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300 साल पहले भी औरंगजेब की कब्र पर हुई थी राजनीति, पढ़िए पूरी कहानी

मुगल बादशाह औरंगजेब को लेकर इन दिनों खूब चर्चा हो रही है। महाराष्ट्र में मौजूद औरंगजेब की कब्र को उखाड़ फेंकने की बातें कही जा रही हैं। 

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औरंगजेब की कब्र की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

साल 1688, मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब इन दिनों दक्कन के अभियान पर थे। मार्च महीने के आख़िरी दिनों की बात है। औरंगज़ेब को मिली एक खबर, जिसने उन्हें आगबबूला कर दिया। पता चला कि आगरा में मुग़ल बादशाह अकबर की कब्र पर रातों रात हमला कर उसे तोड़ फोड़ दिया गया है। इतालवी यात्री निकोलाओ मनूची के अनुसार, जाट राजा राजाराम जाट की अगुवाई में जाटों की एक टुकड़ी ने अकबर के मकबरे पर हमला किया और अकबर की कब्र खोदकर हड्डियां तक जला दीं। औरंगज़ेब को जब ये खबर मिली, उन्होंने सामंतों को तुरंत पेश होने का आदेश दिया। जाटों के खिलाफ नया अभियान छेड़ा गया। वहीं, औरंगज़ेब ने सुनिश्चित किया कि अकबर का मकबरा दोबारा बनवाया जाए। मकबरे, मुग़लों के लिए केवल बादशाही शान का प्रतीक नहीं थे।
 
हुमायूं की मौत के लगभग 15 साल बाद उनके बेटे अकबर ने हुमायूं का मकबरा बनाया। ताजमहल से लेकर गोल गुम्बद तक- भारत में कई ऐतिहासिक इमारतें असल में मकबरे हैं लेकिन आयरनी देखिए, सबसे ताकतवर मुग़ल बादशाह यानी औरंगज़ेब का कोई भव्य मकबरा नहीं बनाया गया। एक छोटी सी कब्र बनाई गई। जिसे लेकर इन दिनों महाराष्ट्र में राजनीति गरम है। नागपुर में कब्र उखाड़ने को लेकर बवाल शुरू हुआ और आगजनी में तब्दील हो गया। राजनीति जैसा हम जानते हैं- अक्सर सत्ता का खेल होती है लेकिन दिलचस्प बात यह कि औरंगज़ेब की मौत के तुरंत बाद भी ऐसा ही कुछ हुआ था। अकबर की कब्र ने महाराष्ट्र में सत्ता के समीकरण बदल डाले नतीजा हुआ कि पेशवा- जो मराठाओं में दूसरे नंबर पर आते थे, अचानक छत्रपति से भी ताकतवर हो गए। कैसे हुआ यह सब?

 

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औरंगज़ेब क्यों नहीं चाहते थे कि उनका भव्य मकबरा बनाया जाए? मरते वक्त औरंगज़ेब ने जो बक्सा छोड़ा था, उसमें क्या-क्या मौजूद था? यह सब अलिफ लैला के इस एपिसोड में पढ़िए।

औरंगजेब ने अपने बेटे को क्या लिखा?

 

फरवरी 1707, अहमदनगर के किले में 88 साल के औरंगज़ेब बिस्तर पर लेटे हैं। चेहरे पर अजीब सी बेचैनी। आंखें लगातार दरवाजे की तरफ देख रही हैं। मानो किसी का इंतज़ार हो। इतिहासकार जदुनाथ सरकार, 'औरंगज़ेब एंड आफ्टर' में लिखते हैं, औरंगज़ेब के अंतिम दिन बहुत पीड़ादायक थे। लगातार युद्ध और समय का प्रवाह उन पर भारी पड़ रहा था। 1705 में जब वह 86 साल के हो रहे थे, तब उन्होंने बीजापुर के पास एक किले को जीतने का अभियान पूरा किया। थकावट और बुढ़ापे से चूर औरंगज़ेब ने वापस दिल्ली जाने की इच्छा व्यक्त की। घर वापसी की यात्रा शुरू हुई लेकिन जैसे ही औरंगज़ेब बीजापुर प्रांत में कृष्णा नदी के किनारे देवापुर पहुंचे, वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और यात्रा रोकनी पड़ी। बिस्तर पर लेटे-लेटे औरंगज़ेब ने अपने बेटे आज़म शाह को एक खत लिखा- 'मैं अकेला आया था और एक अजनबी की तरह जाऊंगा। नहीं जानता कि मैं कौन हूं और मैंने क्या किया? अल्लाह ने जो मुझे इतनी सांसें बख़्शी थीं, उसका एक कतरा भी मैं अदा नहीं कर पाया। क्या मुंह दिखाऊंगा उन्हें? एक नाकाम बादशाह के लिए इस ज़मीं पर क्या कोई जगह नहीं, जहां वह चैन से आखिरी पल गुजार सके?'

