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ब्रिटिश जासूस ने कैसे कर दिए थे इस्लामिक दुनिया के टुकड़े?

मिडिल ईस्ट में तमाम ऐसे गृह युद्ध हुए जिनके सबूत आज भी दिखाई देते हैं। एक रेल लाइन बन रही थी जिसकी बर्बादी से इस सब की शुरुआत हुई और काफी कुछ बदल गया।

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मिडिल ईस्ट के निवासी

बीसवीं सदी की शुरुआत। इस्तांबुल में ऑटोमन सुल्तान अब्दुल हमीद ने एक सपना देखा। एक सपना जो अगर पूरा हो जाता तो आप बिना जमीन पर पैर रखे, इस्लामिक दुनिया की राजधानी इस्तांबुल से पैगंबर मोहम्मद के शहर मदीना तक सफर कर सकते थे। यह पूरा इलाका एक हो सकता था। इस्तांबुल से मदीना और मक्का तक एक रेल लाइन बननी शुरू हुई। 1800 किलोमीटर लम्बी इस रेल लाइन का बड़ा हिस्सा पूरा भी हो गया था लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि आज इस रेल लाइन के सिर्फ अवशेष बचे हैं। मदीना में मस्जिद अल-नबवी से कुछ ही दूर पर एक ट्रेन स्टेशन भी है लेकिन कोई ट्रेन नहीं चलती। सिर्फ एक म्यूजियम है, जिसमें 100 साल पुरानी रेल लाइन और ट्रेन के डिब्बों के टुकड़े रखे हुए हैं। ये टुकड़े गवाह हैं, उस बंटवारे के जो आज से 100 साल पहले मिडिल ईस्ट में हुआ था। मिडिल ईस्ट में जो तमाम गृह युद्ध, जमीनी विवाद आज हमें दिखाई देते हैं, उनकी सबकी शुरुआत हुई थी इसी रेल लाइन की बर्बादी से।
 
इस रेल लाइन को पूरा न होने देने में अरब विद्रोहियों का हाथ था। ये तस्वीर है उस रेडिंग पार्टी की जिसने हेजाज़ रेलवे के पुलों और स्टेशनों पर हमला किया था। इस तस्वीर में तमाम लोग ऊंट पर बैठे हैं लेकिन एक शख्स पैदल है। सर पर काफिया, पूरी अरब पोशाक पहना ये शख्स असल में अरबी नहीं है। एक खालिस अंग्रेज़- जिसने मिडिल ईस्ट में बंटवारे की नींव रखी। 

कैसे हुए मिडिल ईस्ट के टुकड़े?

एक पिता को कैसे मिला धोखा और कैसे इस धोखे ने उसके तीन बेटों को जॉर्डन, इराक और सीरिया का राजा बना दिया? अकाबा, आज के जॉर्डन का एक शहर है लेकिन कभी ऑटोमन तुर्कों के कंट्रोल में हुआ करता था। इसका महत्त्व ऐसे समझिए कि जॉर्डन में ये अकेला बंदरगाह है और ऑटोमोन्स के समय में ये सीरिया में घुसने का दरवाजा हुआ करता था। 1914 में फर्स्ट वर्ल्ड वॉर की शुरुआत हुई। एक तरफ अलाइड पावर्स थी। यानी फ़्रांस, ब्रिटेन, रशिया, इटली, USA और जापान। दूसरे धड़े का नाम था सेन्ट्रल पावर्स- जर्मनी, ऑस्ट्रिया हंगरी और ऑटोमन साम्राज्य। मिडिल ईस्ट में ब्रिटेन फ्रांस और ऑटोमोन आमने सामने थे। सीरिया पर कंट्रोल के लिए ब्रिटिश नेवल फोर्सेस ने अकाबा पर लगातार बमबारी की लेकिन ये पोस्ट उनके हाथ में आ नहीं रही थी।
 
