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मेवाड़ के राजा राणा सांगा अपनी गद्दी छोड़ना क्यों चाहते थे?

राणा सांगा के नाम को लेकर इन दिनों खूब चर्चा हो रही है। क्या आप जानते हैं कि एक समय ऐसा भी था जब राणा सांगा ने खुद ही अपनी गद्दी छोड़ने की पेशकश कर दी थी?

story of rana sanga

राणा सांगा की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

साल 1508 की बात है। चित्तौड़गढ़ दरबार में छाए सन्नाटे के बीच एक शख्स दरबार में दाखिल होता है। एक योद्धा जिसके बारे में कहा जाता था कि उसने हिंदुस्तान के तीन सुल्तानों के पैर बांध दिए थे। महराणा सांगा उस दिन दरबार में आए लेकिन सिंहासन पर बैठने के बजाय, उन्होंने कुछ ऐसा किया कि दरबारी हक्के-बक्के रह गए। परंपरा के अनुसार, मेवाड़ के शासक अभिवादन करते हुए हाथ को सिर्फ छाती तक उठाते थे लेकिन उस रोज़ कुछ अलग हुआ। राणा सांगा ने एक आम व्यक्ति की तरह अपना दाहिना हाथ सिर तक उठाकर सबको प्रणाम किया। इसके बाद सिंहासन पर बैठने के बजाय, वह जाकर सीधे फर्श पर बैठ गए। 

 

दरबारियों में से एक, सलूंबर के रावत रतन सिंह ने हिम्मत जुटाकर कारण पूछा। तब महाराणा खड़े हुए, सबकी ओर मुखातिब होकर बोले, 'एक पुराना नियम है कि जब किसी मूर्ति का हिस्सा टूट जाए, तो वह पूजा के लायक नहीं रहती। उसकी जगह नई मूर्ति स्थापित की जाती है।' दिल्ली, मालवा और गुजरात को जीतने वाले राणा सांगा गद्दी छोड़ने की पेशकश कर रहे थे- क्यों? इस सवाल का एक जवाब नहीं था। अस्सी उत्तर थे, जिन्हें किसी कलम से नहीं, बल्कि तलवार की धार से लिखा गया था, वह भी राणा सांगा के सीने में। कौन थे राणा सांगा? क्या थी महाराणा सांगा के अस्सी घावहं की कहानी? राणा सांगा की एक हाथ और एक आंख किस लड़ाई में गई? क्यों राणा सांगा ने अपने भतीजे की हत्या करने वाले बहादुर खान को माफ़ कर दिया? कैसे हुई राणा सांगा की मृत्यु? पूरी कहानी जानेंगे इस एपिसोड में।
 
मेवाड़ की कहानी

 

शुरू से शुरुआत करते हैं। मेवाड़ के इतिहास में कीर्ति स्थापित करने का श्रेय जाता है महाराणा कुम्भा को। जिन्होंने 15वीं शताब्दी में मेवाड़ को एक शक्तिशाली राज्य बनाया। हालांकि, जैसा अक्सर होता है। जहां पावर वहां कॉन्फ्लिक्ट। साल 1468, महाराणा कुम्भा के अपने ही बेटे उदा ने राजगद्दी के लिए उनकी हत्या कर दी। उदा को मेवाड़ में इसी कारण 'हतियारो' कहा गया। चार साल तक उदा का राज चला। उसके बाद गद्दी संभाली राणा रायमल ने। राणा रायमल ने 35 साल से अधिक मेवाड़ पर शासन किया। इनके शासन काल में एक ऐसी घटना घटी, जिसके बारे में कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है, 'इंसानी इतिहास में जंग के दौरान शायद इससे अनूठी घटना नहीं घटी।'

 