 


इतिहासकार ऑड्रे ट्रशके अपनी पुस्तक 'औरंगज़ेब: द लाइफ एंड लेगेसी ऑफ इंडियाज़ मोस्ट कंट्रोवर्शियल किंग' में बताती हैं- 'औरंगज़ेब के मन में यह भावना थी कि उसने अपने जीवन के आखिरी वर्षों में जो निर्णय लिए, वे गलत साबित हुए। उन्होंने अपने बेटे अकबर (मुहम्मद अकबर) को खो दिया, जो मराठों के साथ मिल गया था। अपना खजाना खो दिया और अब वह अपना साम्राज्य भी खो रहे थे।' बुढ़ापे के बावजूद आख़िरी दिनों तक औरंगज़ेब व्यक्तिगत रूप सैन्य अभियानों की देखरेख करते रहे। आख़िरी सालों में लिखे एक खत में वह लिखते हैं- 'जब तक इस नश्वर जीवन की एक सांस भी बाकी है, तब तक मेहनत और काम से छुटकारा नहीं है।'

 

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औरंगज़ेब के आख़िरी दिनों का ब्योरा देते हुए जदुनाथ सरकार ने लिखा है, 'बीमारी के दिनों में औरंगज़ेब की धार्मिक दिनचर्या जारी रही। पांच वक्त की नमाज़ के साथ-साथ बीमारी में भी वह हर रोज़ दरबार लगाते थे। उनकी बीमारी को देख दरबारी हमीद-उद-दीन खान ने सलाह दी कि 4,000 रुपये का एक हाथी दान दिया जाए। औरंगज़ेब ने इसे हिन्दू रीति रिवाज बताकर खारिज कर दिया और आदेश दिया कि 4000 गरीबों में बांट दिए जाएं।'

औरंगज़ेब की मौत कैसे हुई?

 

शुक्रवार, 21 फरवरी, 1707 की तारीख। औरंगज़ेब ने सुबह-सुबह मनके हाथ में लेकर गिनने शुरू किए और दुआ करने लगे। कुछ देर में ही हालांकि बेहोशी तारी हो गई। उंगलियां हालांकि माला पर चलती रहीं, साथ ही होंठ कलिमा पढ़ते रहे। सुबह के लगभग 8 बजे औरंगज़ेब ने अंतिम सांस ली। जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि औरंगज़ेब शुक्रवार के दिन मरना चाहते थे और उनकी यह इच्छा पूरी हुई। औरंगज़ेब की दिल्ली लौटने की इच्छा कभी पूरी नहीं हुई। उनकी मौत अहमदनगर में हुई थी। मौत के अगले दिन उनके बेटे मुहम्मद आज़म पहुंचे, कैम्प के पास ही उनकी अंतिम यात्रा निकाली गई। जिसके बाद औरंगज़ेब के शव को खुलदाबाद भेज दिया गया।

 

