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खिलाफत को जिंदा करने के लिए जब भारत में हुई थी सीक्रेट डील!

एक शख्स ऐसा था जिसने खलीफा बनने की कोशिश की लेकिन ख्वाब कभी पूरा नहीं हुआ। खिलाफत आंदोलन को जिंदा करने के लिए भारत में एक सीक्रेट डील भी हुई थी। पढ़िए यह रोचक किस्सा।

khilafat movement

खलीफा बनने वाले शख्स की कहानी

1980 के दशक की बात है। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री बॉब हॉक को खबर मिली कि हैदराबाद के आख़िरी निज़ाम उनके देश में रह रहे हैं। उन्होंने निज़ाम से मिलने की इच्छा जाहिर की। बात मीडिया में फ़ैली। निज़ाम का पता ढूंढा गया तो पता चला निज़ाम मुक्कर्रम जाह, एक फ़ार्म में भेड़ें चरा रहे हैं। मुक्कर्रम जाह के पिता ओस्मान अली कभी दुनिया के सबसे अमीर शख्स हुआ करते थे। जब पूछा गया कि निज़ाम का वारिस पर्थ में भेड़े क्यों चरा रहा है, मुक्कर्रम जाह ने जवाब दिया, “इस्लाम के पहले खलीफा अबु बक्र भी चरवाहे थे, फिर मैं क्यों नहीं हो सकता”?

 

गौर करिए। सवाल निज़ाम होने के नाते किया गया था लेकिन मुक्कर्रम जाह ने खलीफा से तुलना कर जवाब दिया। उस वक्त तो उनकी इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन इस एक लाइन के मायने अगर किसी को पता होते तो इस्लामिक दुनिया में भूचाल आ सकता था। नहीं आया क्योंकि असलियत छुपी थी एक सीक्रेट दस्तावेज़ में। ये कहानी इसी सीक्रेट दस्तावेज़ की है। खिलाफत आंदोलन का नाम सुना होगा आपने। अलिफ़ लैला की इस किश्त में जानेंगे कि खिलाफत को बचाने के लिए हैदराबाद के राजमहल में कौन सी डील हुई?
क्या उस्मानिया सल्तनत के खात्मे के बाद भी खिलाफत बच गई थी? और इस्लामिक दुनिया के आखिरी खलीफा की कब्र हिंदुस्तान में क्यों है। 

मुकर्रम जाह नहीं रहे

 

साल 2024 से शुरू करते हैं। हैदराबाद के आख़िरी नवाब मुकर्रम जाह की मृत्यु की खबर आई। दिलचस्प बात यह कि अरबों खरबों की संपत्ति का वारिस अपने आख़िरी दिन इस्तांबुल में एक छोटे से फ्लैट में बिता रहा था। इस बात का सिम्बॉलिस्म आपको आगे कहानी में समझ आएगा। इस्तांबुल कभी उस्मानिया सल्तनत या ऑटोमन एम्पायर का केंद्र हुआ करता था। इस सल्तनत ने पांच सौ सालों तक यूरोप, एशिया और अफ्रीका के बड़े हिस्सों पर राज किया था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उस्मानिया सल्तनत का अंत हुआ। मुस्तफा कमाल अतातुर्क की लीडरशिप में तुर्की एक रिपब्लिक बना। ऑटोमोन सुलतान गद्दी से उतार दिए गए। 

 

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अब हुआ यूं कि ऑटोमोन सुलतान सिर्फ सुलतान नहीं थे। उन्हें खलीफा की पदवी हासिल थी। खलीफा यानी रेप्रेज़ेंटेटिव। 632 में पैगम्बर मोहम्मद की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारियों को खलीफा कहा गया। एक तरह ये दुनियाभर में सुन्नी मुस्लिम समुदाय के सबसे बड़े नेता थे। कुल मिलाकर बात ये कि उस्मानिया सल्तनत के खात्मे के बाद भी खिलाफत कायम रही। अतातुर्क को मालूम था, खिलाफत को ख़त्म करने पर बड़ा रेजिस्टेंस हो सकता है। इसलिए उन्होंने आख़िरी ऑटोमन सुल्तान महमद के चचेरे भाई और प्रतिद्वंद्वी अब्दुल मजीद द्वितीय को खलीफा बना दिया। 

 

 

