान में फैला हुआ था। उसकी पढ़ाई-लिखाई लगभग ना के बराबर थी। साल 1946 में वह ब्रिटिश फ़ौज की किंग्स अफ्रीकन राइफल्स (King's African Rifles) में भर्ती हुआ लेकिन एक सिपाही के तौर पर नहीं बल्कि एक सहायक बावर्ची के तौर पर। अमीन की किस्मत बावर्ची खाने की आग में जलने के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश को आग में झोंकने के लिए लिखी जा रही थी। अपनी ज़बरदस्त कद-काठी और हर हुक्म मानने की आदत की वजह से वह जल्द ही अफसरों की नज़र में आ गया।

 

उसके अंदर का जानवर पहली बार दुनिया के सामने आया 1962 में। तब अमीन एक लेफ्टिनेंट था। उसे केन्या के उत्तर-पश्चिमी इलाके में तुर्काना कबीले के कुछ लोगों को मारने का हुक्म दिया गया था, जो पशु चोरी में शामिल थे। वहां उसने जो किया, वह नरसंहार से कम नहीं था। ब्रिटिश अफसर उस पर मुकदमा चलाना चाहते थे लेकिन युगांडा की आज़ादी सिर पर थी। देश के नए प्रधानमंत्री बनने जा रहे मिल्टन ओबोटे ने सियासी नफा-नुकसान तौला। एक काले अफसर पर मुकदमा चलाने से गलत संदेश जाता। लिहाज़ा, ओबोटे ने मुकदमा न चलाने का फैसला किया। यह अमीन के जीवन का पहला बड़ा सबक था- अगर आप सत्ता के लिए काम के आदमी हैं तो आपके हर खून को माफ़ किया जा सकता है।

 

उन दिनों प्रधानमंत्री ओबोटे को अमीन जैसे 'काम के आदमी' की सख्त ज़रूरत थी। आज़ाद युगांडा की सियासत दो ध्रुवों में बंटी थी। एक तरफ प्रधानमंत्री ओबोटे थे और दूसरी तरफ देश के सबसे शक्तिशाली बुगांडा राज्य के राजा, जिन्हें कबाका कहा जाता था। ओबोटे को शक था कि सेना का कमांडर, ब्रिगेडियर शाबान ओपोलोत कबाका का वफादार है। उन्हें एक ऐसे आदमी की ज़रूरत थी जो सियासत से दूर हो, जिसे सिर्फ हुक्म मानना आता हो और जो ज़रूरत पड़ने पर किसी भी हद तक जा सके। उनकी तलाश ईदी अमीन पर आकर ख़त्म हुई।

 

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ओबोटे ने अमीन को सीधे अपने मातहत कर लिया। सेना के कमांडर को बाइपास करके सीधे अमीन को आदेश दिए जाने लगे। पहला बड़ा काम मिला कांगो के बागियों की मदद करने का। ओबोटे की हमदर्दी इन बागियों के साथ थी। अमीन को उन्हें हथियार और पैसा मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी मिली। बागियों के पास पैसा नहीं था लेकिन सोना और हाथी दांत बेशुमार थे। अमीन यह सोना और हाथी दांत बेचता और बदले में हथियार खरीदता।

 

यह एक बहुत बड़ा ऑपरेशन था लेकिन इसका कोई हिसाब-किताब नहीं रखा गया। यहीं पर अमीन ने पहली बार बड़ी दौलत का स्वाद चखा। उसने लाखों डॉलर अपने निजी बैंक खाते में जमा करने शुरू कर दिए। जब एक सांसद, दाउदी ओचेंग ने संसद में अमीन के ख़िलाफ़ जांच की मांग की तो ओबोटे ने उसे बचा लिया। क्यों? क्योंकि ओबोटे को कबाका के साथ अपनी आखिरी लड़ाई के लिए अमीन की ज़रूरत थी।

 

यह लड़ाई मई 1966 में लड़ी गई। ओबोटे ने कबाका के समर्थकों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। जवाब में कबाका के लोगों ने राजधानी कंपाला की सड़कों पर बैरिकेटेड खड़े कर दिए। ओबोटे ने अमीन को बुलाया और कबाका के किले जैसे महल पर हमला करने का हुक्म दिया।

 

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उस दिन हेनरी क्येम्बा जो तब ओबोटे के निजी सचिव थे, उस बैठक में मौजूद थे। वह अपनी किताब 'A State of Blood' में लिखते हैं कि अमीन उस लड़ाई का पूरा लुत्फ़ उठा रहा था। जब उसने महल पर तोप के गोले दागने की इजाज़त मांगी तो वह बेहद खुश था। गोलों ने महल की दीवारों में सुराख कर दिए, हर तरफ धुआं भर गया। उस हमले में सैकड़ों लोग मारे गए। हालांकि, सरकारी आंकड़ा सिर्फ 47 का था। कबाका किसी तरह बचकर लंदन भाग गए। उस दिन के बाद, ईदी अमीन अब सिर्फ एक सिपाही नहीं रहा। वह ओबोटे की सत्ता का सबसे मज़बूत पाया बन चुका था।