ऐसे में खड़ा हुआ एक आदमी, जिसने 45 लोगों के साथ 600 मील रेगिस्तान का सफर किया और अकाबा को अंग्रेज़ों की झोली में डाल दिया। इस शख्स का नाम था- थॉमस एडवर्ड लॉरेंस। ‘लॉरेंस ऑफ अरेबिया’ के नाम से मशहूर TE लॉरेंस को पश्चिमी दुनिया में लेजेंड माना जाता है। इनकी कहानी पर एक हॉलीवुड फिल्म भी बनी है। 

 

 

इंग्लैंड के एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार में पैदा हुए लॉरेंस ने अपनी पढाई के दिनों में दो साल सीरिया में बिताए थे, इस दौरान उन्होंने अरबी सीखी और मिडिल ईस्ट की जिंदगी को करीब से देखा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उनका ये अनुभव काम आया। उन्हें मिस्र भेज दिया गया। लेफ्टिनेंट के रूप में। मिलिट्री इंटेलिजेंस में। लॉरेंस की मिडिल ईस्ट में क्या भूमिका निभाई इसके लिए हमें उस गेम को समझना पड़ेगा जो ब्रिटेन मिडिल ईस्ट में खेल रहा था।

 

सऊदी अरब के पश्चिम में एक प्रान्त है। इसे हेजाज़ कहा जाता है। इसमें मक्का मदीना और जेद्दा जैसे शहर आते हैं। ऑटोमोन साम्राज्य के दिनों में हेजाज़ में एक नेता का उभार हुआ। ‘हुसैन बिन अली अल- हाशमी’ - ये मक्का के शरीफ हुआ करते थे लेकिन ऑटोमन्स से खास बनती नहीं थी। तुर्कों और अरबों के बीच अदावत का एक लम्बा इतिहास रहा था इसलिए अरब तुर्कों का कंट्रोल पसंद नहीं करते थे। फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के बाद ब्रिटेन ऑटोमन्स के खिलाफ लड़ रहा था। ऐसे में उन्होंने इस तनाव का फायदा उठाया। जुलाई 1915 से मार्च 1916 तक हुसैन बिन अली और ब्रिटिश हाई कमिश्नर सर हेनरी मैकमोहन के बीच चिट्ठियों का एक सिलसिला चला। ब्रिटेन ने वादा किया- अगर हुसैन तुर्कों के खिलाफ विद्रोह करें, तो युद्ध के बाद अरब को आजादी मिलेगी।

 

यहां से इस कहानी में एंट्री होती है TE लॉरेंस की। लॉरेंस शुरुआत से अरबों से सिम्पथी रखते थे, लिहाजा उन्हें हुसैन के बेटे फैसल का सलाहकार बना दिया गया। शुरुआत से ही लॉरेंस को अहसास हो गया कि अरब विद्रोही ऑटोमोन्स के सामने नहीं टिक सकते। अपनी किताब 'सेवन पिलर्स ऑफ विजडम' में वह लिखते हैं- "तुर्कों की एक कंपनी भी खुले मैदान में पूरी अरब सेना को हरा सकती थी।" मदीना में हुई सीधी लड़ाई में अरब विद्रोहियों को पीछे हटना पड़ा था। ऐसे में लॉरेंस ने एक नई रणनीति तैयार की। कबीलों में बंटे अरबों को एक किया। और सीधे मुकाबले की जगह गुरिल्ला युद्ध का रास्ता अपनाया।

 

