पाकिस्तान के न्यूक्लियर पावर बनने और डॉ. अब्दुल कादिर की पूरी कहानी
भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान भी परमाणु शक्ति वाला देश है। यहां तक का सफर करने तय करने के लिए पाकिस्तान ने भी बहुत पापड़ बेले हैं, आज उसी की कहानी पढ़िए।

पाकिस्तान के परमाणु शक्ति बनने की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
जनवरी 1972, पाकिस्तान का मुल्तान शहर। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। शहर के बाहरी इलाके में एक गेस्ट हाउस के लॉन में एक बड़ा सा शामियाना लगाया गया था। अंदर अलाव जल रहे थे लेकिन ठंड इतनी थी कि किसी को राहत नहीं मिल रही थी। शामियाने के नीचे इकट्ठा थे पाकिस्तान के सबसे काबिल वैज्ञानिक और इंजीनियर। माहौल में तनाव था। कुछ हफ़्ते पहले ही पाकिस्तान 1971 की जंग हारा था, देश टूट चुका था। अब नए राष्ट्रपति, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, देश से वैज्ञानिकों से कुछ कहना चाहते थे। फ़िरोज़ ख़ान अपनी किताब 'Eating Grass: The Making of the Pakistani Bomb' में लिखते हैं कि भुट्टो मीटिंग में आए और सीधे मुद्दे पर आ गए। उन्होंने वैज्ञानिकों से पूछा, "क्या तुम मुझे तीन साल में एटम बम दे सकते हो? कितना वक़्त लगेगा?" सवाल सीधा था, इरादा साफ़। मीटिंग में मौजूद पाकिस्तान एटॉमिक एनर्जी कमीशन (PAEC) के तत्कालीन चेयरमैन आई.एच. उस्मानी और कुछ अन्य वरिष्ठ वैज्ञानिक हिचकिचाए। उन्हें पता था कि यह राह आसान नहीं, इसमें बेहिसाब पैसा, संसाधन और वक़्त लगेगा और अंतरराष्ट्रीय दबाव झेलना पड़ेगा वह अलग। कोई कुछ नहीं बोल पा रहा था। तभी एक युवा इंजीनियर सुल्तान बशीरउद्दीन महमूद ने एक स्कूली बच्चे की तरह, अपना हाथ हवा में उठाया। भुट्टो, जो हमेशा ड्रामा पसंद करते थे, की नज़र उस पर पड़ी।
महमूद लगभग दौड़ते हुए मंच पर पहुंचे। भुट्टो से बोले- "जनाब अब तक हर कोई यहां आपकी तारीफ़ कर रहा है लेकिन हक़ीक़त ये है कि PINSTECH (पाकिस्तान इंस्टीट्यूट ऑफ़ न्यूक्लियर साइंस एंड टेक्नोलॉजी) जाने वाली बस का कंडक्टर भी उसे 'नीलोर बम फ़ैक्ट्री' कहता है! आम जनता सोचती है कि हमारे पास पहले से ही बम है लेकिन हमारे पास कुछ नहीं है। बातें करने का वक़्त गया। पाकिस्तान को बम बनाने की ज़रूरत है, अभी!"
महमूद के शब्दों ने जैसे शामियाने में करंट दौड़ा दिया। माहौल जो अब तक थोड़ा दबा-दबा सा था, एकदम से चार्ज हो गया। भुट्टो ने, जो शायद यही प्रतिक्रिया चाहते थे, फिर पूछा, "तो बताओ, कितने साल लगेंगे?" इसके बाद जो हुआ, वह महमूद के शब्दों में, एक "मछ्ली बाज़ार" जैसा माहौल था। कोई चिल्लाया पांच साल, कोई सात, कोई दस। हर कोई अपनी राय देना चाहता था, हाथ हवा में उठ रहे थे, शोर बढ़ता जा रहा था। अंत में भुट्टो ने अपना हाथ उठाया। सब शांत। इसके बाद भुट्टो बोले, "पांच साल बहुत ज़्यादा हैं। इसे तीन साल में करो।"
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इस तरह भुट्टो ने पाकिस्तान के न्यूक्लियर प्रोग्राम की नींव रखी। भुट्टो जो कहा करते थे, घास खा लेंगे लेकिन एटम बम जरूर बनाएंगे। हालांकि, एटम बम का मुंह देख नहीं पाए। उससे पहले ख़ुद भुट्टो को ही फांसी पर चढ़ा दिया गया। आज के इस अलिफ लैला में हम पढ़ेंगे पाकिस्तान के न्यूक्लियर प्रोग्राम की पूरी कहानी।
कैसे शुरू हुआ पाकिस्तान का न्यूक्लियर प्रोग्राम?
