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अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को कैसे मारा था? पढ़िए आखिरी दिनों की कहानी

टीपू सुल्तान का नाम पिछले कुछ साल में खूब चर्चा में रहा है। एक वर्ग टीपू सुल्तान को बहादुर मानता है तो दूसरा वर्ग अलग राय रखता है। पढ़िए टीपू सुल्तान की कहानी। 

tipu sultan story

टीपू सुल्तान की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

फरवरी 1799, सुबह का वक़्त था। श्रीरंगपट्टनम के किले के दरवाज़े पर दस्तक हुई। बाहर एक ख़ास मेहमान खड़ा था। मेहमान फ्रांसीसी था। नाम था दुबुक। टीपू सुल्तान ने उसे खुद अंदर बुलाया। दुबुक के हाथ में एक खत था। यह खत नेपोलियन बोनापार्ट का था और फ्रांस से आया था। उस वक़्त नेपोलियन मिस्र में था और वहीं से उसने टीपू के नाम यह पैगाम भेजा था। संदेश में लिखा था कि वह जल्द ही एक बड़ी सेना के साथ अंग्रेजों पर हमला करने वाला है और चाहता है कि टीपू भी उसका साथ दे। टीपू सुल्तान ने खत पढ़ा। उनके चेहरे पर एक उम्मीद की चमक दिखाई दी। फ्रांसीसियों से उन्हें बड़ी उम्मीदें थीं। सालों से वह उनके साथ मिलकर अंग्रेजों को हिंदुस्तान से निकालने का सपना देख रहे थे लेकिन टीपू सुल्तान को यह नहीं पता था कि यह खत उन तक पहुंचने से पहले ही अंग्रेजों के हाथ लग चुका था और यही खत उनके ताबूत में आखिरी कील साबित होने वाला था। लॉर्ड वेलेज़ली, जो उस वक़्त भारत का गवर्नर जनरल था, पहले से ही टीपू सुल्तान को खत्म करने का मन बना चुका था। नेपोलियन का यह खत उसे टीपू पर हमला करने का एक और बहाना दे गया।

साज़िशों का जाल और चौथा मैसूर युद्ध

 

टीपू सुल्तान। हिंदुस्तान के इतिहास का एक ऐसा नाम जिन्हें कोई ‘शेर-ए-मैसूर’ कहता है तो कोई एक मज़हबी जुनूनी। कोई उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ पहला स्वतंत्रता सेनानी मानता है तो कोई एक ज़ालिम बादशाह लेकिन एक बात सब मानते हैं कि टीपू सुल्तान एक बहादुर योद्धा थे जिन्होंने अपनी आखिरी सांस तक अंग्रेजों का मुकाबला किया। टीपू सुल्तान का जन्म 1750 में आज के कर्नाटक के देवनहल्ली में हुआ था। उनके पिता, हैदर अली साहब, मैसूर की फौज में अपनी सेवाएं दे रहे थे और अपनी हिम्मत और असाधारण काबिलियत के दम पर वह मैसूर के हुक्मरान बने। वह दौर ही ऐसा था। मुग़ल सल्तनत कमज़ोर पड़ चुकी थी और पूरे हिंदुस्तान में छोटी-छोटी रियासतें अपनी ताकत बढ़ाने में लगी थीं। मैसूर भी उन्हीं में से एक था। दक्षिण भारत में बसा ये राज्य अपनी दौलत और मसालों के लिए मशहूर था। हैदर अली साहब ने मैसूर को एक ताकतवर फौजी रियासत में बदल दिया। उन्होंने अपनी फौज को यूरोपियन तरीके से ट्रेनिंग दी और तोपखाने को मजबूत किया।

 

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अंग्रेज उस वक़्त हिंदुस्तान में अपने पैर जमा रहे थे। बंगाल पर उनका कब्ज़ा हो चुका था और अब उनकी नज़र दक्षिण भारत पर थी। मैसूर की बढ़ती ताकत उन्हें खटक रही थी। इन सब का नतीजा क्या हुआ? अंग्रेजों और हैदर अली साहब के बीच जंग छिड़ गई। पहली जंग 1767 से 1769 तक चली। हैदर अली साहब ने अंग्रेजों को कड़ी शिकस्त दी और उन्हें मद्रास तक खदेड़ दिया। मजबूर होकर अंग्रेजों को हैदर अली साहब की शर्तों पर सुलह करनी पड़ी। यह अंग्रेजों के लिए बड़ी बेइज्जती थी।

