क्या सच में राणा सांगा ने बाबर को हिंदुस्तान आने का न्योता दिया था?
राणा सांगा पर समाजवादी पार्टी के नेता रामजी लाल सुमन के बयान के बाद से हंगामा मचा हुआ है। एक तरफ उनकी जमकर आलोचना हो रही है, दूसरी तरफ वह अपने बयान का बचाव कर रहे हैं।

राणा सांगा पर मचा है हंगामा, Photo Credit: Khabargaon
साल 1526 की बात है। मुग़ल सल्तनत की नींव रखने वाले बाबर को नींद नहीं आ रही थी। आधी रात उन्होंने बिस्तर छोड़ा और फौजी कैम्प में पहुंच गए। तमाम सरदारों को इकठ्ठा किया गया। सैनिकों ने देखा कि बाबर एक मेज़ पर खड़े हो गए हैं। उनके हाथ में सोने और चांदी के प्याले हैं। वे प्याले जिनसे शराब पी जाती थी। बाबर को शराब का ऐसा शौक था कि जब हिंदुस्तान में अच्छी शराब न मिली, उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में गज़नी से ऊंटों पर लादकर शराब मंगवाई। बाबर को प्याला हाथ में लिए देख, सैनिकों को समझ नहीं आ रहा था कि किस बात का जश्न है लेकिन यह जश्न नहीं बाबर की तरकीब थी। सैनिकों का मनोबल बढ़ाने की। बाबर ने देखते ही देखते चांदी और सोने के प्यालों को जमीन पर पटक दिया और शराब के सारे ड्रम उल्टा दिए। कैम्प की सारी शराब जमीन पर बहा दी गई। यह सब क्या हो रहा है, सब सोच ही रहे थे कि तभी बाबर ने कुरआन हाथ में ले ली और सबसे वचन लेने को कहा - आज के बाद कोई एक बूंद शराब नहीं छुएगा क्योंकि जो जंग होने वाली है, वह इस्लाम की जंग है।
बाबरनामा के मुताबिक इस तरीके ने फौज पर गज़ब असर किया। अब तक जो सैनिक बेहाल नज़र आ रहे थे, अचानक जोश से भर गए। पानीपत के मैदान में जब बाबर की फौज का सामना इब्राहिम लोधी से हुआ, उनकी संख्या कम थी लेकिन फिर भी जीत बाबर की हुई और इस तरह हिंदुस्तान में मुग़ल वंश की नींव पड़ी।
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पानीपत की जंग में अगर इब्राहिम लोदी जीत जाते तो? यूं होता तो क्या होता, जैसे कई सवाल इतिहास को लेकर पूछे जाते रहे हैं। ऐसा ही लेकिन काफी संजीदा, एक सवाल भारत में सालों से बहस का मुद्दा है। बाबर को भारत आने का न्योता किसने दिया? बाबरनामा में एक जगह बाबर लिखते हैं कि राणा सांगा ने उनसे भारत आने की अपील की थी। इस बिना पर दावा किया जाता है कि राणा सांगा ने बाबर को बुलाया। हालांकि, इसके बरअक्स मानने वालों की भी कमी नहीं। कई लोग इसके लिए पंजाब के गवर्नर दौलत खान लोदी को कारण मानते हैं। असलियत क्या थी? बाबर हिंदुस्तान क्यों आए? किसने दिया न्यौता? इन तमाम सवालों के जवाब जानेंगे आज के एपिसोड में।
बाबर की कहानी
वर्तमान उज़्बेकिस्तान में है एक इलाका है। फरगना- एक बड़ी घाटी, पहाड़ों से घिरी। साल 1483 में बाबर का जन्म यहीं हुआ था। छोटा सा फरगना मिला था विरासत में, लेकिन बाबर की रगों में तैमूर और चंगेज़ खान- दोनों का खून था। इसलिए बाबर ने समरकंद को जीतने की कोशिश की। तीन बार कब्ज़ा किया लेकिन तीनों बाद सत्ता हाथ से निकल गई। इस बात से बाबर इतने निराश हुए कि अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, 'जितने दिन मैं ताशकंद में रहा, उतने दिन मैं बहुत ही दुखी और तंगदस्ती में रहा। देश कब्ज़े में नहीं था और न ही इसके मिलने की कोई उम्मीद थी। ज़्यादातर नौकर चले गए थे और जो कुछ साथ रह गए थे, वह ग़रीबी के कारण मेरे साथ नहीं घूम सकते थे।'