शामियाने वाली मीटिंग से ही कहानी आगे बढ़ाते हैं। इस मीटिंग के बाद PAEC पूरी तरह हरकत में आ गया। शुरुआती योजना प्लूटोनियम आधारित बम बनाने की थी। यह वह रास्ता था जिस पर अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन और फ़्रांस जैसे देश पहले चल चुके थे। इसके लिए चाहिए था एक रीप्रोसेसिंग प्लांट, जो परमाणु रिएक्टर में इस्तेमाल हो चुके ईंधन से हथियार बनाने लायक प्लूटोनियम-239 को अलग कर सके।
इसके लिए पाकिस्तान ने फ़्रांस की एक नामी कंपनी सेंट-गोबेन न्यूक्लियर (SGN) के साथ एक बड़ा रीप्रोसेसिंग प्लांट बनाने के लिए बातचीत शुरू की। यह प्लांट कराची के पास चश्मा में लगाया जाना था। लंबी बातचीत के बाद मार्च 1973 में दोनों देशों के बीच समझौता हुआ। 1974 के अंत तक औपचारिक कॉन्ट्रैक्ट पर हस्ताक्षर भी हो गए। पाकिस्तान ने फ़्रांस को एडवांस पेमेंट भी कर दी। ऐसा लग रहा था कि पाकिस्तान ने प्लूटोनियम बम बनाने की दिशा में एक बड़ी बाधा पार कर ली है लेकिन तभी, 18 मई 1974 को भारत ने पोखरण में 'स्माइलिंग बुद्धा' कोडनेम से अपना पहला परमाणु परीक्षण कर दुनिया को और ख़ासकर पाकिस्तान को चौंका दिया। भारत अब परमाणु क्लब का अनौपचारिक सदस्य बन चुका था। इस घटना ने पाकिस्तान में ख़तरे की घंटी बजा दी। ज़ुल्फ़िकार भुट्टो को लगा कि अब परमाणु बम बनाना सिर्फ़ सपना नहीं, बल्कि जरूरत बन गया है।
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भारत के परीक्षण का एक सीधा असर पाकिस्तान-फ़्रांस रीप्रोसेसिंग प्लांट डील पर पड़ा। अमेरिका, जो पहले इस डील को लेकर ज़्यादा चिंतित नहीं था, अब एकदम सक्रिय हो गया। उसे डर था कि भारत की देखा-देखी पाकिस्तान भी बम बना लेगा। अमेरिका ने कनाडा और अन्य पश्चिमी सहयोगियों के साथ मिलकर फ़्रांस पर ज़बरदस्त कूटनीतिक दबाव बनाना शुरू कर दिया सितंबर 1976 में अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर लाहौर आकर भुट्टो से मिले और उन्हें सीधी चेतावनी दी। एड्रियन लेवी और कैथरीन स्कॉट-क्लार्क, डिसेप्शन: पाकिस्तान, द यूनाइटेड स्टेट्स एंड द ग्लोबल न्यूक्लियर वेपन्स कॉन्स्पिरेसी में लिखते हैं। किसिंजर ने भुट्टो से कहा, "अगर आपने ये प्लांट हासिल किया, तो हम आपको एक एक्ज़ाम्पल बना देंगे।"
दूसरी तरफ़ फ़्रांस भी इस अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे झुकने लगा। उसने प्लांट के डिज़ाइन बदलने और सप्लाई में देरी करने जैसे बहाने बनाने शुरू कर दिए। फ़्रांसीसी राष्ट्रपति वैलेरी गिस्कार्ड ने 1976 में पाकिस्तान का दौरा भी किया लेकिन बात नहीं बनी। आख़िरकार, अगस्त 1978 में फ़्रांस ने आधिकारिक तौर पर इस सौदे को रद्द कर दिया। पाकिस्तान का प्लूटोनियम बम बनाने का सपना बुरी तरह टूट गया। अरबों डॉलर ख़र्च हो चुके थे, कई साल बर्बाद हो गए थे और नतीजा सिफ़र था। पाकिस्तान एक बार फिर चौराहे पर खड़ा था। उसे एक नए रास्ते, एक नई उम्मीद की ज़रूरत थी।
हॉलैंड से आई चिट्ठी और 'प्रोजेक्ट 706'
जुलाई 1974। भारत के परमाणु परीक्षण के ठीक दो महीने बाद। जब फ़्रांसीसी डील पर संकट के बादल मंडराने लगे थे। तभी प्रधानमंत्री भुट्टो के दफ़्तर में एक साधारण काग़ज़ पर टाइप की हुई चिट्ठी पहुंची। यह चिट्ठी हॉलैंड में रहने वाले एक गुमनाम पाकिस्तानी मेटलर्जिस्ट (धातु विज्ञानी) ने लिखी थी। जिसका नाम था डॉक्टर अब्दुल कादिर ख़ान।
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अब्दुल कादिर ख़ान का जन्म 1936 में ब्रिटिश भारत के भोपाल शहर में हुआ था। परिवार समृद्ध था लेकिन 1947 के बंटवारे ने ज़िंदगी बदल दी। उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा। यहीं से उनके मन में भारत के लिए नफ़रत भर गई। लेवी-क्लार्क अपनी किताब में बताते हैं, ख़ान अक्सर खुद को मध्यकालीन आक्रमणकारियों, महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी का वंशज बताते थे। उनके मन में एक ही सपना था - पाकिस्तान को भारत से ज़्यादा ताकतवर बनाने का।
चिट्ठी वाली कहानी पर वापस लौटें तो अब्दुल कादिर ख़ान ने भुट्टो को चिट्ठी भेजी। उसमें लिखा था - वह यूरोप की एक अति-गोपनीय परमाणु परियोजना URENCO में काम कर रहे हैं। जहां यूरेनियम को एनरिच करने की एक नई और क्रांतिकारी तकनीक – गैस सेंट्रीफ़्यूज – विकसित की गई है। ख़ान ने लिखा कि यह तकनीक प्लूटोनियम रीप्रोसेसिंग से कहीं ज़्यादा तेज़ और सस्ती है। उन्होंने दावा किया कि उनके पास इस तकनीक की पूरी जानकारी है और वह पाकिस्तान के लिए बम बनाने में मदद करना चाहते हैं। असलियत में ये सारी जानकारी चोरी की गई थी।
भुट्टो ने ख़ान की चिट्ठी पढ़कर उन्हें पाकिस्तान आने का न्यौता दिया। दिसंबर 1974 में, जब ख़ान छुट्टियों में पाकिस्तान आए, तो भुट्टो ने उनसे प्रधानमंत्री निवास में एक गुप्त मुलाक़ात की। इस मुलाक़ात के फ़ौरन बाद, भुट्टो ने फ़ैसला किया कि पाकिस्तान अब यूरेनियम एनरिचमेंट के रास्ते पर चलेगा। उन्होंने डॉ. ख़ान से पाकिस्तान वापस आकर इस प्रोजेक्ट का नेतृत्व करने को कहा। ख़ान 1975 में अपनी डच पत्नी हेंनी और दो बेटियों के साथ पाकिस्तान लौट आए।
