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तलवार के दम पर पहचान बनाने वाले बिहार के डुमरांव राज की कहानी

बिहार के तमाम राजघरानों में से एक डुमरांव राज की कहानी बेहद रोचक है। क्या आप जानते हैं कि इसकी शुरुआत कैसे हुई और अब इसकी हालत क्या है?

Dumraon raj

डुमरांव राज की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

मालवा की धरती से एक काफिला चला। घोड़ों के पैरों से उड़ती धूल एक ऐसे भविष्य की तस्वीर बना रही थी जिसे इतिहास में शामिल होना था। इतिहास मालवा का नहीं, बिहार का। यह कहानी है एक रियासत की। बिहार के एक जमींदारी राज की जिसने तलवार के दम पर अपनी जगह बनाई, मुगलों की नीतियों से खेला और अंग्रेजों से भी रस्साकशी की लेकिन क्या हुआ जब उनकी रियासत छीन ली गई? कैसे यह परिवार आज भी अपनी 'शाही' पहचान को बचाए हुए है? क्यों एक उपन्यास में अपने जिक्र पर यह राजघराना नाराज हो गया था?
आइए जानते हैं कि बिहार के डुमरांव राज की कहानी।

उज्जैनिया राजपूत

 

शुरुआत करते हैं भूगोल से। बिहार का भोजपुर इलाका। यहां बक्सर ज़िले में डुमरांव नाम का एक छोटा-सा कस्बा है। पुराने समय में यह पूरा इलाका शाहबाद सरकार कहलाता था, डुमरांव उसका केंद्र था। यह क्षेत्र गंगा नदी के करीब है, हरे-भरे मैदानों और खास जगहों से घिरा है। इसी वजह से यह सदियों तक ताकत और लड़ाइयों का केंद्र बना रहा। भूगोल से अब इतिहास पर चलें तो डुमरांव राज पर उज्जैनिया राजपूतों का शासन रहा है और इनकी कहानी बिहार से नहीं मालवा से शुरू होती है। बात है 14वीं सदी की। दिल्ली सल्तनत कमजोर पड़ रही थी और हर तरफ छोटे-बड़े राजा-महाराजा अपना सिर उठा रहे थे। ऐसे माहौल में उज्जैनिया राजपूतों का एक क़ाफ़िला मालवा से पूरब की ओर बढ़ा। पहले ये मालवा के परमार राजपूतों की शाखा हुआ करते थे। उनसे अलग होकर ये पहुंचे बिहार। जहां इन्होंने भोजपुर में बसने का फैसला किया।

 

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ध्यान रखिए अभी हम डुमरांव राज तक नहीं पहुंचे हैं। उनकी स्थापना आगे चलकर होगी। पहले थोड़ा उज्जैनिया राजपूतों का बैकग्राउंड समझना जरूरी है। दरअसल, उज्जैनिया राजपूत जब भोजपुर पहुंचे, यहां पहले से चेरो नाम की एक जनजाति का राज था। वही हुआ जो अक्सर होता है- तलवारें खिंचीं और युद्ध छिड़ गया। उज्जैनिया और चेरो के बीच कई सालों तक ज़बरदस्त लड़ाइयां चलीं। राजा हुंकार सिंह के नेतृत्व में उज्जैनिया राजपूतों ने चेरो को पश्चिमी बिहार से खदेड़ दिया। चेरो को इसके बाद आज के झारखंड के पलामू में जाकर शरण लेनी पड़ी।
 
चेरो को खदेड़ने के बाद अगले 100 साल में उज्जैनिया राजपूत इलाके में अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगे रहे। इस दौरान उनका पाला मुगलों से भी पड़ा और यहां तक कि शेरशाह सूरी जो बाद में हिंदुस्तान के बादशाह बने, उनसे भी उज्जैनिया राजपूतों के संबंध रहे।

 


