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यूक्रेन ने अपने सारे परमाणु हथियार रूस को क्यों सौंप दिए थे? वजह जानिए

रूस और यूक्रेन इन दिनों युद्ध कर रहे हैं। लगातार प्रयास हो रहे हैं लेकिन युद्ध रुकने का नाम नहीं ले रहा। क्या आप जानते हैं कि आज कमजोर दिखने वाले यूक्रेन ने ही कभी अपने परमाणु हथियार रूस को सौंप दिए थे?

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रूस और यूक्रेन की पुरानी कहानी, Photo Credit: Khabargaon

फौज का एक जनरल ट्रेन स्टेशन पर खड़ा है। सामने ट्रेन है। जिसमें कुछ डिब्बे लादे जा रहे हैं। आख़िरी डिब्बा लोड करते ही ट्रेन को झंडी दिखा दी जाती है। ट्रेन रवाना होती है एक देश से दूसरे देश के लिए। यह नजारा देखकर फौज का जनरल सर झुका लेता है। उसके मुंह से दबी आवाज में कुछ शब्द निकलते हैं- 'वेल, दैट्स इट।वी आर सिविलियन्स नाउ।' यानी 'आज से हम सिविलियन हो गए हैं।'
 
यह किस्सा साल 1996 का है। यहां से सीधे 2025 में आएंगे तो जिस जनरल के मुंह से ये बात निकली थी, आज उसके देश का हर नागरिक फौजी बनने पर मजबूर हो गया है। हम बात कर रहे हैं यूक्रेन की। रूस यूक्रेन युद्ध क्यों हुआ? इस सवाल का तमाम पहलुओं से विश्लेषण किया जा सकता है लेकिन इस सवाल का एक महत्पूर्ण सिरा जुड़ा है, 29 साल पहले ट्रेन में लादे गए उन डिब्बों से जो देश से बाहर भेज दिए गए। 

 

1991 में सोवियत विघटन के बाद कई नए देश बने। इनमें से एक था यूक्रेन। सोवियत संघ के बंटवारे के दौरान साल यूक्रेन के हिस्से हथियारों की एक ऐसी खेप आई, जिसने यूक्रेन को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी न्युक्लियर पावर बना दिया। 176 इंटरकांटिनेंटल मिसाइल, 1,900 से ज्यादा न्यूक्लियर वारहेड, 33 बड़े बमवर्षक विमान। यह ब्यौरा है यूक्रेन के न्यूक्लियर जखीरे का। आज इस ज़खीरे का एक भी परमाणु वॉरहेड यूक्रेन के पास होता तो रूस की हमला करने की हिम्मत नहीं होती लेकिन यूक्रेन ने ट्रेन में लादकर तमाम न्यूक्लियर वेपन्स, रूस के हवाले कर दिए। आखिर क्यों? यूक्रेन के पास न्यूक्लियर हथियार आए कैसे? ये हथियार रूस को क्यों दे दिए? और कैसे 32 साल पहले अमेरिका और ब्रिटेन ने यूक्रेन इसी तरह मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया था, जैसा आज किया जा रहा है? यह पूरी कहानी जानेंगे इस एपिसोड में।

 

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रूस और यूक्रेन की कहानी

 

जनवरी 1992 की बर्फीली सुबह। यूक्रेन की राजधानी कीव के एक सैन्य हेडक्वार्टर में अचानक कुछ लोग आ धमकते हैं। मॉस्को और कीव के बीच एक कम्युनिकेशन लाइन थी। वह काट दी जाती है। इसके बाद कमरे में एक और शख्स दाखिल होता है- यूक्रेन के रक्षामंत्री जनरल कोन्स्तान्तिन मोरोज़ोव। मोरोज़ोव आदेश देते हैं- फौज का एक भी कमांडर रूसी नहीं हो सकता। 7 लाख 50 हज़ार सैनिक, जो एक दिन पहले तक सोवियत संघ के सैनिक थे। अब यूक्रेन के प्रति वफादार हो चुके थे। सोवियत विघटन से यूक्रेन को सिर्फ फौज ही नहीं मिली। 
यूक्रेन का एक शहर है। पेरवोमाइस्क- शीत युद्ध के दौरान इस अमेरिका लगातार इस शहर पर नज़र बनाए रखता था। कहने को यहां सोवियत संघ की 43वीं रॉकेट आर्मी का हेडक्वार्टर हुआ करता था लेकिन असल में यह एक सीक्रेट न्यूक्लियर बेस था। जहां जमीन के अंदर, खेतों के नीचे, परमाणु मिसाइलों के बंकर और लॉन्च साइलो छिपे हुए थे। RT-23 नाम की एक सोवियत मिसाइल यहां तैनात रहती थी। जिसे 'मोलोडेट्स' कहते थे। 'मोलोडेट्स' यानी 'जवान आदमी'। यह मिसाइल इतनी ताकतवर थी कि एक बार में, न्यूयॉर्क, लंदन या पेरिस जैसे 10 अलग-अलग शहरों को निशाना बना सकती थी।