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अब्दुल कादिर जब आए, तब PAEC (एटॉमिक एनर्जी कमीशन) के चेयरमैन मुनीर अहमद ख़ान हुआ करते थे। दो ख़ान दोनों महत्वाकांक्षी। शुरुआत से ही दोनों में छत्तीस का आंकड़ा था। मुनीर अहमद ख़ान प्लूटोनियम कार्यक्रम को ज़्यादा भरोसेमंद मानते थे। वहीं, अब्दुल क़ादिर खुद को सेंट्रीफ़्यूज तकनीक का विशेषज्ञ मानते थे। शुरुआत में भुट्टों ने दोनों ने बीच तनातनी को बढ़ावा दिया। ताकि दोनों एक-दूसरे से बेहतर काम करने की कोशिश करें लेकिन जब मामला हद से आगे बढ़ गया। भुट्टो ने ख़ान को PAEC से अलग कर दिया। यहां से कहानी का मुख्य स्टेज शुरू होता है।
भुट्टो ने अब्दुल कादिर को एक अलग संस्था बनाने की मंजूरी दे दी। इंजीनियरिंग रिसर्च लेबोरेटरीज़ यानी ERL- वह जगह जहां यूरेनियम एनरिचमेंट होना था। इस प्रोजेक्ट को कोडनेम दिया गया 'प्रोजेक्ट 706'। जुलाई 1976 में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो से हरी झंडी मिलने के बाद, डॉक्टर अब्दुल क़दीर ख़ान के लिए सबसे पहला काम था- 'प्रोजेक्ट 706' के लिए एक महफ़ूज़ ठिकाना ढूंढना। जगह चुनी गई राजधानी इस्लामाबाद से करीब 50 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में, कहुता की वीरान, पथरीली पहाड़ियां। यह इलाक़ा जानबूझकर चुना गया था – यह राजधानी के पास था, ताकि प्रशासनिक और सैन्य मदद आसानी से मिल सके लेकिन इतना अलग-थलग भी था कि इसे दुनिया की नज़रों से छिपाया जा सके। पाकिस्तान आर्मी कोर ऑफ़ इंजीनियर्स को कहुता में इंजीनियरिंग रिसर्च लेबोरेटरीज़ (ERL) के निर्माण का काम सौंपा गया। काम दिन-रात, युद्ध स्तर पर शुरू हुआ। भुट्टो और ख़ान जल्द से जल्द नतीजा चाहते थे।
कहुता की किलेबंदी
कहुता को सिर्फ़ एक लैब नहीं, बल्कि एक अभेद्य किला बनना था। इसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी पाकिस्तानी सेना और ख़ुफ़िया एजेंसी ISI ने संभाली। लैब कॉम्प्लेक्स के चारों तरफ़ कई किलोमीटर तक का इलाक़ा प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर दिया गया। अंदर जाने वाले हर रास्ते पर सेना की कड़ी चौकियां थीं। लैब के चारों ओर ऊंची कंक्रीट की दीवारें खड़ी की गईं, जिनके ऊपर कंटीले तारों की कई परतें बिछाई गईं। दीवारों और बाड़ों के बीच बारूदी सुरंगें बिछा दी गईं। ज़मीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलें और एंटी-एयरक्राफ़्ट गनें तैनात की गईं ताकि किसी भी हवाई हमले को नाकाम किया जा सके। कॉम्प्लेक्स के अंदर और बाहर हज़ारों सैनिकों का 24 घंटे पहरा रहता था।
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कहुता की गोपनीयता बनाए रखने के लिए किस हद तक जाया गया, इसका अंदाज़ा लेवी और स्कॉट-क्लार्क द्वारा 'डिसेप्शन' में बताए गए एक और क़िस्से से लगता है। कहुता के आसपास की पहाड़ियों में एक खास किस्म की जंगली घास उगती थी, जिसे स्थानीय लोग 'कहु घास' कहते थे। इस घास की एक बहुत तेज़ गंध निकलती थी, जो हवा के साथ दूर तक फैलती थी। ISI को शक हुआ कि कहीं विदेशी जासूस, इस गंध के सहारे लैब के और क़रीब न पहुंच जाएं या हवा के सैंपल लेकर कुछ पता न लगा लें। इसलिए, एक बड़े ऑपरेशन के तहत कहुता के आसपास मीलों तक फैली इस कहु घास को कटवाकर नष्ट कर दिया गया। मक़सद था कहुता का हर निशान मिटा देना।
CIA, R&AW, मोसाद और बालों से जासूसी
पाकिस्तान ने कहुता को कितना भी छिपाने की बहुत कोशिश की लेकिन दुनिया की तमाम प्रमुख ख़ुफ़िया एजेंसियों की नज़र उन पर थी। अमेरिका की CIA, ब्रिटेन की MI6 और जर्मनी की BND को इसकी भनक लग चुकी थी। अमेरिकी जासूसी सैटलाइट लगातार कहुता की तस्वीरें ले रहे थे, जिनसे वहां चल रहे निर्माण कार्य का पता चल रहा था लेकिन सिर्फ़ तस्वीरों से यह साबित करना मुश्किल था कि वहां यूरेनियम एनरिचमेंट का काम हो रहा है। इसके लिए ज़मीनी सबूत चाहिए थे। इसके लिए भी तरकीब निकाली गई। उन्होंने कहुता से निकलने वाले नालों के पानी के सैंपल इकट्ठा किए। आसपास की मिट्टी, हवा में उड़ने वाली धूल और यहां तक कि लैब के बाहर फेंके गए कचरे से मिले इंसानी बालों के सैंपल भी ढूंढे गए।
इन सैंपलों को लैब्स में भेजा गया। सैंपल में यूरेनियम-235 और यूरेनियम-238 के आइसोटोप्स पाए गए। साथ ही यूरेनियम हेक्साफ्लोराइड (UF6) गैस के निशान भी मिले । UF6 वह गैस है जिसे सेंट्रीफ़्यूज में डालकर एनरिच किया जाता है। CIA ने कहुता से लीक हो रही UF6 गैस के इन सबूतों को एक कोडनेम दिया था - "Fish and Ducks"। CIA ने सुनने वाली डिवाइस लगाकर भी जासूसी करने की कोशिश की। 'Deception' में एक मशहूर क़िस्से का ज़िक्र है कि CIA के एजेंटों ने एक चट्टान के अंदर एक छोटा सा सोलर-पावर्ड लिसनिंग डिवाइस छिपाकर उसे कहुता के नज़दीक रख दिया। मक़सद था अंदर होने वाली बातचीत या मशीनों की आवाज़ सुनना लेकिन ISI भी सतर्क थी। उनके लोगों ने देखा कि एक आवारा कुत्ता रोज़ाना एक ख़ास चट्टान के पास जाकर बेवजह भौंकता है। उन्हें शक हुआ। जब उस चट्टान को सावधानी से तोड़ा गया तो अंदर से CIA का जासूसी डिवाइस बरामद हुआ।