 

ओबोटे ने उसे सेना का कमांडर बना दिया लेकिन ओबोटे यह भूल गए थे कि जिस जानवर को वह अपने दुश्मन के लिए पाल रहे हैं, एक दिन वह अपने मालिक को भी निगल सकता है। अमीन अब सिर्फ एक वफादार सिपाही नहीं था। उसने सेना में अपने कबीले, काकवा, और सूडान से आए नूबियन लड़ाकों की भर्ती शुरू कर दी थी। वह फ़ौज के भीतर अपनी एक निजी फ़ौज बना रहा था। एक ऐसी फ़ौज जिसकी वफादारी युगांडा से नहीं, सिर्फ और सिर्फ ईदी अमीन से थी। ओबोटे को अपनी गलती का एहसास हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

जब सड़क पर सोना बिकने लगा  

 

4 अगस्त 1972। युगांडा के तोरोरो शहर की एक सैनिक छावनी। ईदी अमीन अपने सैनिकों से मुखातिब था। उसने कहा, 'कल रात मैं सोया तो ईश्वर मेरे ख़्वाब में आए और उन्होंने मुझे हुक्म दिया है।' हुक्म यह था कि युगांडा में बसे पचास हज़ार से ज़्यादा एशियाई लोगों को 90 दिनों के अंदर देश से बाहर निकाल दिया जाए। यह एक ऐसा ऐलान था जिसने न सिर्फ युगांडा बल्कि हिंदुस्तान, पाकिस्तान और ब्रिटेन तक में भूचाल ला दिया।

 

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ये एशियाई कौन थे? ये ऐसे लोग थे जिनके पुरखे 19वीं सदी के आखिर में अंग्रेजों द्वारा युगांडा-केन्या रेलवे लाइन बिछाने के लिए लाए गए थे। धीरे-धीरे उन्होंने व्यापार में अपनी जगह बनाई और युगांडा की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गए। देश के ज़्यादातर व्यापारी, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील और टेक्नीशियन एशियाई मूल के थे। वे एक खुशहाल मिडिल क्लास थे, जो अपनी मेहनत से युगांडा को सींच रहे थे लेकिन अमीन की नज़र में वे सिर्फ 'विदेशी' थे जो युगांडा की गाय का दूध तो पी रहे थे पर उसे चारा नहीं खिला रहे थे।

 

अमीन ने इसे 'इकनॉमिक वॉर' यानी आर्थिक युद्ध का नाम दिया। उसने ऐलान किया कि 90 दिनों की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। जो भी एशियाई डेडलाइन के बाद देश में पाया गया, उसे डिटेंशन कैंप में डाल दिया जाएगा। पूरे देश में दहशत फ़ैल गई। अमीन के सैनिक एशियाई लोगों के घरों और दुकानों में घुस जाते, लूटपाट करते और उन्हें 48 घंटों के अंदर देश छोड़ने का हुक्म सुनाते। मदनजीत सिंह, जो बाद में युगांडा में भारत के उच्चायुक्त बने, अपनी किताब 'Culture of the Sepulchre(सेपलकर)' में लिखते हैं कि यह सिर्फ लूटपाट नहीं बल्कि नस्लीय सफ़ाया था। लोगों को उनके ही घरों से घसीटकर निकाला जाता, उनके दशकों पुराने नागरिकता के कागज़ात फाड़ दिए जाते। एक सिख बढ़ई ने मदनजीत सिंह को बताया कि कैसे एक अफसर ने बिना कोई कारण बताए उसके नागरिकता के दस्तावेज़ उसके सामने ही फाड़कर फेंक दिए।

 

लोगों को अपना सब कुछ छोड़कर जाने पर मजबूर किया गया उन्हें सिर्फ 100 डॉलर साथ ले जाने की इजाज़त थी। उनके बैंक खाते सील कर दिए गए। अमीन ने ऐलान किया कि वे अपना कुछ निजी सामान हवाई जहाज़ से भेज सकते हैं। कंपाला एयरपोर्ट के बाहर हज़ारों बक्से जमा हो गए, जिनके ऊपर उन परिवारों के नाम और पते लिखे थे जिन्हें वे भेजे जाने थे। इन बक्सों की 'हिफाज़त' के लिए अमीन के सैनिक तैनात थे। परिवार चले गए लेकिन उनके बक्से कभी नहीं पहुंचे। सैनिकों ने ही एक-एक बक्सा खोलकर सारा सामान लूट लिया।

