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गंगवाना की लड़ाई: जब 1000 घुड़सवारों ने 40 हजार की सेना को हराया

राजस्थान में एक ऐसा युद्ध भी हुआ था जिसने इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाया। यह कहानी उस युद्ध की है जिसमें 1000 घुड़सवारों ने 40 हजार की सेना को हरा दिया था।

battle of gangwana

गंगवाना की लड़ाई की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

पुष्कर की झील का पानी उस दिन रेत पर छपाकें मारते हुए कतरा रहा था। रेत गर्म थी। सूरज की गर्मी से नहीं, एक हजार राठौड़ योद्धाओं का उबलता लहू था जो रेगिस्तान में गिरा और एक बहुत पुरानी कहावत को झूठा साबित कर गया। कहते हैं, रेत पर लिखा कभी कुछ ठहरता नहीं लेकिन 18वीं सदी में मारवाड़ की धरती पर एक ऐसी लड़ाई लड़ी गई। जिसने रेत के टीलों को कीर्ति स्तंभों में तब्दील कर दिया। कोई GRR मार्टिन होता तो कहता, 'अ बैटल ऑफ सैंड एंड ब्लड' असली नाम गंगवाना की लड़ाई। 

 

साल -1741, तारीख - 11 जून। एक तरफ- जयपुर के सवाई जय सिंह, साथ में मुग़ल साम्राज्य की 40 हजार की फौज और तोपखाने। दूसरी तरफ- एक हजार राठौर घुड़सवार, जिनका सेनापति एक पुराने पाप का प्रायश्चित करने आया था। लड़ाई हुई तो इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने लिखा, भेड़ों के झुंड पर जैसे शेर छोड़ टूट पड़े हों। अलिफ़ लैला की इस किश्त में आज कहानी गंगवाना के युद्ध की।
 
जयपुर और मारवाड़ 

 

आज जो जमीन है, वक्त में पीछे जाते ही नक़्शे में तब्दील हो जाती है। आज का राजस्थान पहले कई रियासतों में बंटा था- मेवाड़, मारवाड़, मेवात, आदि। गंगवाना की लड़ाई में मुख्य करैक्टर दो रियासतें थीं। मारवाड़ और जयपुर (या आमेर रियासत)। इस लड़ाई में एक तीसरा कैरेक्टर भी था। मुग़ल सल्तनत। मुग़ल हिंदुस्तान में सेन्ट्रल ताकत थे और हर रियासत अपने अपने तरीके से मुगलों से डील करती थी। जयपुर के राजा सवाई जय सिंह। किस्सा है कि जब जय सिंह छोटे थे, तब उनके पिता राजा बिशन सिंह उन्हे औरंगजेब के दरबार में ले गए। औरंगजेब ने हाथ पकड़ लिया और पूछा, ‘अब तुम क्या कर सकते हो?’ हाजिर जवाब जय सिंह ने कहा, 'जब आप जैसे बड़े बादशाह ने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए हैं, तब तो मैं सब से बड़ा बन गया हूं।' औरंगजेब ने खुश होकर उन्हें सवाई की उपाधि दे दी।

 

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राजा जय सिंह ने मुग़लों की ओर से कई युद्धों में हिस्सा लिया। कुल मिलाकर बात यह कि राजा जय सिंह और मुग़लों के अच्छे रिश्ते हुआ करते थे। मुग़लों की तरफ से उन्हें मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया था। अपने वक्त में वह नॉर्थ इंडिया के सबसे पावरफुल रूलर्स में से एक हुआ करते थे। इतिहासकार यदुनाथ सरकार के अनुसार, 'पारम्परिक तलवार और ढाल के बजाय राजा जय सिंह ने अपनी फौज को बंदूकों से लैस किया। उन्होंने तोपखाने तैयार करवाए। जिनके चलते उनके पास एक मजबूत आर्टिलरी हुआ करती थी।' राजा जय सिंह ने जयवाण नाम की एक तोप बनवाई थी। जो अपने समय में दुनिया की सबसे बड़ी तोप थी। राजा जय सिंह की अहमियत का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि औरंगज़ेब के वक्त में लागू हुआ जजिया टैक्स ख़त्म करवाने वाले भी राजा जय सिंह ही थे। 

जसवंत सिंह से क्या चूक हो गई?