शुरुआत हुई हेजाज़ रेलवे से। छोटे-छोटे हमले हुए। रेल की पटरियां, पुल तोड़े गए। पानी के  टावर नष्ट किए गए। लॉरेंस ने खुद अपनी डायरी में लिखा है कि उन्होंने 79 पुलों को उड़ाया। वह इतना माहिर हो गए थे कि पुल को "वैज्ञानिक तरीके से" नष्ट करते। यानी पुल खड़ा तो दिखता लेकिन पूरी तरह बर्बाद हो चुका होता। इसके चलते तुर्क सैनिकों को मरम्मत से पहले मलबा हटाना पड़ता, जिससे उनका समय बर्बाद होता था। इस तमाम कवायद के बीच 1917 में एक खुलासा हुआ कि सारे समीकरण चेंज हो गए। पता चला कि ब्रिटेन और हुसैन बिन अली के बीच जो समझौता हुआ था। उससे एकदम अलग एक और समझौता हुआ- साइक्स-पिकॉट एग्रीमेंट। इस एग्रीमेंट के तहत ब्रिटेन और फ़्रांस ने पहले ही मिडिल ईस्ट को आपस में बांट लिया था। टुकड़े किए गए। - फिलिस्तीन, ट्रांस जॉर्डन, लेबनान और सीरिया।प्लान था कि फिलिस्तीन और ट्रांस जॉर्डन पर ब्रिटेन का कंट्रोल होगा जबकि लेबनान और सीरिया पर फ़्रांस का। इस प्लान के तहत इराक़ भी ब्रिटेन के कंट्रोल में जाने वाला था। इसके साथ साथ 1917 में ही ब्रिटिश सरकार ने एक और घोषणा की।
 
67 शब्दों वाले एक दस्तावेज़ में ब्रिटिश सरकार ने फिलिस्तीन में एक यहूदी राष्ट्र बनाने की घोषणा कर दी। इस दस्तावेज़ को बाल्फोर डिक्लेरेशन के नाम से जाना जाता है। बाल्फोर डिक्लेरेशन और साइक्स-पिकॉट एग्रीमेंट- ये दोनों दस्तावेज़ एक प्रकार का धोखा था। जो अरबों के साथ किया गया था। ऑटोमोन्स के खिलाफ लड़ रहे अरब विद्रोहियों की इसकी बिलकुल खबर नहीं थी। उन्हें ये बात पता चली थी TE लॉरेंस के माध्यम से। अरबों से सहानुभूति रखने वाले लॉरेंस ने साइक्स-पिकॉट एग्रीमेंट- की बात हुसैन बिन अली के बेटे फैसल को बता दी। ये काम राजद्रोह के बराबर था। लॉरेंस को इसकी सजा मिलती लेकिन इसी दौरान वो काम कर दिखाया, जिससे वो हीरो बन गए। 

सीरिया पर कब्ज़ा

 

जॉर्डन के बंदरगाह अकाबा के बारे में हमने आपको बताया था। अकाबा की जीत के बिना सीरिया ब्रिटेन के कब्ज़े में नहीं आता। लॉरेंस को पता था कि समुद्र की तरफ से अकाबा पर कब्जा करना असंभव है। शहर तक पहुंचने के लिए एक बीस मील लंबी घाटी से गुजरना होगा। तुर्कों ने इस घाटी को किलों और मोर्चों से पाट दिया था। लॉरेंस के दिमाग में एक अलग ही योजना थी। पहले घाटी पर कब्जा करो, फिर बंदरगाह अपने आप गिर जाएगा लेकिन ये बात उसने किसी को नहीं बताई। यहां तक कि अपने ब्रिटिश अफसरों को भी नहीं। लॉरेंस अरब तट से निकला, साथ में सिर्फ 45 बदुईन थे। हर आदमी के पास सिर्फ पानी और 45 पाउंड आटा था। आगे था दुनिया का सबसे खतरनाक रेगिस्तान।"

 

600 मील का सफर। दो महीने की यात्रा। रेगिस्तान की आग में तपते हुए। कई बार पानी खत्म हो गया। कई बार रास्ता भटक गए लेकिन लॉरेंस की टुकड़ी आगे बढ़ती गई। डेविड लीन की फिल्म 'लॉरेंस ऑफ अरेबिया' का सबसे यादगार सीन है। पीटर ओ टूल यानी लॉरेंस अपनी सफेद अरबी पोशाक में तुर्कों पर धावा बोलता है लेकिन असलियत कुछ और थी। अकाबा से 40 मील दूर अबा अल लिसान की वादी में हुआ असली युद्ध। लॉरेंस को पता चला कि एक तुर्क सैन्य टुकड़ी उनका पीछा कर रही है। उसने सोचा - अगर हम अकाबा पहुंच भी गए तो ये दुश्मन पीछे से आ धमकेगा। पहले इससे निपटना होगा।