32 साल के टीपू ने संभाली जिम्मेदारी

 

कुछ साल शांति रही लेकिन फिर 1780 में दूसरा एंग्लो-मैसूर युद्ध शुरू हुआ। इस बार हैदर अली साहब अकेले नहीं थे। उनके साथ मराठे और हैदराबाद के निज़ाम भी थे। टीपू सुल्तान भी इस जंग में अपने पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़े। उन्होंने कई मौकों पर अपनी बहादुरी और सूझबूझ का सबूत दिया लेकिन 1782 में जब जंग अभी चल ही रही थी, हैदर अली साहब का इंतकाल हो गया। अब मैसूर की सारी ज़िम्मेदारी 32 साल के टीपू सुल्तान के कंधों पर आ गई। केट ब्रिटलबैंक अपनी किताब 'टाइगर: द लाइफ़ ऑफ़ टीपू सुल्तान' में लिखती हैं कि हैदर अली साहब के इंतकाल के बाद भी टीपू सुल्तान ने हिम्मत नहीं हारी और जंग जारी रखी। उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए। आखिरकार 1784 में मैंगलोर की संधि हुई और दूसरा एंग्लो-मैसूर युद्ध खत्म हुआ। इस संधि में टीपू सुल्तान की शर्तें मानी गईं। यह टीपू सुल्तान की बड़ी जीत थी लेकिन अंग्रेज भी कहां चुप बैठने वाले थे। वह टीपू सुल्तान को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। टीपू सुल्तान भी ये बात अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने अपनी ताकत बढ़ानी शुरू कर दी। अपनी फौज को और मज़बूत किया, नए हथियार बनाए, नौसेना बनाने की कोशिश की और सबसे बढ़कर, फ्रांस के साथ अपनी दोस्ती गहरी की। फ्रांस उस वक़्त इंग्लैंड का दुश्मन नंबर एक था। टीपू सुल्तान को उम्मीद थी कि फ्रांसीसी उनकी मदद करेंगे।

 

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उधर अंग्रेज भी खाली नहीं बैठे थे। वे टीपू सुल्तान के खिलाफ एक बड़ा जाल बुन रहे थे। उन्होंने टीपू के पुराने दुश्मन, मराठों और हैदराबाद के निज़ाम को अपने साथ मिला लिया। विक्रम संपथ अपनी किताब 'टीपू सुल्तान: द सागा ऑफ़ मैसूर इंटररेग्नम' में बताते हैं कि लॉर्ड वेलेज़ली, जो 1798 में गवर्नर जनरल बनकर भारत आया, उसका एक ही मकसद था- टीपू सुल्तान का खात्मा। वह हिंदुस्तान को पूरी तरह से ब्रिटिश झंडे के नीचे लाना चाहता था और टीपू सुल्तान उसकी राह के सबसे बड़े रोड़े थे।

 

वेलेज़ली ने टीपू सुल्तान पर इल्ज़ाम लगाया कि वह फ्रांसीसियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ साज़िश रच रहे हैं। नेपोलियन का वह खत, जिसका ज़िक्र हमने शुरू में किया था, वेलेज़ली के हाथ लग चुका था। उसने टीपू सुल्तान को एक खत भेजा और उन पर कई पाबंदियां लगाने की कोशिश की। टीपू सुल्तान ने उसकी शर्तें मानने से इनकार कर दिया। बस, वेलेज़ली को बहाना मिल गया। उसने जंग का ऐलान कर दिया। यह शुरुआत थी चौथा एंग्लो-मैसूर युद्ध की। टीपू सुल्तान जानते थे कि यह लड़ाई उनकी जिंदगी और मौत का सवाल है। उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी लेकिन इस बार दुश्मन बहुत ताकतवर थे। तीन तरफ से हमला हुआ। एक तरफ से अंग्रेज जनरल हैरिस की फौज, दूसरी तरफ से कर्नल वेलेज़ली की फौज और तीसरी तरफ से निज़ाम की फौज। मराठों ने भी उत्तर से हमला करने का वादा किया था। हालांकि, वह सीधे तौर पर जंग में उतना शामिल नहीं हुए। टीपू सुल्तान के कई पुराने सरदार भी अंग्रेजों से जा मिले थे। गद्दारी की शुरुआत हो चुकी थी। इन मुश्किल हालात में भी टीपू सुल्तान ने हार नहीं मानी। वे जानते थे कि उनका असली मुकाबला अंग्रेजों से है और ये मुकाबला उनकी राजधानी श्रीरंगपट्टनम के दरवाज़े तक आ पहुंचा था।