यह 'आर्थिक युद्ध' असल में अपनी फ़ौज को खुश करने का एक तरीका था। अमीन जानता था कि उसकी सत्ता का आधार उसके नूबियन और काकवा लड़ाके हैं और उन्हें वफादार रखने के लिए दौलत चाहिए थी। उसने एशियाइयों की दुकानें, फैक्ट्रियां और घर अपने अनपढ़, जाहिल सैनिकों और दोस्तों में बांट दिए। नतीजा? पूरी अर्थव्यवस्था ताश के पत्तों की तरह ढह गई। जिन सैनिकों को दुकानें मिलीं, उन्हें यह तक नहीं पता था कि सामान की कीमत क्या है।

 

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क़िस्सा है कि एक फौजी ने कपड़ों की एक दुकान लूटी। कीमत मालूम नहीं थी तो उसने कॉलर के साइज़ को ही शर्ट की कीमत बना दिया- 15 नंबर की कॉलर वाली शर्ट 15 शिलिंग में बिकने लगी। दवा की दुकानें ऐसे लोगों को दे दी गईं जिन्हें दवाइयों का कोई ज्ञान नहीं था; वे ज़हरीली दवाएं भी किसी को भी बेच रहे थे। बड़े-बड़े शोरूम और फैक्ट्रियों के मालिक बने ये फौजी कुछ ही हफ्तों में सारा स्टॉक लूटकर और बेचकर गायब हो गए। देश की सबसे बड़ी चीनी मिलें, जागीरें, पूरी तरह तबाह हो गईं।

 

ठीक इसी अफरातफरी के बीच, सितंबर 1972 में मिल्टन ओबोटे के वफादार लड़ाकों ने तंज़ानिया से युगांडा पर हमला कर दिया। यह हमला बुरी तरह नाकाम रहा लेकिन यह अमीन के लिए एक तोहफे जैसा था। अब उसके पास अपनी हर नाकामी और बर्बरता को सही ठहराने का एक बहाना था। वह चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा कि यह हमला उसकी 'इकनॉमिक वॉर' को रोकने के लिए किया गया है। उसने इस हमले की आड़ में उन सभी लोगों को चुन-चुनकर मारना शुरू कर दिया जिन पर उसे ज़रा भी शक था। सड़कों पर अब सोना नहीं बल्कि ख़ौफ़ बिक रहा था। एक ऐसे देश की नींव रखी जा चुकी थी, जिसकी पहचान दौलत से नहीं बल्कि लाशों से होनी थी।

 

इस एशियन या इंडियन डिसेंट के लोगों के एक्सोडस का असर आप आज पूरी दुनिया पर देख सकते हैं। ऋषि सुनक, जो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने, काश पटेल ट्रंप सरकार में एफबीआई के डायरेक्टर और ज़ोहरान ममदानी, जिन्होंने न्यूयॉर्क के मेयर का प्राइमरी जीता है डेमोक्रैट्स के लिए- इन सबके पुरखे तभी युगांडा छोड़ने पर मजबूर हुए। बैंक ऑफ बड़ौदा का ज़िक्र भी यहां ज़रूरी है।

 
लाशों से भरे रेफ्रिजरेटर 

 

ईदी अमीन की हुकूमत सिर्फ एक तानाशाही नहीं थी, यह मौत का एक संगठित कारोबार था। इस कारोबार को चलाने के लिए अमीन ने तीन खूंखार मशीनें बनाई थीं। पहली थी मिलिट्री पुलिस। इसका अड्डा कंपाला-एंटेबे रोड पर मकिंड्ये जेल में था। इस जेल के अंदर एक कोठरी थी जिसका नाम था 'सिंगापुर', कहते हैं जिसे इस कोठरी में भेज दिया जाता, वह ज़िंदा वापस नहीं लौटता था। युगांडा के पूर्व मंत्री जोशुआ वखोली को इसी जेल में रखा गया था। उन्होंने बताया कि एक रात 36 फौजी अफसरों को 'सिंगापुर' कोठरी में गोलियों और चाकुओं से मार डाला गया। अगली सुबह उनसे और दूसरे कैदियों से उस कोठरी की सफाई करवाई गई। फर्श पर खून की एक मोटी परत जमी थी, जिसमें इंसानी दिमाग के टुकड़े, टूटे हुए दांत और गोलियों के खोल बिखरे पड़े थे।

 

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दूसरी मशीन थी पब्लिक सेफ्टी यूनिट। इसका मुखिया था अली टोवेली नाम का एक कातिल। मदनजीत सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि एक दोपहर जब वह गोल्फ खेलने गए तो उनका सामना इसी अली टोवेली से हुआ, जो खुद को पब्लिक सेफ्टी यूनिट का डायरेक्टर बता रहा था। मदनजीत सिंह लिखते हैं कि एक खूनी के साथ गोल्फ खेलने के ख्याल से ही उनके हाथ-पैर कांपने लगे थे। यह वही टोवेली था जिसने गोलियां बचाने के लिए कैदियों को हथौड़े से एक-दूसरे का सिर कुचलवाने का तरीका ईजाद किया था। एक कैदी को दूसरे को मारने के लिए मजबूर किया जाता और फिर उसे किसी तीसरे कैदी से मरवा दिया जाता।