 

1 जुलाई 1917 की रात। अबा अल लिसान में तुर्क सैनिक सो रहे थे। फिर जो हुआ वो कत्लेआम था। 550 तुर्क सैनिकों में से लगभग सभी मारे गए। अरब विद्रोहियों के सिर्फ दो जवान मारे गए। रास्ता साफ था। लॉरेंस और उसके साथी अकाबा की तरफ बढ़े। तुर्क गैरिसन ने बिना गोली चलाए सरेंडर कर दिया। अकाबा पर कंट्रोल के बाद लॉरेंस और उनके साथी दमिश्क की ओर बढ़े। दमिश्क पर कब्ज़ा कर एक अस्थायी अरब सरकार बना दी गई। जिसके मुखिया बने फैसल लेकिन एक ब्रिटिश जनरल ने इस सरकार को बर्खास्त करते हुए, दमिश्क फ़्रांस को दे दिया। क्यों? क्योंकि साइक्स-पिकॉट एग्रीमेंट के तहत दमिश्क फ्रांस को मिलने वाला था।
 
विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद इसी एग्रीमेंट के तहत मिडिल ईस्ट का बंटवारा हो गया। 1919 से 1920 के बीच पेरिस में एक शांति सम्मलेन हुआ। कहने को यह शांति सम्मलेन था लेकिन असल में जीते हुए देश ये तय करना चाहते थे कि स्पॉइल्स ऑफ वॉर का बंटवारा कैसे हुए। सेकेंड वर्ल्ड वॉर के विश्लेषण में एक बात कही जाती है। पेरिस सम्मलेन के तहत जर्मनी पर भी जुर्माना लगाया गया। जो बाद में हिटलर के उदय और सेकेंड वर्ल्ड वॉर की एक बड़ी वजह बना। कुछ ऐसा ही विश्लेषण मिडिल ईस्ट के लिए किया जा सकता है। पेरिस सम्मलेन के समय तक TE लॉरेंस हीरो बन चुके थे लेकिन अंदर ही अंदर ब्रिटिश अधिकारी उन्हें दुश्मन मान रहे थे। वे अरबों के हक़ की बात कह रहे थे इसलिए उन्हें पेरिस शांति सम्मेलन में प्रवेश से रोक दिया गया। लॉरेंस ने समझाने की कोशिश की। बताया कि अगर अरब हितों का ध्यान नहीं रखा गया तो इराक में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह होगा।

 

ऐसा ही हुआ भी। मई 1920 में इराक में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ। दस हजार लोग मारे गए। इस गड़बड़ी को सुलझाने का काम सौंपा गया नए कोलोनियल सेक्रेटरी विंस्टन चर्चिल को। तीन सालों तक चली मीटिंग्स के बाद 1923 में एक फैसला हुआ। ब्रिटेन फ्रांस और तुर्की के बीच एक एग्रीमेंट हुआ, जिसे लॉसेन संधि के नाम से जाना जाता है। आज मिडिल ईस्ट का जो नक्शा है, जो मोटामोटी लॉसन संधि से ही तैयार हुआ था। इस संधि के बाद तुर्की, इराक सीरिया, जो कभी एक खिलाफत के अंडर आते थे। पूरी तरह अलग-अलग हो गए। तुर्की और सऊदी अरब का करैक्टर आज एकदम अलग-अलग है।

 

मिडिल ईस्ट में जोतने वर्तमान कनफ्लिक्ट हम देखते हैं। वे सभी इसी संधि का नतीजा हैं। इस संधि में कुर्दों का कोई ध्यान नहीं रखा गया। कुर्द मिडिल ईस्ट का एक बड़ा जातीय समूह है। जो दशकों से अलग कुर्दिस्तान के लिए लड़ाई कर रहे हैं। इनके इलाके को तुर्की, इराक, ईरान और सीरिया में बांट दिया गया। जबकि भाषा और कल्चर अलग थे।लिहाजा कुर्द माइनॉरिटी बन गए। कुवैत और ईराक के बीच 1991 में हुई लड़ाई के बीज भी इसी संधि से पड़े। इराक और कुवैत एक हुआ करते थे लेकिन तेल के लालच में कुवैत को अलग देश बना दिया गया। इसी तरह सीरिया से अलग कर लेबनान बना। लेबनान बनाने के लिए ईसाईयों और मुस्लिम इलाकों को जोड़ा गया। जिसके चलते 1975 से 1990 तक सिविल वॉर हुई। 