 
एक दिलचस्प क़िस्सा सुनिए। साल 1534 की बात है। शेरशाह सूरी बंगाल के महमूद शाह के खिलाफ़ लड़ाई लड़ रहे थे। मदद की जरूरत थी। ऐसे में आगे आए उज्जैनिया सरदार गजपति। गजपति अपनी दो हज़ार घुड़सवारों की फौज लेकर शेरशाह सूरी की मदद को पहुंचे। कहते हैं कि इस लड़ाई में गजपति ने खुद महमूद शाह के कमांडर को मार गिराया था। शेरशाह सूरी उनकी बहादुरी से इतने खुश हुए कि इनाम के तौर पर बक्सर का इलाका भी गजपति को दे दिया।

 

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100 साल में उज्जैनिया सरदारों ने मुग़लों और अफगानों, दोनों से रिश्ते बनाए और तोड़े। अपनी जगह बनाई और अपनी सत्ता को मजबूत किया। इन्हीं लगातार संघर्षों और गठबंधनों से भोजपुर में उज्जैनिया राज की नींव इतनी पक्की हो गई कि 17वीं सदी की शुरुआत में एक मजबूत शासक का उदय हुआ। राजा नारायण मल जो भोजपुर के शाही परिवार से ही थे। साल 1607 में उन्होंने अपने एक कमजोर रिश्तेदार को हटाकर खुद गद्दी संभाली। सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए, नारायण मल ने मुग़ल राजकुमार खुर्रम, जो आगे चलकर शाहजहां के नाम से जाने गए, के साथ दोस्ती कर ली। यह बड़ी समझदारी वाली चाल थी क्योंकि उस समय मुग़लों का दबदबा बढ़ता जा रहा था। करीब 1607-1608 में नारायण मल ने अपनी फौज के साथ बक्सर में एक बड़ा युद्ध लड़ा। यह युद्ध चेरो और मुंडा जैसी विद्रोही जनजातियों के खिलाफ था, जिसमें उन्होंने करारी शिकस्त दी और पूरे क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली। नारायण मल की इस जीत से खुश होकर, मुग़ल राजकुमार खुर्रम ने उन्हें 1,000 घोड़ों की मनसब और 'राजा' का खिताब दिलवाया। नारायण मल ने जगदीशपुर को अपनी राजधानी बनाया। उनकी रियासत को अक्सर 'भोजपुर एस्टेट' भी कहा जाता था। नारायण मल ने भोजपुर पर लगभग 17 साल तक राज किया। इस दौरान उन्होंने भोजपुर में उज्जैनिया शासन को स्टेबिलिटी दी। फिर अचानक 1622 में एक पारिवारिक झगड़े में उनकी हत्या कर दी गई।

 

नारायण मल के दो बेटे थे। अमर सिंह और प्रबल सिंह लेकिन वे नाबालिग थे। जिसके चलते नारायण के भाई प्रताप सिंह ने रियासत का कार्यभार संभाला। मुग़लों ने इस मौके का फायदा उठाकर सत्ता क़ब्ज़ाने की कोशिश की। राजा प्रताप ने लड़ने की ठानी लेकिन 1638 में मुग़ल सेनाओं ने उन्हें हरा दिया और उन्हें बंदी बनाकर फांसी दे दी। इस उथल-पुथल के बाद, नारायण मल के बड़े बेटे, राजा अमर सिंह प्रथम करीब 1638 में अपने पुरखों की गद्दी फिर से हासिल कर पाए। राजा अमर सिंह के बाद भोजपुर राज का वह दौर शुरू होता है, जब मुग़लों की सियासत में भोजपुर का रोल और अहम हो गया। 

मुग़लों के साथ सियासत

 

साल 1658। मुग़ल बादशाह शाहजहां के शहजादों में सत्ता को लेकर तनातनी शुरू हुई। इस लड़ाई को हम दारा शिकोह बनाम औरंगज़ेब के नाम से जानते हैं। इस लड़ाई में कई और खिलाड़ी भी थे। शाहजहां के बेटा शाह शुजा, जो बंगाल के गवर्नर थे, उन्होंने भी सत्ता में दावेदारी पेश की। शाह शुजा और दारा शिकोह के बीच लड़ाई में भोजपुर भी मोहरा बना।

 

