इजरायल ने कैसे बना लिया था परमाणु बम? पढ़िए पूरी कहानी
कई बड़े देशों से बेहिचक टक्कर लेने वाले देस इजरायल को एक बड़ी ताकत के रूप में जाना जाता है। इसकी बड़ी वजह है कि उसके पास परमाणु बम है।

इजरायल के परमाणु शक्ति बनने की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
साल 1968, भूमध्य सागर की सर्द लहरों पर एक जर्मन मालवाहक जहाज़, शीर्सबर्ग-ए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। जहाज पर 560 स्टील के ड्रमों में 200 टन 'येलोकेक' लदा हुआ था। येलोकेक माने यानी यूरेनियम बनाने का कच्चा माल। कागज़ों के मुताबिक, यह खेप बेल्जियम के एंटवर्प बंदरगाह से निकली थी और इटली के जेनोआ शहर जा रही थी लेकिन यह जहाज़ अपनी मंज़िल पर कभी नहीं पहुंचा। बीच रास्ते से ही गायब हो गया।
न कोई खतरे का सिग्नल भेजा गया, न किसी समुद्री डाकू ने फिरौती की मांग की। हफ्तों तक जहाज़ का कोई अता-पता नहीं था। दुनियाभर की शिपिंग कंपनियों और खुफिया एजेंसियों में हड़कंप मच गया। एक पूरा जहाज़, जिस पर परमाणु बम बनाने का कच्चा माल लदा था, आखिर समंदर में कहां गुम हो सकता था?
फिर, कई हफ्तों बाद शीर्सबर्ग ए तुर्की के एक बंदरगाह पर खाली मिला। 200 टन यूरेनियम हवा में ग़ायब हो चुका था। यह कोई आम चोरी नहीं थी। यह इतिहास के सबसे दुस्साहसी खुफिया ऑपरेशनों में से एक था। इस ऑपरेशन को अंजाम दिया था इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद ने। यह उस देश की कहानी का सिर्फ एक पन्ना था, जो किसी भी कीमत पर हर हाल में परमाणु शक्ति बनना चाहता था। यह चोरी इज़रायल के उस गुप्त मिशन का हिस्सा थी जिसकी बदौलत उसने न सिर्फ अपने दुश्मनों को बल्कि अपने सबसे करीबी दोस्तों को भी अंधेरे में रखा। आज हम जानेंगे कि कैसे इजरायल ने दुनिया की नज़रों से छिपकर अपना परमाणु कार्यक्रम खड़ा किया और चोरी से न्यूक्लियर बम बनाया।
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इजरायल और बेन गुरियन
इजरायल की कहानी एक जुनून से शुरू होती है। एक ऐसे जुनून से जो डर की कोख से पैदा हुआ था। यह सपना था डेविड बेन-गुरियन का। इजरायल के पहले प्रधानमंत्री। 1948 में जब इजरायल बना तो बेन-गुरियन रात को अकसर अपने दफ्तर में जागते रहते थे। वह दीवारों पर लगे नक्शों को घूरते। एक तरफ मुट्ठी भर यहूदियों का नया देश और चारों तरफ उसे खत्म कर देने की कसमें खाते विशाल अरब मुल्क। उन्होंने अपनी आंखों से होलोकॉस्ट देखा था और उन्हें डर था कि नया-नया पैदा इजरायल भी ज़्यादा दिन नहीं बच पाएगा।
बेन-गुरियन को पारंपरिक सैन्य ताकत पर भरोसा नहीं था। वह जानते थे कि अरब देश संख्या बल में हमेशा भारी पड़ेंगे। आज नहीं तो कल, वे फिर से हमला करेंगे। उन्हें एक ऐसी चीज़ चाहिए थी जो इस समीकरण को हमेशा के लिए बदल दे। एक ऐसी गारंटी जो दुश्मन को हमला करने का ख्याल भी मन में न लाने दे। एक 'अंतिम हथियार।'
माइकल कारपिन अपनी किताब 'The Bomb in the Basement' में लिखते हैं कि बेन-गुरियन के लिए परमाणु बम सिर्फ एक फौजी हथियार नहीं था। यह यहूदी लोगों के लिए एग्जिटेंशियल इंश्योरेंस था। यानी इस बात कि गारंटी कि इजरायल कभी ख़त्म नहीं होगा।
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1948 की जंग के तुरंत बाद, बेन-गुरियन ने इजरायली सेना (IDF) के भीतर एक गुप्त वैज्ञानिक यूनिट की स्थापना की। इसका नाम था 'हेमेद गिम्मेल' इसका पहला काम था, रेगिस्तान की खाक छानना। इजरायली भूविज्ञानी हाथ में गीगर काउंटर लेकर इजरायल में मौजूद नेगेव रेगिस्तान में घूमते रहे। इस उम्मीद में कि शायद उन्हें यूरेनियम का कोई बड़ा भंडार मिल जाए लेकिन उन्हें सिवाय फॉस्फेट की चट्टानों में मिले मामूली यूरेनियम के कुछ हाथ नहीं लगा। यह साफ हो गया था कि अगर इजरायल को परमाणु शक्ति बनना है तो उसे मदद और कच्चा माल, दोनों बाहर से ही लाना होगा।