 

 

ये तमाम न्यूक्लियर हथियार सोवियत विघटन के बाद यूक्रेन के कब्ज़े में थे। हालांकि, दिलचस्प बात यह था कि इनके लॉन्च कोड अभी भी मॉस्को के पास थे और मॉस्को यानी रूस किसी भी हालत में इन्हें वापस हासिल करना चाहता था। इस प्रॉब्लम के सोलुशन के लिए रूस 1991 से ही कोशिशें शुरू कर चुका था। दिसंबर 1991, कज़ाखस्तान के अल्माती शहर में एक मीटिंग हुई। यूक्रेन, बेलारूस, कज़ाखस्तान और रूस के लीडर एक साथ बैठे। मकसद था सोवियत यूनियन के मिलिट्री हथियारों का बंटवारा। ये किसी बड़े परिवार के बंटवारे जैसा था, जहां हर मेंबर अपने हिस्से की चीज़ मांग रहा था।

 

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रूसी अफसरों का कहना था कि न्यूक्लियर वेपन्स सिर्फ रूस के पास होने चाहिए लेकिन यूक्रेन वालों का तर्क था कि जो हथियार हमारी जमीन पर हैं, वे हमारे हैं। काफी गहमागहमी के बाद अंत में एक समझौता तैयार हुआ। 1992 में यूक्रेन ने रूस, बेलारूस और कजाकिस्तान के साथ लिस्बन प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए। इसके तहत इन देशों को अपने परमाणु हथियारों की संख्या सीमित करनी थी लेकिन चंद महीने बाद ही यूक्रेन ने एक ऐसा कदम उठाया। जिसने रूस की चिंता बढ़ा दी। यूक्रेन की संसद में काफी बहस के बाद सरकार ने न्यूक्लियर वेपन्स को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दिया। इसके बाद रूस ने प्रेशर टैक्टिस का सहारा लिया। न्यूक्लियर वेपन्स की देखरेख का एक्सपीरियंस मॉस्को के पास था। उन्होंने मदद देने में आनाकानी करनी शुरू कर दी। 

क्यों राजी हो गया यूक्रेन?

 

साल 1993 की बात है। रूस के जनरल आई. डी. सर्गेएव पेरवोमाइस्क पहुंचे। न्यूक्लियर डिपो का जायजा लेने। उन्होंने वहां का नज़ारा देखा तो हैरान रह गए। 50 बम रखने वाले डिपो में 240 बम ठूंसे हुए थे। मॉस्को और यूक्रेन दोनों के लिए बड़ी प्रॉब्लम थी। रूस को कैसे भी हथियार वापिस चाहिए थे। वहीं, यूक्रेन को डर था कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए। साल 1986 में चर्नोबिल न्यूक्लियर हादसा हुआ था। चर्नोबिल यूक्रेन में ही पड़ता है। कीव से सिर्फ 90 किलोमीटर दूर। यूक्रेन को जल्द से जल्द न्यूक्लियर मेंटेनेंस की प्रॉब्लम का हल चाहिए था। न उनके पास तकनीक थी और उससे बड़ी प्रॉब्लम - पैसे भी नहीं थे।

 