 

बहरहाल, हम अब इस कहानी के दूसरे पक्ष यानी मारवाड़ पर आते हैं। मारवाड़ और मुग़लों का रिश्ता हमेशा से कॉम्प्लिकेटेड रहा। शाहजहां के दौर तक दोनों के रिश्ते अच्छे हुआ करते थे। बाकायदा जोधपुर (मारवाड़) की राजकुमारी की शादी अकबर के बेटे जहांगीर से हुई थी। यह रिश्ता ख़राब हुआ साल 1658 में। हुआ यूं कि दारा शिकोह और औरंगज़ेब के बीच गद्दी को लेकर लड़ाई शुरू हुई। मारवाड़ के राजा जसवंत सिंह ने इस जंग में दारा शिकोह का साथ दिया।

 

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15 अप्रैल, 1658, औरंगज़ेब और जसवंत सिंह के बीच एक जंग हुई। उज्जैन से 20 किलोमीटर दूर धर्मतपर में हुई इस जंग में जसवंत सिंह का पलड़ा भारी था लेकिन उनसे एक गलती हो गई। औरंगज़ेब की ताकत कम थी। लिहाजा उन्होंने अपने भाई मुराद से मदद मांगी। जसवंत सिंह चाहते तो पहल करते हुए औरंगज़ेब पर धावा बोल सकते थे लेकिन उन्होंने मुराद को आने दिया। जसवंत सिंह को लगा कि शाही सेना के बल पर वह दारा शिकोह के दोनों दुश्मन, मुराद और औरंगज़ेब को एक साथ निपटा देंगे। इससे उनका कद और ऊंचा होगा लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। लोककथाओं के अनुसार इस जंग के बाद जब जसवंत सिंह अपने किले में पहुंचे और खाने के लिए बैठे तो देखा, खाना लकड़ी के बर्तनों में परोसा गया है। जसवंत सिंह पूछते हैं लकड़ी के बर्तन क्यों?

 

 

इस पर रानी जवाब देती हैं- 'लकड़ी के बर्तन में इसलिए कि चांदी के बर्तनों से जो आवाज़ होती वह आपको डरा देती।' धरमतपुर की जंग में जसवंत सिंह हार गए थे। इतना ही नहीं जसवंत सिंह, जिनका पक्ष ले रहे थे- दारा शिकोह वह भी हार गए। औरंगज़ेब ने गद्दी पर बैठने के बाद तमाम रियासतों को बुलावा भेजा। मारवाड़ की तरफ राजकुमार पृथ्वीराज को भेजा गया। मारवाड़ ख्यातों में ज़िक्र मिलता है कि औरंगज़ेब ने राजकुमार को एक पोशाक तोहफे में दी। जिसे पहनने के बाद राजकुमार की तबीयत बिगड़नी शुरू हुई और मौत हो गई। बाद में पता चला कि वह जहर बुझी पोशाक थी। यह खबर सुनते ही जसवंत सिंह शॉक में चले जाते हैं और कुछ समय बाद उनकी भी मृत्यु हो जाती है।
 
कहानी का लब्बोलुआब यह है कि औरंगज़ेब के वक्त में मारवाड़ और मुग़लों के रिश्ते ख़राब हो चुके थे। इक्वेशन में इस वेरिएबल ने आगे गंगवाना की जंग पर एक बड़ा असर डाला। 

गंगवाना की लड़ाई हुई क्यों?
 