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इस समय भोजपुर पर अमर सिंह का शासन था। अमर सिंह ताक़तवर थे इसलिए उनके पास दोनों तरफ से बुलावा आया। हालांकि, अमर सिंह एक दूरदर्शी शासक थे। मुगलों के झगड़े के बीच उन्होंने अपनी रियासत को मजबूत किया। उन्होंने आज के डुमरांव के दक्षिण में करीब नौ मील दूर एक नई किलेबंद राजधानी बनाई। यहां उन्होंने कई इमारतें और एक किला भी बनवाया, जिसके खंडहर आज भी भोजपुर के बाहर देखे जा सकते हैं। अमर सिंह ने लगभग 27 साल तक शासन किया। जिसके बाद 1665 में उनका निधन हो गया।
 
अमर सिंह के जाते ही भोजपुर में उत्तराधिकार की एक और लड़ाई शुरू हुई। सत्ता के वारिस थे - उनके युवा बेटे रुद्र सिंह लेकिन अमर के छोटे भाई प्रबल सिंह ने भी अपना दावा पेश किया। 'मुगल एडमिनिस्ट्रेशन ऐंड द जमींदार्स ऑफ बिहार' में ताहिर हुसैन अंसारी इस वाक़ये का जिक्र करते हैं। 'तवारीख-ए-उज्जैनिया' नाम की किताब के हवाले से अंसारी लिखते हैं, भोजपुर की गद्दी हासिल करने के लिए प्रबल सिंह ने मुग़लों से मदद मांगी। यहां तक कि औरंगज़ेब का समर्थन पाने के लिए इस्लाम भी कबूल कर लिया लेकिन अंत में भतीजा चाचा पर भारी पड़ा। प्रबल सिंह को गद्दी नहीं मिली और भोजपुर के अगले शासक बने रुद्र सिंह।
 
राजा रुद्र सिंह ने 1665 से 1699 तक राज किया। उन्हें डुमरांव के इतिहास के सबसे अहम किरदारों में से एक माना जाता है। उनके शासन की शुरुआत में मुगल बादशाह औरंगजेब ने उनकी सत्ता को मान्यता नहीं दी। 1682 में रुद्र सिंह को 800 सवार का शाही मनसब और 'राजा' का खिताब दिया गया लेकिन 1680 के दशक के आखिर में हालात ऐसे बने कि रुद्र सिंह ने विद्रोह कर दिया। हुआ यह कि बिहार की रियासतें औरंगज़ेब के लगाए जजिया टैक्स से नाराज थीं लिहाजा रुद्र सिंह और उनके पड़ोसी सरदार कुंवर धीर ने मिलकर मुग़लों के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया।

 

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मुग़ल फौज के साथ लड़ाई के चलते रुद्र सिंह को जंगलों में शरण लेनी पड़ी, जहां उन्होंने गुरिल्ला युद्ध शुरू किया। आखिर में एक दोस्त के दखल से 1681-82 के आसपास रुद्र सिंह और मुग़लों के बीच सुलह हुई। इसके बाद भोजपुर की सत्ता में एक बड़ा बदलाव हुआ। इस समय तक भोजपुर की राजधानी मठिला में थी। ध्यान दीजिएगा यह मिथिला नहीं है। मठिला डुमरांव के पास एक क़िला था जबकि मिथिला उत्तरी बिहार का इलाका है।
 
बहरहाल, मठिला का क़िला मुग़ल फौज ने तोड़ दिया था। इसलिए रुद्र सिंह ने राजधानी बदलने का फैसला किया। भोजपुर एस्टेट की राजधानी इसके बाद बक्सर में शिफ्ट हो गई। बक्सर में रुद्र सिंह को लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ा। मुग़ल दरबार ने उनसे कुंवर धीर से लड़ने को कहा। धीर एक विद्रोही उज्जैनिया रिश्तेदार था। वह बार-बार इलाके को परेशान कर रहा था। रुद्र ने धीर की सेनाओं को कई बार हराया लेकिन धीर एक चालबाज दुश्मन था। डुमरांव के अभिलेखों के अनुसार, कुंवर धीर ने 1690 के दशक के अंत में राजा रुद्र सिंह को ज़हर देने की साज़िश रची।

 