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1993 की गर्मियों में यूक्रेन में महंगाई का बुरा हाल था। 6 महीने तक हर महीने चीज़ों के दाम डबल होते रहे। दिसंबर में सिर्फ एक महीने में 93% महंगाई! करेंसी की वैल्यू इतना गिरा कि 1 डॉलर के लिए 38,000 यूक्रेनी करेंसी देनी पड़ती थी। दूसरी तरफ रूस, जिसने अब तक साम दाम दंड भेद - कूटनीति के चार हथियारों में से सिर्फ एक का इस्तेमाल किया था। उसने अब दूसरा हथियार आजमाना शुरू किया। 1993 के आखिरी महीनों में एक मीटिंग हुई। जगह - क्रीमिया के समुद्र तट पर स्थित मसांद्रा का एक हंटिंग लॉज। यह जगह कभी सोवियत तानशाह जोसेफ स्टालिन के लिए बनाई गई थी। रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन और यूक्रेन के राष्ट्रपति लियोनिद क्रावचुक। दोनों ने मसांद्रा में मुलाक़ात की। येल्तसिन ने ऑफर दिया, 'अपने परमाणु बम हमें दे दो, काला सागर के जहाज़ों पर दावा छोड़ दो और हम तुम्हारा ढाई अरब डॉलर का कर्ज माफ कर देंगे।'

 

सच्चाई यही थी - सोवियत विघटन के बावजूद यूक्रेन रूस पर निर्भर था। हर महीने चीजों के दाम बढ़ते जा रहे थे और रूस नकेल पर नकेल कसता जा रहा था। मीटिंग के ठीक बाद ही रूस ने यूक्रेन को दी जाने वाली गैस सप्लाई में 25 पर्सेंट की कटौती कर दी। यूक्रेन मजबूर था लेकिन जनता अभी भी न्यूक्लियर हथियार छोड़ने के पक्ष में नहीं थी। यूक्रेन में राजनेताओं का एक धड़ा रूस पर बिलकुल भरोसा करने को तैयार नहीं था। मामला अधर में लटका हुआ था लेकिन फिर इस खेल में एंट्री हुई अमेरिका की। सोवियत विघटन के बाद अमेरिका इकलौती महाशक्ति बन गया था। 1990 का दशक वह दौर था। जब अमेरिका तमाम देशों पर न्यूक्लियर नॉन-प्रोलिफरेशन यानी परमाणु हथियारों को फैलने से रोकने का जबरदस्त दबाव बना रहा था। उदाहरण के लिए 1998 में भारत और पाकिस्तान ने जब परमाणु टेस्ट किए तो उन पर तमाम पाबंदियां लगाई गई। 

अमेरिका और ब्रिटेन की दिलचस्पी

 

इसी प्रकार 1991 में सोवियत विघटन के बाद जैसे ही यूक्रेन के परमाणु हथियारों की बात सामने आई, अमेरिका फॉरेन एक्टिव हो गया। साथ ही ब्रिटेन जैसे देश भी इसमें दिलचस्पी दिखा रहे थे। अमेरिका और रूस की अदावत जगजाहिर है। ऐसे में ये सोचना कठिन है कि अमेरिका यूक्रेन के खिलाफ रूस का साथ देता लेकिन अमेरिका और रूस की इक्वेशन कभी इतनी सिम्पल रही नहीं जितनी दिखाई दे रही थी। 1970 के दशक का किस्सा है। अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर और सोवियत राजनयिक अनातोली दोब्रीनिन के बीच परमाणु हथियारों पर वार्ता चल रही थी। मीटिंग कई दिनों तक खिंचती रही। जिससे दोनों तंग आ चुके थे। ऐसे में एक रोज़ किसिंजर ने दोब्रीनिन से कहा, 'चलिए एक शतरंज के खेल से फैसला कर लेते हैं।' दोब्रीनिन ने जवाब दिया, 'डॉ. किसिंजर, चेस खेला जा सकता है लेकिन खेलने से पहले हमें नियमों पर सहमत होना होगा और मुझे लगता है उसमें भी उतना ही वक्त लगेगा, जितना इस मीटिंग में लग रहा है।'

 

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किस्से का कुल लब्बोलुआब यह कि अमेरिका और रूस के बीच मामला पेचीदा था। अमेरिका रूस को कमजोर करना चाहता था लेकिन एक लिमिट तक। जंगली जानवर को ज्यादा डराओ तो वो हमला कर देता है। अमेरिका को इसी बात का डर था। 

