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ईसाई क्यों नहीं करवाते खतना, आखिर क्या है इसका इतिहास?

खतना एक ऐसा शब्द है जिसे एक धार्मिक प्रथा के तौर पर जाना जाता है। क्या आप जानते हैं कि इसकी शुरुआत कब, कहां और कैसे हुई?

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खतना का इतिहास, Photo Credit: Khabargaon

मिस्र में नील नदी के पश्चिमी किनारे पर, मेम्फिस शहर के सामने, सक्कारा नाम की एक जगह है। यहां पुराने राजवंशों के मकबरे हैं, मुर्दों का शहर। इसी शहर में एक प्राचीन मकबरा है, करीब 2400 ईसा पूर्व का । मकबरे के अंदर देवी-देवताओं की तस्वीरें हैं - किसी का सिर पक्षी जैसा, किसी का कीड़े जैसा, साथ में इंसान, शेर और नागों के चित्र। इसी कलाकारी के बीच, दरवाज़े की चौखट पर पत्थर तराशने वाले कारीगरों ने एक और चित्र उकेरा था: दो नौजवान लड़के, शायद किसी राजघराने के, जिन्हें कुछ सहायक पकड़े हुए हैं और पुजारी पत्थर के चाकुओं से एक रस्म पूरी कर रहे हैं। यह दुनिया में किसी भी सर्जिकल प्रक्रिया का सबसे पुराना ज्ञात चित्रण है, जो चार हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराना है। यह रस्म थी- खतना। 

 

खतना यानी लिंग के सिरे पर मौजूद चमड़ी की एक छोटी सी परत, जिसे फोरस्किन कहते हैं, उसे हटाने की प्रक्रिया। खतना को अधिकतर लोग धार्मिक पहचान के रूप में देखते हैं लेकिन इसकी कहानी धर्म से भी पुरानी है। खतने की शुरुआत कैसे हुई, कैसे यह यहूदी धर्म का अटूट हिस्सा बना, क्यों शुरुआती ईसाइयों ने इसे नकारा, मुसलमानों ने इसे क्यों अपनाया और कैसे पश्चिमी दुनिया में यह अचानक एक मेडिकल प्रक्रिया बन गया? जानेंगे इन सब सवालों के जवाब इस लेख में।

खतना कराने की शुरुआत कहां से हुई?

 

इतिहास के पन्नों पर खतने का पहला ठोस सबूत हमें प्राचीन मिस्र में मिलता है। हालांकि, यह प्रथा शायद लिखित इतिहास से भी कहीं ज़्यादा पुरानी है। जैसा कि हमने देखा, सक्कारा में मिला 2400 ईसा पूर्व का पत्थर का वह चित्र हमें मिस्र के पांचवें राजवंश के समय की एक झलक दिखाता है। नौजवान लड़कों को सहायकों ने मज़बूती से पकड़ा हुआ है ताकि वे हिल न सकें और पुजारी पत्थर के नुकीले औज़ारों से ऑपरेशन कर रहे हैं। उस पत्थर पर कुछ लिखा भी है, एक चेतावनी जैसी: 'इसे पकड़ो और बेहोश मत होने देना।'

 

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सक्कारा की नक्काशी खतने की प्रक्रिया का सबसे पुराना ज्ञात चित्रण है। हालांकि, इससे भी पुरानी मिस्र की ममी मिली हैं, जिनके परीक्षण से पता चलता है कि उनका भी खतना हुआ था। मिस्र के मकबरों से मिली कलाकृतियों और लेखन से पता चलता है कि खतना काफी आम था, खासकर पुरोहितों और राजपरिवार के लोगों में लेकिन सवाल उठता है कि मिस्र के लोग खतना करते क्यों थे? इसके ठीक-ठीक कारण पर इतिहासकार पूरी तरह सहमत नहीं हैं, क्योंकि प्राचीन मिस्र के दस्तावेज़ इस पर बहुत स्पष्ट जानकारी नहीं देते लेकिन कुछ कारण हो सकते हैं।