कुछ ऐतिहासिक रिकॉर्ड में रुद्र सिंह को मुग़लों द्वारा फांसी दिए जाने की बात भी कही गई है लेकिन स्थानीय कहानियां जहर दिए जाने की बात कहती हैं। बहरहाल, कहानी के अनुसार अपनी मौत का एहसास होने पर, रुद्र सिंह ने अपनी मुख्य रानी को निर्देश दिया। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद, उनके चचेरे भाई मंधाता सिंह को उत्तराधिकारी घोषित किया जाए। आपको कुछ देर पहले हमने रुद्र सिंह के चाचा प्रबल सिंह के बारे में बताया था। मंधाता इन्हीं प्रबल सिंह के बेटे थे। सार्वजनिक रूप से घोषणा की गई। रुद्र ने अपनी मृत्युशय्या पर मंधाता को अगला शासक चुना है। इस चाल ने कुंवर धीर को फायदा उठाने से रोक दिया। 1699 में रुद्र सिंह की मृत्यु हुई। उज्जैनिया कुलीनों और मुग़ल अधिकारियों दोनों ने राजा मंधाता सिंह को भोजपुर का नया सरदार मान लिया। मंधाता सिंह ने सत्ता को एकजुट रखने का प्रयास किया लेकिन रियासत जल्द ही अलग-अलग शाखाओं में बंट गई। 

डुमरांव राजधानी 

 

यहां से हम कहानी के उस हिस्से में पहुंचते हैं, जहां डुमरांव राज का नाम डुमरांव राज पड़ा। साल 1699 राजा रुद्र सिंह की मौत के बाद, भोजपुर का बड़ा इलाका अब बंटने लगा था। परिवार की अलग-अलग शाखाओं में अपनी पहचान बनाने की होड़ शुरू हो गई। मांधाता सिंह, जो रुद्र के चचेरे भाई थे , उन्हें रियासत का मुख्य हिस्सा मिला। शुरुआत में उन्होंने बक्सर को ही अपना अड्डा बनाए रखा। बाद में वह अपनी राजधानी वापस मठिला ले गए। जहां 1708 में उनकी हत्या कर दी गई। इसी बीच, मंधाता के भाई सुजान सिंह ने भोजपुर की पुरानी राजधानी जगदीशपुर पर फिर से कब्ज़ा जमा लिया।

 

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इस तरह 1708 आते-आते, जो उज्जैनिया राज कभी एक था, वह अब पूरी तरह तीन हिस्सों में बंट गया। सुजान के बड़े बेटे के वंश को डुमरांव का इलाका मिला। दूसरे बेटे के वंश ने जगदीशपुर संभाला। तीसरी शाखा को बक्सर का हिस्सा मिला। इस तरह, सुजान के सबसे बड़े बेटे, राजा होरिल शाह जिन्हें होरिल सिंह भी कहा जाता है, सही मायने में डुमरांव राज के संस्थापक बने। उनका इलाका डुमरांव शहर के इर्द-गिर्द सिमट गया।
 
राजा होरिल शाह (होरिल सिंह) ने 1708 में गद्दी संभाली।  शुरुआत में उन्हें अपने ही रिश्तेदारों से चुनौती मिली। 1710 के शुरुआती सालों में जगदीशपुर और बक्सर के उनके रिश्तेदारों ने मिलकर उनके खिलाफ़ मोर्चा खोल दिया। होरिल शाह ने मुग़ल बादशाहों से मदद मांगी और मुग़ल सेना की मदद से अपने रिश्तेदारों को हराकर अपना इलाका वापस हासिल किया पाया। इन लड़ाइयों से सबक लेते हुए, होरिल ने अपनी सत्ता का केंद्र एक ज़्यादा सुरक्षित जगह पर ले जाने का फैसला किया। 1745 से कुछ पहले उन्होंने अपनी राजधानी मठिला से डुमरांव शहर ले आए। यहां उन्होंने एक बड़ा किला और महल बनवाया।  इससे यह शहर राज का राजनैतिक और सैनिक केंद्र बन गया।
 