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राणा रायमल के भाई सूरजमल खुद को गद्दी का दावेदार समझते थे। उन्होंने रायमल के खिलाफ मदद मांगी मालवा के सुल्तान नसीरुद्दीन खिलजी से। खिलजी की फौज ने मेवाड़ के दक्षिणी इलाके पर कब्ज़ा कर लिया। राणा रायमल ने जवाबी कार्रवाई की। युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में रायमल पिछड़ रहे थे लेकिन तभी उनके बड़े बेटे पृथ्वीराज जंग के मैदान में एंटर हुए और कहानी पलट गई। लड़ाई कई दिनों तक चली इसलिए रात को दोनों सेना पीछे हट जाती थीं। एक रात युद्ध के बाद पृथ्वीराज अपने चाचा सूरज मल से मिलने गए। सूरजमल अपने तम्बू में बैठे हुए घाव पर मरहम लगा रहे थे लेकिन जैसे ही पृथ्वीराज को देखा, खुशी से बोले, तुम्हें देखकर मेरे घाव पूरी तरह ठीक हो गए हैं। सोचिए, दोनों अभी दिन भर जंग लड़ चुके थे लेकिन रात को चाचा-भतीजा ने मुलाक़ात की। साथ बैठकर एक ही थाली में खाना खाया। भोजन पूरा होने के बाद पृथ्वीराज ने विदा ली। जाते हुए बोले, चलिए अब कल युद्ध करेंगे। सूरजमल ने जवाब दिया, जल्दी आना।


 
इस युद्ध में जीत के बाद पृथ्वीराज का कद और ऊंचा हो गया। साथ ही बड़ा बेटा होने के चलते वह गद्दी के अगले वारिस भी थे लेकिन फिर एक और घटना हुई, जिसने मेवाड़ के इतिहास का रुख पलट दिया। राणा रायमल के तीन बेटे - पृथ्वीराज, जयमल, संग्राम सिंह - तीनों खुद को गद्दी का उत्तराधिकारी मानते थे। कहानी कहती है कि इस बात का फैसला करने के लिए तीनों चारणीदेवी के पास पहुंचे। वहां सूरजमल भी थे। मंदिर में पहले पृथ्वीराज और जयमल घुसे, संग्राम सिंह अंत में आए और वहां रखी बाघ की खाल पर बैठ गए। अगला वारिस कौन होगा, कहा जाता है, इस सवाल पर देवी ने कहा, 'बाघ की खाल पर बैठने वाला ही मेवाड़ का राजा बनेगा।' यह सुनते ही पृथ्वीराज को गुस्सा आ गया। उन्होंने अपनी तलवार से संग्राम सिंह पर हमला कर दिया। सूरजमल ने बीच बचाव किया लेकिन इस हमले में संग्राम सिंह की एक आंख चली गई।

 

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खून से लथपथ संग्राम सिंह वहां से भाग निकले। उन्होंने अजमेर में मुखिया राव करम चंद के यहां शरण ली। राणा संग्राम सिंह की आंख कैसे गई, इसी प्रसंग से जुड़ा एक और किस्सा है। जो काफी मिलता जुलता है। राजपुताना का इतिहास में गौरीशंकर ओझा लिखते हैं, तीनों भाई एक रोज़ एक ज्योतिष को अपनी कुंडली दिखाने गए। ज्योतिष ने संग्राम सिंह के राजा बनने की बात कही। जिसे सुनकर बाकी दोनों भाइयों को गुस्सा आ गया। लिट्रल कोट करें तो गौरीशंकर ओझा लिखते हैं, 'पृथ्वीराज ने तलवार की हूल मारी जिससे संग्राम सिंह की आंख फूट गई।' इस घटना के कुछ समय बाद जयमल और पृथ्वीराज दोनों मारे गए। राणा रायमल को जब खबर मिली कि संग्राम सिंह जिंदा हैं। उन्हें वापस मेवाड़ बुलाकर गद्दी पर बिठाया गया और इस तरह संग्राम सिंह बन गए राणा सांगा- मेवाड़ के सम्राट। 


राणा सांगा और तीन जंग

राणा सांगा के लिए राजस्थान में एक चारण गीत गाया जाता है। 
"पूरब दिसा में इब्राहीम, नहिं बढ़ सकत आगे पांव
 पश्चिम मुजफ्फर नहीं बढ़े, दक्खिन महमूद शाह। 
तीनों सुल्तानों के पांव, बांधे सांगा महाराव"

राणा सांगा के गद्दी पर बैठते वक्त मेवाड़ के तीन दुश्मन थे- दिल्ली, मालवा और गुजरात। 

 