 

तीसरी और सबसे खौफनाक मशीन थी स्टेट रिसर्च ब्यूरो। यह अमीन की खुफिया पुलिस थी, जिसमें लगभग 2000 हत्यारे काम करते थे। इनका काम सिर्फ कत्ल करना था। इन हत्यारों को महंगे कपड़े, गाड़ियां और आलीशान जिंदगी दी जाती थी। वे फूलों वाली शर्ट, बेल-बॉटम पैंट और डार्क चश्मे पहनते थे। किसी को भी, कहीं से भी उठा लेना और उसे गायब कर देना इनका रोज का काम था।

 

अमीन के राज में हत्या सिर्फ एक सजा नहीं थी, यह एक रस्म थी। युगांडा के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री, हेनरी क्येम्बा अपनी किताब 'A State of Blood' में लिखते हैं कि मुर्दाघरों में आने वाली लाशें अक्सर क्षत-विक्षत होती थीं। किसी का लिवर गायब होता तो किसी की नाक, होंठ या आंखें। जून 1974 में मारे गए एक अफसर, गॉडफ्रे किग्गाला की लाश से उसकी आंखें निकाल ली गई थीं और उसकी चमड़ी तक उधेड़ दी गई थी।

 

क्येम्बा बताते हैं कि अमीन अक्सर अपने दुश्मनों की लाशों के साथ मुर्दाघर में अकेला वक़्त बिताता था। जब उसके आर्मी चीफ ऑफ स्टाफ, ब्रिगेडियर चार्ल्स अरुबे को 1974 में मार दिया गया तो अमीन मुलागो अस्पताल की मोर्चरी में आया और सबको बाहर भेजकर लाश के साथ अकेला रह गया। कोई नहीं जानता कि वह अंदर क्या करता था पर कुछ लोगों का मानना है कि वह अपने दुश्मनों का खून चखता था, जो कि काकवा कबीले की एक पुरानी रस्म थी।

 

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अफवाहें तो नरभक्षण तक की थीं। क्येम्बा लिखते हैं कि अमीन ने कई बार खुद इंसानी मांस खाने की बात कबूली थी। एक बार उसने अपने अफसरों से कहा, 'मैंने इंसानी मांस खाया है। यह बहुत नमकीन होता है, तेंदुए के मांस से भी ज़्यादा।' उसने यह भी कहा था, 'युद्ध में अगर खाना न हो और तुम्हारा साथी जख्मी हो, तो तुम उसे मारकर खा सकते हो।'

 

अमीन की पांचवीं पत्नी सारा क्योलाबा की कहानी इस बात की गवाही देती है। शादी से पहले सारा का एक प्रेमी था। अमीन ने उसे मरवा दिया। अमीन के पुराने कमांड पोस्ट में एक कमरा था जिसे 'बोटैनिकल रूम' कहा जाता था। सारा को उस कमरे में जाने की इजाजत नहीं थी। एक दिन जब उसने जिद करके वह कमरा खुलवाया, तो अंदर रखे एक फ्रिज को खोलते ही वह चीख मारकर बेहोश हो गई। फ्रिज के अंदर उसके प्रेमी, का कटा हुआ सिर उसे घूर रहा था।

एक सनकी की सल्तनत 

 

दुनिया के लिए ईदी अमीन सिर्फ एक खूनी तानाशाह नहीं था। वह एक मज़ाक था, एक ऐसा विदूषक, जिसकी हरकतों पर अख़बारों में सुर्खियां बनती थीं और लोग ठहाके लगाते थे लेकिन युगांडा के लोगों के लिए, उसके महल का हर ठहाका एक नई लाश बिछाने का हुक्मनामा होता था। अमीन को बड़े-बड़े नाम रखने का शौक था। जैसा पहले बताया, उसने खुद को दर्जन भर उपाधियां दे रखी थी। एक बार फिर पूरा नाम सुनिए, 'हिज एक्सेलेंसी, प्रेसिडेंट फॉर लाइफ, फील्ड मार्शल अल हाजी डॉक्टर ईदी अमीन दादा, वीसी, डीएसओ, एमसी, लॉर्ड ऑफ ऑल द बीस्ट्स ऑफ द अर्थ एंड फिशेज ऑफ द सी, एंड कॉन्करर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर इन अफ्रीका इन जनरल एंड युगांडा इन पर्टिकुलर।'
 
उसने खुद को 'स्कॉटलैंड का राजा' भी घोषित कर दिया था। मदनजीत सिंह अपनी किताब में बताते हैं कि नाइजीरिया के एक राजदूत ने उन्हें  सलाह दी थी कि कंपाला में काम करना है तो इस पूरे नाम को सही क्रम में रट लीजिए क्योंकि अमीन को बर्दाश्त नहीं था कि कोई उसे इन नामों के बिना पुकारे।

