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दुकानदारों के गाल चीरने वाले अलाउद्दीन खिलजी के आखिरी दिनों की कहानी

दिल्ली की सत्ता पर काबिज अलाउद्दीन खिलजी का राज्य काफी मजबूत था लेकिन कुछ ही वक्त में यह साम्राज्य पूरी तरह से मिट गया। आइए पढ़तें हैं खिलजी वंश के खात्मे की कहानी।

alauddin khilji story

अलाउद्दीन खिलजी के आखिरी दिनों की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

'तारीख-ए-फरिश्ता' में फारसी इतिहासकार फरिश्ता लिखते हैं कि जब दिल्ली सल्तनत में अलाउद्दीन खिलजी का राज कायम हुआ, तो दिल्ली के पास इतनी दौलत थी, जितनी महमूद गजनी 10 बार हिंदुस्तान को लूटकर भी इकट्ठा नहीं कर पाया था। सुलतान के पास साढ़े चार लाख सैनिकों की फौज थी। 17000 तो बस नौकर थे, जो सुलतान की तीमारदारी किया करते थे। इतिहासकार ज़िया-उद-दीन बरनी ने लिखा है, देवगिरी से ढेर सारी धन दौलत लूटकर अलाउद्दीन ने जब वापिस कूच किया, रास्ते में जहां-जहां पड़ाव पड़ता, वह पांच मन यानी लगभग 200 किलो सोने के सिक्के तुलवाते और उन्हें भीड़ में उछाल दिया करते। जिस कारण बदायूं आते-आते उनके काफिले में हजारों आम लोग इकट्ठा हो गए थे।

 

फरिश्ता और बरनी दोनों मानते हैं कि अलाउद्दीन खिलजी के बराबर ताकतवर सुलतान दिल्ली सल्तनत में दूसरा न हुआ। मंगोल- जो 13वीं सदी में दुनिया पर कहर बनकर टूटे थे, जिनके बारे में कहा जाता था कि वे जिस शहर पर हमला करें, वहां के कुत्ते-बिल्ली भी जिंदा न छोड़ते थे। मध्य एशिया की इस ताकतवर फौज को अलाउद्दीन खिलजी ने 6 युद्धों में हराया था। मंगोल सैनिक खिलजी की फौज से किस कदर घबराते थे, इसका एक किस्सा है, जंग के बाद मंगोल घोड़े कभी पानी पीने से आनाकानी करते तो रिसालदार पूछता, 'कहीं इन्होंने जफर अलाउद्दीन के कमांडर जफर खान को तो नहीं देख लिया?'

 

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अपने कमांडरों और ताकतवर फौज की बदौलत अलाउद्दीन ने अपना साम्राज्य खूब फैलाया। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कावेरी नदी तक और पश्चिम में सिंध से पूर्व में बनारस तक, खिलजी वंश का राज था लेकिन जैसे ही अलाउद्दीन की मौत हुई, महज पांच सालों में खिलजी वंश का समूल अंत हो गया। 

दिल्ली सल्तनत और दुकानदारी

 

दिल्ली सल्तनत के एक दरवेश, हामिद कलंदर, अपनी ख़ैर-उल-मजालिस में बताते हैं कि अलाउद्दीन की मौत के बाद एक अनोखा नजारा देखने को मिला। जब भी कभी अनाज के दाम बढ़ते तो लोग अलाउद्दीन की कब्र पर जाकर दुआ करते। उन्हें लगता अलाउद्दीन मन्नत पूरी कर देंगे और अनाज के दाम सस्ते हो जाएंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि अलाउद्दीन के शासनकाल में दिल्ली में चीजों के दाम फिक्स कर दिए गए थे। बरनी के अनुसार गद्दी पर बैठते ही अलाउद्दीन के सिर्फ दो सपने थे। एक-सिकंदर की तरह दुनिया को जीतना, दूसरा-एक नए धर्म की नींव रखना, जिसका पैगंबर वह खुद बनाना चाहते थे।

 

