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B-2 स्पिरिट बॉम्बर इतना महंगा क्यों है? इसकी खूबियां जान लीजिए

अक्सर अमेरिका के B2 स्पिरिट बॉम्बर की खूबियों और इसकी कीमत को लेकर खूब चर्चा होती है। क्या आप जानते हैं कि यह काम कैसे करता है?

b2 bomber

B2 बॉम्बर की खूबियां, Photo Credit: Khabargaon

साल 1962, मॉस्को इंस्टीट्यूट ऑफ रेडियो इंजीनियरिंग में चीफ साइंटिस्ट, प्योत्र उफिमसेव एक रिसर्च पेपर पर काम कर रहे थे। सब्जेक्ट - इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स। बड़ी मेहनत से यह रिसर्च पेपर तैयार हुआ लेकिन जब रिव्यू के लिए बाकी वैज्ञानिकों तो दिया गया तो उन्होंने उसे यह कहकर टाल दिया कि यह जटिल, लंबा और उबाऊ है। सोवियत संघ में किसी ने उसे तवज्जो नहीं दी। कागज़ात का वह पुलिंदा धूल फांकता रहा। फिर एक दशक बाद एक दिन उड़ता-उड़ता जा पहुंचा अमेरिकी कंपनी लॉकहीड के पास। लॉकहीड में एक टीम काम करती थी- जिसे स्कंक वर्क्स' कहते थे। इस टीम में 36 साल के एक गणितज्ञ, डेनिस ओवरहोलसर की नजर उस रूसी पेपर पर पड़ी। उसने उस उबाऊ पेपर को पूरा पढ़ डाला और उसकी मदद से बनाया एक लकड़ी से बना एक जहाज़ का मॉडल। जो दिखने में किसी कटे हुए हीरे जैसा दिखता था। उसे नाम दिया गया, 'होपलेस डायमंड'।
 
कट टू- सितंबर 1975, कैलिफोर्निया के मोहावे रेगिस्तान में एक आउटडोर रडार टेस्ट रेंज। मॉडल को 12 फुट ऊंचे पोल पर रखा गया और करीब 1500 फुट दूर से रडार डिश के ज़रिए उसे डिटेक्ट करने की कोशिश की गई। कंट्रोल रूम में बैठा ऑपरेटर हैरान था। स्क्रीन सपाट थी। कुछ भी नहीं दिख रहा था। उसने कहा, 'मिस्टर रिच, अपना मॉडल चेक कीजिए। लगता है मॉडल गिर गया है।' बेन रिच, स्कंक वर्क्स के बॉस थे, उन्होंने देखा- मॉडल अपनी जगह पर था। उन्होंने जवाब दिया, 'तुम पागल हो गए हो। मॉडल वहीं पर है।'

 

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ऑपरेटर ने दोबारा चेक किया। अबकी बार उसे रडार पर हरकत नज़र आई। रडार ऑपरेटर चिल्लाकर बोला, 'हां, अब दिख रहा है।' उसे लगा कि उसने मॉडल को पकड़ लिया है लेकिन असल में करोड़ों डॉलर का रडार सिस्टम एक मामूली कौवे को पकड़ रहा था, जो मॉडल के ऊपर आकर बैठ गया था। जहाज का मॉडल रडार के लिए पूरी तरह अदृश्य था। मोहावे रेगिस्तान में टेस्ट हुई इसी टेक्नोलॉजी ने जन्म दिया दुनिया के पहले स्टेल्थ फाइटर जेट को। नाम - F-117A और फिर इसी टेक्नॉलजी के विकास से अमेरिका ने बनाया -दुनिया का सबसे खतरनाक और सबसे महंगा बॉम्बर। एक ऐसा शिकारी जिसे दुश्मन देख नहीं सकता, सिर्फ उसकी तबाही महसूस कर सकता है।

एक उड़ने वाले पंख का सपना

 