पाकिस्तान के परमाणु प्रोग्राम की पोल खोलने में एक योगदान भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी R&AW का भी था। R&AW ने कहुता प्रोजेक्ट के शुरुआती दिनों में ही पाकिस्तान के अंदर अपने सूत्रों का जाल बिछा दिया था। RAW को कहुता में चल रही गतिविधियों की काफ़ी सटीक जानकारी मिल रही थी लेकिन 1978-79 में कुछ ऐसा हुआ जिसने भारत के सारे किए-कराए पर पानी फेर दिया।
भारत में 1977 में इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी थी और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे। मोरारजी देसाई व्यक्तिगत रूप से परमाणु हथियारों के सख़्त ख़िलाफ़ थे और पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारना चाहते थे। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने पाकिस्तान के सैन्य शासक जनरल ज़िया उल हक़ के साथ टेलीफ़ोन पर बातचीत की। इस बातचीत के दौरान, देसाई ने कथित तौर पर ज़िया को बताया कि उन्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि भारत को पाकिस्तान के कहुता में चल रहे गुप्त परमाणु हथियार कार्यक्रम की पूरी जानकारी है, जो उन्हें अपनी ख़ुफ़िया एजेंसी (RAW) से मिली है।
देसाई का इरादा शायद ज़िया को यह विश्वास दिलाना था कि भारत सब जानता है लेकिन इसका असर उल्टा हुआ। फ़ोन कॉल के तुरंत बाद, ज़िया ने ISI को RAW के नेटवर्क का पता लगाने का आदेश दिया। ISI हरकत में आई और कुछ ही समय में उसने पाकिस्तान में RAW के कई एजेंटों और मुखबिरों को पकड़ लिया या मार डाला। सालों की मेहनत से बनाया गया नेटवर्क एक झटके में तबाह हो गया और भारत के लिए कहुता की सीधी जानकारी हासिल करना बेहद मुश्किल हो गया।
कहुता सिर्फ़ भारत के लिए ही नहीं बल्कि इज़राइल के लिए भी बड़ा सिरदर्द था। इज़राइल को डर था कि अगर पाकिस्तान ने 'इस्लामिक बम' बना लिया, तो वह अरब देशों के हाथ लग सकता है। इज़राइल पहले भी इस तरह के ख़तरों को ख़त्म करने के लिए जाना जाता था। जून 1981 में, इज़राइली वायुसेना ने एक हैरान करने वाले हवाई हमले में इराक़ के ओसिराक परमाणु रिएक्टर को पूरी तरह तबाह कर दिया था, जब वह बनकर तैयार होने ही वाला था।
कहुता पर हमले का प्लान
अब इज़राइल की नज़र कहुता पर थी। एड्रियन लेवी और कैथरीन स्कॉट-क्लार्क 'Deception' में बताते हैं कि 1980 के दशक की शुरुआत में, इज़राइल और भारत की ख़ुफ़िया एजेंसियों – मोसाद और RAW – मिलकर कहुता पर ओसिराक जैसा ही एक प्री-एम्पटिव हवाई हमला करने की गुप्त योजना बनाई। प्लान कुछ इस प्रकार था - भारतीय वायुसेना के जगुआर लड़ाकू विमान, जो लंबी दूरी तक मार करने में सक्षम थे, गुजरात के जामनगर एयरबेस से उड़ान भरते। इज़राइली वायुसेना के F-16 लड़ाकू विमान अरब सागर के ऊपर भारतीय विमानों के साथ मिलते।
इज़राइली विमान भारतीय जगुआर को हवा में ईंधन भरते (Air-to-Air Refueling) और उन्हें दुश्मन के रडार और लड़ाकू विमानों से बचाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक सुरक्षा कवर (Escort) प्रदान करते। भारतीय जगुआर कहुता पर बम गिराकर वापस जामनगर लौट आते।
यह एक बेहद दुस्साहसी योजना थी। अगर यह कामयाब हो जाती, तो पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम सालों पीछे चला जाता लेकिन इस टॉप-सीक्रेट प्लान की भनक अमेरिका को लग गई।
इस समय तक सोवियत संघ की अफ़ग़ानिस्तान में एंट्री हो चुकी थी। अमेरिकी राष्ट्रपति रोनॉल्ड रीगन के पाकिस्तान के मायने काफ़ी बढ़ गए थे। अमेरिका ने तुरंत हरकत में आते हुए भारत और इज़राइल, दोनों पर भारी कूटनीतिक दबाव डाला कि वे इस योजना को तुरंत रद्द कर दें। योजना टाल दी गई। उधर कहुता में पाकिस्तान का न्यूक्लियर प्रोग्राम आगे बढ़ता गया।
ऑपरेशन बटर फ़ैक्ट्री
कहुता के अंदर डॉक्टर अब्दुल कादिर सेंट्रीफ़्यूज प्लांट खड़ा करने के लिए दिन-रात एक किए हुए थे। इसके लिए उन्हें हज़ारों की संख्या में विशेष पुर्ज़ों ज़रूरत थी। ये पुर्जे वेस्ट की कंट्रोल लिस्ट में थे। यानी इन्हें आयात- निर्यात नहीं किया जा सकता था। ऐसे में डॉक्टर ख़ान ने अपने पुराने सोर्सेस का इस्तेमाल किया। तमाम तरह के जुगाड़ आज़माए गए। मसलन ईटिंग ग्रास में फ़िरोज़ ख़ान बताते हैं कि कैसे फर्ज़ी कंपनियां बनाई गईं, जिनके नाम पर ऑर्डर दिए जाते थे। बड़े ऑर्डर को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटकर अलग-अलग कंपनियों से मंगाया जाता था, ताकि शक न हो। सामान सीधे पाकिस्तान भेजने के बजाय दुबई, तुर्की या किसी और तीसरे देश के रास्ते मंगाया जाता था।
कई बार छोटे, पुर्ज़े, ब्लूप्रिंट्स या दस्तावेज़ राजनयिक थैली (Diplomatic Pouch) में रखकर इस्लामाबाद भेजे जाते थे क्योंकि उनकी तलाशी नहीं ली जा सकती थी। कई पाकिस्तानी अधिकारी सामान्य यात्री बनकर भी निजी सूटकेसों में संवेदनशील सामान छिपाकर लाते थे।
इस पूरे ऑपरेशन का एक दिलचस्प कोडनेम दिया गया था- 'ऑपरेशन बटर फ़ैक्ट्री'। इस नाम के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। दरअसल, 1960 के दशक में राष्ट्रपति अयूब ख़ान के बेटे गौहर अयूब के लिए स्वाबी में मक्खन बनाने की एक फ़ैक्टरी लगाई। इस काम में मदद की एक जर्मन कंपनी ने। कंपनी मक्खन प्रोसेस करने के औजार दे रही थी लेकिन जब कहुता में न्यूक्लियर प्रोजेक्ट शुरू हुआ। इसी कंपनी ने UF6 गैस प्रूरिफ़ाई करने वाले एक प्लांट बनाने में मदद की। इस तरह जुगाड़ से काम चलाने के तरीके को नाम ही दे दिया गया - 'ऑपरेशन बटर फ़ैक्टरी'।