समरकंद में मिली हार की भरपाई करने के लिए 1504 में बाबर ने काबुल पर कब्ज़ा कर लिया। हालांकि, शुरू से ही बाबर की नज़र हिंदुस्तान पर थी। हिंदुस्तान की उपजाऊ जमीन, सोना चांदी- इस सब की खबर बाबर को पहले से थी। साथ ही वह चाहते थे कि अपने पूर्वज तैमूर की तरह हिंदुस्तान पर जीत हासिल करें। बाबरनामा में दिए विवरण से साफ़ पता चलता है कि बाबर को हिंदुस्तान आने के लिए किसी न्यौते की जरूरत नहीं थी। 1526 में उन्होंने दिल्ली पर जीत हासिल की लेकिन यह कोई पहला मौका नहीं था जब बाबर ने हिंदुस्तान में दाखिल होने की कोशिश की हो।
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अपनी आत्मकथा में बाबर ने स्पष्ट लिखा है कि उन्होंने पांच बार हिंदुस्तान पर हमला किया। पहली चार बार में उसे सफलता नहीं मिली। बाबर लिखते हैं, 'काबुल जीतने के बाद से ही हिंदुस्तान की इच्छा मेरे भीतर निरंतर थी लेकिन कभी बेगों के कमजोर परामर्श के कारण, कभी बड़े और छोटे भाइयों के साथ न आने के कारण, हिंदुस्तान पर चढ़ाई संभव नहीं हुई।' बाबर ने 1505 में भारत पर पहला हमला किया, इसके बाद 1519 तक तीन और हमले हुए लेकिन बाबर पंजाब से ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाए। हर बार वह सिंधु नदी के पार लूट-पाट करके वापस काबुल लौट जाते थे।
अब सवाल यह है कि पांचवी बार में ऐसा क्या हुआ कि बाबर ने सीधे दिल्ली जीत ली? 1526 में बाबर ने सीधे दिल्ली से लोहा लिया। इसकी एक बड़ी वजह थी, लोदी वंश की आपसी रंजिश। दरअसल, पंजाब का एक गवर्नर हुआ करता था- दौलत खान लोदी। लोदी वंश का होने के बावजूद उसकी निष्ठा इब्राहिम लोधी के प्रति नहीं थी। किसके प्रति थी? इब्राहिम लोदी के चाचा आलम खान लोदी के प्रति जो इब्राहिम खान से बगावत कर गुजरात में शरण लिए हुए थे। आलम खान खुद अपने लिए गद्दी चाहते थे। बाबरनामा के अनुसार, आलम खान ने बाबर से मदद मांगी थी। साथ ही दौलत खान ने भी बाबर को भारत आने का न्योता दिया था।
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दौलत खान को डर था कि उसकी गवर्नरी जल्द ही छिन जाएगी। साल 1523 में उसने अपने बेटे गाजी खान को दिल्ली भेजा। गाज़ी खान ने वापिस आकर दिल्ली के हालत बताए, जिसने दौलत खान की शंकाओं को और बलवती कर दिया। लिहाजा दौलत खान ने इब्राहिम लोदी को हटाने के लिए बाबर से हाथ मिला लिया। लोदी वंश में चल रही आपसी रंजिश, बाबर के भारत आने का एक बड़ा कारण बनी लेकिन अगला सवाल ये कि इस प्रकरण में राणा सांगा का नाम कैसे जुड़ा?
राणा सांगा और बाबर
साल 1482 की बात है। मेवाड़ में सिसोदिया राजपूतों का राज था। 12 अप्रैल के दिन राणा रायमल के यहां एक बेटे का जन्म हुआ। नाम रखा गया, राणा संग्राम सिंह। आगे चलकर लोग उन्हें राणा सांगा के नाम से बुलाने लगे। राणा रायमल के इससे पहले भी दो बेटे पैदा हो चुके थे। परंपरा के हिसाब से मेवाड़ की गद्दी पर राणा संग्राम सिंह का नंबर सबसे आख़िरी था लेकिन होनी ऐसी हुई कि राणा रायमल की मृत्यु के बाद गद्दी उन्हें ही मिली। भाइयों से हुई लड़ाई में उनकी एक आंख भी चली गयी थी। अपने शासन काल में राणा सांगा ने राजपूतों को एक किया और अपनी शक्ति बढ़ाई। कुछ ब्योरों के हिसाब से उन्होंने 100 से भी ज़्यादा लड़ाइयां लड़ीं। जिसके चलते उनके शरीर पर 80 घाव हो गए थे। एक हाथ कट गया था और एक पैर ने भी काम करना बंद कर दिया था। इसके बावजूद उन्होंने, मालवा और गुजरात के शासकों को हराया और आज के राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर गुजरात और अमरकोट, सिंध तक अपनी रियासत को फैला दिया था। राणा सांगा और लोदी वंश के बीच भी कई बार जंगें हुईं। जिनमें जीत राणा सांगा की हुई। इससे पता चलता है कि राणा सांगा उत्तर भारत में एक बड़ी ताकत थे।