साल 1970 का दशक। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच कोल्ड वॉर अपने चरम पर थी। दोनों देश एक से बढ़कर एक खतरनाक हथियार बना रहे थे। इसी दौरान, अमेरिकी वायु सेना एक नए बॉम्बर पर काम कर रही थी। नाम था, B-1। यह एक सुपरसोनिक बॉम्बर था, जिसे सोवियत संघ के एयर डिफेंस को चकमा देकर अंदर घुसने के लिए बनाया जा रहा था लेकिन पेंटागन यानी अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के बड़े अधिकारियों को यह प्रोजेक्ट पसंद नहीं आ रहा था। सबसे बड़ी चिंता यह थी कि अगर सोवियत संघ से जंग छिड़ गई तो क्या B-1 उसके एयर डिफेंस को पार कर पाएगा? एक स्टडी में अंदाज़ा लगाया गया कि B-1 का सर्वाइवल रेट, यानी बचकर वापस आने की उम्मीद, 40% से भी कम थी। इसका मतलब था कि भेजे गए 100 में से 60 बॉम्बर मार गिराए जाते।

 

इसी समस्या का हल पेश करने के लिए दो नाम सामने आए। पहला - लॉकहीड, जिसने अमेरिका का पहला स्टेल्थ फाइटर F-117A बनाया था। लॉकहीड ने दावा किया कि उनकी स्टेल्थ टेक्नोलॉजी से बना बॉम्बर 80% से ज़्यादा मिशन में कामयाब होकर लौटेगा। दूसरी तरफ थी नॉर्थरोप (Northrop) कंपनी, जिसके इंजीनियर जॉन कैशन स्टेल्थ टेक्नोलॉजी के माहिर माने जाते थे और लॉकहीड को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। दोनों कंपनियों के बीच होड़ शुरू हुई। कौन बेहतर डिज़ाइन पेश करेगा।

 

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दोनों कंपनियों के इंजीनियर जब कागज़ पर बैठे तो एक अजीब इत्तेफाक हुआ। दोनों ने लगभग एक जैसा डिज़ाइन बनाया। दोनों के डिज़ाइन इतने मिलते-जुलते थे कि एक बार जब डिफेंस साइंस बोर्ड के हेड, लॉकहीड के ऑफिस आए। उन्होंने वहां मेज़ पर रखा B-2 का मॉडल देखा तो हैरान रह गए। उन्होंने लॉकहीड के इंजीनियर्स से पूछा, 'तुम्हारे पास नॉर्थरोप के बॉम्बर का मॉडल कहां से आया?' लॉकहीड के हेड समझ गए कि उनका दुश्मन भी उन्हीं की तरह सोच रहा है। दोनों कंपनियों का डिज़ाइन एक पंख की तरह दिखाई देता था। यह आइडिया नया नहीं था। 1940 के दशक में नॉर्थरोप कंपनी के मालिक, जैक नॉर्थरोप ने ऐसा ही एक जहाज़ बनाने का सपना देखा था। उन्होंने एक प्रोटोटाइप बनाया भी लेकिन उस ज़माने की टेक्नॉलजी इतनी एडवांस्ड नहीं थी कि बिना पूंछ वाले जहाज़ को संभाल सके। जहाज़ हवा में बहुत डगमगाता था और उसे कंट्रोल करना नामुमकिन था।
 
इस समस्या का हल नए जमाने की टेक्नोलॉजी में संभव था। ऐसे में अमेरिकी वायु सेना को यह आइडिया पसंद आया। एक ऐसा विमान जो अपनी बनावट की वजह से ही रडार पर कम दिखेगा और जिसे कंप्यूटर की मदद से उड़ाया जा सकता है। यहीं से शुरू हुआ एक मुकाबला- जिसमें अरबों डॉलर दांव पर थे। मैदान में अमेरिका की दो सबसे बड़ी स्टेल्थ कंपनियां आमने-सामने थीं। एक तरफ थी लॉकहीड, जो F-117A बनाकर अपनी काबिलियत साबित कर चुकी थी और दूसरी तरफ थी नॉर्थरोप। डिफेंस विभाग की तरफ़ से दोनों से अपने डिज़ाइन पेश करने को कहा गया।

 

अरबों डॉलर की टक्कर

 

जैसा पहले बताया दोनों कंपनियों के डिज़ाइन दिखने में एक जैसे थे लेकिन बारीकियों में कुछ अंतर थे। लॉकहीड के डिज़ाइन हेड को एक एयर फोर्स जनरल ने सलाह दी थी कि बॉम्बर को जितना हो सके छोटा बनाना ताकि उसकी कीमत कम रहे। इसलिए लॉकहीड का डिज़ाइन थोड़ा छोटा था और उसे हवा में स्थिर रखने के लिए उन्होंने पीछे दो छोटी-छोटी पूंछ लगाई थीं। वहीं, नॉर्थरोप के डिज़ाइनर जॉन कैशन को पेंटागन के एक दूसरे जनरल ने सलाह दी थी कि बॉम्बर को बड़ा बनाओ, ताकि वह ज़्यादा बम और ज़्यादा ईंधन लेकर दूर तक जा सके। 