आखिरी घेराबंदी 

 

अप्रैल 1799 का महीना था। श्रीरंगपट्टनम का किला दुश्मन फौजों से घिर चुका था। किले की दीवारें तोप के गोलों की मार झेल रही थीं। बाहर जनरल हैरिस अपनी विशाल सेना के साथ डेरा डाले हुए था। वह किसी भी कीमत पर टीपू सुल्तान को झुकाना चाहता था। किले के अंदर टीपू सुल्तान बेचैन थे। उन्हें अपने ज्योतिषियों पर बहुत भरोसा था। हर रोज़ वह उनसे अपनी किस्मत का हाल पूछते। एक सुबह ज्योतिषियों ने उन्हें बताया कि आज का दिन उनके लिए बहुत मनहूस है। सितारे गर्दिश में हैं। अगर वह अपनी जान बचाना चाहते हैं तो उन्हें कुछ दान-पुण्य करना होगा।

 

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टीपू सुल्तान ने फौरन हुक्म दिया। हाथी, घोड़े, सोना, चांदी, अनाज - सब गरीबों में बांट दिया गया। यहां तक कि उन्होंने अपने पसंदीदा काले घोड़े को भी दान कर दिया। कहते हैं, उस दिन टीपू सुल्तान ने ज्योतिषियों से पूछा, 'क्या अब मैं महफूज़ हूं?' ज्योतिषियों ने सिर हिलाया और कहा, 'नहीं हुज़ूर, खतरा अभी टला नहीं है। आपको आज किसी भी लड़ाई में हिस्सा नहीं लेना चाहिए।' टीपू सुल्तान खामोश हो गए। क्या वह अपनी किस्मत को बदल पाएंगे? या जो होना है, वह होकर रहेगा? किले की दीवारों पर बरसते गोले जैसे इसी सवाल का जवाब दे रहे थे।

 

श्रीरंगपट्टनम। कावेरी नदी के बीच बसा एक द्वीप, एक किला और टीपू सुल्तान की सल्तनत की राजधानी। यह कोई मामूली किला नहीं था। दोहरी दीवारों, गहरी खाइयों और मजबूत बुर्जों वाला एक अभेद्य दुर्ग। कम से कम टीपू सुल्तान तो यही समझते थे लेकिन अप्रैल 1799 आते-आते हालात बदल चुके थे। तीन तरफ से दुश्मन की फौजें किले को घेरे हुए थीं। करीब 50 हज़ार सैनिक, जिनमें अंग्रेज, निज़ाम और मराठों के सिपाही शामिल थे, किले पर धावा बोलने को तैयार बैठे थे। उनके पास उस वक़्त की सबसे आधुनिक तोपें थीं, जो लगातार किले की दीवारों पर गोले बरसा रही थीं।

 

किले के अंदर करीब 30 हज़ार सैनिक थे। टीपू सुल्तान के वफादार सिपाही, जो अपने सुल्तान के लिए जान देने को तैयार थे लेकिन उनके हौसले पस्त होने लगे थे। रसद कम होती जा रही थी। दुश्मन की घेराबंदी इतनी कड़ी थी कि बाहर से कोई मदद अंदर नहीं पहुंच पा रही थी। फ्रांसीसियों से मदद की जो उम्मीद टीपू सुल्तान ने लगा रखी थी, वह भी टूट चुकी थी। नेपोलियन मिस्र में फंसा हुआ था और उसके लिए हिंदुस्तान तक पहुंचना नामुमकिन था।

 

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विक्रम संपथ अपनी किताब में इस घेराबंदी का बड़ा मार्मिक चित्रण करते हैं। वह लिखते हैं कि किले के अंदर टीपू सुल्तान अकेले पड़ते जा रहे थे। उनके कई पुराने और भरोसेमंद सरदार या तो मारे जा चुके थे या फिर अंग्रेजों से जा मिले थे। मीर सादिक, टीपू सुल्तान के दीवान, और पूरनैया, उनके एक और अहम मंत्री, इन दोनों पर गद्दारी के इल्ज़ाम लगते रहे हैं। कहा जाता है कि इन लोगों ने अंदर की खबरें अंग्रेजों तक पहुंचाईं और किले की कमज़ोरियों का पता बताया। केट ब्रिटलबैंक भी अपनी किताब में इस बात का ज़िक्र करती हैं कि टीपू सुल्तान को अपने ही लोगों से धोखा मिला।