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खुद अपनी आत्मकथा में बाबर ने लिखा है, 'हिंदुस्तान में राणा सांगा और दक्कन में कृष्णदेव राय से महान शासक कोई नहीं है।' एक जगह वह लिखते हैं, 'राणा को अपने अधीन इलाकों से इतना राजस्व मिलता है कि वह एक लाख घुड़सवार रख सकता है।' राणा सांगा ने बाबर को भारत आने का न्योता दिया, यह दावा बाबरनामा की एक लाइन के आधार पर किया जाता है। बाबरनामा में बाबर ने लिखा है, 'जब हम अभी काबुल में ही थे, राणा सांगा ने एक दूत भेजा था। राणा का प्रस्ताव था- अगर बादशाह उस तरफ से दिल्ली के पास आएंगे, तो मैं इस तरफ से आगरा की तरफ कूच करूंगा। आगरा और दिल्ली पर कब्ज़ा हो चुका है लेकिन वे मूर्तिपूजक अभी तक अपनी जगह से हिला तक नहीं।'
इस प्रसंग में एक दिलचस्प बात है। पहले आगे की बात सुनिए। इस लाइन के बाद बाबर लिखते हैं, 'मैंने इब्राहिम लोदी को हरा दिया और दिल्ली-आगरा पर कब्ज़ा कर लिया।' दरअसल, बाबर ने अपनी डायरी में यह बात पानीपत की जंग के बाद लिखी है। यानी भारत आने के बाद बाबर ने यह बात लिखी न कि पहले। इस लाइन से आशय लगाया जा सकता है कि राणा सांगा ने बाबर को आमंत्रित किया था लेकिन कई इतिहासकार इससे इत्तेफाक नहीं रखते। इतिहासकार जीएन शर्मा और गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार खुद बाबर ने खुद राणा सांगा से संपर्क किया था, न कि इसका उल्टा। इतिहास में क्या हुआ? अब ठीक-ठीक तो कोई नहीं बता सकता लेकिन राणा सांगा खुद कई बार लोदी वंश को हरा चुके थे। उनके पास बाबर से कहीं बड़ी सेना थी। इसलिए बाबर को न्योता देने का तुक कम दिखाई देता है। इस तर्क को एक बल इस बात से भी मिलता है कि खुद राणा सांगा ने बाबर से दो जंगें लड़ी थीं। स्वाभाविक रूप से हमारा अगला सवाल होगा - बाबर और राणा सांगा के बीच जंग हुई क्यों?
खानवा की जंग
अप्रैल 1526, खैबर दर्रे को पार करने के बाद पानीपत के मैदान में बाबर और इब्राहिम लोदी का आमना सामना हुआ। पानीपत में मिली जीत के बाद बाबर का दिल्ली पर कब्ज़ा हो गया। दिल्ली की अथाह धन दौलत अब बाबर की थी। बाबर को कलन्दर कहा जाने लगा। वह एक बहुत बड़ी सल्तनत के सुलतान बन गए थे। हालांकि, दिल उनका भी काबुल में था। हिंदुस्तान की हवा बाबर को रास नहीं आई। किस्सा है कि इस जंग के बाद इब्राहिम लोदी की मां के साथ बाबर ने अच्छा सुलूक किया था। तोहफे में उन्हें एक बड़ा महल दिया लेकिन बदले में उन्होंने बाबर के खाने में जहर मिला दिया। किस्मत से उस रोज़ बाबर का गोश्त खाने को जी नहीं था। इसलिए जान बच गई। दिल्ली और आगरे पर कब्ज़े के बाद बाबर ने धोलपुर, ग्वालियर के किले भी अपने कब्ज़े में किए लेकिन उत्तर भारत की बहुत बड़ी ताकत से सामना अभी बाकी था।
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जैसा पहले बताया, मेवाड़ के राणा सांगा उत्तर भारत के सबसे ताकतवर शासक थे। चित्तौड़ से आगरा तक उनकी रियासत फैली थी। मारवाड़, जालोर, सिरोही, डुंगरपुर सभी राजघराने उनके साथ थे और अपने जीवन में वह एक भी जंग हारे नहीं थे। बाबर और राणा सांगा की फौज का पहला सामना बयाना में हुआ। फरवरी 1527 में। स्कॉटिश इतिहासकार विलियम एर्स्किन इस जंग के बारे में लिखते हैं, 'बयाना में मुग़लों को अहसास हुआ कि उनका सामना अफ़ग़ानों से कहीं भयंकर सेना के साथ हुआ है। राजपूत किसी भी वक्त जंग के मैदान में दो-दो हाथ करने के लिए तैयार रहते थे और अपने सम्मान के लिए जान देने से भी उन्हें रत्ती भर गुरेज नहीं था।'