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अलाउद्दीन के चाचा, अलाउल्मुल्क ने उन्हें समझाया कि धर्म, राजाओं के आग्रह का क्षेत्र नहीं है। साथ ही उन्होंने अलाउद्दीन को दिल्ली पर फोकस करने की सलाह दी। हामिद कलंदर के अनुसार, एक रोज़ अलाउद्दीन ने गहरे ध्यान के बाद अपने एक राजदार से कहा कि वह अल्लाह के कहने पर दिल्ली के लोगों का भला करना चाहते हैं। अलाउद्दीन के मन में आया कि वह सरकारी खजाना जनता के लिए खोल दे लेकिन फिर जब अहसास हुआ कि कितनी भी दौलत हो, सब तक नहीं पहुंचाई जा सकती। अलाउद्दीन ने एक आदेश दिया- हर चीज के दाम कम होंगे और फिक्स होंगे। कोई दुकानदार निश्चित दाम से ऊपर सामान बेचेगा तो उसे सजा मिलेगी। इस नियम की तामील हो- इसके लिए अलाउद्दीन ने एक जबरदस्त सिस्टम बनाया था।

 

अलाउद्दीन अपने गुलामों को अक्सर बाजार भेजते थे, सौदा खरीदने। सौदा लाने के बाद उसे तुलवाया जाता। अगर सामान रत्ती भर भी कम होता या कीमत से ज्यादा दाम मांगे गए होते, अलाउद्दीन दुकानदार को बुलाकर उसके गालों का मांस नुचवा लेते थे। दुकानदारों में इसके चलते ऐसा डर बैठा कि महंगाई एकदम काबू में आ गई।

 

अलाउद्दीन के समकालीन सूफी संत चिराग देहलवी ने लिखा है कि अलाउद्दीन के शासन काल में जनता की चांदी थी। हर चीज इतनी सस्ती थी कि भिखारी भी नर्म शॉल ओढ़े दिखाई देते थे। फ्री मार्केट इकॉनमी में फिक्स प्राइसिंग को सही नहीं माना जाता। अर्थशास्त्री मानते हैं कि इससे कालाबाजारी बढ़ती है। फिर भी अलाउद्दीन का दौर फिक्स्ड प्राइसिंग का एक अनूठा एक्सपेरिमेंट था, जिसे आज भी स्टडी किया जाता है। चीजों के दाम सस्ते रखने के बीच हालांकि अलाउद्दीन की असली मंशा क्या थी, यह अलग कहानी है। अमीर खुसरो और हामिद कलंदर के अनुसार यह अलाउद्दीन का परोपकार था। हालांकि, इतिहासकार बरनी के अनुसार, अलाउद्दीन के ऐसा करने के पीछे दो मकसद थे।

 

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पहला - अलाउद्दीन इस तरीके से कारोबारियों पर नकेल कसना चाहते थे। इनमें से अधिकतर वे थे जो गैर मुस्लिम थे, या जिन्होंने नया-नया इस्लाम कबूल किया था। दूसरा बड़ा कारण यह कि जब मंगोलों ने हिंदुस्तान पर हमला किया, अलाउद्दीन को फौज की भर्ती में इजाफा करना पड़ा। जैसा पहले बताया अलाउद्दीन के पास साढ़े चार लाख की फौज थी। अपने वक्त में यह बहुत बड़ा आंकड़ा था। इतनी बड़ी फौज को पालने के लिए अनाज लगता था। कपड़े-लत्ते, बाकी चीजें लगती थीं। ये सब महंगा हो जाता तो फौज को मेंटेन रखना मुश्किल हो जाता। इसी कारण अलाउद्दीन ने चीजों के दाम फिक्स कर दिए। अलाउद्दीन के जीते जी ये सिस्टम काम करता रहा लेकिन उनकी मौत के बाद जब कानून व्यवस्था बिगड़ी, तो इसी सिस्टम के चलते रोटी के लाले पड़ने शुरू हो गए और ये बात खिलजी वंश के अंत का एक बड़ा कारण बनी। खिलजी वंश के अंत की शुरुआत कैसे हुई? एक बीमारी से।


अलाउद्दीन खिलजी के अंतिम दिन


सन 1315, सर्दियों का महीना। दिल्ली में सीरी किले की दीवारों के अंदर एक अजीब सा तनाव था। अलाउद्दीन खिलजी बिस्तर पर पड़े थे। बीमारी अज्ञात थी। बाद के इतिहासकार मानते हैं कि अलाउद्दीन को ड्रॉप्सी नाम की बीमारी हुई थी, जिसमें सारा शरीर सूज जाता है और दिल का दौरा पड़ने का खतरा रहता है। बीमारी का एक नतीजा ये हुआ कि अलाउद्दीन का दिमाग पहले जैसा न रहा। अलाउद्दीन की आवाज़, जो कभी पूरी सेना को हुक्म देती थी, अब धीमी पड़ गई थी। वह महल में बस अपने कमरे तक सीमित रह गए थे और हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी।

 