 

 

मसलन, सफ़ाई, धार्मिक शुद्धि, सामाजिन दिखाना- ये सब कारण हो सकते हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मिस्रवासी खुद को असभ्य लोगों, विदेशियों या गुलामों से अलग दिखाने के लिए खतना करते थे क्योंकि यह प्रथा हर जगह आम नहीं थी। एक दिलचस्प बात यह भी है कि मिस्र में शायद केवल लड़के ही नहीं, बल्कि कुछ मामलों में लड़कियों का भी खतना होता था, हालांकि इसके सबूत कम और विवादित हैं। मिस्र अकेला नहीं था। प्राचीन दुनिया में खतने के निशान और भी जगहों पर मिलते हैं। सीरिया, फ़ीनिशिया (आज का लेबनान) और इथियोपिया जैसी जगहों पर भी इसके प्रचलन के संकेत हैं। कुछ मानवविज्ञानी तो यह भी मानते हैं कि यह प्रथा पाषाण काल जितनी पुरानी हो सकती है, शायद शिकार या युद्ध में चोट से बचाने के लिए या किसी आदिम धार्मिक विश्वास के तहत शुरू हुई हो लेकिन मिस्र के सबूत सबसे पुराने और सबसे स्पष्ट हैं।

 

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अब्राहम का वादा

 

मिस्र से निकलकर अब हम कहानी को ले चलते हैं मध्य पूर्व के रेतीले मैदानों में, जहां एक खानाबदोश कबीले के सरदार, अब्राहम की कहानी शुरू होती है। यहूदी, ईसाई और इस्लाम, तीनों धर्म अब्राहम को अपना एक महत्वपूर्ण पैगंबर मानते हैं। यहूदी धर्मग्रंथ, जिसे ईसाई 'ओल्ड टेस्टामेंट' कहते हैं, उसकी पहली किताब 'उत्पत्ति' (Genesis) में खतने का ज़िक्र सीधे ईश्वर के हुक्म के तौर पर आता है। कहानी कहती है कि ईश्वर ने अब्राहम से एक वाचा (Covenant) बांधी, एक वादा किया। ईश्वर ने कहा कि वह अब्राहम को एक महान राष्ट्र का पिता बनाएगा, उसकी संतानें आसमान के तारों जितनी होंगी, और उन्हें एक Promised Land मिलेगा। इस वाचा के बदले में, ईश्वर ने अब्राहम और उसके सभी पुरुष वंशजों को एक निशानी धारण करने का हुक्म दिया – खतना।

 

Genesis में ईश्वर का स्पष्ट आदेश है: 'तुम्हारी वाचा, जो तुम मेरे और अपने बाद अपने वंश के साथ पालोगे, यह है: तुममें से प्रत्येक पुरुष का खतना किया जाएगा। तुम अपनी फोरस्किन का खतना करोगे और यह मेरे और तुम्हारे बीच वाचा का चिह्न होगा। पीढ़ी दर पीढ़ी, तुममें से हर लड़का, चाहे घर में पैदा हुआ हो या किसी परदेशी से पैसे देकर खरीदा गया हो, जो तुम्हारे वंश का नहीं है, जब वह आठ दिन का हो जाए तो उसका खतना किया जाएगा। जिस पुरुष का खतना न हुआ हो, वह अपने लोगों में से नाश किया जाएगा; उसने मेरी वाचा तोड़ी है।'

 

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इस तरह, यहूदियों के लिए खतना महज़ एक शारीरिक प्रक्रिया नहीं रह गया। यह बन गया: 
ईश्वर के साथ किया वादा: ईश्वर और यहूदी लोगों के बीच एक विशेष रिश्ते की शारीरिक निशानी
पहचान का चिह्न: यहूदी लोग मानते हैं कि खतना उनकी पहचान का हिस्सा है, जो उन्हें दूसरे समुदायों से अलग करता है
एक धार्मिक नियम: यहूदी धर्म के अनुसार यह ईश्वर का सीधा आदेश है, जिसे तोड़ना वादा तोड़ने जैसा है