ड्रैगन का वरदान, अंकल सैम का धोखा
कहुता में इंजीनियरिंग रिसर्च लेबोरेटरीज़ (ERL) स्थापना न्यूक्लियर हथियार बनाने की ओर एक बड़ा कदम था लेकिन सिर्फ़ एक लैब बना लेने से बम नहीं बन जाता। डॉ. ख़ान के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी - हज़ारों सेंट्रीफ़्यूज बनाना, उन्हें चलाना और उनसे हथियार-ग्रेड यूरेनियम एनरिच करना। यह एक बेहद जटिल और महंगा काम था, जिसके लिए पाकिस्तान के पास न तो पूरी एक्स्पर्टीज़ थी और न ही सारे संसाधन। फ़्रांस के साथ समझौता टूटने के बाद पाकिस्तान को एक शक्तिशाली और भरोसेमंद साथी की ज़रूरत थी और वह साथी मिला उत्तर में – पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना।
1976 में भुट्टो ने चीन का दौरा किया, एक सीक्रेट परमाणु सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किए। यह समझौता पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। इसके बाद चीन ने पाकिस्तान की झोली में वह सब कुछ डाल दिया जिसकी उसे ज़रूरत थी: 1966 में चीन ने एक 25 किलोटन क्षमता वाले यूरेनियम बम का टेस्ट किया था। जिसका कोड नेम था CHIC-4। चीन ने इसी बम का डिज़ाइन पाकिस्तान को सौंप दिया। इसके अलावा चीन ने पाकिस्तान को लगभग 50 किलोग्राम वेपन्स-ग्रेड यूरेनियम दिया। UF6 गैस की खेप दी। भारी जल दिया और साथ ही सैकड़ों चीनी वैज्ञानिक और इंजीनियर कहुता में भेजे, मदद के लिए।
पाकिस्तान के लिए चीन का यह साथ किसी वरदान से कम नहीं था। इसके बिना शायद पाकिस्तान के लिए इतनी जल्दी परमाणु बम बनाना संभव नहीं होता। पाकिस्तान के न्यूक्लियर ताक़त बनने में एक और देश का रोल काफ़ी अहम था- अमेरिका। अमेरिका का रवैया हालांकि इतना स्ट्रेट नहीं था। 1977 में जब जिमी कार्टर अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने परमाणु अप्रसार (Non-Proliferation) को अपनी विदेश नीति का अहम हिस्सा बनाया। कार्टर प्रशासन ने पाकिस्तान पर दबाव डाला और जब वह नहीं माना तो पाकिस्तान को दी जाने वाली अमेरिकी आर्थिक और सैन्य सहायता रोक दी। 1979 का अमेरिका का यही रूख रहा लेकिन फिर दिसंबर 1979 में सोवियत संघ के अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण ने सब कुछ बदल कर रख दिया। शीत युद्ध अपने चरम पर था। सोवियत संघ को रोकना बड़ी प्रायरटी थी।
मुजाहिदीनों तक हथियार और पैसा पहुंचाना - इसके लिए पाकिस्तान की जरूरत थी। लिहाजा रातों रात पाकिस्तान अमेरिका का महत्वपूर्ण सहयोगी बन गया। नतीजा हुआ कि पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर अमेरिकी चिंताएं रातों-रात ठंडे बस्ते में डाल दी गईं। 1981 में रोनॉल्ड रीगन राष्ट्रपति बने। रीगन ने पाकिस्तान को जमकर मदद दी। अमेरिकी क़ानून साफ़ तौर पर कहते थे कि अगर कोई देश परमाणु हथियार बनाने की कोशिश कर रहा है तो उसे अमेरिकी सहायता नहीं दी जा सकती लेकिन रीगन प्रशासन ने इसका भी तोड़ निकाला। क़ानून में एक लचीलापन था कि अगर राष्ट्रपति कांग्रेस को लिखित में ये सर्टिफ़ाई कर दें कि संबंधित देश परमाणु हथियार नहीं बना रहा है, तो उसे सहायता दी जा सकती है और फिर रीगन प्रशासन ने यही किया।
1981 से लेकर 1989 तक और उसके बाद जॉर्ज एच. डब्ल्यू. बुश प्रशासन ने 1990 तक, हर साल अमेरिकी राष्ट्रपति ने कांग्रेस को यह झूठा सर्टिफ़िकेट दिया कि'पाकिस्तान के पास परमाणु उपकरण नहीं है', यह जानते हुए भी कि यह सरासर झूठ था। अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों, CIA और स्टेट डिपार्टमेंट को पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम की पूरी जानकारी थी। इस सालाना झूठ के आधार पर अमेरिका ने 1981 से 1990 के बीच पाकिस्तान को 4 अरब डॉलर से ज़्यादा की मदद दी। जिसमे परमाणु बम ले जाने लायक F-16 लड़ाकू विमान भी शामिल थे, जो परमाणु बम गिराने में सक्षम थे। अमेरिका ने इस बात को भी नज़रअंदाज़ किया कि पाकिस्तान इन विमानों को परमाणु हथियार ले जाने के लिए मॉडिफ़ाई कर रहा था।
अमेरिकी लीपापोती का सबसे बड़ा उदाहरण था क्राइट्रॉन स्कैंडल। साल 1984 की बात है। नाज़िर अहमद वैद नाम का एक पाकिस्तानी नागरिक कस्टम विभाग द्वारा पकड़ लिया गया। जब वह अवैध रूप से 50 क्राइट्रॉन ख़रीद पर प्लेन में ले जा रहा था। क्राइट्रॉन (Krytron) एक छोटा, हाई-स्पीड इलेक्ट्रॉनिक स्विच होता है, जिसका इस्तेमाल परमाणु बम के इम्प्लोज़न डिवाइस को ट्रिगर करने के लिए किया जाता है। अहमद वैद पर आर्म्स एक्सपोर्ट कंट्रोल ऐक्ट के तहत गंभीर आरोप थे। ऐसा लग रहा था कि अब पाकिस्तान का भंडाफोड़ हो जाएगा और अमेरिका को उसे दी जा रही सहायता रोकनी पड़ेगी लेकिन फिर वही हुआ जो होता आ रहा था। स्टेट डिपार्टमेंट ने इस मामले में सीधे हस्तक्षेप किया। मक़सद था इस मामले को रफ़ा-दफ़ा करना ताकि पाकिस्तान के साथ रिश्ते ख़राब न हों। वैद पर लगे गंभीर आरोपों को हटा दिया गया। उस पर सिर्फ़ कस्टम नियमों के उल्लंघन जैसे हल्के आरोप लगाए गए। उसे एक छोटी-मोटी सज़ा सुनाई गई और कुछ ही महीनों बाद चुपचाप पाकिस्तान डिपोर्ट कर दिया गया।
परमाणु बम तैयार कब हुआ?