अब्दुल मजीद के पास कोई सत्ता नहीं थी। वे शासक प्रवर्ति के थे भी, कला में उनका दिल ज्यादा लगता था। पेंटिंग करते थे, क्लासिकल म्यूजिक सुनते थे। अतातुर्क को उनसे कोई खतरा नहीं था। लेकिन पैगंबर मुहम्मद के उत्तराधिकारी होने के नाते उनके पास एक सिम्बॉलिक ताकत थी। इस कारण उन पर खासी नजर रखी जाती थी। अतातुर्क को शक था कि अब्दुल मजीद कोई न कोई साजिश कर सकते हैं। लिहाजा एक रोज़ उनके प्रधानमंत्री ने तुर्की की नेशनल अस्मेबली में खड़े होकर कहा, 'अगर कभी भी कोई खलीफा इस देश के भविष्य में हस्तक्षेप करने का विचार अपने दिमाग में लाता है, तो हम उसका सिर काटने में संकोच नहीं करेंगे।'

 

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महज 6 महीने बाद ही अब्दुल मजीद को देश निकाला दे दिया गया। उन्हें और उनके परिवार को ओरिएंट एक्सप्रेस ट्रेन पर बिठाकर स्विट्जरलैंड भेज दिया गया। इसके साथ ही ख़त्म हो गई वो खिलाफत जो 1300 साल पहले शुरू हुई थी। खिलाफत के खात्मे का पूरी दुनिया में विरोध हुआ। सबसे बड़ी आवाज थी हिंदुस्तान के मुसलमानों की। भारत में खिलाफत आंदोलन को महात्मा गांधी जैसे नेताओं का समर्थन मिला। लेकिन खिलाफत की मदद करने वालों में सबसे रसूखदार और ताकतवर नाम था - निजाम मीर ओस्मान अली। 

दुनिया के सबसे अमीर आदमी: हैदराबाद के निज़ाम

 

1930 के दशक में, मीर उस्मान अली खान, टाइम मैगज़ीन के हिसाब से, दुनिया के सबसे अमीर आदमी थे। ब्रिटिश डेली द गार्जियन के एक लेख में इतिहासकार विलियम डैलरिम्पल लिखते हैं, 'निज़ाम के महलों में 14 हजार 718 लोगों का स्टाफ था। निजाम ओस्मान अली खान की 42 मिस्ट्रेस हुआ करती थीं। उनका स्टाफ अलग से। निज़ाम के मुख्य महल चौमोहल्ला में 6000 नौकर काम करते थे। 3 हजार अरब बॉडीगार्ड्स थे। 28 नौकर तो सिर्फ पानी लाने के काम के लिए रखे थे। वहीं 38 का काम झूमरों की सफाई करना होता था। इसके अलावा 10-12 ऐसे नौकर थे, जो सिर्फ निजाम के लिए अखरोट पीसने का काम किया करते थे।'

 

एक बार एक ब्रिटिश नागरिक आईरिस पोर्टल को निजाम के तहखानों में जाने का मौका मिला। सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए उन्होंने पाया कि तहखाना ट्रक और लॉरियों से भरा था। उनके टायरों की हवा निकल गई थी। और ऊपर से तारपोलीन बिछा रखा था। तारपोलीन हटाया तो देखा, हर ट्रक सोने के सिक्कों और हीरों से भरा हुआ था। निज़ाम की हैसियत का अंदाजा इस बात से लगाइए कि वे 900 करोड़ रूपये के हीरे को कागज़ दबाने वाले पेपरवेट की तरह इस्तेमाल करते थे।

 

निज़ाम की दौलत गोलकोंडा खानों से आती थी, जहां से कोहिनूर हीरा भी निकला था। इतनी दौलत के बावजूद निज़ाम अपनी कंजूसी के लिए ज्यादा जाने जाते थे। एक किस्सा सुनिए। निज़ाम के राजमहल में एक परंपरा थी कि किसी बड़े मौके पर जनता निज़ाम को नजराना पेश करती थी। एक बार यूं हुआ कि एक शख्स ने निज़ाम को नजराने में एक अशर्फी दी। निज़ाम ने अशर्फी उठाई ही थी कि वो उनके हाथ से छूट गई और खनखनाती हुई सीढ़ियों से लुढ़कने लगी। फिर जो हुआ उसके चर्चे दुनियाभर में हुए। निज़ाम अपनी कुर्सी से उठे। कोहनियों और घुटनों के बल रेंगते हुए उस अशर्फी के पीछे दौड़ पड़े। अशर्फी सीढ़ियों से नीचे खड़े एक शख्स के पैरों से टकराकर रुक गई। निज़ाम ने उसे पकड़ा और अपने पोटली में डाल लिया। 

 

