ज्योतिबा फुले की असली कहानी क्या है जिसे दिखाने वाली फिल्म रोक दी गई?
हाल ही में 'फुले' फिल्म चर्चा में आई। ज्योतिबा फुले पर आधारित इस फिल्म की रिलीज रोक दी गई क्योंकि कुछ ब्राह्मण संगठनों ने इसका विरोध किया था।

ज्योतिबा फुले की पूरी कहानी, Photo Credit: Khabargaon
‘भारत के सामाजिक क्रांतिकारी’ नाम की एक किताब है। इसमें लेखक देवेंद्र कुमार बेसंतरी, 20वीं सदी की शुरुआत में केरल में फैले भयानक जातिवाद के बारे में लिखते हैं। उस दौर में पिछड़ी जातियों के लोगों को सवर्णों से एक तय दूरी बनाकर रखनी पड़ती थी। इस जातिवादी गणित के भी अलग-अलग स्तर थे। नंबूदरी ब्राह्मणों से पिछड़ी जाति के लोगों को 32 फीट दूर रहना होता था। नायरों को इढ़वा जाति के लोगों से 64 फीट की दूरी रखनी पड़ती थी और इढ़वा लोगों को अन्य निचली जातियों से पूरे 100 फीट दूर रहना होता था।
इतनी सटीक दूरी नापने के लिए क्या लोग उस ज़माने में इंच टेप लेकर चलते थे? इसका ज़िक्र बेसंतरी जी अपनी किताब में नहीं करते हैं।
कुछ ऐसी ही दर्दनाक तस्वीर डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर अपनी किताब ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ (जाति का विनाश) में खींचते हैं। वह लिखते हैं, 'पेशवाओं के राज में, जिस सड़क पर कोई सवर्ण हिंदू चल रहा हो, उस पर अछूतों को चलने की इजाज़त नहीं थी। अछूतों को हुक्म था कि वे अपनी कलाई या गले में काला धागा बांधें ताकि सवर्ण उन्हें गलती से भी ना छू लें। पेशवाओं की राजधानी पूना में तो अछूतों के लिए यह आदेश था कि वे अपनी कमर में झाड़ू बांधकर चलें ताकि उनके पैरों के निशान साथ-साथ मिटते जाएं। अछूतों को अपने गले में एक हांडी लटकाकर चलना पड़ता था ताकि अगर उन्हें थूकना हो तो उसी में थूकें। ज़मीन पर पड़े अछूत के थूक पर अगर किसी हिन्दू का पैर पड़ जाए, तो वह अपवित्र हो जाता था।’
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यह 19वीं और 20वीं सदी के भारत में जातिवाद की वह सच्चाई है जिसे दर्ज किया गया। सोचिए, न जाने कितनी अनकही कहानियां होंगी जो कभी लिखी ही नहीं जा सकीं, क्योंकि जिनकी ये आपबीती थीं, उन्हें तो लिखने-पढ़ने दिया ही नहीं गया। आज हम आपको कहानी बताएंगे उस शख्स की, जो घोर जातिवाद के माहौल में पैदा हुआ लेकिन जिसने झूठी जातीय श्रेष्ठता की नींव हिला दी। वह शख्स जिसने खुद भी शिक्षा हासिल की, अपनी पत्नी को भी पढ़ाया और शुरुआत की उस रास्ते की, जिस पर चलकर डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने पिछड़ों को अधिकार दिलाने की मुहीम को आगे बढ़ाया। हम बात कर रहे हैं महात्मा ज्योतिराव फुले की।
क्या है ज्योतिबा फुले की कहानी?