इस सपने को सच करने के लिए बेन-गुरियन ने दो लोगों को चुना जो उनके सबसे भरोसेमंद सिपाही थे। डॉक्टर अर्न्स्ट डेविड बर्गमन। जर्मनी में पैदा हुए बर्गमन एक शानदार केमिस्ट थे जो नाज़ियों से बचकर इजरायल आए थे। बर्गमन, बेन-गुरियन के हमशक्ल थे। वे दोनों एक ही डर और एक ही जुनून साझा करते थे। बेन-गुरियन ने 1952 में जब 'इजरायल एटॉमिक एनर्जी कमीशन' (IAEC) की स्थापना की, तो बर्गमैन को उसका पहला चेयरमैन बनाया। बर्गमैन का दफ्तर रक्षा मंत्रालय के अंदर एक गुप्त ठिकाने पर था और वह सीधे बेन-गुरियन को रिपोर्ट करते थे।
दूसरे व्यक्ति का नाम था - शिमोन पेरेज़। बेन-गुरियन ने सिर्फ 29 साल की उम्र में पेरेज़ को रक्षा मंत्रालय का डायरेक्टर-जनरल बनाया, जो उस वक्त इजरायल के सबसे ताकतवर पदों में से एक था। पुराने नेता पेरेज़ को मज़ाक में 'बेन-गुरियन का डाकिया' बुलाते थे। इन दोनों लोगों ने मिलकर इजराइली परमाणु प्रोग्राम की नींव रखी। सबसे पहले अमेरिका का दरवाज़ा खटखटाया। राष्ट्रपति Dwight D. Eisenhower ने 'एटम्स फॉर पीस' नाम का एक कार्यक्रम शुरू किया था। इजरायल को उम्मीद थी कि इस कार्यक्रम के तहत उसे एक रिसर्च रिएक्टर मिल जाएगा लेकिन अमेरिका ने साफ इनकार कर दिया।
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यहां आपको बता दें कि आज हम इजरायल और अमेरिका को एकदम लंगोटिया यार समझते हैं लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। इजरायल की स्थापना को अमेरिका का समर्थन मिला लेकिन दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग काफ़ी सालों बाद तैयार हुआ। 'The Bomb in the Basement' के अनुसार आइज़नहावर बाकायदा इजरायल को शक की निगाह से देखते थे और उन्हें डर था कि इजरायल शांति के नाम पर मिली तकनीक का इस्तेमाल बम बनाने के लिए करेगा।
अमेरिका की 'ना' ने बेन-गुरियन के शक को और पक्का कर दिया। समझ आ गया कि इजरायल को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी। हर तरफ से दरवाज़े बंद होते देख, इजरायल ने अपनी नज़र एक ऐसे देश की तरफ घुमाई जो खुद अंतरराष्ट्रीय मंच पर अकेला पड़ गया था। एक ऐसा देश जिसकी उन दिनों मिस्र से अदावत चल रही थी। यह देश था फ्रांस।
फ्रांस से मिली मदद
अमेरिका से 'ना' सुनने के बाद इजरायल ने फ्रांस से मदद मांगी। फ्रांस से क्यों? क्योंकि शिमोन पेरेज़ जियोपॉलिटिकल सिचुएशन का फ़ायदा उठाना चाहते थे। फ्रांस उस वक्त एक ज़ख्मी शेर की तरह था। 1956 के स्वेज संकट ने सब कुछ बदल दिया था। जब मिस्र के राष्ट्रपति गामाल अब्देल नासर ने स्वेज़ नहर पर कब्ज़ा किया तो फ्रांस और ब्रिटेन ने इजरायल के साथ मिलकर मिस्र पर हमला करने की एक गुप्त योजना बनाई। यह बैठक पेरिस के पास सेव्रेस नाम के कस्बे में एक विला में हुई। सीमोर हर्श अपनी किताब 'The Samson Option' में लिखते हैं कि इसी बैठक में फ्रांस और इजरायल के बीच एक 'खून का रिश्ता' कायम हुआ। उन्होंने साथ मिलकर एक जंग लड़ी थी और जब अमेरिका के दबाव में फ्रांस और ब्रिटेन को पीछे हटना पड़ा तो फ्रांस को अमेरिका से ज़्यादा इजरायल पर भरोसा हो गया।
शिमोन पेरेज़ ने इसी भरोसे को अपनी सबसे बड़ी ताकत बनाया। वह धाराप्रवाह फ्रेंच बोलते थे। उन्होंने फ्रांस के राजनीतिक, सैन्य और औद्योगिक जगत में गहरे रिश्ते बनाए। रक्षा मंत्री मौरिस बर्जेस-मैनूरी जैसे नेताओं से दोस्ती बनाई, जो इजरायल के कट्टर समर्थक थे।