 

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सल्तनत सिर्फ नामों तक ही सीमित नहीं थी। अमीन दुनिया के नेताओं को अजीबोगरीब और अपमानजनक टेलीग्राम भेजकर खुश होता था। उसने तंजानिया के राष्ट्रपति को संदेश भेजा कि अगर तुम औरत होते तो मैं तुमसे शादी कर लेता। उसने अमेरिकी राष्ट्रपति जेराल्ड फोर्ड को लिखा, 'मैं तुमसे प्यार करता हूं।' जाम्बिया के राष्ट्रपति उसने एक 'साम्राज्यवादी कठपुतली' और 'एक अतृप्त औरत' तक कह डाला।

 

उसका सनकीपन अक्सर एक सोची-समझी क्रूरता का नकाब होता था, खासकर जब मामला गोरों को नीचा दिखाने का हो। उसने कंपाला में रहने वाले कुछ ब्रिटिश नागरिकों को घुटनों के बल बैठकर युगांडा की सेना में शामिल होने की शपथ लेने पर मजबूर किया। एक बार वह कुर्सी पर बैठा और कुछ गोरे व्यापारियों से वह कुर्सी उठवा ली और दुनिया को यह तस्वीर दिखाई कि कैसे 'व्हाइट मैन्स बर्डन' यानी 'गोरों का बोझ' अब वह खुद बन गया है। यही नहीं, उसने एक ब्रिटिश लेक्चरर, डेनिस हिल्स को सिर्फ इसलिए मौत की सज़ा सुना दी क्योंकि उसने अपनी किताब में अमीन को 'गांव का तानाशाह' लिखा था। अमीन ने हिल्स को तब तक रिहा नहीं किया जब तक कि ब्रिटेन के विदेश मंत्री को खुद कंपाला आकर उसके सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ा।

 

एक और क़िस्सा है। एक बार ईदी अमीन ने तमाम विदेशी राजदूतों को बड़े तामझाम के साथ एंटेबे एयरपोर्ट पर बुलाया। सबको लगा कि कोई बहुत बड़ा राष्ट्राध्यक्ष आ रहा है। घंटों इंतज़ार के बाद एक बोइंग 707 विमान उतरा लेकिन उसमें से कोई इंसान नहीं, बल्कि इंग्लैंड से मंगाई गई 60 शानदार फ्रीज़ियन गायें निकलीं! खुद अमीन को उन्हें रैंप से नीचे धकेलना पड़ा। उसने वादा किया कि अब युगांडा में दूध की नदियां बहेंगी लेकिन कुछ ही महीनों बाद पता चला कि उसके सैनिकों ने उन सभी गायों को मारकर उनका गोश्त खा लिया।

 

वह अक्सर लोगों को अपनी बहादुरी के झूठे किस्से सुनाता था। मदनजीत सिंह लिखते हैं कि अमीन बार-बार यह कहानी सुनाता कि कैसे एक बार नील नदी में एक मगरमच्छ ने उसे पकड़ लिया था लेकिन उसने मगरमच्छ की नाक पर ऐसा घूंसा मारा कि वह बच निकला। वह यह भी दावा करता था कि एक बार एक गोली उसके सिर के आर-पार हो गई थी, फिर भी ईश्वर ने उसे बचा लिया जबकि हकीकत यह थी कि उसने कभी किसी असली जंग में हिस्सा नहीं लिया था।

 

अमीन का यह चेहरा दुनिया के लिए था। हेनरी क्येम्बा 'A State of Blood' में लिखते हैं कि अमीन लगभग अनपढ़ था और उसे ऑफिस का काम करने से नफरत थी। वह अपनी सल्तनत टेलीफोन पर चलाता था। वह अक्सर अपने मंत्रियों या अफसरों को फोन करके कहता, 'मैं यहां डिफेंस काउंसिल के साथ मीटिंग में हूं।' जबकि हकीकत में वह या तो अकेला होता था या अपनी किसी प्रेमिका के साथ।

 

उसे अर्थव्यवस्था की कोई समझ नहीं थी। उसका मानना था कि कोई देश कभी दिवालिया नहीं हो सकता क्योंकि सरकार जब चाहे तब और नोट छाप सकती है। क्येम्बा एक किस्सा बताते हैं कि कैसे एक बार कैबिनेट की सलाह के खिलाफ जाकर, अमीन ने एक स्विस डीलर को फोन पर ही एक और बोइंग हवाई जहाज खरीदने का ऑर्डर दे दिया। उसने अपने वित्त मंत्री को फोन लगाकर कहा, 'मैंने एक और बोइंग का ऑर्डर दिया है, पैसे तैयार कर देना।' उसके लिए देश का खजाना उसके घर की तिजोरी जैसा था।

अमीन के हरम का सच 

 