महात्मा ज्योतिराव फुले, जिन्हें लोग प्यार से ज्योतिबा फुले भी कहते हैं, उनकी कहानी पर बनी एक फ़िल्म को हाल ही में रिलीज़ होने से रोक दिया गया। वजह? कुछ ब्राह्मण संगठनों ने विरोध किया, जिसके बाद सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सेंसर बोर्ड) ने फ़िल्म से कुछ सीन और डायलॉग हटाने का आदेश दिया। इस वजह से फ़िल्म की रिलीज़ टल गई। सेंसर होने के बाद फ़िल्म कैसी होगी, ये तो उसके आने पर ही पता चलेगा लेकिन चलिए, हम आपको सुनाते हैं महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले की असली कहानी।
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जातिवाद का ज़हर
ज्योतिबा फुले का जन्म पुणे के पास, सातारा जिले के एक छोटे से गांव में 11 अप्रैल, 1827 को हुआ था। उनके परिवार का असली उपनाम 'गोरहे' था लेकिन फूलों का व्यापार करने के कारण उन्हें 'फुले' कहा जाने लगा। ज्योतिबा के पिता गोविंदराव फूलों की दुकान चलाते थे। इसी दुकान पर काम करते हुए एक दिन ज्योतिबा को जाति की कड़वी सच्चाई का पहला अनुभव हुआ। हुआ यूं कि उनके पिता की दुकान में एक मुंशी काम करता था, जो जाति से ब्राह्मण था। उसने अपनी शादी में ज्योतिबा को बुलाया। ज्योतिबा खुशी-खुशी चले भी गए लेकिन न तो ज्योतिबा को और न ही उस मुंशी लड़के को पता था कि ब्राह्मणों की शादी में किसी पिछड़ी जाति के व्यक्ति का आना मना है। जैसे ही ज्योतिबा शादी में पहुंचे, कोई चिल्लाया, 'अरे! इस शूद्र को यहां किसने आने दिया?' देखते ही देखते हंगामा मच गया और ज्योतिबा को अपमानित करके शादी से बाहर निकाल दिया गया।
इस घटना ने ज्योतिबा को झकझोर दिया। उन्हें समझ आ गया कि जातिगत भेदभाव से लड़ने का एकमात्र हथियार शिक्षा है। उस ज़माने में जब शिक्षा सिर्फ ऊंची जातियों का हक़ मानी जाती थी, पिता गोविंदराव ने सात साल के ज्योतिबा को एक मराठी प्राइमरी स्कूल में भर्ती करा दिया। हालांकि, कुछ समय बाद ही अपने क्लर्क की सलाह पर, गोविंदराव ने ज्योतिबा को स्कूल से निकालकर खेतों में काम करने भेज दिया। ज्योतिबा की पढ़ाई छूट गई लेकिन उनके एक पड़ोसी, गफ्फार बेग मुंशी, जो फ़ारसी पढ़ाते थे और लिज़िट नाम के एक ईसाई मिशनरी, इन दोनों ने गोविंदराव को समझाया कि ज्योतिबा को आगे ज़रूर पढ़ाना चाहिए क्योंकि उसमें प्रतिभा है। उनके समझाने-बुझाने के बाद, 1841 में, गोविंदराव ने ज्योतिबा को फिर से स्कॉटिश मिशन द्वारा चलाए जा रहे एक स्कूल में भर्ती कराया। स्कूल में ज्योतिबा का परिचय फ्रांसीसी दार्शनिक और अमेरिका के संस्थापकों में से एक, थॉमस पेन के विचारों से हुआ।
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थॉमस पेन की दो किताबों, 'राइट्स ऑफ मैन' (मनुष्य के अधिकार) और 'The Age of Reason' (विवेक का युग) ने ज्योतिबा पर गहरा असर डाला। 'राइट्स ऑफ मैन' में थॉमस पेन लिखते हैं, 'इंसान के अधिकार किसी क़ानून या नियम के मोहताज नहीं हैं, वे जन्मसिद्ध हैं।' धर्म की आलोचना करते हुए पेन लिखते हैं, 'मेरा अपना मन ही मेरा अपना चर्च (पूजा स्थल) है।' इन क्रांतिकारी विचारों की कसौटी पर जब ज्योतिबा ने जाति व्यवस्था को परखा, तो उन्हें समझ आया: 'अगर कोई धर्म एक इंसान को दूसरे इंसान से नीचा बताता है, तो वह सच्चा धर्म हो ही नहीं सकता।'