यहूदियों में इस रस्म को 'ब्रित मिलाह' (Brit Milah) कहा जाता है, जिसका मतलब है 'खतने की वाचा', यह यहूदी जीवन के सबसे जरूरी संस्कारों में से एक है, जो बच्चे के जन्म के ठीक आठवें दिन किया जाता है। यह समारोह अक्सर घर पर या सिनेगॉग (यहूदी प्रार्थना स्थल) में होता है। इसे करने वाले विशेषज्ञ को 'मोहेल' (Mohel) कहा जाता है, जो धार्मिक नियमों और सर्जिकल प्रक्रिया दोनों में ट्रेंड होता है। समारोह के दौरान प्रार्थनाएं पढ़ी जाती हैं, बच्चे का हिब्रू नाम रखा जाता है और यहूदी समुदाय में उसका स्वागत किया जाता है।


सदियों तक, चाहे गुलामी हो, निर्वासन हो, या उत्पीड़न, यहूदियों ने 'ब्रित मिलाह' की इस परंपरा को जीवित रखा। यह उनके लिए सिर्फ़ एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि उनकी सामूहिक पहचान और अस्तित्व का प्रतीक बन गया। यहां तक कि जब प्राचीन यूनानी और रोमन शासकों ने, जो खतने को बर्बर मानते थे, इस पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की, तब भी यहूदियों ने छिपकर इसे जारी रखा क्योंकि यह उनके विश्वास से जुड़ा था।

 

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अब्राहमिक रिलीजंस में यहूदी धर्म के अलावा इस्लाम में भी खतने का महत्व है। हालांकि, कुरान में खतने का सीधा आदेश नहीं है, जैसा कि यहूदी धर्मग्रंथ में है लेकिन इसे पैगंबर इब्राहिम (अब्राहम) की एक महत्वपूर्ण सुन्नत (परंपरा या तरीका) माना जाता है, जिसका पालन करना मुसलमानों के लिए रेकमेंडेड है और कुछ इस्लामिक विचारधाराओं में अनिवार्य माना जाता है। हदीस में खतने का ज़िक्र कई बार आता है। एक प्रसिद्ध हदीस के अनुसार, पैगंबर मुहम्मद ने कहा, 'पांच चीजें फ़ितरह, यानी नेचुरल सफ़ाई का हिस्सा हैं: खतना करना, जंघा के बाल साफ करना, बगल के बाल साफ़ करना, नाखून काटना और मूंछें तराशना।'

 

इस्लाम में खतने का महत्व तीन कारणों के चलते है: 
पैगंबर इब्राहिम: मुसलमान मानते हैं कि इब्राहिम ने ईश्वर के आदेश पर अपना खतना किया था और उनका अनुसरण करना एक नेक काम है
सफ़ाई: यहूदी परंपरा की तरह, इस्लाम में भी सफ़ाई (तहारत) पर बहुत ज़ोर दिया जाता है और खतने को सफाई बनाए रखने में मददगार माना जाता है
धार्मिक पहचान: यह मुस्लिम समुदाय की एक पहचान बन गया है, खासकर उन इलाक़ों में जहां कई धार्मिक समुदाय साथ रहते हैं

 

यहूदी 'ब्रित मिलाह' से अलग, इस्लाम में खतने के लिए कोई निश्चित उम्र तय नहीं है। यह बचपन में किसी भी समय किया जा सकता है, जन्म के सातवें दिन से लेकर किशोरावस्था तक, यह रिवाजों पर निर्भर करता है। इसे करने वाला कोई धार्मिक विशेषज्ञ हो ज़रूरी नहीं, कोई प्रशिक्षित डॉक्टर या पारंपरिक खतना करने वाला भी कर सकता है। इसके साथ कोई बड़ा धार्मिक समारोह जुड़ा होना भी जरूरी नहीं है। हालांकि, कई जगहों पर इसे उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

 

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अब यह बात शायद संयोग है कि मिस्र, जहां खतना पहले से मौजूद था, वहीं से अब्राहम की कहानी जुड़ी है लेकिन अब एक और सवाल उठता है। अगर यहूदी और मुसलमान, दोनों अब्राहम को मानते हैं और खतना करते हैं, तो ईसाई, जो अब्राहम मानते हैं, उन्होंने इस प्रथा को क्यों छोड़ दिया? 