बा-वफ़ा जो आज हैं 
कल बे-वफ़ा हो जाएंगे 

कहानी को जरा रोककर यहां आप इस पूरे घटनाक्रम की वर्तमान से तुलना कीजिए। आज जो कुछ हो रहा है, कहा जा सकता है कि इतिहास खुद को दोहरा रहा है। आज भी यूक्रेन मजबूर है। आज भी यूक्रेन के राष्ट्रपति कह रहे हैं- रूस पर भरोसा नहीं कर सकते। यूक्रेन का एक और पड़ोसी देश है - जॉर्जिया - रूस की टेढ़ी। नजर का शिकार होने वाला यह पहला एक्स सोवियत स्टेट बना। 2008 में जॉर्जिया पर हमला करके रूस ने जॉर्जिया के कुछ हिस्से अपने कब्ज़े में कर लिए। ठीक वैसे जैसे अभी यूक्रेन के साथ हो रहा है। इत्तेफाक देखिए, 1993 में यही जॉर्जिया था- जो यूक्रेन को आगाह कर रहा था।

कैसे तय हुआ फॉर्मूला?

 

किस्सा है कि जॉर्जिया के राष्ट्रपति एडुआर्ड शेवर्दनाद्ज़े और यूक्रेन के राष्ट्रपति लियोनिद क्रावचुक के बीच एक प्राइवेट मीटिंग हुई। क्रावचुक ने अपनी परेशानी बताई कि अमेरिका और रूस, दोनों ही यूक्रेन पर परमाणु हथियार छोड़ने का दबाव डाल रहे हैं। शेवर्दनाद्ज़े ने क्रावचुक से कहा- 'देखिए, मेरी सलाह है कि आप बस एक परमाणु मिसाइल अपने पास रख लें। आज येल्तसिन(रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन) हैं लेकिन किसको पता कि उनके बाद कौन आएगा।' यह आधा मज़ाक, आधी गंभीर सलाह थी। शेवर्दनाद्ज़े को पता था कि रूस से हमेशा खतरा रहेगा। यूक्रेन भी इस बात को जानता था लेकिन अमेरिका के वादे पर वह फिसल गया। 1993 के आखिर में, अमेरिकी वाइस प्रेजिडेंट अल गोर यूक्रेन पहुंचे और एक नया फॉर्मूला पेश किया। अमेरिका यूक्रेन को पैसे देगा, रूस यूक्रेन को न्यूक्लियर फ्यूल देगा और यूक्रेन अपने परमाणु बम रूस को देगा। सब खुश! लेकिन दिलचस्प बात यह थी कि कुछ चीज़ें सीक्रेट रखी गईं।

 

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यूक्रेन नहीं चाहता था कि लोगों को पता चले कि वह सारे बम देने वाला है। इससे देश में विद्रोह खड़ा होने का डर था। वहीं रूस नहीं चाहता था कि यूरेनियम के पैसे जाहिर किए जाएं। वरना बेलारूस और कज़ाखस्तान जैसे एक्स सोवियत स्टेट्स भी वही मांगेंगे। तो ये प्वाइंट्स पब्लिक एग्रीमेंट से हटाकर प्रेजिडेंट्स के प्राइवेट लेटर में डाल दिए गए। एक और मज़ेदार पेच था। अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट के लॉयर्स ने एक चालाकी की। वे 'सिक्योरिटी गारंटी' और 'सिक्योरिटी एश्योरेंस' के बीच अंतर बता रहे थे। यूक्रेन 'सिक्योरिटी गारंटी' मांग रहा था, जिसका मतलब होता - अगर कोई यूक्रेन पर हमला करे, तो गारंटर देश उसकी रक्षा के लिए फौज भेजेंगे (बिल्कुल नाटो के आर्टिकल 5 की तरह) लेकिन अमेरिका उसे सिर्फ 'सिक्योरिटी एश्योरेंस' देना चाहता था - यानी बस वादा कि वह यूक्रेन के बॉर्डर का सम्मान करेंगा।

 

अंत में, डॉक्यूमेंट के रूसी, अंग्रेजी और यूक्रेनी वर्जन में 'एश्योरेंस' शब्द का इस्तेमाल किया गया लेकिन यूक्रेनी वर्जन में 'सिक्योरिटी गारंटीज' का इस्तेमाल हुआ। न्यूक्लियर हथियारों के ट्रांसफर के लिए 1994 में एक डील हुई। यूक्रेन अपने सारे परमाणु हथियार रूस को सौंप देगा और नॉन-न्यूक्लियर स्टेट के रूप में NPT (नॉन-प्रोलिफरेशन ट्रीटी) में शामिल हो जाएगा।
 
बदले में यूक्रेन को चार चीज़ें मिलेंगी:


सिक्योरिटी एश्योरेंस: अमेरिका और रूस यूक्रेन की स्वतंत्रता, संप्रभुता और बॉर्डर का सम्मान करेंगे। 
यूक्रेन को इस यूरेनियम की कमर्शियल वैल्यू के बराबर कॉम्पेनसेट किया जाएगा।
अमेरिका अलग से यूक्रेन को 17.5 करोड़ डॉलर देगा।
यूक्रेन के लिए वेस्ट के दरवाज़े खुलेंगे। 

 

इस एग्रीमेंट पर चार देशों के साइन थे। यूक्रेन, रूस, अमेरिका और ब्रिटेन के लीडर्स ने साइन किए। अमेरिका, रूस और यूके ने वादा किया कि वे यूक्रेन की सॉवरेनटी और बॉर्डर का सम्मान करेंगे, इकोनॉमिक प्रेशर या मिलिट्री फोर्स का इस्तेमाल नहीं करेंगे और यूक्रेन पर कभी न्यूक्लियर अटैक नहीं करेंगे। अब सवाल ये कि अगर अमेरिका ने यूक्रेन के साथ समझौता किया तो वह रूस के खिलाफ युद्ध में सीधे मदद के लिए क्यों नहीं आता? इंटरनेशनल डिप्लोमेसी में हर शब्द के खास मायने होते हैं।
 
- अमेरिका ने यूक्रेन के साथ जो डील की। उसमें 'सिक्योरिटी गॉरन्टी' के बदले 'सिक्योरिटी एश्योरेंस' टर्म का इस्तेमाल किया गया। 
- दूसरा यूक्रेन, रूस, अमेरिका और ब्रिटेन ने जिस समझौते पर साइन किया। उसे एग्रीमेंट नहीं, 'मेमोरेंडम' नाम दिया गया। बुडापेस्ट मेमोरेंडम। मेमोरंडम से आशय ये कि ये डॉक्यूमेंट बॉन्डिंग नहीं था। लिहाजा आप देखेंगे कि अमेरिका कभी यूक्रेन को सीधे तौर पर मदद नहीं देता। बड़े हथियार या बूट्स ऑन ग्राउंड नहीं भेजे जाते। न अमेरिका की तरफ से न ब्रिटेन। 

बाक़ायदा सिर्फ ये दो देश ही इस मेमोरेंडम का हिस्सा नहीं थे। समझौते को मज़बूती देने के लिए, फ्रांस और चीन (बाकी दो न्यूक्लियर पावर्स) ने यूक्रेन को अलग से एश्योरेंस स्टेटमेंट भेजे थे। न्यूक्लियर हथियारों की कहानी हालांकि यहां ख़त्म नहीं हुई। रूस न्यूक्लियर हथियार खरीद सकता लेकिन हथियारों के बेड़े में सिर्फ यही नहीं थे। कई ऐसी चीजें थीं, जिनकी कीमत चुकाने के लिए रूस के पास भी पैसा नहीं था। ऐसे में बुडापेस्ट मेमोरेंडम पर हस्ताक्षर के अगले दो सालों में कई ऐसी दिलचस्प घटनाएं घटीं, जिन्होंने रूस यूक्रेन रिश्तों के भविष्य की आहट देनी शुरू कर दी थी।


रूसी राष्ट्रपति का पिज्जा प्रेम

 

साल 1994 की बात है। रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन अमेरिका की स्टेट विजिट पर थे। न्यूक्लियर वेपन्स जैसा गंभीर मामला टेबल पर था। लेकिन इस दौरे की सबसे बड़ी सुर्खी बनी- येल्तसिन का पिज़्ज़ा प्रेम। हुआ यह कि एक रात सीक्रेट सर्विस एजेंट्स ने येल्तसिन को अपने अंडरवियर में वाशिंगटन डीसी की सड़क पर पाया। वह नशे में टैक्सी बुलाने की कोशिश कर रहे थे। जब पूछा गया तो येल्तसिन बोले - मुझे किसी हाल में अभी के अभी पिज़्ज़ा चाहिए। हैरान एजेंट्स ने उन्हें बड़ी मुश्किल से वापस गेस्ट क्वार्टर में पहुंचाया। अब दिलचस्प बात सुनिए। इसके अगली रात फिर एक बार वही घटना घटी। येल्तसिन नशे की हालत में एक बार फिर रफूचक्कर हो गए। ख्वाहिश इस बार भी वही थी - पिज़्ज़ा।