पढ़ाने जाते समय फेंका जाता था गोबर
ज्योतिराव यह समझ चुके थे कि असली बदलाव शिक्षा से ही आएगा। इसलिए, जाति व्यवस्था और सामाजिक बुराइयों से लड़ने के लिए उन्होंने सबसे पहले अपने घर से ही शुरुआत की। दिन भर के काम के बाद, रात को वह अपनी पत्नी सावित्रीबाई को अपने साथ बिठाते और पढ़ाते। इसके बाद, फुले दंपति ने मिलकर 1 जनवरी 1848 को पुणे के बुधवार पेठ के भिड़ेवाड़ा में लड़कियों के लिए भारत का पहला स्कूल खोला। और महज़ 17 साल की उम्र में सावित्रीबाई इस स्कूल की पहली शिक्षिका बनीं। शुरुआत में स्कूल में सिर्फ़ 9 लड़कियां पढ़ने आईं, लेकिन धीरे-धीरे यह संख्या 25 तक पहुंच गई।
1848 से 1852 के बीच फुले दम्पति ने लड़कियों के लिए कुल 18 स्कूल खोले। सावित्रीबाई फुले को यह बात अच्छी तरह समझ आ गई थी कि शिक्षा के बिना, खासकर अंग्रेजी शिक्षा के बिना, शूद्र और अतिशूद्र (दलित) समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो सकते। इसलिए, वह शूद्र-अतिशूद्रों को अंग्रेजी पढ़ने के लिए प्रेरित करती थीं। उन्होंने ‘अंग्रेजी मैया’ नाम की एक कविता भी लिखी, जिसमें वह कहती हैं: ‘अंग्रेजी मैया का दूध पियो, वही पोसती है शूद्रों को।’ उनके स्कूलों के पाठ्यक्रम में गणित, विज्ञान और समाजशास्त्र जैसे विषय भी शामिल थे। इन स्कूलों में पढ़ाने का तरीका भी सरकारी स्कूलों से बेहतर था।
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लेखिका दिव्या कंदुकुरी लिखती हैं, 'फुले दम्पति के स्कूलों में पढ़ाई का स्तर इतना अच्छा था कि सरकारी स्कूलों के मुकाबले उनके स्कूलों में पास होने वाले बच्चों का प्रतिशत ज़्यादा होता था।'लेकिन यह सब इतनी आसानी से नहीं हुआ। एक पिछड़ी जाति की महिला खुद पढ़े और दूसरों को भी पढ़ाए, यह समाज के ठेकेदारों को कैसे मंज़ूर होता? उन्होंने हर तरह से रुकावट डालने की कोशिश की - साम, दाम, दंड, भेद सब अपनाया गया। सबसे पहले घर से ही विरोध शुरू हुआ। लोगों ने ज्योतिराव के पिता गोविंदराव को धमकाया कि तुम्हारा लड़का धर्म के ख़िलाफ़ जा रहा है, समाज को बिगाड़ रहा है। दबाव में आकर गोविंदराव ने ज्योतिबा को स्कूल बंद करने को कहा। ज्योतिबा नहीं माने तो उनके पिता ने उन्हें पत्नी समेत घर से निकाल दिया। घर से बेघर होकर भी ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने पढ़ाने का काम जारी रखा।
जब सावित्रीबाई स्कूल पढ़ाने जातीं, तो रास्ते में लोग उन पर गोबर और कीचड़ फेंकते थे। गंदी-गंदी गालियां देकर उन्हें अपमानित करने की कोशिश करते थे। अफवाहें फैलाई गईं कि सावित्री के हाथ का खाना खाने से पेट में कीड़े पड़ जाएंगे। जब बातों और अफवाहों से काम नहीं चला, तो शारीरिक हमले शुरू हो गए। रिटायर्ड शिक्षाविद ललिता धारा, जिन्होंने फुले दम्पति और डॉक्टर आंबेडकर पर कई किताबें लिखी हैं, बताती हैं: 'लोग जब पीछा करते या गंदगी फेंकते तो सावित्रीबाई रास्ते में रुककर उन लोगों का सामना करतीं। वह बड़ी शालीनता से उनसे कहतीं - 'मेरे भाइयो, मैं तुम्हारी ही बहनों को पढ़ा रही हूं। तुम जो गोबर और पत्थर मुझ पर फेंक रहे हो, वह मेरे लिए फूलों जैसे हैं। मैंने अपनी बहनों को पढ़ाने का संकल्प लिया है और मैं यह काम करती रहूंगी। मैं तुम्हारे लिए भी प्रार्थना करूंगी।'