दिल्ली सल्तनत के सुलतान इब्राहिम लोदी से राणा सांगा का कई बार सामना हुआ। जिनमें सबसे फेमस हैं, खतौली और धौलपुर की जंग। इन्हीं में लड़ाई के दौरान उनका बायां हाथ कट गया था। एक पैर घायल हुआ और शरीर पर 80 घाव आए। ठीक होने में कई महीने का समय लगा और इसी के बाद वह प्रसंग आया जब राणा ने भरे दरबार में गद्दी छोड़ने की पेशकश कर डाली थी। हरबिलास शारदा, राणा सांगा के जीवन पर लिखी किताब में बताते हैं, 'महाराणा सांगा मध्यम कद के थे लेकिन मांसपेशियों की अपार शक्ति के धनी थे। रंग गोरा था और आंखें असाधारण रूप से बड़ी थीं। एक हाथ, एक आंख, जाने के बाद भी राणा सांगा की आभा में कोई कमी नहीं आई थी। लिहाजा गद्दी छोड़ने की पेशकश पर तमाम सरदारों ने एकमत से उन्हें सिंहासन दोबारा ग्रहण करने को कहा।'

 

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दिल्ली सल्तनत को जंग में हराने के बाद राणा सांगा के लिए अगली बड़ी चुनौती थी - मालवा। मेवाड़ की सीमाएं मालवा से सटी थीं। यहां के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय नाममात्र के शासक थे। असली ताकत थी, सरदार मेदनी राय के हाथों में, जिसे सुल्तान ने अपना प्रधानमंत्री बनाया था। मेदनी राय से जलन के कारण जब बाकी सरदारों ने सुलतान के कान भरने शुरू किए, उन्होंने मेदनी राय को ही मरवाने की ठान ली। हालांकि, मेदनी राय बच गए और सुलतान खिलजी को मालवा छोड़कर गुजरात में शरण लेनी पड़ी। गुजरात की मदद से खिलजी ने मेदनी राय के क्षेत्र गगरौन पर हमला किया चूंकि गगरौन मेवाड़ की जागीर था, लिहाजा राणा सांग भी इस लड़ाई में शामिल हो गए।
 
एक विशाल सेना के साथ उन्होंने चित्तौड़ से कूच किया। गुजरात और महमूद खिलजी की संयुक्त फौज को हराया, यहां तक कि खिलजी को बंदी भी बना लिया। महमूद खिलजी 6 महीने तक चित्तौड़ की कैद में रहे। बाद में राणा सांगा ने खिलजी को उनकी जागीर वापिस सौंप दी। किस्सा है कि एक रोज़ राणा सांगा ने खिलजी को कुछ फूल देने चाहे। तब खिलजी ने कहा, 'चीजें देने के दो तरीके होते हैं - हाथ ऊपर हो तो मतलब सामने वाला नीचे है जबकि हाथ नीचे है तो सामने वाला ऊपर। दूसरा तरीका मुश्किल है क्योंकि मैं आपका कैदी हूं लेकिन फिर भी मैं किसी भिखारी की तरह आपके सामने हाथ नहीं फैलाना चाहता।'

 

यह सुनकर राणा सांगा ने जवाब दिया, 'फूलों के साथ मैं आपका राज्य आपको लौटाता हूं।' इस प्रंसग की तरफदारी करते हुए अबुल फज़ल ने अकबरनामा में लिखा है, 'राजपूत अपने दुश्मन को भी बख्श देते हैं।' मालवा के बाद, अगला नंबर आया गुजरात का। गुजरात के शासक थे- मुज़फ्फर शाह और उनकी रियासत काफी ताकतवर मानी जाती थी। गुजरात और मेवाड़ के बीच अदावत शुरू हुई ईडर नाम की एक छोटी सी रियासत के चलते। ईडर में सत्ता संघर्ष के चलते दो पाले बने। एक तरफ थे राय मल, दूसरी तरफ भार मल। राणा सांगा ने रायमल का साथ दिया। वहीं भार मल की मदद की मुजफ्फर शाह ने। कई छोटी लड़ाइयों के बाद 1520 में गुजरात के सुल्तान ने एक बड़ा हमला किया। राणा सांगा ने जवाबी हमले में ईडर पर चढाई की। वहां का गवर्नर भागकर अहमदनगर के किले में छिप गया। राणा ने तुरंत किले का घेरा डाल दिया। इस लड़ाई का भी एक दिलचस्प प्रसंग है।