ईदी अमीन की सल्तनत सिर्फ सियासत और फ़ौज के दम पर नहीं चलती थी। उसकी ताकत का एक बहुत बड़ा हिस्सा औरतों पर उसकी हैवानियत से भी आता था। उसके लिए औरतें सिर्फ जिस्म नहीं थीं, वे उसकी मिल्कियत थीं, उसकी ताकत का एक और तमगा। अपनी ज़िंदगी में अमीन ने कम से कम पांच शादियाँ कीं, 30 से ज़्यादा महिलाओं को बिना शादी के अपने साथ रहने पर मजबूर किया और 40 से ज़्यादा बच्चे पैदा किए। हेनरी क्येम्बा अपनी किताब में लिखते हैं कि अमीन अपनी यौन ऊर्जा को अपनी ताकत प्रतीक मानता था। वह अपनी वासना को कभी छुपाता नहीं था। स्कूल की लड़कियों से लेकर यूनिवर्सिटी की लेक्चरर तक, कोई भी खूबसूरत औरत उसकी नज़र से बच नहीं सकती थी और जो औरत उसे पसंद आ जाए, उसे पाने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता था, यहाँ तक कि क़त्ल भी।
 
1974 में अमीन ने अपनी तीन पत्नियों—माल्यमु, के और नोरा को एक झटके में तलाक दे दिया। तलाक का ऐलान रेडियो पर किया गया। उसने वजहें भी बड़ी अजीब दीं। माल्यमु और नोरा पर कारोबार करने का इल्जाम लगाया जबकि वे दुकानें खुद अमीन ने ही उन्हें दी थीं और पत्नी 'के' के लिए कहा कि वह उसकी रिश्तेदार है, इसलिए यह शादी ठीक नहीं। असल वजह यह थी कि माल्यमु का भाई, जो अमीन का विदेश मंत्री था, देश छोड़कर भाग गया था और अमीन इस ग़द्दारी का बदला लेना चाहता था।
  
अमीन की तीनों पत्नियों में सबसे भयानक अंत हुआ 'के अमीन' का। 'के' एक खूबसूरत और पढ़ी-लिखी लड़की थी, जो कंपाला की मशहूर मकेरेरे यूनिवर्सिटी की छात्रा थी। तलाक के बाद, वह एक डॉक्टर मबालू-मुकासा के साथ रहने लगी और उससे गर्भवती हो गई।
   
अगस्त 1974 की एक सुबह, मुलागो अस्पताल में एक लाश लाई गई। लाश के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए थे। जब हेनरी क्येम्बा, जो उस समय स्वास्थ्य मंत्री थे, ने लाश की शिनाख्त की तो उनके होश उड़ गए। वह लाश 'के अमीन' की थी। उसका धड़ डॉक्टर मबालू-मुकासा गाड़ी की डिक्की में एक बोरे में मिला था और हाथ-पैर गाड़ी की पिछली सीट पर एक दूसरे बोरे में रखे थे। माना जाता है कि डॉक्टर मबालू-मुकासा ने Kay Amin ने उसका एबॉर्शन करने की कोशिश की जिसमें 'के' की मौत हो गई। इसके बाद घबराकर डॉक्टर ने अपने पूरे परिवार समेत खुद को ज़हर दे दिया।

 

अमीन को जब इस घटना की खबर मिली। उसने हुक्म दिया कि 'के अमीन' के कटे हुए हाथ-पैर वापस धड़ से सिए जाएं। क्यों? क्योंकि वह अपने छोटे-छोटे बच्चों को अपनी मां की लाश दिखाना चाहता था। अगले दिन, टीवी कैमरों और पत्रकारों के सामने, अमीन अपने बच्चों को लेकर मुर्दाघर गया और अपनी बीवी की लाश के पास खड़े होकर उसे कोसने लगा, उसे बुरा-भला कहने लगा।

 

अपनी पूर्व पत्नियों को किनारे लगाने के बाद अमीन ने एक और शादी की। सारा क्योलाबा। सारा सेना के एक बैंड में गो-गो डांसर थी। जब अमीन की नज़र उस पर पड़ी, तब वह अपने बॉयफ्रेंड के साथ रहती थी और उसके बच्चे की मां बनने वाली थी। अमीन ने दुनिया के सामने ऐलान कर दिया कि यह बच्चा उसका है जबकि वह जानता था कि यह झूठ है। जब सारा के बॉयफ्रेंड ने इसका विरोध किया, तो वह अचानक गायब हो गया। उसकी लाश कभी नहीं मिली।

 

ये कोई एक-दो किस्से नहीं थे। क्येम्बा लिखते हैं कि अमीन ने एक होटल के मैनेजर और एक बड़े पुलिस अफसर को सिर्फ इसलिए मरवा दिया क्योंकि वह उनकी पत्नियों को चाहता था। अमीन के लिए औरतें इंसान नहीं बल्कि उसकी जागीर थीं और अपनी जागीर के रास्ते में आने वाले किसी भी इंसान को रास्ते से हटाने में उसे पल भर की भी हिचक नहीं होती थी।