इसके बावजूद गालियों और अपमान का सिलसिला जारी रहा। एक बार तो सावित्रीबाई इन सब से इतनी तंग आ गईं कि उन्होंने स्कूल न जाने का मन बना लिया। तब उनके पति ज्योतिराव ने उनका हौसला बढ़ाया। ज्योतिराव ने सावित्रीबाई को दो साड़ियां दीं। एक साड़ी पहनकर वह स्कूल जातीं। रास्ते में लोग उस पर गोबर और कीचड़ फेंकते। स्कूल पहुंचकर वह गंदी साड़ी बदलकर दूसरी साफ साड़ी पहन लेतीं। जब शाम को घर लौटने का समय होता, तो वह फिर से वही गंदी साड़ी पहन लेतीं। ऐसा रोज़ चलता रहा लेकिन एक दिन हद हो गई।
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ललिता धारा लिखती हैं कि एक दिन एक गुंडा उनका रास्ता रोककर खड़ा हो गया। उसने धमकी दी कि अगर महार और मांघ (दलित जातियां) को पढ़ाना बंद नहीं किया, तो अंजाम बुरा होगा। तमाशा देखने के लिए भीड़ जमा हो गई। तब सावित्रीबाई ने हिम्मत दिखाई और उस गुंडे को एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया। तमाचा पड़ते ही गुंडा वहां से भाग खड़ा हुआ और भीड़ भी तितर-बितर हो गई। उस दिन के बाद फिर किसी ने सावित्रीबाई का रास्ता रोकने की हिम्मत नहीं की।
हत्यारों का मन बदला
उस दौर में राजा राम मोहन रॉय और केशवचन्द्र सेन जैसे समाज सुधारक भी शिक्षा के लिए काम कर रहे थे लेकिन क्योंकि ज़्यादातर संसाधन ऊंची जातियों के पास थे, इसलिए शिक्षा का फायदा भी पहले उन्हीं को मिलता था। इन सुधारकों का मानना था कि ज्ञान ऊंची जातियों से छनकर धीरे-धीरे निचली जातियों तक भी पहुंच जाएगा (Trickle-down theory)। हालांकि, यह तरीका कारगर नहीं था क्योंकि समाज में तो जन्म से ही तय था कि कौन पढ़ेगा और कौन सिर्फ सेवा करेगा। इसीलिए ज्योतिबा फुले ने 1873 में 'सत्य शोधक समाज' नाम का संगठन बनाया। इसका मकसद था शूद्रों और अतिशूद्रों (दलितों) को पंडे-पुजारियों, पुरोहितों और सूदखोरों की मानसिक और सामाजिक गुलामी से आज़ादी दिलाना।
सत्य शोधक समाज की शाखाएं मुम्बई और पुणे के गांवों और कस्बों में खोली गईं। सिर्फ एक दशक के अंदर इस संगठन ने पिछड़ों और दलितों के बीच एक नई चेतना जगा दी। इसके चलते कई लोगों ने अपनी शादियों और नामकरण जैसे संस्कारों के लिए पंडे-पुरोहितों को बुलाना बंद कर दिया। जब इन लोगों को धमकाया गया कि बिना संस्कृत मंत्रों के उनकी प्रार्थना भगवान तक नहीं पहुंचेगी, तब फुले ने समझाया कि अगर तेलगु, तमिल, कन्नड़, बांग्ला जैसी भाषाओं में की गई प्रार्थना भगवान तक पहुंच सकती है, तो अपनी मातृभाषा मराठी में की गई प्रार्थना क्यों नहीं पहुंचेगी? कई मौकों पर फुले ने खुद पुरोहित बनकर संस्कार करवाए और ऐसी प्रथा शुरू की, जिसमें पिछड़ी जाति का व्यक्ति ही पुरोहित बनता था।