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बरनी लिखते हैं, 'सुल्तान का दिमाग भी कमज़ोर पड़ गया था। वह अपने नज़दीकी जनरल, मलिक कफूर पर पूरी तरह निर्भर हो गए थे।' मलिक कफूर एक गुलाम था, जिसे हजार दिनारी भी कहा जाता था। अलाउद्दीन खिलजी को वह गुजरात से तोहफे में मिला और बाद में खिलजी का सबसे विश्वसनीय सेनापति बन गया। सुलतान का सबसे नजदीकी होने के चलते अंतिम दिनों में वही महल का द्वारपाल था। बिना उसकी इजाजत कोई सुलतान से मिल भी नहीं सकता था। सुल्तान के वारिस, उनके बड़े बेटे खिज़्र खान, अलाउद्दीन की पत्नी, मलिका-ए-जहां, परिवार के बाकी सदस्य धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल दिए गए थे।

 

बरनी के अनुसार, मलिक कफूर ने सुल्तान के कान में यह बात डाली कि खिज़्र खान, उसकी मां और यहां तक कि सुल्तान के साले अल्प खान (गुजरात के गवर्नर) उसे जहर देकर मारना चाहते हैं। इसामी, एक अन्य समकालीन इतिहासकार, लिखते हैं कि अलाउद्दीन, जो बीमारी से कमजोर हो चुके थे, इन बातों पर विश्वास करने लगे। उन्होंने 1315 के अंत में अल्प खान की हत्या का आदेश दिया, जिसे कफूर ने महल के अंदर ही अंजाम दिया। इस कठोर कार्रवाई ने दरबार में चिंता की लहर दौड़ा दी। अगर राजपरिवार भी सुल्तान के क्रोध से सुरक्षित नहीं था, तो और कौन था?

 

1316 की शुरुआत में, अलाउद्दीन की हालत और बिगड़ गई। वह अक्सर बेहोश रहते थे। अंत निकट जानकर, सुल्तान ने अपने बड़े बेटे खिज़्र खान को देखने की इच्छा व्यक्त की - शायद उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के लिए। अमीर खुसरो की किताब 'आशिका' और अन्य सोर्सेस के अनुसार, मलिक कफूर ने बाहर से राजकुमार को बुलाने का वादा किया लेकिन वास्तव में कुछ नहीं किया। हर बार जब बिस्तर पर पड़ा सुल्तान पूछता 'खिज़्र खान कहां है?', कफूर जवाब देता, 'वह आ ही रहा है', जबकि वास्तव में वह कुछ और ही योजना बना रहा था।

अलाउद्दीन की मौत


4 जनवरी 1316 की रात में दरबारियों को खबर मिली कि सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की मौत हो गई है। शक की सुई सीधे मलिक कफूर पर गई। अलाउद्दीन की मौत निश्चित थी लेकिन चूंकि कफूर सबसे नजदीक था तुरंत ऐसी अफवाहें उड़ने लगी कि कफूर ने ही अलाउद्दीन की हत्या कर दी है। कई लोग मानते थे कि अलाउद्दीन को ज़हर दिया गया है। इस बात में कितनी सच्चाई थी - यह तो नहीं मालूम लेकिन मलिक कफूर की महत्वाकांक्षाएं जल्द ही जाहिर हो गईं।

 

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अलाउद्दीन की मौत के तुरंत बाद, मलिक कफूर ने चालाकी से काम लिया। सुल्तान के शव को रात के अंधेरे में महल से निकालकर उस मकबरे में दफना दिया गया, जो अलाउद्दीन ने कुतुब परिसर के पास बनवाया था। ज़िया-उद-दीन बरनी और इतिहासकार इसामी के अनुसार, कोई विशेष समारोह नहीं हुआ - अलाउद्दीन की मौत को तब तक लगभग गुप्त रखा गया, जब तक कफूर ने राजदरबार पर अपनी पकड़ नहीं बना ली। अगले ही दिन, कफूर ने महल में बचे हुए अमीरों की एक परिषद बुलाई, जहां उसने मृत सुल्तान की एक पहले से तैयार की गई वसीयत पेश की। गंभीर मुद्रा में, कफूर ने अलाउद्दीन की कथित अंतिम इच्छाओं को पढ़ा: सिंहासन खिज़्र खान (जिसे लंबे समय से उत्तराधिकारी माना जाता था) को नहीं, बल्कि अलाउद्दीन के छह वर्षीय बेटे शिहाबुद्दीन उमर को मिलना था, जो सुल्तान की हिंदू पत्नी झत्यापाली से पैदा हुआ था।