परमाणु बम के लिए जरूरी होता है - 90% से ज़्यादा एनरिच्ड यूरेनियम। जिसे वेपन्स ग्रेड हाईली एनरिच्ड यूरेनियम (HEU) कहते हैं। 1984-85 तक कहुता ने पर्याप्त मात्रा में हथियार-ग्रेड HEU का उत्पादन शुरू कर दिया था। हालांकि, सिर्फ़ परमाणु सामग्री होना ही काफ़ी नहीं होता। बम को काम करने के लिए एक जटिल डिज़ाइन और उसे सटीक तरीक़े से विस्फोट करने वाले मैकेनिज़्म की ज़रूरत होती है। इस काम की जिम्मेदारी थी -पाकिस्तान एटॉमिक एनर्जी कमीशन (PAEC) के पास। PAEC ने इम्प्लोज़न सिस्टम तैयार किया - यानी यूरेनियम कोर के चारों तरफ़ भारी विस्फोटक रखना ताकि उनके विस्फोट से रिएक्शन क्रिटिकल मास तक पहुंच सके। इसके अलावा -ट्रिगरिंग मैकेनिज़्म- यानी बम को सटीक समय पर विस्फोट करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक सर्किट और और हाई स्पीड स्विच बनाना और बम को रखने के लिए मज़बूत खोल बनाना और उसे विमान या मिसाइल से गिराने लायक बनाना। ये सब काम PAEC के वैज्ञानिकों ने पूरे किए।
अब पाकिस्तान के पास परमाणु सामग्री भी थी और बम का डिज़ाइन भी लेकिन असली परमाणु धमाका किए बिना ये कैसे पता चले कि डिज़ाइन काम करेगा या नहीं? इसका तरीका था 'कोल्ड टेस्ट' (Cold Test)। कोल्ड टेस्ट में परमाणु बम के सभी ग़ैर-परमाणु हिस्सों – जैसे डेटोनेटर्स, स्विच, और इलेक्ट्रॉनिक्स का परीक्षण किया जाता है। इसमें हाइली एनरिच्ड यूरेनियम की जगह नेचुरल यूरेनियम या किसी इनएक्टिव मेटल इस्तेमाल किया जाता है। अगर पारंपरिक विस्फोटक सही तरीक़े से और एक साथ फटते हैं और कोर पर सटीक दबाव बनता है तो माना जाता है कि डिज़ाइन सही है और असली परमाणु सामग्री डालने पर यह काम करेगा।
पाकिस्तान ने 1983 से 1987 के बीच इस तरह के कई सफल कोल्ड टेस्ट किए। यह परीक्षण पंजाब प्रांत में सरगोधा के पास किराना हिल्स की पहाड़ियों में खोदी गई सुरंगों में किए गए थे। इन सफल कोल्ड टेस्ट का मतलब था कि पाकिस्तान अब सिर्फ़ एक "स्क्रूड्राइवर टर्न" दूर था – यानी उसके पास बम बनाने का सारा सामान, डिज़ाइन और तकनीक थी, बस असली परमाणु सामग्री को डिवाइस में फ़िट करने और बटन दबाने की देर थी। पाकिस्तान अब परमाणु दहलीज़ पर खड़ा था। हालांकि, दुनिया को सीधे तौर पर यह बताना ख़तरनाक हो सकता था। इससे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लग सकते थे और अमेरिका से मिल रही अरबों डॉलर की सहायता बंद हो सकती थी। इसलिए तात्कालिक राष्ट्रपति जनरल ज़िया उल हक़ ने एक बहुत चालाक नीति अपनाई, जिसे Nuclear Ambiguity कहा जाता है। इसका मतलब था – न तो साफ़ तौर पर परमाणु बम होने की बात स्वीकार करना और न ही इनकार करना, बस दुनिया को अंदाज़ा लगाते रहने देना। पाकिस्तान परमाणु ताक़त हासिल कर चुका है। इसका सबसे बड़ा इशारा जनवरी 1987 में। भारतीय पत्रकार कुलदीप नैयर को दिए एक सनसनीखेज़ इंटरव्यू में डॉक्टर अब्दुल क़ादिर ने कहा, "अमेरिका सब जानता है, वह हमें रोक नहीं सकते। हम जब चाहे परमाणु परीक्षण कर सकते हैं।' ज़िया उल हक़ ने खुद भी कई बार दबे-छिपे शब्दों में संकेत दिए। 1987 में टाइम मैगज़ीन को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, "आप आज लिख सकते हैं कि पाकिस्तान जब चाहे बम बना सकता है।"
इन बयानों का मक़सद साफ़ था – भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना, घरेलू जनता को ख़ुश करना और बिना सीधे स्वीकार किए अपनी ताक़त का प्रदर्शन करना। अगस्त 1988 में जनरल ज़िया उल हक़ की एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई। पाकिस्तान में एक बार फिर लोकतंत्र की वापसी हुई। बेनज़ीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ़ बारी-बारी से प्रधानमंत्री बने लेकिन सत्ता बदलने से परमाणु कार्यक्रम पर कोई असर नहीं पड़ा। यह कार्यक्रम अब पूरी तरह से पाकिस्तानी सेना और ISI के नियंत्रण में था और इस पर एक राष्ट्रीय सहमति बन चुकी थी। पाकिस्तान ने परमाणु बम तो बना लिया था लेकिन उसे तहख़ाने में बंद रखा था।
1989-90 में दुनिया तेज़ी से बदली। बर्लिन की दीवार गिरी, शीत युद्ध ख़त्म हुआ और सोवियत सेना अफ़ग़ानिस्तान से वापस चली गई। अब अमेरिका को पाकिस्तान की रणनीतिक ज़रूरत पहले जैसी नहीं रही। नतीजा? अक्टूबर 1990 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज एच. डब्ल्यू. बुश ने पहली बार कांग्रेस को यह सर्टिफ़ाई करने से इनकार कर दिया कि पाकिस्तान के पास परमाणु बम नहीं है। इसके साथ ही पाकिस्तान को मिलने वाली अमेरिकी सैन्य और आर्थिक सहायता पूरी तरह बंद कर दी गई। F-16 विमानों की डिलीवरी भी रोक दी गई।