इस हिसाब से नॉर्थरोप का डिज़ाइन बड़ा था और लॉकहीड से इतर उसमें कोई टेल नहीं थी। इस डिज़ाइन की ख़ासियत यह थी कि यह ज़्यादा डिस्टेंस ट्रैवल कर सकता था, जबकि लॉकज़ीड का डिज़ाइन छोटा था। उसकी रेंज कम थी लेकिन वह ज़्यादा स्टेबल और स्टेल्थ के मामले में भी बेहतर था।

 

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तकनीक की यह लड़ाई यहीं तक सीमित नहीं थी। इसका एक सिरा वॉशिंगटन के गलियारों में भी लड़ा जा रहा था। दरअसल, उन दिनों लॉकहीड F-117A और दूसरे प्रोजेक्ट्स की वजह से काफी सफल था और उसके पास काम की कोई कमी नहीं थी। वहीं, नॉर्थरोप कंपनी आर्थिक रूप से मुश्किल में थी। उनका F-20 फाइटर जेट का प्रोजेक्ट बुरी तरह फेल हो गया था और कंपनी को करोड़ों डॉलर का घाटा हुआ था। अमेरिकी डिफेन्स इंडस्ट्री का एक अघोषित नियम है कि सरकार अपनी किसी भी बड़ी हथियार बनाने वाली कंपनी को डूबने नहीं देती। वह कॉन्ट्रैक्ट्स को इस तरह बांटती है कि सभी का चूल्हा जलता रहे। सबको पता था कि नॉर्थरोप को इस कॉन्ट्रैक्ट की सख्त ज़रूरत थी।

 

मई 1981, न्यू मेक्सिको का रडार रेंज। दोनों कंपनियों के बनाए हुए मॉडल्स का आखिरी इम्तिहान था। एक-एक करके दोनों के मॉडल्स को रडार के सामने रखा गया। नतीजे टॉप सीक्रेट थे। महीनों तक कोई खबर नहीं आई। दोनों कंपनियां अपनी-अपनी जीत का दावा कर रही थीं। लॉकहीड को यकीन था कि उनका मॉडल स्टेल्थ में ज़्यादा बेहतर है और वह इस बाज़ी को जीत जाएंगे।

 

फिर आया अक्टूबर 1981। एक खत लॉकहीड के ऑफिस पहुंचा। फैसला आ चुका था। B-2 बॉम्बर बनाने का अरबों डॉलर का कॉन्ट्रैक्ट नॉर्थरोप को दे दिया गया। लॉकहीड की टीम हैरान थी। लॉकहीड के CEO, रॉय एंडरसन सीधे वायु सेना के सेक्रेटरी के पास पहुंचे और इस फैसले पर विरोध जताया। सेक्रेटरी ने मेज पर हाथ पटक कर कहा, 'गॉडडैम इट! नॉर्थरोप सिर्फ बेहतर नहीं था, वह तुमसे कहीं ज़्यादा बेहतर था।' आधिकारिक वजह यह बताई गई कि नॉर्थरोप का डिज़ाइन ज़्यादा बम ले जा सकता था और उसकी रेंज ज़्यादा थी, इसलिए उसे 'तकनीकी योग्यता' के आधार पर चुना गया लेकिन इंडस्ट्री में फुसफुसाहट यही थी कि यह फैसला जितना तकनीकी था, उतना ही राजनीतिक भी।
 

B-2 की इंजीनियरिंग

 

नॉर्थरोप ने कॉन्ट्रैक्ट तो जीत लिया लेकिन अब उनके सामने पहाड़ जैसी चुनौती थी। एक ऐसा हवाई जहाज़ बनाना, जो सिर्फ कागज़ पर मौजूद था। B-2 के हर एक विमान पर लगभग 2.2 बिलियन डॉलर का खर्चा आया। सवाल है, आखिर इस उड़ने वाले पंख में ऐसा क्या ख़ास था? इसका जवाब छिपा है इसकी इंजीनियरिंग में। सबसे पहले बात करते हैं इसकी बॉडी की। यह जहाज़ लोहे या एल्यूमीनियम से नहीं बना है। इसकी बाहरी परत बनी है कार्बन फाइबर से। यह एक ऐसा पदार्थ है जो स्टील से ज़्यादा मजबूत है लेकिन वज़न में बहुत हल्का।