इस नए शहर का नाम उनके सम्मान में 'होरिलनगर' रखा गया था। होरिल और उनके बाद के राजाओं ने मुग़ल साम्राज्य के कमज़ोर होते दौर में राज संभाला। 18वीं सदी में मुग़ल सल्तनत की पकड़ ढीली हुई और मराठों व अंग्रेजों जैसी नई ताकतें बिहार में घुसने लगीं। डुमरांव के राजाओं को पुरानी वफादारी और नई हकीकतों के बीच संतुलन बनाना पड़ा। इसी दौरान, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी पूर्वी भारत में एक बड़ी शक्ति के रूप में सामने आ रही थी। जब बंगाल के नए नवाब, मीर कासिम, ने 1763-1764 में अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी। इस लड़ाई के नतीजे भारतीय इतिहास के साथ-साथ डुमरांव के लिए भी बहुत बड़े थे।

 

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डुमरांव के राजा ने जल्दी ही अंग्रेजों के साथ शांति समझौता कर लिया। अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें एक स्थानीय ज़मींदार के रूप में मान्यता दी। उन्हें अपनी रियासत रखने की इजाज़त भी मिली लेकिन अब वे प्रभावी रूप से ब्रिटिश शासन के अधीन एक ज़मींदार बन गए थे। इस तरह डुमरांव राज एक रियासत से बदलकर एक ज़मींदारी एस्टेट में तब्दील हो गया।

ब्रिटिश क्राउन के अधीन

 

साल 1793 में ब्रिटिश सरकार एक कानून लाई- 'स्थायी बंदोबस्त'। इसके तहत डुमरांव के राजा को पैतृक ज़मींदार मान लिया गया। उनसे एक तय लगान लेने की बात हुई। अब उन्हें पूरी तरह से आज़ाद रियासत तो नहीं कहा जा सकता था बल्कि वे एक बड़े ज़मींदार की तरह थे लेकिन लोगों के बीच पहले राजा और बाद में 'महाराजा' का टाइटल बरकरार रहा। दिलचस्प बात यह है कि अंग्रेजों के राज में यह रियासत सिकुड़ी नहीं। बल्कि 19वीं सदी में और बड़ी हो गई ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने विद्रोही ज़मींदारों की ज़मीनें छीन लीं। डुमरांव जैसे वफादार राज को उन ज़मीनों का हिस्सा मिल गया। आइए अब जानते हैं इस दौर में डुमरांव के कुछ खास राजाओं के बारे में:

 

महाराजा महेश्वर बख्श सिंह: इन्होंने 1844 से 1881 तक 37 साल तक राज किया। माना जाता है कि 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान, महाराजा महेश्वर बख्श सिंह अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे या कम से कम न्यूट्रल तो जरूर रहे जबकि उनके कुछ राजपूत भाई-बंधुओं ने विद्रोह किया था। भोजपुर इलाके में 1857 के हीरो बाबू वीर कुंवर सिंह थे। हमने आपको बताया था कि 18वीं सदी की शुरुआत तक उज्जैनिया राजपूत तीन शाखाओं में बंट गए थे। इनमें से एक जगदीशपुर शाखा थी।

 

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बाबू वीर कुंवर सिंह इसी के हेड थे और डुमरांव के राजा के दूर के रिश्तेदार लगते थे। कुंवर सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ़ ज़ोरदार विद्रोह किया। वह एक महान स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर जाने गए लेकिन डुमरांव रियासत इस दौरान न्यूट्रल रही। डुमरांव को इसका फ़ायदा भी मिला क्योंकि विद्रोह कुचलने के बाद अंग्रेजों ने कुंवर सिंह के वारिसों से जगदीशपुर की रियासत छीन ली। उस ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा डुमरांव में मिला दिया गया। जिससे डुमरांव की जमींदारी और बड़ी हो गई।
 
दूसरे उल्लेखनीय महाराजा रहे सर राधा प्रसाद सिंह, जो 1881 के 1894 के बीच राजा रहे। महारानी विक्टोरिया ने उन्हें नाइट कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एंपायर- KCIE से सम्मानित किया। साथ ही उन्हें 'महाराजा बहादुर' की उपाधि भी दी गई।


1894 में राधा प्रसाद सिंह का निधन हुआ। उनका कोई जीवित बेटा नहीं था लिहाजा महारानी बेनी प्रसाद कुंवरी ने रीजेंट के रूप में कार्यभार संभाला।
 