पेरेज़ सिर्फ नेताओं से नहीं मिलते थे। वह डसॉल्ट (Dassault) जैसी एविएशन कंपनियों के मालिकों से लेकर सेंट-गोबेन जैसी कंपनियों के हेड्स से दोस्ती गांठ रहे थे। उन्हें पता था कि परमाणु कार्यक्रम के लिए फ्रांस की पूरी इंडस्ट्रियल पावर का साथ चाहिए होगा।
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इस खेल में फ्रांस की तरफ से सबसे अहम खिलाड़ी थे प्रधानमंत्री गाय मोले और रक्षा मंत्री बर्जेस-मैनूरी। दोनों ने इजरायल का साथ देने के लिए अपनी ही सरकार को अंधेरे में रखा। फ्रांस के विदेश मंत्रालय, जिसे 'क्वाय डी'ओरसे' (Quai d'Orsay) के नाम से जाना जाता है, को इस सौदे की भनक तक नहीं लगने दी गई क्योंकि उसे अरब देशों का समर्थक माना जाता था।
एवनर कोहेन अपनी किताब 'The Worst-Kept Secret' में बताते हैं, अक्टूबर 1957 में सिसिलेवार तरीके से डील्स हुईं। समझौते के तहत, फ्रांस इजरायल को एक 24-मेगावाट का परमाणु रिएक्टर देने पर राजी हुआ। यह एक बहुत बड़ा रिएक्टर था। साथ ही, प्लूटोनियम रीप्रोसेसिंग प्लांट का पूरा ब्लू-प्रिंट और तकनीक भी सौंप दी।
सवाल उठता है, क्यों? फ्रांस ने इतना बड़ा जोखिम क्यों उठाया? इसके कई कारण थे। पहला, यह नासेर के खिलाफ एक रणनीतिक गठबंधन था। दूसरा, स्वेज़ में अमेरिका से मिले धोखे का बदला लेने का एक तरीका था। तीसरा, फ्रांस को उम्मीद थी कि एक मजबूत इजरायल शायद अल्जीरिया में चल रहे युद्ध में उसकी मदद कर सकेगा और चौथा, यह एक फायदेमंद सौदा था। इजरायल हर चीज़ की रकम अदा कर रहा था, जिसके लिए दुनियाभर से यहूदी समुदाय द्वारा दिए गए दान का पैसा आ रहा था। सब कुछ प्लान के अनुसार चल रहा था लेकिन तभी 1958 में फ्रांस की राजनीति में एक भूचाल आ गया। WW2 के दौरान, जब नाज़ियों ने फ्रांस पर क़ब्ज़ा किया, तब जनरल चार्ल्स द गॉल ने फ्रेंच रेजिस्टेंस की कमान संभाली थी। वे सत्ता में लौट आए। उन्हें जब इस गुप्त परमाणु सौदे की पूरी जानकारी मिली तो वह आगबबूला हो गए। उन्होंने अपने एक सहयोगी से कहा, 'ये लोग हमें जंग की तरफ धकेल रहे हैं।'
द गॉल के सत्ता में आते ही तेल अवीव में खतरे की घंटी बजने लगी। पेरेज़ और उनके फ्रांसीसी दोस्तों ने कोशिशें तेज कर दीं। उनका लक्ष्य था कि द गॉल के पूरी तरह से नियंत्रण करने से पहले रिएक्टर और प्लांट के ज़्यादातर महत्वपूर्ण हिस्से और दस्तावेज़ इजरायल पहुंचा दिए जाएं। जहाज़ों पर सामान लादा जाने लगा और ब्लूप्रिंट्स को राजनयिक बैगों में भरकर तेल अवीव भेजा गया।
द गॉल ने सौदे को रोकने की कोशिश की। उन्होंने इजरायल पर शांतिपूर्ण उपयोग का वादा करने और अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण के लिए सहमत होने का दबाव डाला लेकिन वे इस सौदे को पूरी तरह से रद्द नहीं कर सके। ऐसा करने से फ्रांस की सैकड़ों कंपनियां दिवालिया हो जातीं और हज़ारों फ्रांसीसी कर्मचारी बेरोज़गार हो जाते जो इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे।
नतीजा यह हुआ कि द गॉल ने ब्रेक तो लगाए लेकिन तब तक गाड़ी बहुत आगे निकल चुकी थी। फ्रांस के 'एटमी हाथ' ने इजरायल को वे चाबियां सौंप दी थीं जिनकी उसे तलाश थी। नेगेव के रेगिस्तान में अब रिएक्टर के हिस्से पहुंच चुके थे और बम बनाने की टेक्नॉलजी इजरायली वैज्ञानिकों की मेज़ पर थी। अब बस इस पूरी चीज़ को दुनिया की सबसे बड़ी ताकत, अमेरिका की नज़रों से छिपाना बाकी था।
रेगिस्तान में कैसे दिया धोखा?