 

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इसकी सबसे बड़ी खूबी? यह रडार की तरंगों को शीशे की तरह वापस नहीं फेंकता, बल्कि काफी हद तक सोख लेता है। इसके पंखों के किनारों पर एक ख़ास रबर जैसा प्लास्टिक लगाया गया है जो बची-खुची तरंगों को भी पी जाता है। मिलिट्री एयरक्राफ्ट्स पर 50 से ज़्यादा किताबें लिख चुके BILL SWEETMAN अपनी किताब 'स्टेल्थ बॉम्बर्स' में बताते हैं, 'B-2 की बाहरी परत को बनाते वक्त एक खास नियम का पालन किया जाता है। 'ज़ीरो टॉलरेंस', मतलब, ज़रा सी भी गलती की गुंजाइश नहीं। इसके पैनलों को इस तरह फिट किया जाता है कि उनके बीच एक बाल बराबर भी गैप न रहे। ऐसा इसलिए क्योंकि रडार की तरंगें ज़रा से भी गैप या खरोंच को पकड़ सकती हैं। इन पैनलों के जोड़ों, जिन्हें 'जॉइंट लाइन्स' कहते हैं, को एक ख़ास पेस्ट से भरा जाता है और इसे सूखने में कई घंटे लगते हैं। इसके बाद, ग्राउंड क्रू एक फोर्कलिफ्ट पर लगे ख़ास रडार डिवाइस से पूरे विमान की जांच करता है ताकि पता चल सके कि कहीं कोई गैप तो नहीं रह गया।'
 
अब बात करते हैं B-2 के दिल की, यानी इसके इंजन। किसी भी स्टेल्थ जहाज़ के इंजन उसके सबसे दोस्त और दुश्मन दोनों होते हैं। मेटल के बने इंजन ज़बरदस्त गर्मी पैदा करते हैं। मेटल रडार पर दिख जाता है और गर्मी इंफ्रा रेड सेंसर्स पर। B-2 के इंजीनियरों ने इसका एक अनोखा तोड़ निकाला। उन्होंने B2 के चार जनरल इलेक्ट्रिक F-118 जेट इंजन बाहर लटकाने की बजाय, पंख के सबसे मोटे हिस्से के अंदर गहरे छुपा दिए। यही नहीं, जहां से इंजन हवा अंदर खींचते हैं (inlets) और जहां से गर्म धुआं बाहर फेंकते हैं (outlets), उन रास्तों को सीधा न रखकर, अंदर की तरफ घुमावदार यानी S-आकार का बनाया गया है। ताकि दुश्मन का रडार सीधे इंजन के गर्म और घूमते हुए ब्लेड तक पहुंच ही न पाए। याद रखिए, पंखों में छिपे ये इंजन आकार में कहीं से छोटे नहीं हैं।

 

इंजन छिपा लिया लेकिन धुएं का क्या? 

 

ज़्यादा ऊंचाई पर उड़ने वाले जहाज़ अपने पीछे अक्सर एक सफेद लकीर छोड़ते हैं, जिसे 'कॉन्ट्रेल' कहते हैं। यह जमी हुई भाप होती है, जो मीलों दूर से भी दिख जाती है और दुश्मन को आपकी मौजूदगी का पता दे देती है। B-2 इस लकीर को भी बनने नहीं देता। इसके अंदर एक ख़ास लेज़र रडार सिस्टम लगा है। जैसे ही विमान ज़्यादा ऊंचाई पर पहुंचता है, यह सिस्टम तुरंत पायलट को सावधान कर देता है। पायलट फौरन विमान की ऊंचाई थोड़ी ऊपर या नीचे कर लेता है और सफेद लकीर बनने से पहले ही गायब हो जाती है।
 