जातिवाद की पोल खोलने के लिए उन्होंने 1873 में 'ग़ुलामगिरी' नाम की एक ज़बरदस्त किताब भी लिखी। इस किताब में ज्योतिबा फुले लिखते हैं: 'ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित लोग सिर्फ अपना पेट पालने के लिए, अपने झूठे ग्रंथों के ज़रिए, जगह-जगह भोले-भाले शूद्रों को उपदेश देते रहे। इसी वजह से शूद्रों के मन में ब्राह्मणों के लिए अंध श्रद्धा पैदा हो गई। ब्राह्मणों ने इन लोगों के मन में ईश्वर के प्रति जो भावना थी, उसे चालाकी से अपने प्रति समर्पित करवा लिया। यह कोई मामूली अन्याय नहीं है। इसका जवाब उन्हें ईश्वर को देना होगा।'
इतिहासकार रोजलिंन ओ’हेनलान ने अपनी किताब में एक किस्से का ज़िक्र किया है, जिससे पता चलता है कि ज्योतिबा आम लोगों को उनकी ही भाषा में संवाद का महत्व कैसे समझाते थे। एक दिन ज्योतिबा अपने एक दोस्त के साथ एक बगीचे में घूम रहे थे। बगीचे के बीच में एक कुआं था, जिससे पानी निकालकर सिंचाई करनी पड़ती थी। कुछ मजदूर बगीचे में काम कर रहे थे। जब खाने का समय हुआ, तो मजदूर कुएं के पास घेरा बनाकर बैठ गए। ज्योतिबा उनके पास गए और कुएं की मेड़ पर बैठकर कुछ गुनगुनाने लगे, साथ ही हाथ से ताल भी देने लगे। मजदूरों को यह देखकर हंसी आ गई। तब फुले ने उनसे कहा, ‘इसमें हंसने की क्या बात है?
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मेहनतकश इंसान फुर्सत में बाजा नहीं बजाता। बल्कि काम के साथ ही अपना संगीत भी गढ़ लेता है, फुले का यह सीधा और सरल अंदाज़ जहां आम लोगों को उनसे जोड़ता था, वहीं समाज के ताकतवर और रूढ़िवादी ठेकेदारों को चुभता भी था। सत्य शोधक समाज के बढ़ते प्रभाव और 'गुलामगिरी' जैसी किताबों ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था और उसके शोषण पर सीधी चोट की थी। इस बेबाक विरोध के कारण फुले कई लोगों की आंखों में बुरी तरह खटकने लगे थे और उनके दुश्मन उनकी जान लेने पर भी उतारू हो गए।
इसी नफरत का परिणाम था कि एक बार उनकी हत्या का प्रयास भी किया गया। ज्योतिबा फुले की जीवनी लिखने वाले धनंजय कीर अपनी किताब में इस मशहूर किस्से का जिक्र करते हैं। एक बार आधी रात के वक़्त जब ज्योतिबा सो रहे थे, दो लोग चुपके से उनके घर में घुस आए। आहट सुनकर ज्योतिबा की नींद टूट गई। उन्होंने आवाज़ लगाकर पूछा, 'कौन है?' इस पर एक आदमी बोला, 'हम तुम्हें यमलोक भेजने आए हैं।'
ज्योतिबा ने शांति से पूछा, 'मैंने तुम लोगों का क्या बिगाड़ा है?' उनमें से एक ने जवाब दिया, 'बिगाड़ा कुछ नहीं, लेकिन तुम्हें मारने के बदले हमें हज़ार रुपये मिलेंगे।' यह सुनकर ज्योतिबा बिस्तर से उठ बैठे और कहा, 'मेरी ज़िंदगी तो वैसे भी दलितों और पिछड़ों के काम आ रही है। इससे अच्छा और क्या होगा कि मेरी मौत से तुम जैसे कुछ गरीबों का भला हो जाए। मारो मुझे।' यह सुनकर दोनों हमलावर हक्के-बक्के रह गए। वे ज्योतिबा के पैरों में गिर पड़े और माफी मांगने लगे। इनमें से एक का नाम रोडे था और दूसरे का पंडित धोंडीराम नामदेव। ये दोनों बाद में ज्योतिबा के पक्के सहयोगी बने और उनके साथ मिलकर सत्य शोधक समाज का काम आगे बढ़ाया।