साल 1960 एक अमेरिकी U-2 जासूसी विमान नेगेव रेगिस्तान के ऊपर से उड़ान भर रहा था। उसने कुछ तस्वीरें खींची। ये तस्वीरें जब वॉशिंगटन में CIA मुख्यालय पहुंचीं तो विश्लेषकों को अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ। तस्वीरों में एक विशाल, कंक्रीट का गुंबद साफ दिख रहा था। इजरायल का दावा था कि यह एक 'टेक्सटाइल फैक्ट्री' थी लेकिन बाद में छानबीन के बाद CIA को पता चला कि यह एक परमाणु रिएक्टर था। जो नेगेव रेगिस्तान में मौजूद डिमोना (Dimona) नाम की जगह पर बनाया गया था।
CIA की यह रिपोर्ट सीधे राष्ट्रपति जॉन एफ। केनेडी की मेज़ पर पहुंची, जो Nuclear Non-Proliferation यानी परमाणु अप्रसार के कट्टर समर्थक थे। इसके बाद केनेडी और इजरायल के प्रधानमंत्री डेविड बेन-गुरियन के बीच चिट्ठियों का एक दौर शुरू हुआ। केनेडी की भाषा सीधी और सख्त थी। उन्होंने मांग की कि इजरायल सच बताए और अमेरिकी वैज्ञानिकों को डिमोना का निरीक्षण करने की इजाज़त दे। बेन-गुरियन के जवाब कूटनीति के नमूने थे। वह सम्मानजनक लेकिन गोलमोल भाषा का इस्तेमाल करते। वह हर चिट्ठी में दोहराते कि इजरायल का उद्देश्य 'शांतिपूर्ण' है लेकिन 'निरीक्षण' जैसे शब्द की जगह वह हमेशा 'दौरे' शब्द का इस्तेमाल करते। मई 1961 में, दोनों नेता न्यूयॉर्क के वॉल्डॉर्फ-एस्टोरिया होटल में मिले। बंद कमरे में केनेडी ने बेन-गुरियन पर सीधे दबाव डाला। बेन-गुरियन ने उन्हें भरोसा दिलाया कि इजरायल का मिडिल ईस्ट में नए हथियार लाने का कोई इरादा नहीं है। यह एक ऐसा वाक्य था जिसके कई मतलब निकाले जा सकते थे।
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आखिरकार, इजरायल अमेरिकी वैज्ञानिकों के 'दौरों' के लिए राज़ी हो गया और फिर शुरू हुई इतिहास की सबसे बड़ी नौटंकी। माइकल कारपिन अपनी किताब 'The Bomb in the Basement' में बताते हैं कि इजरायलियों ने अमेरिकी टीम को धोखा देने के लिए एक हॉलीवुड फिल्म के सेट की तरह तैयारी की थी। डिमोना रिएक्टर के अंदर, ज़मीन के नीचे एक विशाल, छह-मंज़िला प्लूटोनियम रीप्रोसेसिंग प्लांट बनाया गया था। इस प्लांट तक जाने वाली लिफ्ट और रास्तों को नकली दीवारों से चिनवा दिया गया। ऊपर एक नकली कंट्रोल रूम बनाया गया, जिसमें ऐसे उपकरण और डायल लगे थे जो काम नहीं करते थे लेकिन देखने में असली लगते थे।
जब अमेरिकी वैज्ञानिकों की टीम, डिमोना पहुंची तो उनका स्वागत इजरायल एटॉमिक एनर्जी कमीशन (IAEC) के वैज्ञानिकों ने किया, जिनका नेतृत्व प्रोफेसर कर रहे थे। दोस्तोंव्स्की खुद एक शानदार वैज्ञानिक थे और उन्हें गुमराह करने की कला में महारत हासिल थी। अमेरिकी टीम मुश्किल सवाल पूछती, जैसे कि रिएक्टर की कूलिंग कैपेसिटी उसकी पावर रेटिंग से कहीं ज़्यादा क्यों लग रही है। दोस्तोंव्स्की उन्हें जटिल वैज्ञानिक डेटा और समीकरणों में उलझा देते और दोष 'खराब उपकरणों' पर मढ़ देते।
यह सिर्फ वैज्ञानिक धोखा नहीं था। एवनर कोहेन अपनी किताब 'The Worst-Kept Secret' में एक दिलचस्प किस्सा बताते हैं। अमेरिकी टीम को व्यस्त रखने के लिए, एक वरिष्ठ खुफिया अधिकारी को डिमोना का 'मेयर' बनाकर पेश किया गया। यह 'मेयर' अमेरिकी वैज्ञानिकों को लंबे लंच पर ले जाता, उन्हें स्थानीय किस्से सुनाता और शहर की समस्याओं पर चर्चा करता ताकि उन्हें रिएक्टर के पास सवाल पूछने का कम से कम वक्त मिले। अमेरिकी वैज्ञानिक हर बार खाली हाथ लौटते। वह जानते थे कि उनसे कुछ छिपाया जा रहा है लेकिन उनके पास कोई 'स्मोकिंग गन' यानी ठोस सबूत नहीं होता था।