 

अंग्रेजों ने सबसे पहले किले के पश्चिमी हिस्से पर हमला करने का फैसला किया। यह हिस्सा थोड़ा कमज़ोर था। कई दिनों की लगातार गोलाबारी के बाद किले की दीवार में एक बड़ी दरार पड़ गई। वह इतनी चौड़ी थी कि सैनिक आसानी से अंदर घुस सकते थे। जनरल हैरिस ने अपने सैनिकों को हमले के लिए तैयार रहने का हुक्म दिया। टीपू सुल्तान को जब दीवार टूटने की खबर मिली तो वह खुद उस जगह पहुंचे। उन्होंने अपनी आंखों से उस दरार को देखा। कहते हैं, उस वक़्त उनके चेहरे पर परेशानी की लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं। उन्होंने फौरन दीवार की मरम्मत का हुक्म दिया लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। दुश्मन दरवाज़े पर खड़ा था।

 

टीपू सुल्तान को अपने ज्योतिषियों की बात याद आई। आज का दिन उनके लिए अच्छा नहीं था लेकिन वह एक महान योद्धा थे। पीठ दिखाकर भागना उनकी फितरत में नहीं था। उन्होंने अपने खास सिपहसालारों की एक मीटिंग बुलाई। आगे की रणनीति पर चर्चा हुई। कुछ ने सलाह दी कि अंग्रेजों से सुलह कर ली जाए लेकिन टीपू सुल्तान इसके लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने कहा, 'शेर की एक दिन की ज़िंदगी, गीदड़ की सौ साल की ज़िंदगी से बेहतर है।' उन्होंने अपने सैनिकों को आखिरी लड़ाई के लिए तैयार रहने को कहा। किले के हर दरवाज़े पर, हर बुर्ज पर सैनिक तैनात कर दिए गए। टीपू सुल्तान खुद भी तलवार और ढाल लेकर मोर्चे पर जाने को तैयार हो गए। उनकी आंखों में न डर था, न थकान। बस एक अजीब सी शांति थी। शायद वu समझ चुके थे कि उनका आखिरी वक़्त आ गया है। श्रीरंगपट्टनम की घेराबंदी अपने आखिरी और सबसे खूनी मरहले में दाखिल हो चुकी थी। मौत किले के दरवाज़े पर दस्तक दे रही थी।

टीपू सुल्तान का आखिरी दिन

 

4 मई, 1799, दोपहर का वक़्त। टीपू सुल्तान अपने महल में खाना खाने बैठे ही थे कि तोपों का शोर और ज्यादा बढ़ गया। कुछ ही देर में खबर आई कि किले की पश्चिमी दीवार, जिसे कई दिनों की गोलाबारी से अंग्रेज़ों ने तोड़ दिया था, उस तरफ से दुश्मन ने हमला कर दिया है। टीपू सुल्तान ने खाना छोड़ दिया। हाथ धोए, अपनी तलवार ली और अपने कुछ भरोसेमंद सिपाहियों के साथ घोड़े पर सवार होकर उस तरफ चल दिए जिधर से हमले की खबर आई थी। 

 

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विक्रम संपथ अपनी किताब 'टीपू सुल्तान: द सागा ऑफ़ मैसूर इंटररेग्नम' में बताते हैं कि टीपू सुल्तान ने अपनी जान की परवाह न करते हुए खुद तलवार उठाई और दुश्मन सैनिकों पर टूट पड़े। वह बहादुरी की मिसाल पेश कर रहे थे, अपने सिपाहियों का हौसला बढ़ा रहे थे। उनकी मौजूदगी ने मैसूरी सैनिकों में नया जोश भर दिया। वह 'टीपू बादशाह की जय!' के नारे लगाते हुए अंग्रेजों से लड़ने लगे। मौके पर मौजूद लोगों ने बाद में बताया - टीपू सुल्तान उस दिन एक आम सिपाही की तरह लड़ रहे थे। उनके सिर पर पगड़ी थी और कमर में जड़ाऊ तलवार। वह घोड़े पर सवार होकर लड़ाई का संचालन भी कर रहे थे और मौका मिलने पर खुद भी दुश्मन पर वार कर रहे थे। कई बार वह दुश्मन के इतने करीब पहुंच गए कि हाथापाई की नौबत आ गई। एक गोली उनके घोड़े को लगी और वह गिर पड़ा। टीपू सुल्तान फौरन उठे और पैदल ही लड़ने लगे।