ज्योतिबा फुले पर छत्रपति शिवाजी महाराज का बहुत गहरा प्रभाव था। उन्होंने ही रायगढ़ जाकर पत्थरों और पत्तियों के ढेर के नीचे दबी शिवाजी महाराज की समाधि को खोजा था और उसकी मरम्मत करवाई थी। बाद में उन्होंने शिवाजी महाराज पर एक लंबी वीर-गाथा भी लिखी, जिसे मराठी में 'पोवाड़ा' कहा जाता है।
विधवाओं के लिए काम
जातिवाद के साथ-साथ ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं, खासकर विधवाओं की दयनीय स्थिति सुधारने के लिए भी बहुत काम किया। उस समय बाल विवाह आम था, जिसके कारण बहुत सी लड़कियां छोटी उम्र में ही विधवा हो जाती थीं। समाज इन विधवाओं के बाल काटकर उन्हें गंजा कर देता था। इसके पीछे तर्क यह दिया जाता था कि लड़कियां बदसूरत दिखें, ताकि कोई पुरुष उनकी तरफ आकर्षित न हो सके। इन असहाय विधवा स्त्रियों और लड़कियों का अक्सर यौन शोषण भी होता था।
अगर कोई विधवा गर्भवती हो जाती थी तो उसके पास समाज के डर से आत्महत्या करने या गर्भपात कराने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता था। गर्भपात में खतरा तो था ही, साथ ही अंग्रेज़ों ने इसके खिलाफ अंग्रेजों कानून भी बना रखा था। इस परेशानी को देखते हुए ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने 1863 में गर्भवती विधवाओं और बलात्कार पीड़िताओं के लिए एक सुरक्षित आश्रय गृह शुरू किया, जिसका नाम था 'बालहत्या प्रतिबंधक गृह।' यहां ऐसी महिलाओं की देखभाल की जाती थी, उन्हें रहने-खाने का ठिकाना मिलता था और वे सुरक्षित माहौल में बच्चे को जन्म दे सकती थीं।
इसके बाद उन्होंने विधवाओं को गंजा करने की क्रूर प्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाई। सावित्रीबाई फुले ने नाइयों को समझाया और उनकी हड़ताल करवाई, ताकि वे विधवाओं के बाल काटने से मना कर दें। इस तरह उन्होंने इस कुप्रथा का ज़ोर-शोर से विरोध किया।
पिछड़ों और महिलाओं के हक़ में आवाज उठाने के अलावा, फुले ने प्रशासनिक सुधारों के लिए भी काम किया। साल 1878 में, वायसरॉय लॉर्ड लिटन ने 'वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट' नाम का एक कानून पास किया, जिसने भारतीय भाषाओं के अखबारों की आज़ादी छीन ली थी। ज्योतिबा का संगठन 'सत्य शोधक समाज' 'दीनबंधु' नाम का एक अखबार निकालता था, जो इस कानून की चपेट में आ गया। इसके कुछ साल बाद, जब लॉर्ड लिटन पुणे आने वाला था, तो उसके स्वागत के लिए भव्य तैयारी की जा रही थी, जिसमें काफी पैसा खर्च होना था। ज्योतिबा फुले उस समय पूना नगरपालिका के सदस्य थे। उन्होंने लिटन के स्वागत में होने वाले इस फिजूलखर्च का कड़ा विरोध किया। जब नगरपालिका में स्वागत के लिए बजट का प्रस्ताव रखा गया, तो उसके खिलाफ वोट करने वाले फुले एकमात्र सदस्य थे।
बेटे को डॉक्टर बनाया
ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने सामाजिक बराबरी और मानवीय मूल्यों को सिर्फ उपदेशों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि अपनी निजी ज़िंदगी में भी अपनाया। एक बार ज्योतिराव ने काशीबाई नाम की एक गर्भवती ब्राह्मण विधवा को आत्महत्या करने से रोका और उसे अपने घर ले आए। सावित्रीबाई ने न सिर्फ़ उस महिला को अपने घर में पनाह दी, बल्कि उसके बच्चे यशवंत को गोद लेकर अपना बेटा बनाया, उसे अपना नाम दिया और उसकी परवरिश की। उन्होंने यशवंत को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया। फुले दम्पति ने अपने जीवनकाल में अनाथ और ज़रूरतमंद बच्चों के लिए कई छात्रावास और स्कूल खोले।