1907 में महारानी की मृत्यु के बाद, गद्दी पर एक पांच साल के बच्चे को बिठाया गया। यह महारानी का गोद लिया हुआ बेटा श्रीनिवास प्रसाद सिंह था। ऐसा होते ही सत्ता के लिए खींचातानी शुरू हो गई। दरअसल, सत्ता के एक और दावेदार थे। कुंवर केशव प्रसाद सिंह जो ख़ून के रिश्ते के हिसाब से सबसे करीबी वारिस थे, उन्होंने एक लंबी कानूनी लड़ाई शुरू कर दी। यह केस काफ़ी लंबा चला और तब काफ़ी मशहूर हुआ था, जिसके चर्चे लंदन तक पहुंचे थे।  आखिर में 1911 में ब्रिटिश सरकार ने एक समझौता करवाया। गोद लिए गए लड़के को हटा दिया गया और केशव प्रसाद सिंह को 1911 में डुमरांव के 13वें महाराजा के रूप में मान्यता दे दी। यह मामला प्रिवी काउंसिल तक भी पहुंचा। जहां 1949 में केशव प्रसाद सिंह के वंश के हक में फैसला सुनाया गया।

 

ज़मींदारी का अंत

 

केशव सिंह प्रसाद आजादी के पहले तक डुमरांव के सेकेंड लास्ट महाराजा रहे। 1933 में उनका निधन हुआ तो उनके इकलौते बेटे राम रण विजय प्रसाद सिंह 14वें महाराजा बने। महाराजा राम रण विजय प्रसाद सिंह ने 1933 से 1949 तक राज किया। वह डुमरांव के आखिरी शासक कहे जा सकते हैं जिनके पास ज़मींदारी की असली ताकत थी। उन्होंने जब गद्दी संभाली तो पिछले मुकदमों की वजह से खजाना खाली था। कर्ज भी बहुत था लेकिन अपने पिता की तरह, राम रण विजय भी  सार्वजनिक जीवन में बहुत सक्रिय रहते थे। वह 1930 के दशक में शाहबाद ज़िला बोर्ड के अध्यक्ष रहे। आज़ादी से पहले की भारतीय विधायिका यानी सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के लिए चुने गए थे। वह शिक्षा और विज्ञान के बड़े प्रशंसक थे।

 

उन्होंने आरा में H.D. जैन कॉलेज जैसी संस्थाओं के लिए ज़मीन दान की। पटना में एक वेटेरिनरी कॉलेज स्थापित करने में भी मदद की। वह खेल के भी बड़े शौकीन थे – पोलो, शिकार और घुड़सवारी के लिए जाने जाते थे। उनके अपने हिसाब से, उन्होंने सासाराम, रोहतास और यहां तक कि नेपाल के जंगलों में 40 से ज़्यादा बाघों का शिकार किया था। राम रण विजय के नेतृत्व में डुमरांव रियासत की अर्थव्यवस्था सुधरी। खेती के लिए बड़ी खाली ज़मीनें लाई गईं। उन्होंने 1947 में नाममात्र के किराए पर 500 एकड़ ज़मीन देकर मवेशी-पालन जैसी सरकारी योजनाओं में भी सहयोग किया। उन्होंने 1947 में भारत को आज़ाद होते देखा लेकिन 1949 के आखिर में उनका देहांत हो गया। ठीक उसी समय जब ज़मींदारी व्यवस्था अपने अंतिम पड़ाव पर थी।

 

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1947 के बाद भूमि सुधार कानून के चलते सामंती व्यवस्था ख़त्म होती गई। 1950-1952 तक बिहार में ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम लागू हुआ। इससे डुमरांव जैसे रियासत के मालिकों के लगान के अधिकार खत्म हो गए। इस समय डुमरांव के महाराजा थे बहादुर कमल सिंह। उन्होंने विरोध करने के बजाय, नए सिस्टम के साथ सहयोग किया। जून 1952 में उन्होंने औपचारिक रूप से डुमरांव रियासत को शाहबाद के ज़िला कलेक्टर को सौंप दिया और खुद लोकतांत्रिक राजनीति में आ गए। वह 1952 और 1957 में दो बार भारत की संसद के लिए चुने गए। उन्होंने परिवार की दान-पुण्य की परंपरा को भी जारी रखा। उन्होंने आरा में एक कॉलेज की स्थापना की। 1950 के दशक में स्कूलों और अस्पतालों के लिए ज़मीन दान की। 

वर्तमान का हाल क्या है?
 