 

अलाउद्दीन का वारिस ख़िज़्र खान है- यह बात सबको मालूम थी इसलिए जैसे ही मलिक कफूर ने शिहाबुद्दीन को नया बादशाह घोषित किया। दरबारी समझ गए कि खेल क्या है। हालांकि, अब तक कफूर दिल्ली पर पूरी पकड़ बना चुका था। अगले ही रोज़ शिहाबुद्दीन को दिल्ली के सिंहासन पर औपचारिक रूप से बिठा दिया गया चूंकि शिहाबुद्दीन बच्चा था, उसके लिए एक नायब बनाया गया। नायब यानी रीजेंट, जो बादशाह के बदले राजकाज देखता है। यह रीजेंट और कोई नहीं खुद मलिक कफूर था।

राजमहल में षड्यंत्र

 

अलाउद्दीन को दफनाने और राजसी उत्तराधिकार को लगभग हाइजैक करने के बाद, मलिक कफूर ने अपने खिलाफ लोगों को ठिकाना लगाना शुरू किया। कफूर के आदेश पर, अलाउदीन के दो बड़े बेटों - खिज़्र खान और शादी खान - को पहले तो ग्वालियर भेजकर किले में कैद कर लिया गया। इसके बाद कफूर ने अपना एक एजेंट मलिक सुम्बुल भेजा। जिसने दोनों शहजादों की आंखें फोड़कर उनकी अंगूठी मलिक कफूर को पेश की। बरनी के अनुसार, कफूर ने अलाउद्दीन के तीसरे बेटे, 17 साल के मुबारक खान को भी अंधा करने की योजना बनाई। मुबारक को दिल्ली में कैद रखा गया जबकि रानी मलिका-ए-जहां की सारी संपत्ति छीनकर उन्हें भी ग्वालियर भेज दिया।

 

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अलाउद्दीन के पूरे परिवार को तितर-बितर करने के बाद मलिक काफ़ूर ने एक और चाल चली। गद्दी पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए उसने अलाउद्दीन की विधवा झत्यापाली से शादी कर ली। झत्यापाली चूंकि सुल्तान शिहाबुद्दीन की मां थी इसलिए कफूर राजा का सौतेला पिता बन गया। वह अब खुद को राजपरिवार का हिस्सा कहने लगा। कफूर की ये हरकतें देख वे लोग गुस्सा थे, जो कभी अलाउद्दीन के प्रति बेहद वफादार हुआ करते थे। लिहाजा एक प्लान बनाया गया, कफूर को उखाड़ फेंकने का। इसमें अलाउदीन के चार पूर्व अंगरक्षक शामिल थे - मुबश्शिर, बशीर, सालेह, और मुनीर। वे मलिक कफूर को मार डालना चाहते थे। कफूर को इस प्लान की खबर पहले से थी। इसलिए उसने साजिशकर्ताओं में से एक मुबश्शिर को अपने कमरे में बुलाया। कफूर का प्लान मुबश्शिर को समझाने का था। उसने तय किया था कि अगर वह नहीं माना तो मरवा दिया जाएगा।
 
फरवरी 1316, अलाउद्दीन की मौत के ठीक 35 दिन बाद। मुबश्शिर कफूर के निजी कक्ष में दाखिल हुआ। बातचीत शुरू हुई लेकिन जैसी ही बात बिगड़ी, मुबश्शिर ने अपनी तलवार निकाली और कफूर पर हमला कर दिया। मौका देख अन्य लोग भी कफूर के कमरे में घुस आए और उन्होंने कफूर का सिर धड़ से अलग कर दिया। विद्रोहियों ने इसके बाद राजकुमार मुबारक को मुक्त कराया और कुछ ही दिन बाद शिहाबुद्दीन को हटाकर मुबारक शाह की राजपोशी हो गई। शक्ति का संतुलन एक बार फिर खिलजी खानदान के पक्ष में झुका लेकिन बहुत सालों तक नहीं। अलाउद्दीन के बाद खिलजी वंश ने वह दौर देखा जब अलाउद्दीन के महल में हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां रख दी गईं और गुजरात का एक लड़का, दो महीने के लिए दिल्ली का सुल्तान बन गया।

खिलजी वंश का अंत

 