ईसाई खतना क्यों नहीं कराते?

 

ईसाई धर्म की शुरुआत जब हुई, तब रोमन साम्राज्य का दबदबा था। ईसाई धर्म के संस्थापक, ईसा मसीह (Jesus Christ), खुद एक यहूदी थे और उनका भी जन्म के आठवें दिन खतना हुआ था, जैसा कि यहूदी परंपरा है। उनके शुरुआती अनुयायी, जिन्हें Apostles कहा जाता है, वे भी यहूदी थे और खतना किए हुए थे। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि ईसाई धर्म ने धीरे-धीरे खतने की अनिवार्यता को खत्म कर दिया?
 
इसका जवाब हमें बाइबिल के 'न्यू टेस्टामेंट' में मिलता है, जहां शुरुआती चर्च में एक बड़े विवाद का ज़िक्र है। यह विवाद लगभग 50 ईस्वी में यरुशलम में हुआ और इसके दो मुख्य किरदार थे - सेंट पीटर और सेंट पॉल। सेंट पीटर, जो ईसा मसीह के सबसे करीबी शिष्यों में से थे, का मानना था कि गैर-यहूदी (Gentiles) जो ईसाई बनना चाहते हैं, उन्हें पहले यहूदी परंपराओं को अपनाना होगा, जिसमें खतना भी शामिल था। उनका तर्क था कि ईसा मसीह यहूदी मसीहा थे और चूंकि ईसा के फॉलोवर, अब्राहम की परंपरा में आते हैं, इसलिए जो वादा अब्राहम के साथ हुआ था, वह उन पर भी लागू होता है। यानी उन्हें भी खतना करवाना होगा।

 

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दूसरी तरफ थे सेंट पॉल। पॉल, सेंट बाद में बने। पहले उन्हें पॉल ऑफ़ तरसूस (Paul of Tarsus) के नाम से जाना जाता था और वह ईसाइयों के ख़िलाफ़ हुआ करते थे। बाद में उनका हृदय परिवर्तन हुआ और वह ईसाई धर्म के सबसे प्रभावशाली प्रचारकों में से एक बन गए। पॉल का तर्क बिलकुल अलग था। वह मानते थे कि ईसा मसीह का संदेश केवल यहूदियों के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए है। उनका कहना था कि ईश्वर के साथ नया रिश्ता अब शारीरिक चिह्न (खतना) पर नहीं, बल्कि ईसा मसीह में विश्वास और बपतिस्मा (Baptism) पर आधारित है। उन्होंने ज़ोर दिया कि गैर-यहूदियों पर खतना जैसी यहूदी परंपराओं का बोझ डालना गलत है और यह ईश्वर की कृपा के सिद्धांत के खिलाफ है।

 

यह बहस शुरुआती चर्च के लिए एक बड़ा संकट थी। अगर पीटर की बात मानी जाती तो ईसाई धर्म शायद यहूदी धर्म का ही एक पंथ बनकर रह जाता लेकिन सेंट पॉल के नज़रिए का फ़ायदा यह था कि इसने गैर-यहूदियों के लिए ईसाई बनने का रास्ता खोल दिया।