पिता को धोखा और बेटों को गद्दी 

 

शुरुआत में हमने जिक्र किया था कि कैसे एक पिता को मिले धोखे ने उसके बेटों को जॉर्डन, इराक और सीरिया का राजा बना दिया था। जिस पिता की हम बात कर रहे थे असल में वे मक्का के शरीफ, ‘हुसैन बिन अली अल- हाशमी थे। जिन्हें पहले तो ब्रिटेन के किंग ऑफ हेजाज़ की पदवी दी लेकिन बाद में धोखा दे दिया। दसरल हेजाज़ पर कंट्रोल को लेकर हाशमी परिवार के अलावा एक और फैमिली दावा कर रही थी। ये थी सऊद फैमिली। जिसके नेता इब्न सऊद वहाबी आंदोलन के नेता थे। वे हेजाज़ के शरीफ हुसैन के कट्टर विरोधी थे। जब हुसैन ब्रिटेन के साथ मिलकर तुर्कों से लड़ रहे थे, इब्न सऊद अपनी ताकत बढ़ा रहे थे।

 

मौका देखकर 1924 में इब्न सऊद ने हेजाज़ पर हमला कर दिया। ब्रिटेन जिसने हाशमी फैमिली की मदद से ऑटोमोन को हराया था। उन्होंने इस लड़ाई में इब्न सऊद का साथ दिया, उन्हें हथियार मुहैया कराए। शरीफ हुसैन को भागना पड़ा। मक्का और मदीना सऊद के हाथों में चले गए। इस तरह एक नए राज्य का जन्म हुआ- सऊदी अरब। ‘हुसैन बिन अली ने इसके बाद अपनी बाकी की जिंदगी जॉर्डन में रखकर गुजारी। उनके बेटों का क्या हुआ?

 

हुसैन के बाद उनके बेटे अली ने कुछ वक़्त तक हेजाज़ के सत्ता संभाली लेकिन उन्हें भी हटना पड़ा। हुसैन के दूसरे बेटे फैसल का जिक्र हमें TE लॉरेंस की कहानी में किया था। फैसल ने सीरिया में सरकार बनाई लेकिन फ़्रांस ने उन्हें वहां से हटा दिया। बाद में जब ईराक में ब्रिटने के खिलाफ विद्रोह हुआ। तो लोगों क शांत करने के लिए ब्रिटेन ने फैसल को ईराक का किंग बना दिया। इसके अलावा हुसैन के तीसरे बेटे अब्दुल्ला को ट्रांसजॉर्डन की गद्दी मिली। ये ब्रिटिश प्रोटेक्टोरेट का हिस्सा हुआ करता था। 1946 में इन्हें आजादी मिली और तबसे इसे जॉर्डन कहते हैं। हुसैन बिन अली अल- हाशमी के परिवार में ये इकलौती राजशाही है जो वर्तमान में भी कायम है। 100 साल पहले मिडिल ईस्ट में जो हुआ, उसका असर वर्तमान पर कैसे पड़ता है, फिलिस्तीन उसका एक बड़ा उदाहरण है लेकिन इसके व्यापक असर पड़े हैं, इसके लिए आपको हाल की एक घटना पर लिए चलते हैं। 

अरब देशों का गद्दार!