 

लड़ाई किले के उत्तरी दरवाज़े, जिसे 'डिड्डी गेट' या 'वाटर गेट' भी कहा जाता है, के पास तक पहुंच चुकी थी। टीपू सुल्तान अपने कुछ बचे-खुचे वफादार सैनिकों के साथ वहीं मोर्चा संभाले हुए थे। उनके शरीर पर कई ज़ख्म लग चुके थे। खून बह रहा था लेकिन उनके हौसले में कोई कमी नहीं थी। वह जानते थे कि हार निश्चित है लेकिन वह अपनी आखिरी सांस तक लड़ना चाहते थे।

उसी वक़्त, किसी अज्ञात सैनिक की एक गोली टीपू सुल्तान की छाती में दाहिनी तरफ लगी। वह लड़खड़ाकर गिर पड़े। उनके एक वफादार सेवक, राजा खान ने उन्हें उठाने की कोशिश की और कहा, 'हुज़ूर, अंग्रेज़ अफसरों के सामने खुद को पेश कर दीजिए। आपकी जान बख्श दी जाएगी।' लेकिन टीपू सुल्तान ने इनकार कर दिया। उनके आखिरी शब्द थे, 'चुप रहो, बेवकूफ। शेर की तरह जीना, भेड़ की तरह मरने से बेहतर है।'

 

कुछ ही पलों में अंग्रेज़ सैनिक वहां पहुंच गए। एक सैनिक ने टीपू सुल्तान की कीमती जड़ाऊ पेटी (बेल्ट) छीनने की कोशिश की। ज़ख्मी हालत में भी टीपू सुल्तान ने अपनी तलवार से उस पर वार किया। जवाब में उस सैनिक ने अपनी बंदूक से टीपू सुल्तान के सिर पर, कनपटी के ठीक ऊपर, एक और गोली मार दी।
 
शेर की मौत और सल्तनत का अंत

 

श्रीरंगपट्टनम के किले पर अब अंग्रेजों का कब्ज़ा हो चुका था। हर तरफ धुआं, लाशें और खामोशी फैली हुई थी। जनरल बेयर्ड अपने अफसरों के साथ टीपू सुल्तान के महल पहुंचा। उन्हें उम्मीद थी कि टीपू सुल्तान वहीं मिलेंगे लेकिन महल खाली था। बेयर्ड ने टीपू सुल्तान के बेटों से पूछा, 'तुम्हारे वालिद कहां हैं?' शहजादों ने सहमे हुए जवाब दिया कि वे लड़ाई के मैदान में हैं। बेयर्ड को यकीन नहीं हुआ। उसने हुक्म दिया, 'पूरे किले में टीपू को ढूंढो। ज़िंदा या मुर्दा।'

 

मशालों की रोशनी में सैनिक किले के चप्पे-चप्पे को छानने लगे। आखिरकार, रात के अंधेरे में, उत्तरी दरवाज़े के पास लाशों के ढेर में किसी ने टीपू सुल्तान को पहचाना। उनके जिस्म पर ज़ख्मों के निशान थे, कपड़े खून से सने हुए थे लेकिन उनके चेहरे पर अब भी वही शाही रौब था। जनरल बेयर्ड खुद वहां पहुंचा। उसने टीपू सुल्तान के शव को गौर से देखा। फिर उसने हुक्म दिया कि शव को पूरे सम्मान के साथ महल ले जाया जाए।

 

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टीपू सुल्तान की मौत की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। अंग्रेज़ खेमे में खुशी की लहर दौड़ गई। लॉर्ड वेलेज़ली को जब यह खबर मिली तो उसने कहा, 'आज हिंदुस्तान हमारा है।' ये शब्द महज़ डींग नहीं थे। टीपू सुल्तान की मौत के साथ ही दक्षिण भारत में अंग्रेजों का सबसे बड़ा और सबसे ताकतवर दुश्मन खत्म हो गया था। मैसूर सल्तनत, जिसे हैदर अली साहब और टीपू सुल्तान ने अपनी मेहनत और बहादुरी से खड़ा किया था, अब अंग्रेजों के रहमोकरम पर थी।