सत्ता भले ही हाथ से चली गई लेकिन डुमरांव का शाही परिवार आज भी बिहार में एक इज़्ज़तदार खानदान माना जाता है। महाराजा कमल सिंह, जिन्हें आज़ादी के समय का एक बड़े और इज़्ज़तदार मुखिया के रूप में देखा जाता है, वह जनवरी 2020 तक जीवित रहे। 93 साल की उम्र में उनके निधन के बाद, उनके बड़े बेटे चंद्र विजय सिंह परिवार के मुखिया बने। यह परिवार में 16वीं पीढ़ी है। महाराजा बहादुर चंद्र विजय सिंह के पास आज कोई सरकारी ताकत नहीं है लेकिन 'महाराजा' का खिताब आज भी स्थानीय लोग उनके नाम के साथ  जोड़ते हैं।

इस परिवार ने अपनी कुछ पुरानी संपत्ति को नए ज़माने के हिसाब से बदला है। जैसे, उन्होंने कपड़ों के व्यापार और खेती में कदम रखा है। पुराने किले और महल का एक हिस्सा, जिसे भोजपुर कोठी कहते हैं, आज भी परिवार का घर है। भोजपुर कोठी डुमरांव के बाहर एक बहुत बड़ा महल है। यह करीब 75-76 एकड़ हरी-भरी ज़मीन पर फैला है। डुमरांव में एक मशहूर किस्सा है कि अंग्रेजों के दौर में यह हवेली एक नील बागान मालिक के पास थी। जब वह इसे संभाल नहीं पाया, तो डुमरांव के राजा ने यह हवेली सिर्फ पांच रुपये में खरीद ली थी। 
जमींदारी घराना होने के चलते डुमरांव में कल्चर में भी काफ़ी योगदान दिया।
 
शहनाई के महान कलाकार उस्ताद बिस्मिल्लाह खान डुमरांव के ही थे। दरअसल, बिस्मिल्लाह खान के पिता बक्श खान और उनके पूर्वज डुमरांव राज के दरबार में संगीतकार थे। छोटे बिस्मिल्लाह (जिनका जन्म का नाम कमरुद्दीन खान था) डुमरांव में ही पले-बढ़े। पांच साल की उम्र में उन्होंने महल में अपनी पहली शहनाई बजाई थी। आज डुमरांव में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की याद में एक छोटा स्मारक भी है।

 

हालिया समय का एक रेफरेंस लें तो 2014 में चेतन भगत के उपन्यास 'हाफ गर्लफ्रेंड' में डुमरांव का जिक्र किया गया है। उपन्यास में एक किरदार है, जो डुमरांव का राजकुमार होता है। करैक्टर निगेटिव शेड में था। लिहाजा यह बात शाही परिवार को पसंद नहीं आई। महाराजा चंद्र विजय सिंह और उनके रिश्तेदारों ने सार्वजनिक रूप से विरोध प्रदर्शन किया। डुमरांव के स्थानीय लोगों ने लेखक के पुतले जलाए। महाराजा ने तो माफी और आपत्तिजनक संदर्भों को हटाने के लिए कानूनी नोटिस तक भेज दिया।

 

बहरहाल, डुमरांव राज के पास अब पहले जैसी ताक़त नहीं रही लेकिन प्रतीकात्मक रूप से यह आज भी क़ायम है। जमींदारी खत्म हुए  70 साल से ज़्यादा हो चुके हैं लेकिन राज की सांस्कृतिक छाप आज भी दिखाई देती है। उनके बनवाए महल और मंदिर डुमरांव में आज भी खड़े हैं। परिवार आज भी स्थानीय त्योहारों और समारोहों में मुखिया के तौर पर हिस्सा लेता है। डुमरांव राज की कहानी मध्यकालीन भारत से आधुनिक भारत तक के बदलाव का एक छोटा सा रूप है। यह सामंती मालिकों से लेकर एक गणतंत्र के नागरिक बनने तक का सफर है।

 

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