Kesari Chapter 2: चेट्टूर शंकरन नायर की पूरी कहानी क्या है?
जल्द ही अक्षय कुमार की एक फिल्म आने वाली है। केसरी चैप्टर 2 नाम से आ रही इस फिल्म को एक ऐसे शख्स के जीवन पर बनाया गया है जिसने अंग्रेजों से जमकर पंगे लिए लेकिन कभी माफी नहीं मांगी।

केसरी 2 की असली कहानी, Photo Credit: Khabargaon
20 वीं सदी की शुरुआत से पहले की बात है। मालाबार यानी आज का केरल। ब्रिटिश सरकार का एक नौजवान अफसर एक लड़की पर फ़िदा हो गया। लड़की शादीशुदा लेकिन अफसर महोदय लंदन से नए नए पधारे थे। उन्हें लगता था ये अनपढ़ भारतीय क्या जानें शादी क्या होती है। अफसर को लगा, मालाबार में कानूनी शादी जैसा कुछ नहीं। लिहाजा पहुंच गए लड़की के घर। उन दिनों अंग्रेज़ों से पंगा लेने की हिम्मत कम लोगों में थी। इसलिए लड़की का जो पति था, वह पहली बार तो कुछ कह नहीं पाया। अगले दिनों में ब्रिटिश अफसर जब लगातार घर के चक्कर लगाने लगा, लड़की के पति ने एक तरकीब निकाली।
अगले रोज़ जैसे ही ब्रिटिश अफसर लड़की के घर पहुंचा, उसने वहां एक अजीब नजारा देखा। घर के बाहर हाथी खड़ा था। सजा धजाया हाथी और सर पर सोने का मुकुट। बगल में मशालें जल रही थीं। बैंड-बाजे बज रहे थे, घर के सामने भारी भीड़ जमा थी!
अंग्रेज़ कुछ समझ पाता, इतने में लड़की का पति सामने आया और अंग्रेज़ अफसर से बोला, 'हुज़ूर, ये सब आपके सम्मान में। मुझे उम्मीद है कि आगे भी जब कभी आप आना चाहें, तो मुझे पहले से बता देंगे ताकि मैं आपका ऐसा ही शानदार स्वागत कर सकूं।'
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अंग्रेज़ अफसर हकबका गया। उसने वहां से रफूचक्कर होने की कोशिश की लेकिन जुलूस उसके पीछे-पीछे चल दिया और दूर तक पीछा करता रहा। उस दिन के बाद अंग्रेज़ अफसर ने लड़की की तरफ देखने की भी हिम्मत नहीं की। अंग्रेज़ी राज के दौर का यह दिलचस्प किस्सा हमें मिला, चेट्टूर शंकरन नायर की बायोग्राफी से। यह कौन हैं?
एक वकील, जो अंग्रेज़ों के जमाने में मद्रास हाई कोर्ट का जज बना और फिर बना मुवक्किल। जिसने लंदन की एक अदालत में पूरे ब्रिटिश सरकारी लाव लश्कर का अकेले सामना किया, जलियांवाला बाग़ की सच्चाई दुनिया को बताई और जब माफी मांगने को कहा गया तो 500 ब्रिटिश पाउंड यानी आज के हिसाब से लगभग 32 लाख रुपये अंग्रेज़ जज के मुंह पर मार कर चला आया। अक्षय कुमार की आने वाली फिल्म केसरी चैप्टर-2, इन्हीं चेट्टूर शंकरन नायर की कहानी पर बेस्ड है।
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जलियांवाला बाग़ से इनका क्या कनेक्शन था? ब्रिटिश अदालत में चले मुक़दमे में क्या हुआ? क्या थी चेट्टूर शंकरन नायर की असली कहानी? जानेंगे आज के एपिसोड में।
सी. शंकरन नायर की असली कहानी?