कंजूसी के ऐसे तमाम किस्सों के बावजूद इस्लामिक दुनिया में निज़ाम का ओहदा काफी बड़ा था। तमाम मुस्लिम राजघरानों से उनके संबंध से। देश ही नहीं विदेश में भी। ऑटोमन राजघराने से भी उनके दोस्ती थी। लिहाजा 1924 में जब खलीफा अब्दुल मजीद का परिवार जब फ्रांस जाकर बसा। यहां उनके रहने का इंतज़ाम हैदराबाद के निज़ाम ने ही किया। खलीफा का परिवार जिस महल में रहता था, उसका किराया निज़ाम ही देते थे। निज़ाम खिलाफत को दुबारा कायम करने के लिए भी भरपूर समर्थन दे रहे थे। 
तुर्की में तो ये सब होना संभव नहीं था। लिहाजा इस दोस्ती से पैदा हुआ एक विचार- खिलाफत हिंदुस्तान में। हैदरबाद रियासत में।
 
खिलाफत आंदोलन के एक बड़े नेता हुआ करते थे - शौकत अली। अली ब्रदर्स वाले शौकत अली। आपके भाई मोहम्मद अली जौहर का जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना में बड़ा योगदान था। वह कहानी फिर कभी। अभी के लिए लौटते हैं खिलाफत आंदोलन पर। शौकत अली इसमें भाग ले रहे थे। गांधी जी के असहयोग आंदोलन को समर्थन दिया था। बाद में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग से ये जुड़े और जिन्ना के सहयोगी बने। शौकत अली ने हैदराबाद रियासत और ओटोमन्स के बीच गठजोड़ बनाने के लिए एक आईडिया दिया। जिससे खिलाफत को मजबूती मिलती। ये आईडिया था शादी का। 

 

खलीफा अब्दुल मजीद की एक बेटी थी- शहज़ादी दुर्रुशहवर। इनकी शादी निज़ाम के सबसे बड़े बेटे और उनके वारिस आज़म जाह, से कर दी गई। जिससे ओटोमनों का दुनिया के सबसे अमीर मुस्लिम परिवार के साथ करीबी रिश्ता बन गया। इस शादी का एक गहरा राजनीतिक मकसद था, जिसे इस्तांबुल की तुर्की सरकार से लेकर बॉम्बे के उर्दू अखबारों तक, हर कोई समझता था। शादी से पहले ही, तुर्की सरकार ने अंग्रेजों को चेताया था कि एक "खिलाफत साजिश" चल रही है, जिसे लंदन बहुत देर से समझ पाया। दिल्ली में, सर चार्ल्स वाटसन जो कि अंग्रेज़ सरकार में पॉलिटिकल सेक्रेट्री थे, उन्होंने लिखा: "हैदराबाद दरबार में पूर्व शाही ओटोमन परिवार की एक राजकुमारी का होना साफ तौर पर परेशानी की बात है।" शादी से कुछ दिन पहले, टाइम मैगज़ीन ने लिखा: "इस इस शादी से होने वाला बेटा दौलत और खिलाफत, दोनों का वारिस होगा। उसे 'असली खलीफा' घोषित किया जा सकता है।"

मुकर्रम जाह: खिलाफत का दोबारा उदय

 

1933 में, शादी के दो साल से भी कम समय बाद, शहज़ादी दुर्रुशहवर भारत से फ़्रांस लौटीं, जहां उन्होंने राजकुमार मुकर्रम जाह को जन्म दिया। मुकर्रम जाह का पालन-पोषण भारत में हुआ। हालांकि 1948 में हैदराबाद रियासत के विलय के बाद वो भी विदेश चले गए। खिलाफत का क्या हुआ? इस सवाल का जवाब एक सीक्रेट दस्तावेज़ में कैद था। जिसका पता 21 वीं सदी में आकर चला। ऑस्ट्रेलियाई लेखक जॉन जुब्रज़ीकी अपनी किताब 'द लास्ट निज़ाम' में बताते हैं, 'ब्रिटिश लाइब्रेरी के पुराने दस्तावेजों में उन्हें एक लेटर मिला। ये लेटर हैदराबाद में ब्रिटिश पोलिटिकल रेजिडेंट, सर आर्थर लोथियन ने लिखा था। लोथियन ने लेटर में लिखा कि खलीफा अब्दुल मजीद ने अपनी एक वसीयत बनाई थी। जिसे अंग्रेज़ों से छिपाने की कोशिश की गई थी। ऐसा क्या था इस वसीयत में? 