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सवाल उठता है: क्या अमेरिका वाकई इतना भोला था? या वह जानबूझकर धोखा खा रहा था? सच्चाई शायद बीच में कहीं है। केनेडी प्रशासन निश्चित रूप से चिंतित था लेकिन 1963 में उनकी हत्या के बाद हालात बदल गए। नए राष्ट्रपति, लिंडन बी. जॉनसन इजरायल के प्रति कहीं ज़्यादा सहानुभूति रखते थे। वियतनाम युद्ध और घरेलू समस्याओं में उलझे जॉनसन के लिए डिमोना प्राथमिकता नहीं थी। इजरायल ने इस बदलाव को भांप लिया और अपने काम की रफ्तार तेज़ कर दी। अमेरिका के लिए भी सार्वजनिक रूप से इजरायल से भिड़ना एक मुश्किल राजनीतिक कदम था क्योंकि अमेरिकी कांग्रेस में इजरायल का ज़बरदस्त समर्थन था। इसलिए एक अघोषित सहमति बन गई: इजरायल झूठ बोलता रहेगा और अमेरिका उस झूठ पर विश्वास करने का नाटक करता रहेगा।
जब इजरायल ने चुराया यूरेनियम
डिमोना में रिएक्टर की नींव रखी जा चुकी थी। धोखे का पर्दा भी काम कर रहा था लेकिन अब इजरायल की सबसे बड़ी चुनौती कच्चा माल थी। बम के लिए Highly Enriched Uranium - HEU की ज़रूरत थी। जो दुर्लभ चीज थी। जब इजरायल को एहसास हो गया कि ये चीज़ें उसे कोई बेचेगा नहीं तो इस काम का ज़िम्मा इजरायल की सबसे गुप्त संस्था को सौंपा गया। यह मोसाद नहीं थी। इसका नाम था 'लाकाम' (LAKAM)। लाकाम मोसाद से भी ज़्यादा गुप्त थी। इसका सिर्फ एक ही काम था: दुनिया के किसी भी कोने से, किसी भी कीमत पर, परमाणु कार्यक्रम के लिए तकनीक और सामान हासिल करना।
लाकाम ने सबसे पहले अपनी नज़र अमेरिका पर डाली। इस ऑपरेशन का केंद्र था पेन्सिलवेनिया का एक छोटा सा शहर, अपोलो और वहां स्थित एक कंपनी - न्यूमेक। इसके मालिक डॉक्टर ज़लमैन शापिरो थे, जो एक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक और कट्टर ज़ायोनिस्ट थे। सीमोर हर्श अपनी किताब 'The Samson Option' में बताते हैं कि न्यूमेक प्लांट की सुरक्षा व्यवस्था हैरान करने वाली हद तक ढीली थी। यह एक ऐसी जगह थी जहां परमाणु बम बनाने लायक यूरेनियम रखा था लेकिन वहां के नियम-कानून किसी आम फैक्ट्री जैसे थे।
लाकाम ने इसी ढील का फायदा उठाया। शापिरो के प्लांट में अक्सर 'मेहमान' आते थे। इनमें सबसे प्रमुख नाम था राफी ईतान का। राफी ईतान इजरायली खुफिया तंत्र के एक दिग्गज थे, वही शख्स जिसने बाद में नाज़ी युद्ध अपराधी एडॉल्फ आइकमैन को अर्जेंटीना से पकड़ने वाले ऑपरेशन का नेतृत्व किया था। ईतान और दूसरे इजरायली एजेंट न्यूमेक प्लांट में लगभग आज़ादी से घूमते थे। CIA और FBI ने जब जांच शुरू की तो उन्हें पता चला कि जिस दौरान प्लांट से सैकड़ों किलोग्राम यूरेनियम 'गायब' हुआ, उसी दौरान ईतान जैसे लोगों ने प्लांट के कई दौरे किए थे।
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सबूत सिर्फ परिस्थितिजन्य नहीं थे। जांच के दौरान, अमेरिकी निरीक्षकों को इजरायल में हवा के नमूनों में हाइली एनरिच्ड यूरेनियम के पार्टिकल मिले। जब इन नमूनों को लैब में टेस्ट किया किया गया, तो एक चौंकाने वाली बात सामने आई: यह यूरेनियम उसी स्पेसेफिक बैच का था जो न्यूमेक प्लांट में तैयार किया गया था। यह एक 'स्मोकिंग गन' थी लेकिन यह रिपोर्ट इतनी विस्फोटक थी कि इसे अमेरिकी सरकार के हाईएस्ट लेवल्स पर दबा दिया गया। किसी भी राष्ट्रपति के लिए सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार करना एक राजनीतिक भूचाल ला सकता था कि एक सहयोगी देश ने उसकी नाक के नीचे से परमाणु सामग्री चुरा ली है या यह कि उन्होंने चुराने दी है।
ऑपरेशन प्लंबैट क्या है?