1857 में केरल के पलक्कड़ में जन्मे शंकरन नायर एक रसूखदार परिवार से थे। उनके दादा ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम करते थे। मद्रास कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही उन्हें कानून से लगाव हो गया इसलिए आगे लॉ की पढ़ाई की और वकालत शुरू कर दी।
शुरू से ही नायर अपने बेबाक स्वभाव के लिए जाने जाते थे। एक बार मद्रास के भारतीय वकीलों ने तय किया कि कोई भी भारतीय वकील किसी अंग्रेज बैरिस्टर के जूनियर के रूप में काम नहीं करेगा। नायर ने इसका विरोध किया। उनका मानना था कि हर वकील को अपना सीनियर चुनने का अधिकार है। दूसरे वकील इस बात से इतने नाराज हुए कि नायर का बहिष्कार कर दिया लेकिन नायर अपनी बात पर डटे रहे।
ऐसी ही कई घटनाएं उनके करियर में हुईं। अगर वह किसी बात पर यकीन करते थे, तो वहां से हटते नहीं थे। 1908 में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों पर बहस चल रही थी। तब उन्होंने एक लेख में अंग्रेजी जूरी की आलोचना की। लिखा कि अंग्रेज जूरी अंग्रेजों के पक्ष में फैसले देती है। इससे एंग्लो इंडियन समुदाय नाराज हुआ। नायर जज बनने वाले थे। एंग्लो इंडियन कम्युनिटी ने सीधे वाइसरॉय को खत लिखकर उन्हें जज न बनाने की मांग की लेकिन नायर अपनी बात पर अड़े रहे।
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सिर्फ एंग्लो इंडियन ही नहीं कई रूढ़ीवादी भारतीयों को भी नायर फूटी आंख नहीं सुहाते थे। मद्रास हाई कोर्ट का जज रहते हुए उन्होंने कई प्रोगेसिव फैसले दिए थे। मसलन 1914 में बुदासना बनाम फातिमा (1914) केस में उन्होंने एक बड़ा फैसला दिया। उनका फैसला था कि हिंदू धर्म अपनाने वालों को अछूत नहीं माना जा सकता। कई मामलों में उन्होंने अंतर-जाति और अंतर-धर्म विवाहों को मान्यता दी। नायर के तीखे बोल और बेबाक राय ने के चलते भारत के राज्य सचिव एडविन मोंटेग्यू ने एक बार उन्हें 'इम्पॉसिबल व्यक्ति’ करार दे दिया था। मोंटेग्यू का कहना था, "यह आदमी बहस के दौरान किसी की नहीं सुनता। न समझौता करने को तैयार होता है।"
इतनी आलोचनाओं के बावजूद मद्रास में नायर का कद बहुत ऊंचा था। 1897 में वह कांग्रेस के अध्यक्ष बने। उस वक्त वह सबसे कम उम्र के अध्यक्ष थे। वह अब तक के एकमात्र मलयाली हैं जिन्होंने यह पद संभाला। 1908 में उन्हें मद्रास हाई कोर्ट का स्थायी जज बनाया गया। उनके कड़े फैसलों की बदौलत 1912 में अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें नाइट की उपाधि मिली और 1915 में वह वायसराय की काउंसिल के सदस्य भी बन गए। नायर मानते थे कि भारतीयों को खुद का शासन चलाने का हक है लेकिन वह सशस्त्र क्रांति के समर्थक नहीं थे। उस वक्त के ज्यादातर कांग्रेसियों की तरह उनका भी मानना था कि ब्रिटिश सरकार में रहकर भारतीयों को उनके हक़ दिलाए जाने चाहिए।