इन सब को मिलाकर जो जहाज़ तैयार होता है, वह इंजीनियरिंग का एक करिश्मा है लेकिन इस करिश्मे को उड़ाना इंसान के बस की बात नहीं। इसीलिए इसका असली पायलट कोई इंसान नहीं, बल्कि एक सुपर-कंप्यूटर है। बिना पूंछ के यह विमान बाय डिज़ाइन अनस्टेबल है। माने यह अपने से ग्लाइड नहीं कर सकता, जैसे साधारण हवाई जहाज़ करते हैं। ऐसे डिज़ाइन वाले विमानों के कंप्यूटर एक सेकंड के लिए भी बंद हो जाएं तो यह तुरंत गोता खाकर ज़मीन पर आ गिरेगा। इसीलिए इसका 'फ्लाई-बाई-वायर' (Fly-by-wire) सिस्टम एक सेकंड में 40 बार तक इसके कंट्रोल सर्फेस हिलाता है। माने पंख झपकाता है ताकि यह जहाज़ हवा में बना रहे। पायलट बस कंप्यूटर को बताता है कि उसे कहां जाना है, बाकी सारा काम कंप्यूटर खुद करता है।

 

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वेपन्स की बात करें तो B-2 अपने अंदर 18,000 किलोग्राम तक के बम और मिसाइलें ले जा सकता है। इसके मुख्य हथियार हैं 'स्मार्ट बम'। इनमें सबसे खास है JDAM, यानी जॉइंट डायरेक्ट अटैक म्यूनिशन। इसे ऐसे समझिए कि ये ऐसे बम हैं जिनके पास अपना दिमाग और गूगल मैप्स हैं। इनके पूंछ में एक जीपीएस (GPS) रिसीवर लगा होता है। सैटलाइट से मिले सिग्नल की मदद से यह बम अपने टारगेट को इंच-इंच नापकर, ठीक वहीं गिरता है जहां उसे बताया जाता है। इसके अलावा B2 13000 किलो के Massive Ordnance Penetrators (MOPs) या जिन्हें बंकर बस्टर बॉम भी कहा जाता है, उन्हें भी डिलीवर कर सकता है। ये वही बम हैं जिन्हें ईरान की Fordo न्यूक्लियर साइट पर गिराया गया।
 
ये बम ज़मीन के 100 फ़ीट नीचे तक घुसकर दुश्मन के खुफिया बंकरों को तबाह कर सकते हैं। यह ऐसी ताकत है जो वर्तमान में अमेरिका के अलावा दुनिया में किसी और देश के पास नहीं है। इन तमाम तकनीकी विशेषताओं के चलते B2 को बनाना अपने आप में एक चुनौती थी। लॉकहीड के पूर्व इंजीनियरिंग हेड बेन रिच अपनी किताब 'स्कंक वर्क्स' में बताते हैं कि B-2 के अलग-अलग हिस्से अमेरिका की अलग-अलग कंपनियों ने बनाए। इसके विशाल पंख बोइंग (Boeing) ने बनाए, कॉकपिट नॉर्थरोप ने और बम रखने वाला हिस्सा यानी बॉम्ब बे और पिछला हिस्सा LTV नाम की कंपनी ने। बी टू दुनिया का इकलौता बॉम्बर है, जो MOP जैसे विशाल हथियारों को अपनी वेपन्स बे के अंदर ले जा सकते हैं। माने पेट के अंदर। दुनिया के सारे दूसरे बॉम्बर बड़े बमों और मिसाइलों को विंग्स के नीचे टांगकर ले जाते हैं।

 

पहली बार कब दिखा जलवा?

 