 

अगले दिन, 5 मई, 1799 को, टीपू सुल्तान के शव को उनके पिताश्री हैदर अली की कब्र के पास, गुंबज़-ए-शाही में पूरे सैनिक सम्मान के साथ दफनाया गया। विक्रम संपथ अपनी किताब में लिखते हैं कि उनके जनाज़े में हज़ारों लोग शामिल हुए। आसमान में बादल छाए हुए थे और तेज़ बारिश हो रही थी। कई लोगों का मानना था कि यह टीपू सुल्तान की करामात है क्योंकि वह अक्सर कहते थे कि जब कोई नेक इंसान मरता है तो आसमान रोता है।

सल्तनत के साथ क्या हुआ?

 

टीपू सुल्तान की मौत के बाद अंग्रेजों ने मैसूर सल्तनत के साथ क्या किया? उन्होंने वाडियार खानदान, जिनसे हैदर अली साहब ने हुकूमत छीनी थी, उनके एक बच्चे को गद्दी पर बिठा दिया लेकिन असली ताकत अंग्रेजों के हाथ में ही रही। मैसूर एक रियासत बन गया जो ब्रिटिश हुकूमत के अधीन थी। टीपू सुल्तान के खजाने को लूट लिया गया। उनकी मशहूर लाइब्रेरी, जिसमें हज़ारों कीमती किताबें और दस्तावेज़ थे, उसे भी बर्बाद कर दिया गया या इंग्लैंड भेज दिया गया। केट ब्रिटलबैंक अपनी किताब में इस लूट का विस्तार से ज़िक्र करती हैं। 


सबसे पहले तो सोने और चांदी के सिक्के, अशर्फियां थीं। इनकी कोई गिनती नहीं थी। कई कमरों में ये ऐसे भरे पड़े थे जैसे अनाज की बोरियां हों। 

 

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टीपू सुल्तान का एक सोने का सिंहासन था जो बाघ की शक्ल का बना था और जिस पर बेशकीमती रत्न जड़े हुए थे। अंग्रेज़ों ने इस सिंहासन को भी नहीं छोड़ा। इसे तोड़कर इसके हिस्से-हिस्से कर दिए गए और सोना और रत्न अलग-अलग कर लिए गए। शायद सबसे अनोखी चीज़ थी जो लूटी गई- वह था  टीपू का मैकेनिकल टाइगर (बाघ)। यह लकड़ी का बना एक आदमकद बाघ था जो एक अंग्रेज़ सिपाही को दबोचे हुए था। जब इसका हैंडल घुमाया जाता था तो बाघ के अंदर से गुर्राने की और सिपाही के चीखने की आवाज़ें आती थीं। यह टीपू की अंग्रेज़ों से नफरत का प्रतीक था। आज भी यह देखने को मिल जाएगा - लंदन के विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम में।
 
यह लूट इतनी बड़ी थी कि इसे बांटने के लिए बाकायदा प्राइज़ एजेंट नियुक्त किए गए थे। ये कौन होते हैं? प्राइज़ एजेंट वह व्यक्ति होता था जो युद्ध में पकड़े गए दुश्मन के जहाज़ और माल की बिक्री और बंटवारे का काम देखता था। आम सिपाही से लेकर बड़े-बड़े जनरल तक, सबने इस लूट में अपना हिस्सा लिया। कहा जाता है कि श्रीरंगपट्टनम की गलियों में कई दिनों तक सोने-चांदी के सिक्के और जवाहरात बिखरे पड़े रहे।

टीपू सुल्तान की मौत ने हिंदुस्तान के इतिहास पर गहरा असर डाला। यह सिर्फ एक राजा या एक सल्तनत का अंत नहीं था, बल्कि यह उस आज़ादी की लड़ाई की एक अहम कड़ी का टूटना था जो कई हिंदुस्तानी राजा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे। टीपू सुल्तान ने फ्रांसीसियों के साथ मिलकर अंग्रेजों को बाहर निकालने का जो सपना देखा था, वह अधूरा रह गया।

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