बहरहाल, इजरायल को हाइली एनरिच्ड यूरेनियम अमेरिका से मिला लेकिन डिमोना के विशाल रिएक्टर को चलाने के लिए और भी बहुत कुछ चाहिए था। उसे बड़ी मात्रा में प्राकृतिक यूरेनियम, यानी येलोकेक की ज़रूरत थी। इसके लिए लाकाम और मोसाद ने मिलकर एक ऐसा ऑपरेशन चलाया जो आज भी खुफिया एजेंसियों के इतिहास में एक मिसाल माना जाता है: ऑपरेशन प्लंबैट।
1968 में मोसाद के एक एजेंट डैन अर्बेल ने एक जाल बुना। एक जर्मन फ्रंट कंपनी ने बेल्जियम की एक कंपनी से 200 टन येलोकेक खरीदा। कागज़ों पर यह माल इटली की एक पेंट कंपनी को बेचा जाना था। माल को शीर्सबर्ग ए नाम के एक जहाज़ पर लादा गया, जो लाइबेरिया के झंडे के नीचे चल रहा था। यह सब जानबूझकर किया गया था ताकि कानूनी तौर पर एक ऐसा मकड़जाल बन जाए जिसे कोई सुलझा न सके।
जब जहाज़ भूमध्य सागर में पहुंचा तो असली खेल शुरू हुआ। जहाज़ ने अपने ट्रांसपोंडर बंद कर दिए और अंधेरे में एक अंजान लोकेशन की ओर बढ़ गया। वहां एक इजरायली मालवाहक जहाज़ पहले से इंतज़ार कर रहा था। रात के सन्नाटे में दोनों जहाज़ों के क्रू ने मिलकर स्टील के वे 560 भारी ड्रम एक जहाज़ से दूसरे पर शिफ्ट किए।
सामान ट्रांसफर होने के बाद, शीर्सबर्ग ए का असली क्रू जहाज़ से उतर गया। उन्हें मोटी रकम दी गई और हमेशा के लिए चुप रहने की हिदायत दी गई। अब मोसाद के एजेंटों ने जहाज़ का नियंत्रण संभाला और उसे खाली हालत में तुर्की के एक बंदरगाह की ओर ले गए, जहां उन्होंने उसे लावारिस छोड़ दिया। जब हफ्तों बाद जहाज़ मिला तो अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसियां चकरा गईं। जर्मनी की कंपनी, इटली की कंपनी, लाइबेरिया का झंडा- सब कुछ इजरायल की रची भूलभुलैया का हिस्सा था। कोई भी देश आधिकारिक तौर पर इजरायल पर आरोप नहीं लगा सका। यह एक परफेक्ट क्राइम था।
1960 के दशक के अंत तक, इजरायल ने अपनी ज़रूरतें पूरी कर ली थीं। अमेरिका से चोरी और धोखे से मिला हाइली एनरिच्ड यूरेनियम और यूरोप के समंदर में डकैती से मिला येलोकेक। अब बेन-गुरियन का सपना हकीकत से बस एक कदम दूर था। सारे वैज्ञानिक, कूटनीतिक और साजो-सामान के रोड़े हटा दिए गए थे। अब बस आखिरी कदम उठाना था- न्यूक्लियर हथियार को जोड़ना।
अमीमुत: ओपन सीक्रेट
मई 1967, इजरायल पर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। मिस्र के राष्ट्रपति नासेर की ललकार काहिरा रेडियो से गूंज रही थी, 'हमारा मूल उद्देश्य इजरायल का विनाश होगा।' सीरिया, जॉर्डन और इराक की फौजें इजरायली सीमाओं पर जमा थीं। प्रधानमंत्री लेवी एशकोल हिचकिचा रहे थे और उनके जनरलों को डर था कि उनकी यह हिचकिचाहट देश को दूसरे होलोकॉस्ट की ओर धकेल देगी।
इसी चरम निराशा के आलम में इजरायल ने अपने 'सैमसन ऑप्शन' को सक्रिय करने का फैसला किया। सीमोर हर्श अपनी किताब 'The Samson Option' में इस ऑपरेशन के बारे में बताते हैं। इसे लीड कर रहे शख्स का नाम था: ब्रिगेडियर जनरल यित्ज़ाक 'यात्ज़ा' याकोव यात्ज़ा को एक बेहद गुप्त मिशन दिया गया। खुफिया रिपोर्टों से पता चला था कि मिस्र के बॉम्बर विमान शायद रासायनिक हथियारों के साथ तेल अवीव पर हमला करने की तैयारी कर रहे थे।
यात्ज़ा ने कमांडो और वैज्ञानिकों की एक छोटी टीम को इकट्ठा किया और उन्हें रेगिस्तान में एक गुप्त ठिकाने पर ले गए। उनका काम था: इजरायल के पहले, कामचलाऊ परमाणु उपकरण को तुरंत असेंबल करना। योजना यह नहीं थी कि इसे सीधे काहिरा या दमिश्क पर गिराया जाए। योजना के अनुसार, अगर इजरायली सेना सिनाई रेगिस्तान में हारने लगती और मिस्र की सेना तेल अवीव की ओर बढ़ती तो इस उपकरण को सिनाई के एक पहाड़ पर एक 'प्रदर्शन' के तौर पर विस्फोट किया जाना था। यह धमाका अरब देशों और दुनिया को एक चेतावनी होती। यह तब होता जब इजरायल हार के कगार पर होता। यह इजरायल का न्यूक्लियर डॉक्टरिन है, जिसे सैमसन ऑप्शन कहते हैं।