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खुलदाबाद में जहां औरंगज़ेब की कब्र है - उस जगह को वैली ऑफ सेंटस कहते हैं क्योंकि यहां सूफी संतों की कब्रें हैं। खुलदाबाद में सूफ़ी संत सैयद ज़ैनुद्दीन की दरगाह के दक्षिण-पूर्वी कोने में औरंगज़ेब को दफनाया गया। यही औरंगज़ेब की आख़िरी इच्छा थी। आजम को लिखे आख़िरी खत में औरंगज़ेब लिखते हैं, 'टोपियां सिलकर मैंने चार रुपये दो आना कमाए हैं। उससे ही मौत के बाद का पूरा काम किया जाए। कुरान लिखकर उसकी प्रतियां बेचने से 305 रुपये मिले हैं। इन रुपयों को काजी ग़रीबों में बांट दें। मेरी मौत पर कोई दिखावा नहीं होगा। कोई संगीत नहीं बजेगा, कोई समारोह नहीं होगा। मेरी क़ब्र पर कोई पक्की इमारत न खड़ी की जाए। बस एक चबूतरा बनाया जा सकता है। मैं इस काबिल नहीं कि मौत के बाद भी छांव मिले मुझे। दफ़्न करते समय मेरे चेहरे को न ढका जाए। ताकि मैं खुले चेहरे से अल्लाह का सामना कर सकूं।'

 

औरंगज़ेब की इच्छा के अनुसार बिना किसी शाही ठाट-बाट के उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया। औरंगज़ेब की कब्र खुले आस्मां के नीचे बनाई गई थी। कब्र को लाल पत्थर से ढका गया। औरंगज़ेब से पहले जब उनकी बहन जहांआरा की मौत हुई, उनकी कब्र के ऊपर मिट्टी डाली गई थी ताकि उस पर फूल खिल सकें। यही औरग़ज़ेब की कब्र के साथ भी किया गया। कब्र के ऊपर मिट्टी डालकर एक पौधा लगा दिया गया। औरंगज़ेब की कब्र बनाने और आख़िरी रस्मों का कुल खर्च महज 14 रुपये और 12 आने का खर्च आया था- जो राशि औरंगज़ेब ने अपने आखिरी वर्षों में टोपियां बुनकर कमाई थी।

 

औरंगजेब की मौत के बाद क्या हुआ?
 
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अनुसार, 1760 ईस्वी इस कब्र के साथ एक प्रवेश द्वार बनाया गया। 1904-05 में जब ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड करज़न यहां आए तो उन्होंने मक़बरे के इर्द-गिर्द संगमरमर की ग्रिल बनवाई और इसकी सज़ावट कराई। जैसा हम जानते हैं, औरंगज़ेब की मृत्यु के समय तक मुग़ल सल्तनत ढलान पर थी। दक्कन के जिस अभियान में औरंगज़ेब ने जिंदगी के आख़िरी तीन दशक झोंक दिए। वह असफल रहा। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मराठा एक बार फिर मजबूत हुए लेकिन साथ ही शुरू हुआ, सत्ता का एक खेल जिसने पावर इक्वेशन को पूरी तरह बदल कर रख दिया।

 

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हुआ यूं कि छत्रपति संभाजी की मौत के बाद उनके छोटे भाई राजाराम को छत्रपति बनाया गया। इस बीच मुग़ल फौज ने रायगढ़ के किले पर हमला किया और किले को कब्ज़ाने के साथ-साथ संभाजी की पत्नी महारानी येसुबाई और बेटे साहू को कैद कर लिया गया। साहू जी छत्रपति की गद्दी के असली वारिस थे, इसलिए जब उनकी वापसी हुई। एक बड़ा राजनैतिक संकट पैदा हो गया। दरअसल, साल 1700 में एक बीमारी के चलते छत्रपति राजाराम की मृत्यु हो गई। साहू जी अभी भी मुग़लों की कैद में थे। लिहाजा छत्रपति के बेटे शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बिठाया गया। और मराठा साम्राज्य की कमान ले ली राजमाता ताराबाई ने। इधर 1707 में जब औरंगज़ेब की मौत हुई, मराठाओं के लिए एक संगठित होने का मौका था लेकिन औरंगज़ेब के बाद बादशाह बने, बहादुर शाह की एक चाल ने मराठा साम्राज्य में फूट डाल दी। 

 