इसके लिए हमें चलना होगा अठारवीं सदी की शुरुआत में। औरंगज़ेब की मौत के बाद मुग़ल कमजोर हो चुके थे। लिहाजा रियासतों की ताकत में इजाफा हुआ। कौन ज्यादा ताकतवर होगा, इसे लेकर रजवाड़ों के बीच एक नई टसल शुरू हो गई। हंगामे की शुरुआत हुई एक राजा की मौत से। कहानी का अगला सिरा वहीं से शुरू होता है। जहां पिछला ख़त्म हुआ था।

 

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मारवाड़ के राजा जसवंत सिंह की मृत्यु के वक्त उनकी एक रानी पेट से थीं। उनसे एक बेटा पैदा हुआ - अजीत सिंह- वही मारवाड़ की गद्दी के वारिस थे लेकिन औरंगज़ेब ने उन्हें वारिस मानने से इनकार कर दिया। किस्सा है कि मुग़ल फौज ने जब मारवाड़ पर हमला किया, अजीत सिंह की धायमाता ने अपने बेटे को उनके स्थान पर रखा और उन्हें लेकर भाग गई। इसके बाद मुग़लों ने एक नई चाल चली। औरंगज़ेब ने दाई के बेटे को अजीत सिंह बताकर उन्हें मारवाड़ का जागीरदार बना दिया। अजीत सिंह जब बड़े हुए तो उन्होंने अपने सेनापति दुर्गादास राठौड़ के साथ मिलकर मुग़लों के खिलाफ जंग छेड़ी और औरंगज़ेब की मौत के बाद 1708 में मारवाड़ की गद्दी पर काबिज़ हो गए। औरंगज़ेब के बाद मुग़ल गद्दी पर एक के बाद एक कई बादशाह बदले लेकिन अजीत सिंह की मुग़लों से दुश्मनी कायम रही। एक के बाद एक वो कई मुग़ल ठिकानों पर हमला करते रहे। साल 1723, उन्होंने अजमेर पोस्ट पर हमला कर 25 मुग़ल अफसरों के सर कलम कर दिए। इसका जवाब देने के लिए मुग़ल फौज ने मारवाड़ पर एक बार फिर हमला किया। 

 

हमला इतना जोरदार था कि अजीत सिंह को संधि करनी पड़ी। इस संधि के तहत अजमेर वापिस लौटाया गया, साथ ही अजीत सिंह के बड़े बेटे अभय सिंह को दिल्ली दरबार भेजना पड़ा। अभय सिंह जब दिल्ली में थे, उसी दौरान एक अजीब घटना घटी। 23 जून, 1724 की रात। अजीत सिंह जब गहरी नींद में थे। उनकी हत्या कर दी गई। अब यu हत्या किसके इशारे पर हुई। इसे लेकर मतभेद है। फारसी इतिहासकार कामवर खान की किताब, तज़किरात-उल-सलातीन-ए-चग़ताई के अनुसार, अजीत सिंह की हत्या उनके एक और बेटे, बख्त 
सिंह ने की थी। क्यों? इस मामले में जोधपुर दरबार की तरफ से जयपुर पर इल्ज़ाम लगाया जाता है। जैसा पहले बताया कि महाराजा अजीत सिंह की हत्या के वक्त उनके बेटे अभय सिंह दिल्ली में थे। मुग़ल बादशाह ने उन्हें मारवाड़ का नया शासक नियुक्त किया। गद्दी पर बैठने के बाद अभय सिंह ने मथुरा में जाकर सवाई जय सिंह की बेटी से शादी की। इस रिश्ते के जरिए अभय सिंह एक जयपुर जैसा ताकतवर साझेदार चाहते थे लेकिन उनके इस कदम के चलते लोगों को शक हुआ कि अजीत सिंह की हत्या में उनका हाथ था और यह सारा आयोजन सवाई जय सिंह और अभय सिंह की मिलीभगत से रचा गया था।
 
नतीजा वही जो होना था- अभय सिंह के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गया। परिवार में दो गुट बन गए। अभय सिंह और बख्त सिंह एक तरफ जबकि उनके बाकी तीन भाई एक तरफ। इस गृह युद्ध के खात्मे के लिए अभय सिंह ने जय सिंह से मदद मांगी। जयपुर की मदद से अभय सिंह विद्रोह को दबाने में सफल रहे। मुग़लों के साथ उनके रिश्तों में सुधार हुआ। उन्हें गुजरात का सूबेदार बना दिया गया। वहीं इस जंग में अभय सिंह की मदद करने वाले बख्त सिंह को नागौर की जागीर मिल गई।
 

क्यों छिड़ गया युद्ध?