बाइबिल में सैमसन की एक कहानी है। सैमसन, जिसके बालों में उसकी ताकत का राज़ था। फिलिस्तीनियों ने उसे धोखा देकर पकड़ लिया। उसकी आंखें फोड़ दीं और उसे अपने मंदिर के खंभों से बांध दिया। जब फिलिस्तीनी जश्न मना रहे थे, सैमसन ने आखिरी बार ईश्वर से ताकत मांगी। उसने ज़ोर लगाकर मंदिर के खंभों को गिरा दिया। मंदिर ढह गया। इसमें सैमसन की भी जान गई लेकिन साथ ही उसके सारे दुश्मन भी मारे गए। इजरायल का न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन इसी कहानी पर बेस्ड है, इसका मतलब यह है कि अगर कभी इजरायल पर कोई बड़ा हमला होता है और उसे लगता है कि अब उसका अंत निश्चित है तब वह अपने दुश्मनों को भी अपने साथ खत्म कर देगा। 1967 में इसके बारे में सोचा गया लेकिन नौबत नहीं आई।
5 जून, 1967 की सुबह, इजरायली वायुसेना ने एक हमला किया। कुछ ही घंटों में मिस्र, जॉर्डन और सीरिया की वायुसेनाएं ज़मीन पर ही मलबे में तब्दील हो गईं। महज छह दिनों में इजरायल ने जंग जीत ली। जंग खत्म होने पर सैमसन ऑप्शन की ज़रूरत नहीं पड़ी लेकिन एक चीज़ हमेशा के लिए बदल गई थी। इजरायल अब एक ऐसा देश था जो परमाणु हथियार का इस्तेमाल करने के कगार पर पहुंच गया था। अब यह सवाल 'क्या' या 'कैसे' का नहीं था। अब सवाल था कि इस नई, भयानक ताकत के साथ क्या किया जाए।
NSSM 40 क्या है?
इस जीत ने अमेरिका को भी एक नई दुविधा में डाल दिया। 1969 में, राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के प्रशासन ने इजरायल की परमाणु क्षमता पर एक गुप्त अध्ययन करवाया, जिसे 'NSSM 40' के नाम से जाना जाता है। एवनर कोहेन (Avner Cohen) अपनी किताब 'The Worst-Kept Secret' में बताते हैं कि इस स्टडी को हेनरी किसिंजर ने आकार दिया था। किसिंजर का निष्कर्ष स्पष्ट था: इजरायल से उसके बम छीनने की कोशिश करना व्यर्थ और उल्टा असर डालने वाला होगा। एक सहयोगी से लड़ने के बजाय, इस राज़ को संभालना ज़्यादा समझदारी थी।
इसी समझ ने सितंबर 1969 में हुई उस ऐतिहासिक बैठक की नींव रखी, जिसने अगले 50 सालों के लिए मध्य-पूर्व की हकीकत तय कर दी। इजरायल की नई प्रधानमंत्री, गोल्डा मीर, व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति निक्सन से मिलीं। उस ओवल ऑफिस में एक अलिखित, सौदा हुआ। यह एक सौदा था जिसे 'अमीमुत' या 'परमाणु अस्पष्टता' के सिद्धांत के रूप में जाना गया।
सौदा बेहद सरल लेकिन चालाकी भरा था। गोल्डा मीर ने वादा किया कि इजरायल अपने परमाणु हथियारों का न तो परीक्षण करेगा और न ही सार्वजनिक रूप से उनकी मौजूदगी की घोषणा करेगा। उन्होंने उस प्रसिद्ध वाक्य का इस्तेमाल किया कि इजरायल मध्य-पूर्व में परमाणु हथियार लाने वाला पहला देश नहीं होगा। इसके बदले में निक्सन ने डिमोना पर अमेरिकी दबाव और निगरानी को हमेशा के लिए समाप्त करने पर सहमति जताई और सबसे महत्वपूर्ण बात, अमेरिका ने इजरायल को फैंटम लड़ाकू जेट जैसे उन्नत पारंपरिक हथियार भारी मात्रा में देने का वादा किया। इसके पीछे का तर्क यह था: अगर इजरायल को अपनी पारंपरिक सैन्य ताकत पर भरोसा होगा तो उसे कभी भी अपने परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की ज़रूरत महसूस नहीं होगी। 'अमीमुत' एक शानदार रणनीति थी।