 

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हुआ यूं कि राणा सांगा की फौज कई कोशिशों के बावजूद अहमदनगर किले को तोड़ नहीं पा रही थी। किले का दरवाजा बहुत मजबूत था। उस पर लोहे के लंबे कांटे लगे थे। हाथी भी नाकाम थे। ऐसे में राणा के साथी दुंगेर सिंह चौहान के बेटे कान्ह सिंह ने एक साहसी कदम उठाया। कान्ह सिंह ने अपने हाथी को दरवाजे पर धक्का मारने का इशारा दिया और खुद दरवाजे के कांटों पर कूद गए। जब हाथी ने धक्का मारा, कांटे कान्ह सिंह के शरीर में धंस गए। उन्होंने अपने शरीर को ढाल की तरह इस्तेमाल किया। इस कवायद में कान्ह सिंह की जान चली गई लेकिन किले का दरवाजा तोड़ने में वह सफल रहे। महाराणा की फौज इसके बाद गुजरात में दाखिल हुई और सुल्तान की सेना को अहमदाबाद तक खदेड़ कर उत्तरी गुजरात पर कब्ज़ा जमा लिया।
 
राणा सांगा की ताकत अब चरम पर थी। सात हज़ार जागीरदार, 80 हजार घुड़सवार, सात राजा, नौ राव और 104 रावल उनके साथ थे। उनके पास पांच सौ जंगी हाथी थे। मारवाड़, जयपुर, ग्वालियर, अजमेर, चंदेरी - ये तमाम रियासतें या तो उनकी सहयोगी थी, या उनके अधीन। मेवाड़ की ताकत का अंदाज़ा ऐसे लगाइए कि गुजरात मालवा और दिल्ली- तीनों एकजुट होकर मेवाड़ के खिलाड़ लड़े। साल 1521 में गुजरात और मालवा की फौज ने मिलकर मंदसौर के किले पर हमला किया। वहीं इब्राहिम लोदी ने रणथम्बौर पर हमले की कोशिश की लेकिन यहां भी उन्हें हार नसीब हुई।

 

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गुजरात के साथ अदावत का एक लंबा दौर चला। किस्सा है कि एक बार गुजरात का शहजादा बहादुर खान अपने भाई से झगड़कर मेवाड़ आया। मेवाड़ ने उसे शरण दी। हरबिलास शारदा अपनी किताब में बताते हैं कि राणा की मां बहादुर खान को बेटा कहकर बुलाती थीं। एक शाम, राणा के भतीजे ने बहादुर को दावत पर बुलाया। नाच के दौरान, एक नर्तकी की खूबसूरती ने बहादुर का ध्यान खींचा। पता चला नर्तकी अहमदनगर के काज़ी की बेटी थी। उसने बताया कि मेवाड़ के हमले में काजी की मौत हो गई थी और लड़की को नर्तकी बनना पड़ा। यह सुनकर बहादुर खान गुस्से में आ गया। उसने राणा के भतीजे पर हमला करके उसे मार डाला। राजपूत बहादुर खान को मार डालते लेकिन राणा सांगा की मां ने उसे बचा लिया। बाद में यही बहादुर खान गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह बने।

बाबर और खानवा 

 

दिल्ली गुजरात और मालवा को जीतने के बाद राणा सांगा उत्तर भारत के सबसे ताकतर शासक बन गए थे लेकिन उनके सामने अगली चुनौती थी बाबर की। ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर! तैमूरलंग और चंगेज़ खान का वंशज। दावा किया जाता है कि बाबर को हिंदुस्तान आने का न्यौता देने वाले राणा सांगा ही थे। कहानी में आगे बढ़ते हैं। 1526 की बसंत, बाबर ने भारत का रुख किया। पानीपत के ऐतिहासिक मैदान पर सुल्तान इब्राहिम लोदी से सामना हुआ। बाबर इस युद्ध को जीत गए। लोदी की मौत के बाद दिल्ली बाबर के कब्जे में आ गई लेकिन एक बड़ी चुनौती अब भी उनके सामने थी। दिल्ली और मेवाड़ के बीच बयाना का किला, रणनीतिक महत्व रखता था। बयाना का किला निज़ाम खान के अधीन था। जो खुद मेवाड़ का एक जागीरदार था।