 

इज़रायल का थप्पड़

 

ईदी अमीन अपनी ताकत के नशे में चूर था। वह खुद को 'ब्रिटिश साम्राज्य का विजेता' कहलवाता था और मानता था कि दुनिया में कोई उसे चुनौती नहीं दे सकता लेकिन साल 1976, जून के महीने में कुछ ऐसा हुआ, जिसने इस घमंड को हमेशा के लिए तोड़ दिया।

 

28 जून 1976 को फिलिस्तीनी लिबरेशन पॉपुलर फ्रंट (PFLP) के लड़ाकों ने एक एयर फ्रांस की फ्लाइट को हाइजैक कर लिया। विमान में सैकड़ों यात्री सवार थे, जिनमें से कई इज़रायली थे। अपहरणकर्ता विमान को युगांडा के एंटेबे हवाई अड्डे पर ले आए। 


ईदी अमीन के लिए यह एक सुनहरा मौका था। स्वास्थ्य मंत्री हेनरी क्येम्बा के मुताबिक, अमीन ने उन्हें फोन पर बड़े उत्साह से बताया, 'क्येम्बा, फिलिस्तीनियों ने इज़रायल से एक विमान हाइजैक कर लिया है और उसे एंटेबे ले आए हैं।' उसे लगा कि अब वह दुनिया की सबसे बड़ी पंचायत का पंच बनेगा। वह अपहरणकर्ताओं और बंधकों, दोनों का हीरो बन गया। वह बंधकों से मिलने जाता, उनके साथ तस्वीरें खिंचवाता और उन्हें भरोसा दिलाता कि वह उन्हें बचा लेगा। उसने अपहरणकर्ताओं की मांगें तैयार करने में भी मदद की।

 

क्येम्बा अपनी किताब 'A State of Blood' में लिखते हैं कि अमीन को अपनी काबिलियत पर इतना भरोसा था कि उसने अपहरणकर्ताओं को डेडलाइन बढ़ाने के लिए मना लिया। उसने सोचा था कि वह मॉरीशस में हो रही अफ्रीकी एकता संगठन (OAU) की बैठक में जाएगा और एक हीरो की तरह वापस लौटेगा और फिर इस मसले को सुलझाकर दुनिया का सबसे बड़ा नेता बन जाएगा। उसने कभी सोचा ही नहीं कि कुछ गलत भी हो सकता है लेकिन इज़रायल की सरकार कुछ और ही सोच रही थी।
  
3 और 4 जुलाई की दरमियानी रात, जब एंटेबे में सब कुछ शांत था, इज़रायली कमांडो के तीन हरक्यूलिस विमान अंधेरे को चीरते हुए एंटेबे हवाई अड्डे पर उतर गए। यह 'ऑपरेशन थंडरबोल्ट' था। एक घंटे से भी कम समय में इज़रायली कमांडो ने सभी 7 अपहरणकर्ताओं और 20 युगांडाई सैनिकों को मारकर 100 से ज़्यादा बंधकों को छुड़ा लिया। जब हमला हुआ तो 'अफ्रीका का शेर' ईदी अमीन घबरा गया। उसे लगा कि उसकी अपनी ही फ़ौज ने बगावत कर दी है। क्येम्बा लिखते हैं कि वह अपनी जान बचाने के लिए स्टेट हाउस के पास एक ड्राइवर के क्वार्टर में जाकर छिप गया। जब तक उसे असलियत का पता चलता, इज़रायली कमांडो अपने लोगों को लेकर जा चुके थे। वे जाते-जाते अमीन के कई मिग (MiG) लड़ाकू विमानों को भी उड़ा गए थे। 


इस ऑपरेशन में शामिल इज़रायली सेना के अफसरों में से एक थे योनातन नेतन्याहू। वह इज़रायली स्पेशल फोर्स सेयरेत मतकल के कमांडर थे। ऑपरेशन के दौरान वह शहीद हो गए थे। उनकी याद में इस ऑपरेशन को अब ऑपरेशन योनातन कहा जाता है। इन्हीं योनातन के भाई बेंजनमिन नेतन्याहू इज़रायल के प्रधानमंत्री हैं।  

 

यह अमीन के मुंह पर एक करारा तमाचा था। पूरी दुनिया के सामने उसकी सल्तनत की धज्जियां उड़ गई थीं। वह बुरी तरह अपमानित महसूस कर रहा था और इस अपमान का बदला उसने एक 75 साल की बूढ़ी औरत से लिया। डोरा ब्लोच। वह एक ब्रिटिश-इज़राइली नागरिक थीं, जो उस विमान में एक बंधक थीं। छापे से एक दिन पहले, उनके गले में मांस का एक टुकड़ा फंस गया था, जिसकी वजह से उन्हें कंपाला के मुलागो अस्पताल में भर्ती कराया गया था। जब इज़रायली कमांडो आए तो डोरा ब्लोच अस्पताल में ही थीं।