 

इसमें अगले खलीफा की घोषणा की गई थी। 19 नवंबर 1931 को निज़ाम को भेजे एक लेटर में अब्दुल मजीद लिखते हैं। "मुझे भरोसा है कि इस नए रिश्ते का पहला बेटा खलीफा का पद, और हैदराबाद का शासन दोनों संभालेगा” ये बेटा और कोई नहीं खलीफा अब्दुल मजीद के पोते मुकर्रम जाह थे। उनके लेटर का एक ही मतलब था - खलीफा ने चुपके से अपने पोते के जरिए भारतीय उपमहाद्वीप में ओटोमन खिलाफत को फिर से जिंदा करने की योजना बनाई थी और इस प्लान में और दुनिया के सबसे अमीर आदमी, निज़ाम भी शामिल थे।

 

इस योजना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा और भी था। खलीफा अब्दुल मजीद ने कहा था कि मरने के बाद उन्हें हिंदुस्तान में ही दफनाया जाए। हिंदुस्तान में आख़िरी खलीफा की कब्र के क्या मायने हो सकते थे, ये बताने की जरूरत नहीं है। यहां से इस कहानी में अब हम महाराष्ट्र के औरंगाबाद पहुंचते हैं। ये इलाका कभी हैदराबाद रियासत का हिस्सा हुआ करता था।

 

औरंगबाद की एक तहसील है - खुल्दाबाद। यहां सैंकड़ों सूफी संतों को दफनाया गया है। यहां एक छोटी से पहाड़ी पर एक मकबरा बना है। लगभग 15 मीटर ऊंचा और 8 मीटर चौड़ा, ऊपर एक बड़े तुर्क शैली के गुंबद के साथ, जालीदार खिड़कियां और चारों तरफ मेहराब। बीच में जहां कब्र होती है, वो जगह खाली है। ये कब्र आख़िरी खलीफा अब्दुल मजीद के लिए बनाई गई थी। जैसा पहले बताया अब्दुल मजीद यहीं दफन होना चाहते थे लेकिन उनकी ये इच्छा पूरी नहीं हो पाई। 

ख़लीफ़ा की कब्र

 

साल 1944। पेरिस के एक मशहूर पार्क के पास अब्दुल मजीद को दिल का दौरा पड़ा। ये तब हुआ जब सेकेंड वर्ल्ड वॉर चालू थी। अमेरिकी फौज पेरिस को नाजी जर्मनी से आजाद कराने की कोशिश कर रहे थे। भारी गोलाबारी के बीच ही अब्दुल मजीद को दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई। वे हिंदुस्तान में दफन होना चाहते थे लेकिन अब तक लेकिन दुनिया बहुत बदल चुकी थी। हैदराबाद के निज़ाम उन्हें भारत लाना चाहते थे लेकिन भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ते तनाव को देखते हुए, उन्होंने खलीफा के शव को भारत लाना ठीक नहीं समझा। इसके बाद खलीफा ने परिवार ने कोशिश की कि उन्हें तुर्की ले लाया जाए लेकिन तुर्की की सरकार ने इसकी इजाजत भी नहीं दी। लिहाजा अब्दुल मजीद पेरिस में दफनाया गया। 1954 में उनके अवशेष सऊदी अरब के मदीना, ले जाया गया। जहां उनकी कब्र आज भी मौजूद है। 

 

खिलाफत की आख़िरी निशानी इसी के साथ ख़त्म हो गई। खलीफा के पोते, मुकर्रम जाह को अगला खलीफा बनाने का सपना था लेकिन वह भी पूरा नहीं हो पाया। 1948 में हैदराबाद के विलय के बाद मुकर्रम जगह इंग्लैंड चले गए। उनकी मां, यानी खलीफा की बेटी, दुर्रुशहवर 92 वर्ष तक जिन्दा रही। साल 2006 में लन्दन में उनकी मौत हुई। तुर्की सरकार उन्हें अपने देश लाना चाहती थी लेकिन उन्होंने ये कहते दिया था कि जब उनके पिता को इजाजत नहीं मिली तो उन्हें क्यों मिले।

 

मुकर्रम जाह 1967 में अपने दादा की मृत्यु पर निज़ाम बने लेकिन खलीफा की पदवी पर उन्होंने कभी दावा नहीं किया। 1971 में भारत सरकार ने उनकी निज़ाम की उपाधि को समाप्त कर दिया। 1973 में मुकर्रम जगह पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया जाकर बस गए। जहां उन्होंने 2 लाख हेक्टेयर का एक भेड़ फार्म खरीदा। दो दशक यहां बिताने के बाद 1996 में वे इस्तांबुल चले गए। वहां, ओटोमन खिलाफत के उत्तराधिकारी ने बाकी की जिंदगी उसी शहर के एक छोटे से अपार्टमेंट में रहकर गुजारी, जहां कभी उनके पूर्वज शासन किया करते थे। 

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