 

बाबर और राणा सांगा के बीच खुद को फंसता देख। निज़ाम खान ने दोनों तरफ खेलने की कोशिश की। बाबर को बताया कि वह सांगा का वफादार है और सांगा को बताया कि बाबर उसे वफादार रहने नहीं देता। सांगा रणथंभौर से निज़ाम खान के खिलाफ आगे बढ़े जबकि बाबर ने निज़ाम खान को रोकने के लिए तर्दी बेग को भेजा। निजाम खान मेवाड़ की फौज के आगे टिक नहीं सकता था। लिहाजा उसने बयाना का किला बाबर को सौंपने में ही अपनी भलाई समझी और बदले में दोआब में एक दूसरी जागीर हासिल कर ली। यानी बयाना पर बाबर का कब्ज़ा हो गया। बयाना में पहली बार मुग़ल फौज और मेवाड़ का आमना सामना हुआ। दिलचस्प बात यह कि इस जंग में इब्राहिम लोदी का भाई महमूद लोदी और मेवात के नवाब हसन खान ने राणा सांगा का साथ दिया और बयाना में मुग़ल फौज हार गई। स्कॉटिश इतिहासकार विलियम एर्स्किन के अनुसार, 'बयाना में मुग़लों को अहसास हुआ कि उनका सामना अफ़ग़ानों से कहीं भयंकर सेना के साथ हुआ है। राजपूत किसी भी वक्त जंग के मैदान में दो-दो हाथ करने के लिए तैयार रहते थे और अपने सम्मान के लिए जान देने से भी उन्हें रत्ती भर गुरेज नहीं था।'

 

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इस जंग में हार के बाद मुग़ल फौज का मनोबल कमजोर हुआ। बाबरनामा में बाबर खुद लिखते हैं, 'काफिरों ने वह भयंकर युद्ध किया कि मुग़ल सेना का मनोबल टूट गया, वह घबरा गए थे।' बाबर ने अपनी सेना के मनोबल को बढ़ाने के लिए एक अंतिम दांव चला। सबसे सामने शराब के प्याले तोड़ते हुए उन्होंने शराब न पीने की कसम खाई। साथ ही सैनिकों को भी कुरान पर हाथ रखकर कसम खिलाई कि या तो वे जीतेंगे या मर जाएंगे। 16 मार्च 1527 के रोज़ दोनों सेनाओं का एक और बार आमना सामना हुआ। आगरा के 60 किलोमीटर पश्चिम में स्थित खानवा में। बाबरनामा के अनुसार राणा सांगा की सेना में 2 लाख सैनिक थे। कुछ और इतिहासकार इस संख्या को 40 हजार जो बाकी कुछ एक लाख बताते हैं। हालांकि, इस बात को लेकर सभी एकमत थे कि राणा सांगा की सेना बाबर से कहीं ज्यादा शक्तिशाली थी। हालांकि मुग़ल फौज की असली ताकत थी उनके तोपखाने। 

बाबर ने राणा सांगा को कैसे हराया?

 

बाबर जानते थे, राजपूत फौज से खुले मैदान में जीतना आसान नहीं। उन्होंने एक ख़ास रणनीति अपनाई- अपनी सेना तीन हिस्सों में बांटी। सबसे आगे लोहे की जंजीरों से बंधी बैलगाड़ियां रखीं। गाड़ियों के बीच छोटे रास्ते छोड़े, जिनसे सिर्फ दो घुड़सवार निकल सकें। इन गाड़ियों के पीछे तोपखाना छिपाया और दोनों तरफ कुशल तीरंदाज तैनात किए। जंग छिड़ते ही राणा सांगा ने पारंपरिक ढंग से सीधा हमला किया। मुगल तोपों के हमलों में उनकी सेना को भारी नुकसान हुआ। राजपूत हाथियों और घोड़ों पर भरोसा कर रहे थे पर मुगलों का घेरा तोड़ पाना मुश्किल था। राणा ने अपनी रणनीति बदली और सैनिकों को बाएं-दाएं से हमला करने को कहा।

 