 

11 फरवरी 2025 के रोज अमेरिका के वाइट हाउस में राष्ट्रपति ट्रम्प और जॉर्डन के किंग ‘अब्दुल्ला बिन अल हुसैन’ के बीच मीटिंग हुई। जॉर्डन के फिलिस्तीन में बड़े स्टेक्स हैं। जॉर्डन फिलिस्तीन के एकदम बगल में तो है ही। इस देश का फिलिस्तीन मुद्दे से जुड़ा लम्बा इतिहास रहा है। ये जानते हुए भी ट्रंप ने किंग हुसैन के सामने ही दो टूक कह दिया, हम गाज़ा को लेने जा रहे हैं। फिलिस्तीन मुद्दे से हमदर्दी रखने वाली आवाजें ट्रम्प से नाराज़ हैं। जाहिर सी बात है लेकिन इस मुद्दे पर किंग हुसैन को भी गुस्से का सामना करना पड़ा। सोशल मीडिया में उन्हें अरब देशों का गद्दार कहा गया। कई लोगों ने इस प्रकरण को उनके परिवार के इतिहास से भी जोड़ दिया।
 
दरअसल जॉर्डन के किंग अब्दुल्ला के परदादा, जिनका नाम अब्दुल्ला था, उन्हें ब्रिटिशर्स के हाथों जॉर्डन की गद्दी मिली। लिहाजा इनके ब्रिटेन से हमेशा अच्छे रिश्ते रहे। 1936 में जब ब्रिटिश सरकार ने फिलिस्तीन को यहूदी और अरब राज्यों में बांटने के लिए पील कमीशन बनाया। 1948 में इजराइल की स्थापना से पहले अब्दुल्ला यहूदी नेताओं के सीक्रेट संपर्क में थे।

 

अरब देशों की तरफ से हमेशा उन्हें शक की नजरों से देखा गया। और उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। 1951 में येरुशलम के अल-अक्सा मस्जिद में एक फिलिस्तीनी युवक ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई। अब्दुल्ला के बाद उनके बेटे को राजा बनाया गया हालांकि मानसिक बीमारी के चलते एक साल बाद ही सत्ता अब्दुल्ला के पोते, 16 साल के हुसैन बिन तलाल के हाथ आ गई। हुसैन बिन तलाल ने दादा की हत्या अपनी आंखो से देखी थी। लिहाजा इस्राएल के मुद्दे पर उन्होंने सावधानी से काम लिया। 1967 में सिक्स डे वॉर के दैरान उन्होंने अरब लीग के साथ युद्ध लड़ा। हालांकि कुछ क्लासिफ़िएड दस्तावेज़ों से उनके CIA से संबंधों के बारे में भी पता चलता है। हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन ऍफ़ केनडी की हत्या से जुड़े कुछ दस्तावेज़ों को डेक्लासिफाय किया गया। इनसे पता चला कि 1959 में जब हुसैन अमेरिका आए, CIA ने उनकी मुलाकात एक हॉलीवुड एक्ट्रेस सूजन कैबोट से करवाई।

 

बाद में एक कैबोट के बेटे ने उनकी हत्या कर दी। कैबोट की हत्या के केस के दौरान ये बात भी सामने आई थी कि कैबोट को, जॉर्डन से हर महीने 1,500 डॉलर मिलते थे। बच्चे के गुजारे के लिए। हुसैन के वक्त में जॉर्डन और इजराइल के बीच एक बड़ी डील हुई। साल 1994 अमेरिका की मध्यस्ता पर जॉर्डन इजराइल को मान्यता देने वाला दूसरा अरब देश बना। बदले में उन्हें अमेरिकी से इकनोमिक ऐड मिली। जॉर्डन के इसी रुख के चलते अमेरिका मिडिल ईस्ट में उसे एक इम्पोरेन्ट पार्टनर मानता है। ये आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि ट्रम्प से मुलाक़ात करने वालों में हुसैन अरब देशों से पहले नेता हैं। मिडिल ईस्ट का ताना बाना अभी भी उलझा हुआ है। लेकिन दिलचस्प बात कि इसकी डोर आप सीधे एक परिवार से जोड़ सकते हैं। फिलहाल इसी नोट पर इस वीडियो को समाप्त करते हैं।

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