अब पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने लगा कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम को रोके या पीछे ले जाए लेकिन पाकिस्तान ने ऐसा नहीं किया। वह दहलीज़ पर खड़ा इंतज़ार कर रहा था, शायद किसी सही मौक़े का।
यौम-ए-तकबीर: पोखरण-II और चागाई
वह मौक़ा आया मई 1998 में। भारत में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की नई सरकार बनी थी। 11 और 13 मई 1998 को, भारत ने पोखरण में पांच परमाणु परीक्षण किए। भारत के इस कदम से पाकिस्तान में भूचाल आ गया। प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ पर ज़बरदस्त दबाव बना कि वह भारत को उसी की भाषा में जवाब दें। दूसरी तरफ़, अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन लगातार नवाज़ शरीफ़ को फ़ोन करके संयम बरतने और परीक्षण न करने की अपील कर रहे थे। उन्होंने आर्थिक सहायता पैकेज और सुरक्षा गारंटी का लालच भी दिया। चीन भी नहीं चाहता था कि पाकिस्तान परीक्षण करे।
नवाज़ शरीफ़ एक बड़ी दुविधा में थे। परीक्षण करने का मतलब था अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध और आर्थिक तबाही। परीक्षण न करने का मतलब था घरेलू स्तर पर भारी विरोध और शायद सेना द्वारा तख़्तापलट का ख़तरा। आख़िरकार, नवाज़ शरीफ़ ने दबाव के आगे झुकते हुए परीक्षण करने का फ़ैसला कर लिया।
तैयारी तेज़ी से शुरू हुई। परीक्षण स्थल चुना गया बलूचिस्तान प्रांत की चागाई पहाड़ियों का वीरान इलाक़ा। यहां पहले से ही सुरंगें बनाकर रखी गई थीं। परमाणु डिवाइसों को कहुता और PAEC की फैसिलिटीज़ से लाकर इन सुरंगों में फिट किया गया। 28 मई 1998, दोपहर के 3 बजकर 16 मिनट। पाकिस्तान ने एक के बाद एक पांच सफ़ल परमाणु परीक्षण किए। बताया गया कि इनमें चार कम क्षमता वाले फ़िजन बम थे और एक ज़्यादा क्षमता वाला थर्मोन्यूक्लियर डिवाइस। इन परीक्षणों को 'चागाई-I' कहा गया। दो दिन बाद, 30 मई 1998 को, पाकिस्तान ने खारान रेगिस्तान में एक और परमाणु परीक्षण किया -'चागाई-II'। पाकिस्तान ने दुनिया को दिखा दिया कि वह भी अब एक परमाणु शक्ति है। इस दिन को पाकिस्तान में 'यौम-ए-तकबीर' महानता का दिन के रूप में मनाया जाता है।
जैसे ही परीक्षणों की ख़बर फैली, पूरे पाकिस्तान में जश्न का माहौल बन गया। लोग सड़कों पर निकल आए, ढोल बजाए गए, मिठाइयां बांटी गईं। बरसों की मेहनत और इंतज़ार का फल मिल गया था और इस जश्न के सबसे बड़े नायक बनकर उभरे डॉक्टर अब्दुल क़ादिर ख़ान। कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई थी। डॉ. ख़ान की शोहरत के पीछे एक और स्याह सच छिपा था, जो जल्द ही दुनिया के सामने आने वाला था।
एटम बम का बाज़ार और बदनाम वैज्ञानिक
मई 1998 के चागाई परमाणु परीक्षणों ने डॉक्टर अब्दुल कादिर ख़ान को पाकिस्तान में रातों-रात मशहूर कर दिया। उन्हें 'मोहसिन-ए-पाकिस्तान' का ख़िताब मिला, उनकी तस्वीरें नोटों पर छापने की मांग उठी और वह देश के सबसे सम्मानित और शक्तिशाली व्यक्तियों में से एक बन गए लेकिन इस हकीकत का एक दूसरा पहलू भी था। डॉक्टर अब्दुल क़ादिर ने सिर्फ़ पाकिस्तान को ही बम बनाकर नहीं दिया। बल्कि दुनिया की कई तानाशाही रिजीम्स के पास भी बम यही से पहुंचा। दरअसल, परमाणु उपकरण लाने के लिए 1970 और 80 के दशक में डॉक्टर अब्दुल कादिर ने जो इंटरनेशनल नेटवर्क बनाया था, उसी नेटवर्क का इस्तेमाल वह 1980 के दशक के अंत से गुपचुप तरीक़े से परमाणु तकनीक और उपकरण बेचने के लिए कर रहे थे।
ख़ान का परमाणु बाज़ार एक जटिल नेटवर्क के ज़रिए काम करता था। इसके केंद्र में ख़ुद डॉ. ख़ान थे, जो कहुता (KRL) से इसे चलाते थे। इस नेटवर्क के ज़रिए क्या-क्या बेचा जा रहा था? सेंट्रीफ़्यूज का डिज़ाइन और पुर्ज़े बेचे जा रहे थे। ख़ान के नेटवर्क से जुड़े वैज्ञानिक और इंजीनियर ग्राहक देशों में जाकर प्लांट लगाने और चलाने में मदद करते थे। सबसे ख़तरनाक बात यह थी कि ख़ान ने कम से कम एक ग्राहक (लीबिया) को उसी चीनी बम का डिज़ाइन भी बेचा था जो पाकिस्तान ने हासिल किया था। ये सारा कारोबार बेहद गोपनीयता से किया जाता था। सामान को सामान्य मशीनरी बताकर भेजा जाता था। शिपमेंट के रूट बदले जाते थे। पैसे का लेन-देन हवाला या फर्ज़ी कंपनियों के ज़रिए होता था। गुप्त बैठकें दुबई, इस्तांबुल या कैसेब्लांका जैसे शहरों में होती थीं।
ख़ान नेटवर्क का सबसे बड़ा ग्राहक था दुनिया का सबसे अलग-थलग देश। पाकिस्तान और नॉर्थ कोरिया के बीच संपर्क 1990 के दशक की शुरुआत में स्थापित हुआ। यह एक सीधा सौदा था – मिसाइल के बदले परमाणु तकनीक। पाकिस्तान को बैलिस्टिक मिसाइल तकनीक की सख़्त ज़रूरत थी ताकि वह भारत के किसी भी शहर तक परमाणु बम पहुंचा सके। नॉर्थ कोरिया के पास सोवियत संघ से मिली स्कड मिसाइलों पर आधारित नोडोंग मिसाइल तकनीक थी। वहीं, नॉर्थ कोरिया अपने प्लूटोनियम आधारित परमाणु कार्यक्रम के साथ संघर्ष कर रहा था और उसे यूरेनियम एनरिचमेंट की तकनीक चाहिए थी।