मुगल दूर से तोपों से निशाना लगा रहे थे, जबकि राजपूत पास आकर ही वार कर सकते थे। राणा की सेना बड़ी थी, इसलिए वह लगातार नए दस्ते भेज रहे थे। तीन घंटे तक ऐसा ही चलता रहा। दोपहर तक दोनों सेनाएं बराबरी पर थीं लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि जंग की सूरत पलट गई। कहा जाता है कि मालवा के सूबेदार राजा शिलादित्य (सिलहड़ी तोमर) बीच जंग में बाबर से जा मिले और अपने साथ 30 हजार सैनिक भी बाबर के कैंप में ले गए। इससे युद्ध का बैलेंस बिगड़ गया और बाबर का पलड़ा भारी हो गया। हालांकि, इस मामले में मतभेद भी हैं। इतिहासकार RC मजूमदार के अनुसार, सिल्हड़ी राणा सांगा के प्रति पूरी निष्ठा रखते थे और बाद में राणा सांग के पुत्र रतन सिंह के भरोसेमंद सिपहसालार बने रहे। मजूमदार के अनुसार धोखे वाली बात आगे जाकर जोड़ी गई ताकि हार को जस्टिफाई किया जा सके।

 

बहरहाल, सच जो भी हो। खानवा की जंग में पासा जरूर पलटा और इसी हेरफेर में राणा सांगा को एक तीर लगा और वह हाथी से गिरकर बेहोश हो गए। राजपूत सेना में अफरा-तफरी मच गई। मोर्चा संभालने के लिए झाला के वीर सरदार अज्जा ने राणा का भेष धारण कर उनकी जगह ली। मौका देखकर बाबर ने आक्रामक रुख अपनाया। मुगल सेना आगे बढ़ी और राजपूतों को पीछे धकेल दिया। राजपूत सरदारों ने बहादुरी से लड़ने की कोशिश की पर तोपों और बंदूकों के सामने उनका पराक्रम काम न आया। घायल हो चुके राणा सांगा को जंग के मैदान से दूर ले जाया गया। जब तक उन्हें होश आया। खानवा की जंग ख़त्म हो चुकी थी। मेवाड़ की हार हुई और बाबर की जीत। 

राणा सांगा की मौत 

 

युद्ध में पराजित होने के बाद, महाराणा सांगा रणथंभौर के महल में चले गए। युद्ध की तैयारियां दोबारा शुरू होती लेकिन इससे पहले ही राणा को उनके ही साथियों ने धोखा दे दिया। हरबिलास शारदा, अपनी किताब में बताते है कि महाराणा चंदेरी की ओर बढ़ रहे बाबर पर हमला करने के लिए कूच की तैयारी कर रहे थे लेकिन उनके कुछ मंत्रियों ने जहर देकर उनकी हत्या कर दी। 30 जनवरी 1528 को राणा सांगा की मृत्यु हुई। 

सांगा के जाने के बाद मेवाड़ का क्या हुआ?

 

महाराणा सांगा के बाद उनके पुत्र रतन सिंह मेवाड़ के शासक बने लेकिन सिर्फ चार महीने बाद उनकी मृत्यु हो गई। फिर उनके भाई विक्रमादित्य सिंह गद्दी पर बैठे। मेवाड़ की शक्ति कमजोर होने लगी। इसी कमजोरी का फायदा उठाते हुए गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने 1533 ईसवी में चित्तौड़ पर हमला किया और चित्तौड़गढ़ किले पर कब्ज़ा कर लिया। कुछ ही समय बाद विक्रमादित्य की हत्या कर दी गई। 1540 ई. में उदय सिंह को मेवाड़ का महाराणा बनाया गया।

 

उदय सिंह के शासनकाल में अकबर का उदय हुआ। 1567 ई. में अकबर ने चित्तौड़ पर हमला किया, तो महाराणा उदय गोगुंदा की पहाड़ियों में चले गए और बाद में उदयपुर शहर की स्थापना की। इसके बाद मेवाड़ की विरासत संभाली महाराणा उदय सिंह के पुत्र प्रताप ने यानी महाराणा प्रताप ने। इनके काल में मुग़लों और मेवाड़ के बीच एक बार फिर जंग हुई। जिसे हम हल्दीघाटी की लड़ाई के नाम से जानते हैं। 

 

 

 

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