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इसी कोशिश के तहत 1919 में जब मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिफॉर्म्स किए गए, नायर की इन्हें लागू करवाने में बड़ी भूमिका रही। मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिफॉर्म्स के कारण पहली बार प्रांतों में दोहरी सरकार का सिस्टम आया। इससे शासन में भारतीयों की भूमिका बढ़ी। 1919 में ही हालांकि वह घटना भी घटी जिसके बाद ब्रिटिश सरकार नायर की दुश्मन बन गई।
जलियांवाला बाग़ से कनेक्शन
13 अप्रैल 1919, जलियांवाला बाग़ में उस दिन लोग बैसाखी मनाने और रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए इकट्ठे हुए थे। यह बाग तीन तरफ से ऊंची दीवारों से घिरा था। निकलने का सिर्फ एक रास्ता था। जलियांवाला में क्या हुआ था। बाद में ब्रिटेन के PM बने, विंस्टन चर्चिल की जबान से सुनिए। चर्चिल ने हाउस ऑफ कॉमन्स में दिए अपने बयान में कहा, 'भीड़ निहत्थी थी, वे किसी पर हमला नहीं कर रहे थे। वे सिर्फ एक सभा कर रहे थे। गोलियां चलीं, तो वे भागने लगे। वहां इतने लोग थे एक गोली तीन-चार लोगों को छेद सकती थी। लोग पागलों की तरह इधर-उधर भागे। जब बीच में गोलियां चलीं तो वे किनारों की ओर भागे। कई लोगों ने खुद को जमीन पर फेंक दिया। फिर जमीन पर भी गोलियां चलाई गईं। यह सब 8-10 मिनट तक चला और तभी रुका जब गोलियां खत्म होने लगीं।'
जलियांवाला में हजारों हिन्दुस्तानियों की हत्या हुई। इस नरसंहार के पीछे था जनरल रेजिनल्ड डायर। वह उस वक्त अमृतसर में ब्रिटिश सेना का प्रभारी था लेकिन वह इकलौता दोषी नहीं था। पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर माइकल ओ'ड्वायर का भी पूरा हाथ था। सजा किसी को नहीं मिली। डायर की कम से कम नौकरी तो गई लेकिन माइकल ओ'ड्वायर की तरफ उंगली भी नहीं उठी। ओ'ड्वायर की करतूत दुनिया के सामने लाने वालों में एक बड़ा रोल सर शंकरन नायर का था। दरअसल, जलियांवाला बाग़ नरसंहार से बाद पूरे देश में आक्रोश था। ऐसे में शंकरन नायर ने भी वायसराय की काउंसिल से इस्तीफा दे दिया। ये कहते हुए कि वे ऐसी सरकार का हिस्सा नहीं रह सकते जो अपने ही लोगों के साथ इतनी बेरहमी से पेश आए। इस घटना के कुछ समय बाद उन्होंने एक किताब लिखी। किताब का नाम - "गांधी एंड अनार्की"। साल 1922 में छपी ये किताब मुख्यतः गांधी के असहयोग आंदोलन की आलोचना से रिलेटेड थी लेकिन इससे सबसे ज्यादा मिर्ची लगी अंग्रेज़ों को।
दसअसल, किताब में जलियांवाला नरसंहार का जिक्र करते हुए, नायर ने माइकल ओ'ड्वायर को भी बराबर जिम्मेदार ठहराया था क्योंकि यह किताब मद्रास मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व जज ने लिखी थी। जो वायसराय की काउंसिल के मेंबर भी रह चुके थे। लिहाजा लन्दन में भी इसकी चर्चा हुई। जलियांवाला बाग़ के लिए दुनिया अभी तक जनरल डायर को जिम्मेदार मानती थी। अब वही बदनामी माइकल ओ'ड्वायर के मत्थे आने वाली थी। अपनी साख पर आंच आते देख, माइकल ओ'ड्वायर ने नायर पर मानहानि का मुकदमा कर दिया।
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अदालत में क्या हुआ?