 

1740 के दशक तक मारवाड़ में सब कुछ ठीक चल रहा था। नादिर शाह के हमले के बाद दिल्ली और भी कमजोर हो गई थी। लिहाजा सवाई जय सिंह भी अपनी ताकत में खासा इजाफा कर चुके थे। शांति के इस माहौल में शोर एक बार फिर बरपा। और एक बार फिर इसके सूत्रधार बने बख्त सिंह। जैसा पहले बताया बख्त सिंह के पास नागौर की जागीर थी। महत्वाकांक्षाएं उनकी भी थीं। लिहाजा उन्होंने अपने पड़ोसी बीकानेर से पंगा लेना शुरू कर दिया। बीकानेर और नागौर के बीच पुराना सीमा विवाद था। इसका फायदा उठाते हुए बख्त सिंह ने अभय सिंह को बीकानेर पर हमला करने के लिए राजी कर लिया। 

 

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बीकानेर के राजा जोरावर सिंह ने जयपुर के महाराजा सवाई जय सिंह से मदद मांगी। जय सिंह ने अभय सिंह को पत्र भेजा- बीकानेर को छोड़ दो लेकिन अभय सिंह माने नहीं। जवाबी खत में लिखा, 'यह हमारा अंदरूनी मामला है, आप दखल न दें।' इस बात पर जय सिंह भड़क उठे। साल 1740, 20 हजार की फौज लेकर जयसिंह ने मारवाड़ पर कूच कर दिया। जय सिंह का पलड़ा भारी था। उन्होंने अजीत सिंह के भाई बख्त सिंह को भी अपनी तरफ मिला लिया था। लिहाजा अंत में अभय सिंह को समझौते के लिए राजी होना पड़ा। जयपुर और मारवाड़ के बीच एक ऐसी संधि हुई जिसने मारवाड़ को लगभग जयपुर का उपनिवेश बना दिया। 

संधि के अनुसार:
-जयपुर के महाराजा को 20 लाख रुपये हर्जाना देना था।
-मुग़ल सम्राट को एक लाख रुपये नकद, 25,000 रुपये के आभूषण और तीन हाथी भेंट करने थे।
- मारवाड़ का कोई कारिंदा बिना जय सिंह की अनुमति के मुग़ल दरबार में पेश नहीं हो सकता। 
- अभय सिंह के सलाहकार वहीं होंगे जिन्हें जयपुर का समर्थन होगा

संधि की तमाम शर्तें डिटेल में इसलिए बताई क्योंकि यह संधि ही आगे वाले युद्ध का कारण बनी। संधि की शर्तें मारवाड़ को माननी पड़ी लेकिन राठौरों के लिए ये अपमान का घूंट पीने जैसा था। महज एक साल बाद ही मारवाड़ में आवाजें उठने लगी - बदला। महाराजा अभय सिंह ने जयपुर से बदला लेने के लिए सेना इकट्ठा करनी शुरू कर दी। यह खबर जैसे ही जयपुर तक पहुंची। उन्होंने भी युद्ध का बिगुल बजा दिया। मुग़ल फौज को साथ मिलाकर सवाई जय सिंह ने एक विशाल सेना तैयार की और आर्टिलरी के साथ अजमेर की तरफ बढ़ गए। यहां से हम गंगावाना के मैदान में दाखिल होंगे, जहां जयपुर और मारवाड़ के बीच एक ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी गई।

गंगवाना की जंग

 