यरुशलम की धर्मसभा (Council of Jerusalem) में इस पर लंबी बहस हुई। अंत में, Apostles ने फैसला किया कि गैर-यहूदी ईसाइयों के लिए खतना अनिवार्य नहीं होगा। उन्हें केवल कुछ बुनियादी नैतिक नियमों का पालन करना था, जैसे मूर्तिपूजा से बचना, व्यभिचार न करना और गला घोंटकर मारे गए जानवरों का मांस या खून न खाना। यह एक क्रांतिकारी फैसला था, जिसने ईसाई धर्म को यहूदी जड़ों से अलग कर एक अलग धर्म बनाने की तरफ़ बढ़ाया।

 

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हालांकि, इसका मतलब यह नहीं था कि खतना पूरी तरह खत्म हो गया। कुछ ईसाई समुदाय, खासकर अफ्रीका और मध्य पूर्व में, कल्चरल या पारंपरिक कारणों से खतना करते रहे लेकिन मुख्यधारा के ईसाई धर्म के लिए, खतना अब अनिवार्य नहीं रहा। 

पश्चिम में खतने का मेडिकल युग

 

सदियों तक यूरोप और अमेरिका, जहां ईसाई धर्म का प्रभाव था, खतना काफी हद तक गायब रहा लेकिन 19वीं सदी के अंत में, एक बदलाव आना शुरू हुआ। खतना अचानक से पश्चिमी दुनिया में वापस लौटा लेकिन इस बार धार्मिक कारणों से नहीं, बल्कि मेडिकल कारणों से! यह कहानी शुरू होती है अमेरिका में। 1870 के दशक में, डॉ. लुईस सेयर (Dr. Lewis Sayre) जैसे कुछ प्रभावशाली डॉक्टरों ने यह सिद्धांत देना शुरू किया कि फोरस्किन में जमा गंदगी कई बीमारियों का कारण बन सकती है। उन्होंने दावा किया कि खतना करने से लकवा, मिर्गी, हर्निया जैसी समस्याओं की रोकथाम हो सकती है! चूंकि मेडिकल साइंस आज जैसा उन्नत नहीं था, ये सिद्धांत काफी लोकप्रिय हो गए।

 

खतने की वापसी का एक और बड़ा कारण था विक्टोरियन युग की नैतिकता। उस दौर में हस्तमैथुन को एक गंभीर बुराई और कई शारीरिक और मानसिक बीमारियों का जड़ माना जाता था। डॉक्टरों ने यह तर्क दिया कि खतना लिंग की संवेदनशीलता को कम करता है, जिससे लड़कों में हस्तमैथुन की इच्छा कम हो जाती है। इसे बच्चों को 'नैतिक रूप से शुद्ध' रखने का एक तरीका माना गया।

 

इन मेडिकल और नैतिक तर्कों के मेल ने अमेरिका में खतने को बढ़ावा दिया। डॉ. सेयर जैसे लोगों के प्रभाव के कारण, अस्पतालों में नवजात लड़कों का नियमित रूप से खतना किया जाने लगा, भले ही उनके माता-पिता किसी ऐसे धर्म को न मानते हों जहां खतना अनिवार्य हो। यह एक प्रिवेंटिव हेल्थ मेजर के रूप में देखा जाने लगा। यह चलन अमेरिका से कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड जैसे अंग्रेजी भाषी देशों में भी फैल गया।

 

इस तरह, एक प्राचीन धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथा ने पश्चिमी दुनिया में एक नया, धर्मनिरपेक्ष अवतार ले लिया लेकिन क्या ये मेडिकल दावे सही थे? क्या खतना वाकई उन बीमारियों से बचाता था जिनका दावा किया जा रहा था? ये सवाल आगे चलकर बड़े विवाद का विषय बनने वाले थे। अफ्रीका महाद्वीप खतने के मामले में एक अनूठी तस्वीर पेश करता है। अफ्रीका के कई समाजों में, खतना हज़ारों सालों से मर्दानगी का सबूत माना जाता रहा है। नेल्सन मंडेला अपनी आत्मकथा 'लॉन्ग वॉक टू फ्रीडम' में 16 साल की उम्र में खतना होने का जिक्र करते हैं।

 