केस की शुरुआत ही ऐसे हुई जैसे माइकल ओ'ड्वायर कोई हीरो हो। ओ'ड्वायर के वकील ने दावा किया कि ओ'ड्वायर ने एक बड़े विद्रोह को रोका था जबकि हंटर कमीशन की रिपोर्ट साफ़ कहती थी कि बगावत या कांस्पीरेसी का कोई सबूत नहीं था।
शंकरन नायर की तरफ से केस लड़ने वाले वकील का नाम था- सर वाल्टर श्वाबे। वह हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के पद से रिटायर होकर इंग्लैंड लौटे थे। उन्होंने नायर के बचाव की कोशिश की लेकिन उल्टा उनकी वफादारी पर सवाल खड़े कर दिए गए। नायर अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, 'मुकदमा शुरू होने के दो ही दिन बाद, एक अनोखी बात हुई। केस के जज हेनरी मैकार्डी ने नायर के वकील से ही सवाल जवाब शुरू कर दिए। मैकार्डी ने श्वाबे से पूछा कि क्या वह यह साबित करना चाहते हैं कि जलियांवाला बाग़ में भीड़ पर गोली चलाने का जनरल डायर का फैसला सही था या गलत!'
इस केस का फैसला 12 सदस्यों वाले ज्यूरी पैनल को करना था। नायर बताते हैं कि जज ने ज्यूरी के सदस्यों को प्रभावित करने की पूरी कोशिश की। जज ने ज्यूरी की ओर मुखातिब होकर कहा, 'हो सकता है कि गंभीर हालात में एक आदमी को ऐसे कदम उठाने पड़ें जो हमें लंदन में बैठे बुरे लगें लेकिन वह दुनिया के हित में जरूरी कदम थे।' पूरे मुकदमे के दौरान मैकार्डी ऐसे ही टिप्पणियां करते रहे। मुकदमा पूरा साढ़े पांच हफ्ते चला। अपने टाइम का सबसे लंबा चलने वाला सिविल केस। जिसकी अखबारों में खूब चर्चा हुई। अदालत में लोगों की भीड़ जमा थी। कई बड़े-बड़े लोग केस सुनने आए, जिनमें बीकानेर के तत्कालीन महाराज गंगा सिंह भी शामिल थे।
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जज के पक्षपात रवैये के चलते शुरू से साफ़ था कि फैसला नायर के खिलाफ जाएगा लेकिन इस मुक़दमे के जरिए जलियांवाला का वह सच अंग्रेज़ों के सामने ला पाए, जो उनकी किताब भी नहीं कर पाई थी। मुक़दमे के दौरान पंजाब में हुए अत्याचारों के कई गवाह पेश हुए। गुरदासपुर के एक वकील ने बताया कि कैसे जनरल डायर जलियांवाला बाग़ की घटना से पहले और बाद में भी लोगों के साथ अत्याचार करता था। फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के दौरान डायर ने भारतीयों को जबरदस्ती फौज में भर्ती करने की कोशिश की। गवाहों ने बताया कि आधी रात लोगों के घर रेड मारकर उन्हें उठवा लिया जाता था। सबसे सामने उनके कपड़े उतारे जाते, जूते उतारकर उन्हें सर पर बांध दिया जाता और जेल में तमाम तरह से टॉर्चर किया जाता।
आमतौर पर दुनिया सिर्फ जलियांवाला बाग़ की घटना को जानती है जबकि उसके बाद के दिनों में भी भयानक अत्याचार हुए थे। लोगों को जमीन पर रगड़-रगड़ कर चलने को कहा जाता। जलियांवाला नरसंहार के अगले ही रोज़ ब्रिटिश हवाई जहाजों ने गुजरांवाला में बम गिराए। मशीन गन से मासूम लोगों पर गोलियां चलाईं। केस के दौरान एक 12 साल के लड़के ने बताया कि वह शहर के बीच में एक फव्वारे के पास खड़ा था। अचानक हवाई जहाज से एक बम गिरा। उसके पास खड़े एक लड़के की मौत हो गई। वह खुद भी घायल हुआ।