लगभग 63 साल तक समाज के सबसे दबे-कुचले वर्गों के लिए लगातार संघर्ष करने के बाद, 28 नवंबर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले का निधन हो गया। अपने आख़िरी दिनों में उन्हें लकवा मार गया था। जाते-जाते भी उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि समाज में व्यक्ति की पहचान जन्म से नहीं, बल्कि कर्म से होनी चाहिए। अपनी वसीयत में उन्होंने लिखा कि यदि उनका दत्तक पुत्र यशवंत नालायक निकले या बिगड़ जाए, तो उनकी संपत्ति किसी योग्य पिछड़े या दलित तबके के बच्चे को दे दी जाए, जो उसे शिक्षा और समाज सेवा में लगाए।
1890 में जब ज्योतिराव का निधन हुआ तो सावित्रीबाई ने खुद उनकी चिता को आग लगाई। उस ज़माने के हिसाब से यह एक बहुत बड़ा क्रांतिकारी कदम था, क्योंकि यह अधिकार सिर्फ पुरुषों को था। पति की मृत्यु के बाद, उन्होंने सत्य शोधक समाज के काम की बागडोर संभाली।
सावित्रीबाई सिर्फ एक समाज सुधारक और शिक्षिका ही नहीं, बल्कि एक कवियत्री भी थीं। अपने जीवन काल में उन्होंने दो काव्य पुस्तकें लिखीं। उनका पहला कविता संग्रह ‘काव्य फुले’ 1854 में छपा था, तब उनकी उम्र सिर्फ 23 साल थी। उनकी कविताओं का दूसरा संग्रह ‘बावनकशी सुबोधरत्नाकर’ 1891 में आया, जिसे सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवनसाथी ज्योतिबा फुले की जीवनी के रूप में लिखा था। इस तरह, वह आधुनिक भारत में मराठी की पहली महिला कवियत्री बनीं।
1897 में पुणे में भयंकर प्लेग फैला। उस महामारी के दौरान भी सावित्रीबाई और उनके बेटे यशवंत ने अपनी जान की परवाह न करते हुए मरीज़ों की सेवा के लिए एक क्लिनिक खोला। राजनीतिक कार्यकर्ता प्रमिला दंडवते लिखती हैं कि इस दौरान सावित्रीबाई रोज़ाना करीब 2000 अनाथ और गरीब बच्चों को भोजन मुहैया कराती थीं। दुर्भाग्य से, मरीज़ों की सेवा करते-करते वह खुद भी प्लेग की चपेट में आ गईं और 10 मार्च 1897 को 66 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। दुर्भाग्य की बात है कि आज फुले दंपति का योगदान महाराष्ट्र से बाहर लोग उतना नहीं जानते लेकिन भारतीय इतिहास में चाहे दलित चेतना का जागरण हो, या आरक्षण का क़ानून- सबमें महात्मा फुले के विचारों की छाप है।
1902 में कोल्हापुर के छत्रपति शाहू महाराज ने फुले के विचारों से प्रभावित होकर पिछड़ों के लिए 50 परसेंट आरक्षण लागू किया। इतना ही नहीं, शाहू महाराज ने ऐसे धार्मिक रीति-रिवाजों को बढ़ावा दिया जिनमें ब्राह्मण पंडितों की ज़रूरत ही न पड़े। इसी तरह डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के विचारों में आपको ज्योतिबा फुले का असर दिखाई देगा। आंबेडकर कहा करते थे- मेरे जीवन में तीन लोग मेरे गुरु रहे हैं - महात्मा बुद्ध, कबीरदास और ज्योतिबा फुले।
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