रजवाड़ों में जंग के समय, एक परंपरा निभाई जाती थी। कुलदेवता की एक मूर्ति हाथी पर रखकर जंग के मैदान तक ले जाई जाती और जंग पूरी होने तक वहीं रहती। गंगवाना की जंग का एक किस्सा है। युद्ध के दौरान गिरधरजी की एक मूर्ति गायब हो गई। यह मूर्ति मारवाड़ की तरफ से लड़ रहे बख्त सिंह की थी। जंग के दौरान जिस हाथी पर यह मूर्ति रखी थी, वह भाग गया। जयपुर के सैनिकों ने उसे पकड़ा और मूर्ति अपने पास रख ली। अब बख्त सिंह जो थे, बिना गिरधर की पूजा किए पका हुआ भोजन नहीं खाते थे। दो दिन तक उन्होंने फलों से काम चलाया। फिर तीसरे दिन एक दूत भेजा- सवाई जय सिंह के पास। -'गिरधर जी को यहां भेज दें, ताकि मैं भोजन कर सकूं।' जय सिंह ने तुरंत हाथी में सवार कर मूर्ति वापिस भेजी और साथ में दूत से कहा, 'बख्त सिंह की वीरता के हम कायल हैं।'
 
जंग के बाद विरोधी भी तारीफ़ को मजबूर हो जाए, ऐसा क्या हुआ था गंगवाना में? बात यह थी कि मारवाड़ की तरफ से जब जंग के नगाड़े बजे। बख्त सिंह को भी बुलावा भेजा गया। बख्त सिंह दरबार में दाखिल हुए। सब गुस्से से उनकी ओर देख रहे थे। एक साल पहले जब मारवाड़ को शर्मनाक संधि के लिए राजी होना पड़ा था, उसमें बख्त सिंह की बराबर गलती थी। वह राजा जय सिंह के पाले में चले गए थे। इसलिए पूरे मारवाड़ ने उन पर विश्वासघात का आरोप लगाया। तमाम उंगलियां अपनी ओर उठते देख, बख्त सिंह ने भरी सभा में ऐलान किया- गलती मुझसे हुई है, पश्चाताप भी मैं ही करूंगा। मारवाड़ की पूरी सेना छोड़, केवल एक हजार घुड़सवारों के साथ बख्त सिंह जंग के मैदान में घुस गए। जहां उनका सामना जयपुर की 40 हजार की फौज से होना था।

 

11 जून 1741, पुष्कर झील से 11 मील उत्तर-पूर्व में जयपुर की फौज डेरा जमाए हुए थी। सामने तोपों की एक लम्बी कतार थी ताकि किसी हमले का सामना किया जा सके। बख्त सिंह अपनी हजार की फौज लेकर जब वहां आए तो साफ़ पता था हार निश्चित है। कहां एक हजार घुड़सवार और कहां 40 हजार की फौज लेकिन बख्त सिंह की यह लड़ाई सिर्फ लड़ाई नहीं थी। उन्हें पश्चाताप पूरा करना था। देखते-देखते एक हजार घुड़सवार जयपुर की फौज पर टूट पड़े। इतिहासकार जदुनाथ सरकार के अनुसार ऐसा लगता था, 'जैसे भेड़ों के झुण्ड पर बाघ छोड़ दिए गए हों। भक्त सिंह और उनके सैनिकों ने जयपुर की रक्षा पंक्तियों पर हमला किया। तोपों की लाइन तोड़ते हुए वे सीधा सैनिकों के बीच घुस गए। घुड़सवारों का हमला इतना जबरदस्त था कि राठौड़ सेना जयपुर की पूरी फौज को तोड़ते हुए पार निकल गई और वहां पहुंच गई जहां कैंप लगे हुए थे। तंबू और सामान तबाह कर दिए गए। भक्त सिंह ने जयपुर घराने की एक खास मूर्ति सीताराम जी को भी अपने कब्ज़े में ले लिया।'


मुगल सेना ने साथ नहीं दिया

 