ऐसी विशाल बॉम्ब बेज़ और बाकी हिस्सों को बाद में कैलिफोर्निया के पामडेल में एक गुप्त फैक्ट्री में बेहद सावधानी से जोड़ा गया। सालों की मेहनत, अरबों डॉलर और हज़ारों इंजीनियरों के पसीने के बाद। 17 जुलाई, 1989 को B2 की टेस्टिंग की गई। कैलिफोर्निया के आसमान में दुनिया ने पहली बार एक काले, त्रिकोण आकार के उड़ने वाले पंख को देखा। यह इतना अलग था कि पहली बार जब इस प्लेन को आसमान में उड़ते देखा गया तो लोगों को लगा कोई UFO या एलियन शिप है। रियल वर्ल्ड एप्लीकेशन की बात करें तो B-2 बॉम्बर विमान का पहला रियल वर्ल्ड कमाल 1999 में दिखा। यूरोप में कोसोवो और सर्बिया के बीच जंग छिड़ी हुई थी। अमेरिका ने कोसोवो के पक्ष में दखल देने का फैसला किया और तब दुनिया ने पहली बार B-2 की असली ताकत देखी। ये मिशन किसी साइंस-फिक्शन फिल्म से कम नहीं थे। B-2 के पायलट अमेरिका के मिसूरी राज्य में बने वाइटमैन एयर फोर्स बेस से उड़ान भरते। यह विमान 15-16 घंटे तक लगातार उड़ता, अटलांटिक महासागर पार करता और यूरोप पहुंचकर दुश्मन के ठिकानों पर बम गिराता। उसके बाद वह मुड़ता और फिर से 15-16 घंटे की उड़ान भरकर, बिना कहीं रुके, वापस अपने बेस पर लैंड कर जाता।

 

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इस नामुमकिन लगने वाले मिशन को मुमकिन बनाया दो पायलट और एक कंप्यूटर ने। इन लंबी उड़ानों के दौरान, दोनों पायलट बारी-बारी से छोटी-छोटी झपकियां लेते। लंबे मिशन्स के लिए बी टू में टॉयलेट्स, माइक्रोवेव और फ्रिज भी है ताकि पायलट को किसी बात की फिक्र न हो। विमान जब दुश्मन के इलाके के पास होता है, तब वह अपना रेडियो तक बंद कर देते हैं, ताकि कोई भी सिग्नल उनकी मौजूदगी का पता न दे दे।
 
11 हफ्तों तक B-2 बॉम्बर्स ने यही किया। उन्होंने सर्बिया के एयरबेस, पुल, रेल लाइनें और पावर प्लांट्स को निशाना बनाया। इन हमलों ने सर्बिया की सरकार को कोसोवो से अपनी सेना हटाने के लिए मजबूर करने में बड़ी भूमिका निभाई। इसके अलावा हालिया ईरान हमले में B2 के इस्तेमाल की खबरें आप सुन ही रहे होंगे। B2 की काबिलियत और ताक़त, की इन दिनों काफ़ी चर्चा है। अमेरिका इस विमान को बेचता नहीं है। अमेरिका के पास 21 B2 बॉम्बर हैं। शुरुआती योजना 132 बॉम्बर बनाने की थी लेकिन अंत में सिर्फ़ 21 बनाए गए। वजह - इसकी लागत थी। एक B-2 स्पिरिट बॉम्बर को बनाने में लगभग 1.3 बिलियन डॉलर का खर्च आता है। यानी आज के हिसाब से लगभग 10,855 करोड़ रुपये। 

 

अंत में चलते-चलते आपको इस विमान से जुड़ा एक और दिलचस्प क़िस्सा सुनाते हैं। एक बार लॉकहीड की डिजाइन टीम के हेड बेन रिच की मुलाक़ात सोवियत संघ के एक महान एयरक्राफ्ट डिज़ाइनर, आंद्रे टुपोलेव से हुई। बातों-बातों में टुपोलेव ने कहा, 'तुम अमेरिकी लोग हवाई जहाज़ ऐसे बनाते हो जैसे कोई रोलेक्स घड़ी हो। रात को टेबल से अगर वह गिर जाए तो उसकी टिक-टिक बंद हो जाती है और हम सोवियत लोग जहाज़ बनाते हैं एक सस्ती अलार्म घड़ी की तरह। उसे टेबल से गिरा भी दो, तब भी सुबह वह तुम्हें जगा ही देती है।'

 
टुपोलेव की यह बात B-2 बॉम्बर पर बिल्कुल सटीक बैठती है। यह आसमान में उड़ती हुई वही रोलेक्स घड़ी है। एक ऐसी घड़ी जिसमें लेटेस्ट टेक्नोलॉजी है लेकिन बेहिसाब पैसा खर्च हुआ है और ये दोनों ही काबिलियत सिर्फ़ अमेरिका के पास है। कम से कम अभी तक तो।


अमेरिका बी 2 के सक्सेसर पर भी काम कर रहा है, जिसका नाम है बी 21 रेडर। यह 2040 के आसपास बी2 स्पिरिट को रीप्लेस करेगा और फिर संभवतः बी 52 को भी। 

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