इजरायल को एक ही झटके में बेस्ट ऑफ बोथ वर्ल्ड्स मिल गया। उसे एक ऐसा हथियार मिल गया, जिसकी बराबरी उसका कोई दुश्मन नहीं कर सकता था। न पूरे अरब वर्ल्ड न ही ईरान के पास परमाणु बम था लेकिन इज़रायल को स्पेशल स्टेटस मिला हुआ है, उसके चलते उसे वैसे सैंक्शन या बॉयकॉट का सामना नहीं करना पड़ा, जैसा भारत या पाकिस्तान के साथ हुआ।
ऐसा नहीं है कि दुनिया इज़रायल के न्यूक्लियर प्रोग्राम के बारे में नहीं जानती थी या फिर इज़रायल वाकई इतने खुफिया तरीके से यह सब कर ले गया कि किसी को भनक तक नहीं लगी। सब आंखें मूंदे रहे। तब भी, जब इज़रायल ने न्यूक्लियर टेस्ट कर लिया। जी हां, इज़रायल ने न्यूक्लियर टेस्ट तक किया और किसी ने चूं तक नहीं की।
द प्रिंट पर 9 अप्रैल 2025 को छपा प्रवीण स्वामी का लेख आपको पढ़ना चाहिए। यह बताता है कि कैसे 22 सितंबर 1979 दक्षिण अफ्रीका के प्रिंस एड्वर्ड्स आइलैंड्स पर इज़रायल ने परमाणु परीक्षण किया। इस परीक्षण को दुनिया की नज़र से छिपाने के लिए क्या नहीं किया गया था। अंटार्कटिका में एक जगह चुनी गई। जो दक्षिण अफ्रीका के दक्षिण में बसे केपटाउन से भी बाइस सौ किलोमीटर दूर समंदर के बीच थी लेकिन परमाणु धमाका ऐसी चीज़ होती है, जो छिपाए नहीं छिप सकती। अंतरिक्ष में उड़ रहे अमेरिकी जासूसी सैटेलाइट वेला 6911 ने दो तेज़ रोशनियों को दर्ज किया और कंप्यूटर्स की लॉगबुक में एंट्री आ गई, Event 747। दक्षिण अटलांटिक में ब्रिटेन के कंट्रोल वाला एक द्वीप है असेंशन आइलैंड। यहां लगी लैब्स ने भी इन धमाकों को रिकॉर्ड किया। डेटा यही कहता था कि पक्का परमाणु धमाका हुआ है। आगे चलकर सबूत ऑस्ट्रेलिया में भी मिले। धमाके से उठे रेडियोएक्टिव कण उड़ते-उड़ते ऑस्ट्रेलिया में जाकर गिरे। यहां घास चरने वाली भेड़ों के थॉयरॉइड ग्लैंड्स की जांच हुई तो रेडियोएक्टिविटी का सबूत मिल गया।
अमेरिका के सैटेलाइट ने रोशनी रिकॉर्ड की। ब्रिटेन की लैब्स से धमाके की पुष्टि हुई और ऑस्ट्रेलिया की भेड़ों के थॉयरॉइड से रेडियोएक्टिविटी का पता चला लेकिन इन सब देशों ने अपना मुंह बंद रखा क्योंकि अमेरिका को लगता था कि इज़रायल के बम की जानकारी लगी, तो मध्य पूर्व में भूचाल आ जाएगा। जिमी कार्टर ने अपने वैज्ञानिकों को काम दिया कि ऐसे बहाने खोजे जाएं, जिनके आधार पर वेला को नज़र आई रोशनी को परमाणु ब्लास्ट वाली थ्योरी से अलग किया जा सके लेकिन अपनी प्राइवेट डायरी में उन्होंने यही लिखा कि अमेरिकी साइंटिस्ट यही मानते हैं कि इज़रायल ने परमाणु परीक्षण कर लिया। पूरे पश्चिम ने इज़रायल को सैंक्शन्स और बॉयकॉट्स से बचा लिया क्योंकि किसी ने यह सवाल पैदा ही नहीं होने दिया कि परीक्षण किया किसने था। आज की ही तरह, तब भी इज़रायल को स्क्रूटनी से पूरी छूट थी।
इज़रायली इस्टैबलिशमेंट मंद मंद मुस्कुरा रहा था। वह जानते थे कि द्वितीय विश्वयुद्ध और होलोकास्ट का गिल्ट पश्चिम को उससे सवाल करने नहीं देगा। उसपर कोई सैंक्शन नहीं लगेगा लेकिन उसके दुश्मनों तक ज़रूर यह बात पहुंच जाएगी कि उसके पास बम है और उसका टेस्ट भी हुआ है। इसने मिडिल ईस्ट में पावर बैलेंस हमेशा हमेशा के लिए इज़रायल की तरफ झुका दिया। इज़रायल ने खुद चोरी से न्यूक्लियर बम बनाया। आज तक न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफरेशन ट्रीटी साइन नहीं की लेकिन इराक और सीरिया जैसे देशों ने जब न्यूक्लियर प्रोग्राम चलाए, उनके रिएक्टर्स पर इज़रायली जेट्स ने बम गिरा दिए। आज यही इज़रायल, उस ईरान के परमाणु कार्यक्रम के पीछे पड़ा है, जो एनपीटी साइन कर चुका है। इजरायल का न्यूक्लियर प्रोग्राम दुनिया का ओपन सीक्रेट है- एक ऐसा राज़ जिसके बारे में हर कोई जानता है लेकिन सब बात करने से कतराते हैं।
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