 

येल्तसिन अमेरिका की मेहमाननवाजी का फायदा उठा रहे थे। वहीं, यूक्रेन के लिए दिक्कतें वहीं की वहीं थी। वह न्यूक्लियर वेपन देने को राजी तो हो गया लेकिन हथियारों के अलावा न्यूक्लियर सिस्टम्स से जुड़ी ऐसी तमाम चीजें थीं, जिन्हें नष्ट किया जाना था। अमेरिका, रूस और दुनिया का दबाव था कि यूक्रेन परमाणु हथियार भी छोड़े और वे प्लेटफॉर्म भी, जो न्यूक्लियर अटैक के लिए बने थे लेकिन यूक्रेन के पास उसका भी जरिया नहीं था। 1994 की शुरुआत में, यूक्रेन ने अमेरिका से एक अजीब सी शॉपिंग लिस्ट मांगी। क्रेन, जीप, ट्रक की बैटरियां, पावर सॉ और 2,200 टन पेट्रोल और हाइड्रॉलिक ऑयल।

 

यह लिस्ट देखकर अमेरिकी अफसर हैरान हुए। उन्होंने सोचा था कि यूक्रेन हाई-टेक न्यूक्लियर डिसमेंटलमेंट किट मांगेगा लेकिन यूक्रेन को तो बेसिक टूल्स चाहिए थे। क्यों? क्योंकि परमाणु मिसाइल के कई साइलो तक पहुंचने के लिए भी उनके पास सही सामान नहीं था। यूक्रेनी सैनिक पुराने जंक यार्ड से स्पेयर पार्ट्स ढूंढकर लाते थे। न्यूक्लियर टेक के अलावा यूक्रेन के लिए एक बड़ी सरदर्दी थी। 19 Tu-160 बॉम्बर विमान। सोवियत एयरफोर्स का सबसे बड़ा शो-पीस। हर विमान की कीमत 30 करोड़ डॉलर। इन्हें 'व्हाइट स्वान' कहा जाता था। ये विमान इतने बड़े थे कि एक बार में 12 न्यूक्लियर मिसाइल ले जा सकते थे। इन्हें भी यूक्रेन अपने पास नहीं रख सकता था।
 
अब बड़ा सवाल था कि इन विमानों को खरीदेगा कौन? सिर्फ एक ही पॉसिबल कस्टमर था- रूस। यूक्रेनी अफसर इन विमानों की कीमत पर रूस से बारगेनिंग करते रहे। कुछ अफसरों ने सोचा - क्या इन्हें पार्ट्स में बेचा जा सकता है? शायद ईरान या चीन को? लेकिन वेस्टर्न कंट्रीज ने तुरंत मना कर दिया। नतीजा? ज्यादातर बॉम्बर स्क्रैप में बदल गए। इन महंगे विमानों का अंत सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि कोई कस्टमर ही नहीं था।

 

अगर यह सब यूक्रेन के पास रहता तो वह आगे चलकर एक ताकतवर फ़ोर्स बना सकता था लेकिन अमेरिका की आर्म ट्विस्टिंग और मीठे वादों पर भरोसा कर, यूक्रेन ने सब कुछ त्याग दिया। बदले में क्या मिला?- सूरजमुखी के कुछ फूल। जून 1996 में, यूक्रेन के आखिरी परमाणु वारहेड रूस भेज दिए गए। इसके बाद पेरवोमाइस्क के एक डीकमिशंड ICBM साइलो में, अमेरिका, यूक्रेन और रूस के अधिकारी इकठ्ठा हुए। उनके हाथ में फावड़े और पानी के कैन थे। सबने मिलकर साइलो की मिट्टी पर सूरजमुखी के बीज रोपे। इन बीजों से सूरज मुखी के फूल निकले। इन्हें पोस्ट कोल्ड वॉर की आइकोनिक इमेज के रूप में प्रसारित किया गया लेकिन फूल सिर्फ फूल होते हैं। मौसम की मेहरबानी पर आश्रित। फूल अगर इस गलतफहमी में रहे कि मौसम सदा एक सा रहेगा तो कभी न कभी उसका असलियत से सामना होगा ही। जैसा यूक्रेन के साथ हो रहा है। पेरवोमाइस्क में जैसे ही पहला बसंत गुजरा, मास्को के गलियारों में एक नया नाम गूंजने लगा - व्लादमीर पुतिन। 

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