नायर ने नहीं मांगी माफी
ये सब घटनाएं अकेले डायर के द्वारा संभव नहीं थी। नायर ने यह साबित करने की कोशिश की कि पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर के तौर पर माइकल ओ'ड्वायर जिम्मेदार था। उसने जनरल डायर को उकसाया और खुली छूट दी।
इस बात की तस्दीक खुद पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री एचएच एस्क्विथ ने की थी। हाउस ऑफ कॉमन्स में दिए अपने बयान में एस्क्विथ ने कहा था, 'मुझे बड़ा दुख है कि सिविल अधिकारियों ने अपना काम छोड़ दिया। अगर अमृतसर में सिविल अफसरों ने शुरू में अपना काम ठीक से किया होता और बाद की सैन्य कार्रवाइयों को नियंत्रित किया होता, तो शायद 13 अप्रैल की वह भयानक घटना कभी नहीं होती।'
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तमाम गवाहियों, बयानों के बाद अब फैसले की बारी थी। वकीलों की दलीलें पूरी होने के बाद जज मैकार्डी ने एक अंतिम भाषण दिया और ज्यूरी के सामने खुलकर जनरल डायर का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा, 'जनरल डायर ने सही काम किया था। मेरी राय में, भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने उन्हें गलत तरीके से सजा दी थी।' मैकार्डी का यह बयान बेहद कंट्रोवर्सिअल था। यह न सिर्फ इंडिया ऑफिस के फैसले के खिलाफ था, बल्कि भारत सरकार, कमांडर-इन-चीफ और आर्मी काउंसिल के फैसले के भी विरुद्ध था। इन तमाम संस्थाओं ने जनरल डायर को दोषी माना था।
लंदन की अदालत ने हालांकि इस केस में दोषी शंकरन नायर को माना। ज्यूरी के 11 सदस्यों ने उनके खिलाफ फैसला दिया। नायर को मानहानि का दोषी ठहराया गया। चूंकि ज्यूरी ने सर्वसम्मति से फैसला नहीं दिया था। लिहाजा जज ने नायर से कहा, कि वह दोबारा केस दायर कर सकते हैं। नायर ने इस पर कहा, '12 नए अंग्रेज़ भी वही फैसला देंगे।' यह कहकर उन्होंने दोबारा केस लड़ने से इनकार कर दिया। मानहानि के एवज में जज ने नायर को दो ऑप्शन दिए - या तो माफी मांग लो या ओ'ड्वायर को 500 पाउंड और केस का खर्चा चुकाओ।
नायर ने जुर्माना देना चुना क्योंकि उनके अनुसार जलियांवाला बाग़ का सच किसी अदालती केस से झुठलाया नहीं जा सकता था। नायर की यह बात सच साबित हुई। इस केस के चलते आजादी की लड़ाई ने और जोर पकड़ा। भारतीयों को समझ आ गया था कि ब्रिटिश सरकार सिर्फ अंग्रेज़ों के लिए है। केस जीतने के बावजूद सर माइकल ओ'ड्वायर की साख को बट्टा लगा। सितम्बर 1928 की एक घटना है। लंदन के नॉर्थ ब्रदरहुड चर्च में ओ'ड्वायर को भाषण देने के लिए बुलाया गया था। जैसे ही ओ'ड्वायर खड़े हुए, लोगों ने उनके विरोध में नारे लगाने शुरू कर दिए। ओ'ड्वायर को बिना बोले ही लौट जाना पड़ा। ओड्वायर ताउम्र जलियांवाला नरसंहार के सच से जूझता रहा और अंत में यही उसकी मौत का कारण भी बना। साल 1940, लन्दन के कैक्सटन हॉल में ओ ड्वायर स्पीच दे रहा था। जब सरदार उधम सिंह ने अपनी पिस्तौल से गोलियां उसके सीने में उतार दी। जलियांवाला बाग़ का बदला इस तरह पूरा हुआ।
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