21वीं सदी की शुरुआत में, अफ्रीका में खतने की कहानी में एक नया अध्याय जुड़ा - HIV/AIDS महामारी। कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों में यह पाया गया कि खतना किए हुए पुरुषों में HIV संक्रमण का खतरा, खतना न किए हुए पुरुषों की तुलना में लगभग 60% तक कम हो सकता है। इसके बाद, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और अन्य स्वास्थ्य संस्थाओं ने उन अफ्रीकी देशों में, जहां HIV का प्रकोप ज़्यादा था, पुरुषों के लिए वॉलंटियरी मेडिकल मेल सरकमसिजन (VMMC) को बढ़ावा देना शुरू किया। लाखों पुरुषों का मेडिकल खतना किया गया लेकिन यह अभियान विवादों से परे नहीं रहा। आज दुनियाभर में खतने पर बहस जारी है। एक तरफ वे लोग हैं जो इसके मेडिकल फायदों पर ज़ोर देते हैं। HIV के अलावा, कुछ स्टडीज़ बताती हैं कि खतना यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन (UTI), लिंग के कैंसर और कुछ यौन संचारित रोगों (STIs) के खतरे को कम कर सकता है। दूसरी तरफ, खतने के विरोधी हैं जो इसे अननेसेसरी सर्जिकल प्रोसीजर की तरह देखते हैं। मने क्या माता-पिता को यह अधिकार है कि वे अपने बच्चे के शरीर पर सर्जरी करवाएं, जबकि बच्चा इसके लिए सहमति नहीं दे सकता?
इस मामले में लड़कियों के खतने को लेकर अलग इश्यू है।
 
लड़कियों का खतना 

 

महिलाओं में खतना की प्रक्रिया को 'ख़फ़्ज़' या 'फ़ीमेल जेनाइटल म्युटिलेशन' कहते हैं। अफ़्रीका के कुछ देशों में यह परंपरा अपनाई जाती है। इसके अलावा भारत में मुस्लिम वोहरा समुदाय लड़कियों के खतने के लिए जाना जाता है। हालांकि, लड़कियों और लड़कों के बीच खतने के मामले में एक अन्तर है कि संयुक्त राष्ट्र के अनुसार लड़कियों का खतना मानवाधिकारों का उल्लंघन है। फिर भी यह परंपरा भारत समेत कई देशों में चलती है। कुछ साल पहले भारत के सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर काफ़ी बहस भी हुई थी।
 
सवाल यह कि लड़कियों का खतना कराया क्यों जाता है?

 

इसे लेकर धार्मिक नियमों का हवाला दिया जाता है। कहा जाता है कि कुछ हदीसों में इसका जिक्र है। हालांकि, सभी इस्लामिक विद्वान इससे इत्तेफाक नहीं रखते। 2018 में बीबीसी में सिन्धुवासिनी की रिपोर्ट के अनुसार, इसके अलग-अलग कारण बताए जाते हैं। पहले इसे सफ़ाई से जोड़ा जाता था। अब माना जाता है कि क्लिटरिस हटा देने से लड़की की यौन इच्छा कम हो जाएगी और वह शादी से पहले यौन संबंध नहीं बनाएगी। बीबीसी की रिपोर्ट एक खास टर्म के बारे में बताती हैं। इसके अनुसार क्लिटरिस को बोहरा समाज में 'हराम की बोटी' कहा जाता है। 
 
2018 में सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में एक PIL दाखिल की गई थी। कोर्ट ने माना कि लड़कियों का खतना, संविधान के आर्टिकल 21 का उल्लंघन है। चूंकि मामला धार्मिक आजादी से भी जुड़ा है इसलिए कोर्ट ने कोई अंतिम फैसला ना देते हुए इसे बड़ी बेंच के पास विचार के लिए रेफेर कर दिया। कुल मिलाकर कहें तो भारत में फ़ीमेल जेनाइटल म्युटिलेशन के लिए मौजूदा क़ानूनों के तहत सजा हो सकती है लेकिन अलग से कोई कोई कानून नहीं है।

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