क़ुतुबुद्दीन मुबारक शाह- यह नाम था खिलजी वंश के अंतिम शासक का। मुबारक शाह को बड़ी मुश्किल से गद्दी मिली थी लेकिन उन्होंने उसे चौपट करने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया। सबसे पहले तो सुलतान ने उनकी ही हत्या करा दी, जिनकी वजह से वह बादशाह बन पाए थे। मुबश्शिर और बशीर को सिर्फ इसलिए मरवा दिया गया क्योंकि वह अपने लिए कुछ इनाम चाहते थे। इसके बाद उन्होंने अपने छोटे भाई शिहाबुद्दीन की भी हत्या करवा दी।

 

मुबारक शाह के बारे में इतिहासकार बरनी ने लिखा है, 'मुबारक शाह सुल्तान बनने से पहले मलिक कफूर की कैद में थे। उन्होंने सांसारिक सुखों का अनुभव नहीं किया था, इसलिए सुल्तान बनते ही उन्होंने ऐशो-आराम का जीवन जीना शुरू किया। कभी-कभी तो वह भोग-विलास में इतना डूब जाते कि स्त्रियों के कपड़े पहनकर या फिर नंगे ही दरबार में चले आते।' फरिश्ता ने तो मुबारक शाह को सीधे 'इंसान के भेष में शैतान' की संज्ञा दी। फरिश्ता के अनुसार सुलतान, महल की स्त्रियों को नग्न अवस्था में छत पर परेड करवाते थे और दरबार में एंटर कर रहे लोगों पर पेशाब करने को कहते थे।

 

बरनी के अनुसार सुल्तान अपने गुलामों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाते थे और यह काम अक्सर गुलामों की मर्जी के बिना होता था। गुलामों के प्रति ये आसक्ति खिलजी वंश के पतन का कारण बनी। हुआ यूं कि मुबारक शाह का एक गुलाम था - खुसरो खान। जो गुजरात की हिंदू बरादू जाति से ताल्लुक रखता था। वह और उसका भाई गुलाम बनाकर दिल्ली लाए गए और जल्द ही खुसरो खान मुबारक शाह का चहेता बन गया। बरनी ने लिखा है, 'सुल्तान एक पल भी खुसरो के बिना नहीं रह सकते थे।' खुसरो खान को यह हरगिज़ पसंद नहीं था लेकिन साथ ही उसने सुलतान की मेहरबानी का खूब फायदा भी उठाया। एक ही साल के अंदर वह सल्तनत का वज़ीर बन बैठा। इसके बाद उसने सत्ता हथियाने के लिए एक खेल खेला।

 

एक रात जब बिस्तर पर जब दोनों साथ थे, खुसरो ने सुल्तान से कहा, 'हुजूर आपसे नजदीकी के चलते सब मुझसे जलते हैं। कोई मुझसे बात नहीं करता। मैं अकेला हो गया हूं। क्या मैं अपने परिवार वालों को दिल्ली बुला सकता हूं?' सुलतान ने हामी भर दी। इसके बाद गुजरात के कुछ बरादू दिल्ली बुला लिए गए। खुसरो ने उन्हें महल में आने-जाने की इजाजत भी दिलवा दी। दरबारियों ने सुलतान को चेताया लेकिन मुबारक शाह खुसरो के खिलाफ कुछ सुनने को तैयार नहीं थे।

9 जुलाई 1320 की रात

 

बरनी लिखते हैं, आधी रात जब सुल्तान और खुसरो एक साथ थे, तभी बरादुओं ने महल पर हमला किया। शोर सुनकर सुल्तान ने खुसरो से कारण पूछा। खुसरो ने जवाब दिया कि यह घोड़ों के भागने की आवाज है। जब तक सुल्तान कुछ समझ पाते, खुसरो के लोग सुल्तान के कमरे में घुस गए। सुलतान ने भागने की कोशिश की लेकिन खुसरो ने उनके बाल पकड़कर उन्हें खींचा और जमीन पर पटक दिया। खुसरो के एक साथी ने सुल्तान की हत्या कर दी। मुबारक शाह की मौत के साथ खिलजी वंश का अंत हो गया। इसके बाद खुसरो खुद दिल्ली के सुल्तान बने। हालांकि, उनका शासन सिर्फ दो महीने चला।


एक मिलिट्री कमांडर ग्यासुद्दीन तुगलक ने खुसरो के खिलाफ विद्रोह कर उनकी हत्या कर दी और खुद गद्दी पर बैठ गए। यहां से दिल्ली सल्तनत पर तुगलकों का शासन शुरू हुआ। तुगलक वंश की कहानी किसी और एपिसोड में आज के लिए इजाजत दीजिए।

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