जंग में बाबर की सेना हारी और उन्हें वापस आगरा लौटना पड़ा। बाबरनामा में बाबर ने खुद लिखा, 'काफिरों ने वह भयंकर युद्ध किया कि मुग़ल सेना का मनोबल टूट गया, वह घबरा गए।' बयाना की जंग में हार के बाद बाबर की सेना में शामिल अफ़ग़ान सैनिकों ने उनका साथ छोड़ दिया। तुर्क भी शिकायत करने लगे थे। एक पराया मुल्क जो उन्हें रत्ती भर रास नहीं आ रहा था, उसे डिफेंड करने का क्या तुक था? इब्राहिम लोधी को हराकर उन्हें बहुत सारा सोना मिला था। उन्होंने बाबर से गुजारिश की कि वापस काबुल लौट चलें। इस डिफिकल्ट सिचुएशन में बाबर ने अपनी सेना में जोश भरने के लिए धर्म का सहारा लिया चूंकि राणा सांगा की फौज में कई अफ़ग़ान सैनिक भी थे। इसलिए बाबर ने ऐलान किया, 'राजपूतों का साथ देने वाला हर अफ़ग़ान काफिर और गद्दार है।'
बाबर और राणा सांगा का आमना-सामना
इसके बाद 16 मार्च, 1527 को आगरा के 60 किलोमीटर दूर खानवा में बाबर और राणा सांगा का आमना सामना हुआ। बाबरनामा के अनुसार राणा सांगा की सेना में 2 लाख सैनिक थे। कुछ और इतिहासकार इस संख्या को 40 हजार तो बाकी कुछ एक लाख बताते हैं। हालांकि, यह बात सभी मानते हैं कि राणा सांगा की सेना बाबर से कहीं ज्यादा शक्तिशाली थी। संख्या की इस कमी को बाबर ने आर्टिलरी से पूरा किया। बाबर के पास तोपें थीं। राजपूत सेना घोड़ों और हाथियों के बल पर लड़ रही थी। खानवा के मैदान में जब जंग चल रही थी, तब मुगलों की एक गोली राणा सांगा को लगी और वे बेहोश हो गए। सेनापति के गिरते ही राजपूत सेना में अफरा-तफरी मच गई। राणा सांगा को जंग से दूर ले जाया गया। झाला के सरदार अज्जा ने राणा सांगा का भेष धरकर लड़ने की कोशिश की लेकिन अंत में जीत बाबर की हुई।
बाबर ने जीत का जश्न मनाया। बाबरनामा के अनुसार, 'मरे हुए सैनिकों की खोपड़ियों से मीनार बनवाई गई,' जैसा कभी तैमूर ने किया था।
राणा सांगा इस जंग में गंभीर रूप से घायल हो चुके थे। दोबारा लड़ने की ख्वाहिश थी लेकिन उनके बाकी सरदार इसके खिलाफ थे। बाबर के खिलाफ दोबारा लड़ना उन्हें खुदकुशी लग रहा था। माना जाता है कि उनमें से किसी एक ने राणा सांगा को जहर दे दिया। जनवरी 1528 में राणा सांगा की मृत्यु हो गयी। माने राणा ने गद्दारी की या न की, इसपर चाहे बहस होती रहे लेकिन राणा के साथ गद्दारी अवश्य हुई थी। राणा सांगा की हार भारतीय इतिहास में निर्णायक साबित हुई क्योंकि इसके बाद बाबर को चुनौती देने वाला कोई बचा नहीं था। हिंदुस्तान की सत्ता पर अब उनकी पूरी पकड़ बन चुकी थी। हालांकि बाबर इस साम्राज्य को ज्यादा दिन भोग नहीं पाए।
अपने शासनकाल के अंतिम दिनों में बाबर अपने बेटे हुमायूं की बीमारी से चिंतित थे। हुमायूँ बुखार से पीड़ित था और उसकी हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी। 'हुमायूंनामा' में बाबर की बेटी, गुलबदन बानो, बताती हैं। एक रोज़ बाबर ने हुमायूं के बिस्तर के चारों ओर तीन बार चक्कर लगाए और दुआ मांगी। बाबर ने कहा, 'हे ख़ुदा, अगर जान के बदले जान ली जा सकती है, तो मैं हुमायूं के बदले अपनी जान देता हूं।' बकौल गुलबदन बानो इसके बाद धीरे-धीरे हुमायूं की तबीयत सुधरने लगी, जबकि बाबर बीमार हो गए। 26 दिसंबर, 1530 को, 47 वर्ष की आयु में, आगरा में बाबर ने अंतिम सांस ली। उसे पहले आगरा में ही दफनाया गया लेकिन अंतिम इच्छानुसार बाद में बाबर की अवशेषों को काबुल भेज दिया गया।
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