अचानक हुए इस हमले से जयपुर कैम्प में अफरातफरी मच गई। राठौड़ घुड़सवार जंग के मैदान में एक सिरे से दूसरे सिरे तक भागते रहे। बीच में जो भी आया, मार डाला गया। जय सिंह को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि क्या हो रहा है। उनकी तोपें, उनकी वफादार सेना बिखर चुकी थी। खुद को संभालने के लिए उन्होंने खुद को जंग से मैदान से पीछे किया। उन्हें उम्मीद थी कि मुग़ल फौज उनकी मदद करेगी लेकिन तीन मुग़ल जनरल जो, जयपुर का साथ दे रहे थे। वे दूर एक टीले पर खड़े इस जंग को देखते रहे। मुगल सम्राट ने जय सिंह की मदद के लिए अपने तीन जनरलों के साथ 10 हजार आदमी भेजे थे लेकिन लड़ाई ने मुगल सैनिकों के बीच इतना डर पैदा कर दिया कि बड़ी संख्या में सैनिकों ने अपनी पोस्ट छोड़ दी। लड़ाई के बाद, मुगल जनरल अपने बचे हुए सिर्फ सौ सैनिकों को ही बुला पाए।

 

अंत में जब राजा जय सिंह को संभलने का कुछ मौका मिला, उन्होंने एक नए रणनीति बनाई। राठौड़ घुड़सवारों को तोपों से निशाना बनाया गया। कुछ ही घंटे में जंग का मैदान धूल के गुबार से भर गया। जब तक धूल छटी, राठौड़ घुड़सवारों में से सिर्फ 70 जीवित बचे थे। एक गोली बख्त सिंह को भी लगी थी। उन्हें जंग के मैदान से पीछे हटना पड़ा।
 
बख्त सिंह के पीछे हटने के बाद, जयपुर की सेना ने युद्ध के मैदान पर कब्जा तो जमा लिया लेकिन सेना का मनोबल गिर चुका था। जय सिंह भी इसके बाद आगे लड़ाई नहीं कर पाए। इस युद्ध में उन्हें टेक्निकली जीत मिली थी लेकिन ऐसी जीत जो हार से भी बदतर थी। युद्ध के बाद जैसा कुछ देर पहले बताया, उन्होंने बख्त सिंह की खूब तारीफ़ की और गिरधरजी की मूर्ति भी लौटा दी। वहीं सीतारामजी की मूर्ति, जो राठौड़ों ने कब्ज़ा ली थी। उसे भी वापिस कर दिया गया। युद्ध के बाद मारवाड़ की प्रतिष्ठा एक बार फिर बहाल हुई। महज एक हजार राठौरों ने चालीस हजार की सेना को हिला दिया था। उनके लिए यही सबसे बड़ी जीत थी। इस युद्ध के मायने क्या थे, ऐसे समझिए कि हजारों जंग लड़ चुके सवाई जय सिंह के लिए गंगवाना की लड़ाई उनके जीवन की अंतिम लड़ाई सिद्ध हुई। जंग के बाद मारवाड़ और जयपुर के बीच एक संधि हुई लेकिन सवाई जय सिंह इस जंग के शॉक से कभी उबर नहीं पाए। दो साल बाद ही यानी 21 सितंबर, 1743 को उनकी मृत्यु हो गई। 

मारवाड़ का क्या हुआ?


राजा अभय सिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे राम सिंह को गद्दी मिली लेकिन बख्त सिंह को ये स्वीकार कर नहीं था। उन्होंने राम सिंह को गद्दी से हटाया और खुद गद्दी पर बैठ गए। बख्त सिंह के बाद उनके बेटे विजय सिंह और राम सिंह के बीच उठापटक हुई और मारवाड़ में एक और गृह युद्ध की शुरुआत हुई। जो अंग्रेज़ों के आगमन तक चलती ही रही। फिलहाल इस कहानी का पटाक्षेप यहीं पर करते हैं। 

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