 

हेनरी क्येम्बा उनसे अस्पताल में मिले थे। वह एक शांत और कोमल स्वभाव की महिला थीं, जो बस अपने बेटे को लेकर चिंतित थीं लेकिन अमीन के लिए वह अब सिर्फ एक इज़रायली थी और उसके अपमान का प्रतीक थी। इज़रायली छापे के अगले दिन, अमीन के स्टेट रिसर्च ब्यूरो के लोग अस्पताल पहुंचे। क्येम्बा लिखते हैं कि वे डोरा ब्लोच को उसके कमरे से घसीटते हुए बाहर लाए। वह लगातार चीख रही थीं। अस्पताल के लोग और मरीज खौफ से देख रहे थे लेकिन किसी ने रोकने की हिम्मत नहीं की। उसे एक गाड़ी में ठूंसा गया और ले जाकर मार दिया गया।

ताश के पत्तों का महल 

 

एंटेबे में मिली शर्मनाक हार ने ईदी अमीन की चूलें हिला दी थीं। उसकी अपनी ही सेना में बगावत की चिंगारियां सुलग रही थीं। उसे एक नए दुश्मन की ज़रूरत थी, एक ऐसा दुश्मन जिसका डर दिखाकर वह अपनी बिखरती हुई फौज को फिर से एक कर सके। और वह दुश्मन उसे अपने पड़ोस में ही मिल गया - तंज़ानिया।

 

अक्टूबर 1978 में अमीन ने तंजानिया के कगेरा इलाके पर हमला कर दिया और उसके 700 वर्ग मील से ज़्यादा के हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया। उसने अपनी इस 'जीत' का जश्न मनाने के लिए अपने नवजात बेटे का नाम भी 'कगेरा' रख दिया। यह उसकी ज़िंदगी की आखिरी और सबसे बड़ी गलती साबित हुई। तंजानिया के राष्ट्रपति, जूलियस न्येरेरे जो अमीन से पहले ही नफरत करते थे, अब चुप नहीं बैठने वाले थे। उन्होंने युगांडा के निर्वासित लड़ाकों के साथ मिलकर अपनी सेना को जवाबी हमले का हुक्म दिया। अमीन की सेना, जो सालों से सिर्फ निहत्थे नागरिकों को मार रही थी, एक अनुशासित सेना का सामना नहीं कर पाई। उसके सैनिक भागने लगे।ॉ
 
घबराकर अमीन  लीबिया के तानाशाह, कर्नल गद्दाफी के पास मदद मांगने पहुंचा। गद्दाफी ने अपने सैनिक और हथियार युगांडा भेजे। एक पल के लिए लगा कि शायद अमीन बच जाएगा लेकिन युगांडा की सेना का मनोबल टूट चुका था। हेनरी क्येम्बा लिखते हैं कि लुकाया नाम की जगह पर हुई एक भीषण लड़ाई में अमीन के दो बटालियन पूरी तरह तबाह हो गई, जिसमें कई लीबियाई सैनिक भी मारे गए। यह ताबूत में आखिरी कील थी।

 

अप्रैल 1979 तक, तंजानिया की सेना और युगांडा के बागी लड़ाके राजधानी कंपाला के दरवाज़े पर दस्तक दे रहे थे। शहर में भगदड़ मच गई। अमीन के वफादार मंत्री और कमांडर, जिन्हें उसने दौलत और ताकत से नवाज़ा था, अपना सामान और लूटा हुआ माल लेकर देश से भागने लगे। जिन सड़कों पर कभी अमीन की हुकूमत चलती थी, आज उन्हीं सड़कों पर आम लोग दुकानों और दफ्तरों को लूट रहे थे। हर तरफ अराजकता थी। ताश का महल ढह रहा था और फिर, 11 अप्रैल 1979 को ईदी अमीन खुद एक हेलीकॉप्टर में बैठकर हमेशा के लिए युगांडा से भाग गया। 

 

पहले वह लीबिया गया और फिर उसे सऊदी अरब में शरण मिल गई, जहां वह 2003 में अपनी मौत तक गुमनामी की ज़िंदगी जीता रहा। विडंबना यह कि ईदी अमीन को उसके गुनाहों की सजा नहीं मिली। वह अपने पीछे छोड़ गया एक बर्बाद देश और तीन लाख से ज़्यादा बेगुनाहों की लाशों का ढेर। वह 'अफ्रीका का मोती' जिसे चर्चिल ने कभी सराहा था, अमीन ने उसे खून और आंसुओं के एक गहरे समंदर में डुबो दिया था। उसकी कहानी आज भी दुनिया को याद दिलाती है कि जब एक सनकी तानाशाह  के हाथ में असीमित ताकत आ जाती है तो वह कैसे एक जीती-जागती जन्नत को जलते हुए कब्रिस्तान में बदल सकता है।

 

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