कुछ देर पहले हमने आपको बताया था कि संभाजी के बेटे शाहू जी, मुग़लों की कैद में थे। साल 1707 में बहादुरशाह प्रथम ने साहूजी को रिहा कर दिया। यह काम मराठों में फूट डालने के लिए किया गया। बाकायदा शाहू जी की मां येसुबाई अभी भी मुग़लों की कैद में थी ताकि जरुरत पड़ने पर शाहू जी को मजबूत किया जा सके। बहरहाल शाहू जी की वापसी से सत्ता का एक नया संघर्ष शुरू हो गया। संभाजी का पुत्र होने के नाते साहूजी ने मराठा साम्राज्य पर अपना दावा पेश किया। रानी ताराबाई के लिए यह एक असमंजस की स्थिति थे। उनका खुद का बेटा छत्रपति था। लिहाजा कई दिनों तक गद्दी को लेकर खींचतान चलती रही।
 
दिलचस्प बात यह है कि मराठा साम्राज्य में सत्ता के इस संघर्ष के दौरान एक प्रसंग आता है- जिसकी डोर औरंगज़ेब की कब्र से जुड़ी थी। वी.जी. खोब्रेकर की महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित किताब, मराठा कालखंड के अनुसार- 'ताराबाई के खिलाफ लड़ाई के लिए शाहूजी ने अहमदनगर का रुख किया। शुरू में उन्होंने अहमदनगर को अपनी राजधानी बनाने पर विचार किया। शहर मुग़ल नियंत्रण में था और शाहू मुग़लों को नाराज नहीं करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने इसे अपने शासन में लेने का विचार छोड़ दिया। वहां से वह खुलदाबाद गए और औरंगज़ेब की क़ब्र पर श्रद्धांजलि अर्पित की।'

 

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इस घटना ने मराठा समाज में भूचाल ला दिया। ताराबाई, जो राजाराम की पत्नी थीं और शाहू की सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी थीं, ने इसका फायदा उठाया। रिचर्ड ईटन अपनी किताब में लिखते हैं: 'ताराबाई ने शाहू के मुग़ल शिविर में बिताए 18 वर्षों का हवाला दिया। उन्होंने शाहू की फारसी भाषा में महारत और दरबारी तौर-तरीकों को लेकर सवाल उठाए - ये सब एक मराठा राजकुमार के 'मुग़ल हो जाने' के संकेत थे। उनकी नज़र में, शाहू का दावा कि नए मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ने उन्हें मान्यता दी थी, देशद्रोही था। अगस्त में, जब शाहू ने पैदल चलकर औरंगज़ेब की कब्र की तीर्थयात्रा की, तब उन्होंने ताराबाई के आरोपों को और भी मज़बूत कर दिया।'


हालांकि, कई इतिहासकार इस यात्रा को कूटनीति से जोड़कर देखते हैं। मराठाओं में चल रही सिविल वॉर के बीच शाहू जी, मुग़लों से संबंध खराब नहीं करना चाहते थे। शाहू जी चूंकि संभाजी के बेटे थे, जिन्हें मराठा जनता 'शेर का छावा' कहती थी। ऐसे में ताराबाई ज्यादा दिन तक शाहू जी का विरोध नहीं कर पाई। 1709 में कोल्हापुर जाकर उन्होंने अपना अलग दरबार बनाया। बाद में साहूजी के पुत्र संभाजी द्वितीय ने ताराबाई और उनके बेटे शिवाजी दोनों को जेल में डलवा दिया। जहां 1726 में शिवाजी द्वितीय की मृत्यु हो गई। शाहूजी, जो छत्रपति के रूप में अपना अधिकार जमा चुके थे, 1730 में उन्होंने ताराबाई को आजाद किया, एक शर्त के साथ। ताराबाई - सतारा में रहेंगी और किसी मामले में हस्तक्षेप नहीं करेंगी।

 

राजाराम को कैसे मिली गद्दी?
 