सौदा हो गया। पाकिस्तान ने नॉर्थ कोरिया को सेंट्रीफ़्यूज तकनीक और उपकरण देने का वादा किया, बदले में नॉर्थ कोरिया ने पाकिस्तान को नोडोंग मिसाइल तकनीक और मिसाइलें दीं। इसी तकनीक पर पाकिस्तान ने गौरी नाम की मिसाइल बनाई। नार्थ कोरिया के अलावा डॉक्टर ख़ान के बड़े ग्राहकों में शमिक थे- ईरान और लीबिया। ईरान ने 1980 के दशक के अंत में दुबई स्थित बिचौलियों के ज़रिए ख़ान नेटवर्क से संपर्क साधा। ख़ान ने ईरान को सेंट्रीफ़्यूज डिज़ाइन और पुर्ज़े बेचे, जिससे ईरान ने पहला यूरेनियम एनरिचमेंट प्लांट खड़ा किया।
लीबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफ़ी दशकों से एटम बम का सपना देख रहे थे। कई असफल कोशिशों के बाद, उन्होंने 1990 के दशक के अंत में ख़ान नेटवर्क से संपर्क किया। लीबिया ने कथित तौर पर 10 करोड़ डॉलर से ज़्यादा की रक़म चुकाई।
ख़ान नेटवर्क का सबसे ख़ौफ़नाक पहलू था उसका अल-क़ायदा के साथ संभावित कनेक्शन। 1990 के दशक में अल-क़ायदा एक ख़तरनाक आतंकवादी संगठन के तौर पर उभर रहा था और उसका सरगना ओसामा बिन लादेन जन संहार के हथियार (WMD) हासिल करने की फ़िराक़ में था। यहां कहानी में दो और किरदारों का प्रवेश होता है – सुल्तान बशीरउद्दीन महमूद और चौधरी अब्दुल मजीद। ये दोनों पाकिस्तान के सम्मानित परमाणु वैज्ञानिक थे और PAEC में उच्च पदों पर काम कर चुके थे लेकिन दोनों की सोच कट्टरपंथी थी और वे तालिबान के बड़े समर्थक थे। रिटायरमेंट के बाद, उन्होंने उम्माह तामीर-ए-नौ (UTN) नाम की एक इस्लामिक चैरिटी संस्था बनाई, जो अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय थी।
9/11 हमलों के बाद जब अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया तो महमूद और मजीद को पाकिस्तानी अधिकारियों ने गिरफ़्तार कर लिया। अमेरिकी और पाकिस्तानी एजेंसियों द्वारा की गई पूछताछ में जो बातें सामने आईं, वह रोंगटे खड़े करने वाली थीं। महमूद और मजीद ने स्वीकार किया कि उन्होंने अगस्त 2000 से अगस्त 2001 के बीच अफ़ग़ानिस्तान के कंधार और काबुल में कई बार ओसामा बिन लादेन और उसके डिप्टी अयमान अल-ज़वाहिरी से मुलाक़ातें की थीं।
इन मुलाक़ातों में क्या बात हुई?
रिपोर्टों के अनुसार, महमूद और मजीद ने अल-क़ायदा नेताओं को परमाणु, रासायनिक और जैविक हथियार बनाने में तकनीकी मदद की पेशकश की थी। बात एक 'डर्टी बम' (रेडियोलॉजिकल बम) बनाने से लेकर एक साधारण परमाणु बम बनाने तक पहुंच गई थी।
दुनिया भर में परमाणु उपकरणों और डिजाइनों की स्मगलिंग करने वाले इस नेटवर्क का भंडाफोड़ कैसे हुआ? अक्टूबर 2003 में एक घटना घटी। इटली के तट के पास अमेरिकी और यूरोपीय एजेंसियों ने 'बीबीसी चाइना' नाम के एक जर्मन मालवाहक जहाज़ को रोका। इस पर मलेशिया की SCOPE फैक्ट्री में बने सेंट्रीफ़्यूज के हज़ारों पुर्ज़े लदे थे, जो दुबई के रास्ते लीबिया जा रहे थे। इन पुर्ज़ों और दस्तावेज़ों ने साफ़ तौर पर ख़ान नेटवर्क और लीबिया कनेक्शन को उजागर कर दिया। इस बीच सद्दाम हुसैन का हश्र देखकर मुअम्मर गद्दाफी ने अपने परमाणु कार्यक्रम से जुड़े सभी दस्तावेज़, अमेरिका और ब्रिटेन दिए। इनसे और पक्का हो गया कि दुनियाभर में परमाणु डिज़ाइन बेचने वाला और कोई नहीं डॉक्टर अब्दुल कादिर हैं।
अमेरिका के पास पुख़्ता सबूत थे। उन्होंने ये सबूत पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के सामने रखे और ख़ान के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए दबाव डाला। प्रेशर में आकर जनरल मुशर्रफ़ ने डॉ. ख़ान से पूछताछ शुरू की और फिर, 4 फ़रवरी 2004 को, पाकिस्तान के सरकारी टेलीविज़न पर एक हैरान करने वाला दृश्य सामने आया। डॉ. अब्दुल कादिर ख़ान ने लाइव टीवी पर आकर एक लिखित बयान पढ़ा, जिसमें उन्होंने परमाणु तकनीक फैलाने की 'पूरी ज़िम्मेदारी' ली और पाकिस्तानी सरकार और सेना को इससे बरी करने की कोशिश की। उन्होंने देश से माफ़ी मांगी।
यह एक तरह का स्टेज-मैनेज्ड इवेंट लग रहा था और इसके तुरंत बाद, अगले ही दिन, राष्ट्रपति मुशर्रफ़ ने टीवी पर आकर ऐलान किया कि उन्होंने डॉ. ख़ान को उनकी 'राष्ट्र सेवाओं' को देखते हुए माफ़ कर दिया है। डॉ. ख़ान पर कोई मुक़दमा नहीं चलाया गया। उन्हें इस्लामाबाद में उनके घर में नज़रबंद कर दिया गया। डॉ. ख़ान कई सालों तक नज़रबंद रहे। बाद में उन पर लगी पाबंदियां धीरे-धीरे कम कर दी गईं। सितंबर 2021 में उनकी मृत्यु हो गई। डॉक्टर अब्दुल कादिर ख़ान की बदौलत पाकिस्तान दुनिया का इकलौता इस्लामिक देश है, जिसके पास घोषित न्यूक्लियर हथियार हैं।
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