ताराबाई के पास एक मौका और आया। साल 1749 में शाहूजी बीमार पड़ गए। गद्दी का वारिस कौन होगा? इस सवाल पर बहस चल ही रही थी कि ताराबाई ने एक नया पासा फेंका। उन्होंने दावा किया कि उनका पोता, राजाराम जिंदा है। जिसे दुश्मनों के डर की वजह से छिपा कर रखा हुआ था। फिर क्या था, राजाराम अगले छत्रपति बन गए। उन्होंने पेशवा नाना साहब के साथ मिलकर मराठा साम्राज्य पर अपनी पकड़ मज़बूत की और उत्तर भारत में मराठा साम्राज्य का विस्तार किया। इधर ताराबाई अभी भी संतुष्ट नहीं थी। वह पेशवा नाना साहिब को उनके पद से हटाना चाहती थीं। 1750 में जब पेशवा हैदराबाद के निज़ाम से जंग करने के लिए गए। तब मौक़ा पाकर ताराबाई ने छत्रपति रामराज से कहा कि वह नाना साहिब से पेशवा का पद छीन लें। छत्रपति ने इनकार किया तो 24 नवंबर 1750 को राजमाता ताराबाई ने छत्रपति राजाराम को कैद करवा लिया। तब ताराबाई ने कहना शुरू कर दिया कि राजाराम एक बहरूपिया है और असल में उनका पोता नहीं है। उन्होंने राजाराम को गिरफ्तार कर जेल में डलवा दिया।

 

इधर जब पेशवा नाना साहिब हैदराबाद से लौटे तो उनके और राजमाता ताराबाई के बीच जंग छिड़ गई। अंत में दोनों के बीच एक समझौता हुआ। जिसके तहत छत्रपति राजाराम रिहा हो गए। हालांकि, कैद में रहकर उनकी मानसिक स्थिति खराब हो चली थी। आगे उन्होंने छत्रपति का पद संभाला लेकिन इस पूरे प्रकरण का रिजल्ट ये हुआ कि असली ताकत पेशवा नाना साहब के हाथ में चली गई और छत्रपति सिर्फ़ नाम के लिए मराठा साम्राज्य के राजा रह गए।
 
यह प्रसंग बताता है कि कैसे 300 साल पहले भी औरंगज़ेब की कब्र ने महाराष्ट्र की राजनीति में उथल-पुथल मचाई थी। अब दोबारा वही खेल चालू हुआ है। दावा है कि आतातायी औरंगज़ेब का नाम मिटा दिया जाए। हालांकि, आयरनी एक बार फिर पशोपेश में है। हिंदी की कहावत है - गड़े मुर्दे उखाड़ना। गड़े मुर्दे इसलिए नहीं उखाड़े जाते कि कुछ मिटाया जाए। उन्हें जिन्दा किया जाता है, कठपुतली बनाने के लिए। बहरहाल, एपिसोड के अंत में एक दिलचस्प सवाल। औरंगज़ेब की कब्र को लेकर इतना बवाल होता है। किसी और मुग़ल बादशाह की कब्र को लेकर नहीं। मुहब्बत तो उनसे भी कम नहीं है। फिर ये भेदभाव क्यों?

 

हुमायूं और शाहजहां - इन दोनों कला मकबरा - हुमायूँ टोम्ब और ताजमहल- दोनों राष्ट्रीय स्मारक और UNESCO (World Heritage List) में शामिल हैं। इसलिए बच जाते हैं। कम से कम अभी तक तो। वहीं, बाबर और आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर- दोनों की किस्मत अच्छी कि इनके मकबरे भारत से बाहर हैं। 1530 में बाबर की मौत के बाद उन्हें आगरा में दफनाया गया था। लेकिन चूंकि बाबर की तमन्ना थी काबुल में दफनाए जाने की। इसलिए हुमायूँ ने बाबर की अस्थियाँ आगरा से निकलवाकर काबुल भेजी। जहां बाग़ ए बाबर के बाग़ में उनकी सफ़ेद संगमरमर की कब्र हैं। इसी तरह बहादुर शाह ज़फर अंतिम मुग़ल बादशाह थे। 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बंदी बनाया। फिर उन्हें रंगून (आज म्यांमार) भेज दिया गया। वहां 1862 में 87 साल की उम्र में उनकी मौत हुई। बहादुर शाह ज़फर की कब्र 1991 में खोजी गई। साल 2017 में प्रधानमंत्री मोदी इस कब्र पर विजिट कर चुके हैं। 

 

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