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मालचा महल की असली कहानी: आखिर स्टेशन पर क्यों बस गई थीं 'रानी'?

एक महिला अचानक सामने आती है और खुद के रानी होने का दावा करती है। लंबे समय तक वह रानी के रूप में रहती भी है लेकिन सालों बाद पता चलता है कि उस रानी की कहानी ही कुछ और है।

malcha mahal story

मालचा महल की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

कहते हैं कमाल अमरोही ने जब मधुबाला को पहली बार देखा तो ऐसे मोहित हुए कि 15 साल की लड़की को फिल्म की हिरोइन बना डाला। मधुबाला रातोंरात स्टार बन गईं। दुनिया ने पहली बार लता मंगेशकर का नाम सुना। फिल्म सुपर-डुपर हिट रही। फिल्म की शूटिंग के दौरान ही मधुबाला अमरोही पर फ़िदा हुईं लेकिन अमरोही साहब ने मीना कुमारी का दामन थाम लिया। प्रेम कहानी पीछे छूट गई और छूट गया, बॉम्बे टॉकीज का वह सेट, जिसमें फिल्म की शूटिंग हुई थी। फिल्म का नाम महल। भारत की पहली भूतिया फिल्म, जिसे देखकर लोग ऐसे डरे कि अफवाहें फ़ैल गई। फिल्म की शूटिंग जिस सेट पर हुई थी, लोग समझते थे वह कोई असली महल है।

 

कहानियों की यही ताकत है कि वे लोगों को ऐसी चीज़ों पर यकीन दिला सकती हैं, जिनका असल दुनिया में कोई वजूद नहीं। कालीन उड़ सकता है। चिराग़ से जिन निकल सकता है और घुप अंधेरे में हलचल दिखाई दे सकती है। खैर, हम आज की कहानी का रुख करते हैं।


खुद को अवध की रानी बताने वाली एक महिला, एक रोज़ दिल्ली के रेलवे स्टेशन में दाखिल होती है और VIP वेटिंग रूम को अपना घर बना लेती है। पूरे दस साल तक। रानी कौन, कहां से आई कोई नहीं जानता लेकिन साथ में नौकर, कुत्ते, तामझाम देख लोग ऐसे सकपकाए कि प्रधानमंत्री ने रानी को अपना खुद का घर अलॉट कर दिया। इस तरह दिल्ली के बीचों-बीच तुगलकों की बनाई एक शिकारगाह बन गई मालचा महल। लोगों ने इस महल के साथ भी वही कहानियां बना दीं। भूतिया महल, महल में घूमती रानी और बैकग्राउंड में बजता ‘आएगा आनेवाला’। 

 

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रियल लाइफ की यह फिल्म चार दशक तक चलती रही। फिर एंट्री हुई न्यू यॉर्क टाइम की एक जर्नलिस्ट की। खुलासा हुआ ऐसी कहानी का, जिसे सुनकर हर कोई हैरत में पड़ गया। 


रेलवे स्टेशन में दरबार 

 

फ्लैशबैक से शुरुआत करते हैं। 1970 का दशक, नई दिल्ली का रेलवे स्टेशन पर एक दिन अजीब नज़ारा देखने को मिला। एक औरत दाखिल हुई और स्टेशन के उस VIP वेटिंग रूम को अपना परमानेंट ठिकाना बना लिया। जिसे कभी भारत के आखिरी वाइसरॉय, लार्ड माउंटबेटन के लिए बनाया गया था। लंबी, मजबूत कद-काठी, चेहरा पत्थर की मूरत जैसा, आखें ऐसी कि बिना पलक झपकाए किसी को भी घूर सकती थीं। भारी रेशमी साड़ियां पहनती थी और कहते हैं कि साड़ी की सिलवटों में हमेशा एक पिस्तौल छिपी रहती थी। उसके साथ दो बच्चे थे - एक बेटा और एक बेटी। साथ में थे 13 बड़े-बड़े विदेशी कुत्ते और 7 नेपाली नौकर।


 
तो हुआ यूं कि VIP रूम ने अगले कुछ दिनों में किसी दरबार की शक्ल ले ली। फर्श पर फारसी कालीन बिछा दिए गए। पेंटिंग, झूमर, तमाम शाही ताम-झाम बनाया गया। यहां तक कि महिला के लिए खाना भी चांदी के बर्तनों में आता था। यह नाटक कई दिनों तक चला। फिर एक रोज़ स्टेशन मास्टर ने दखल दिया लेकिन स्टेशन मास्टर अंदर जाते इससे पहले ही वर्दी पहने नौकरों ने रोक दिया।

 

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जानते हो वह कौन है?

 

स्टेशन मास्टर ने इनकार में सिर हिलाया। नौकर ने बताया कि महिला कोई आम व्यक्ति नहीं, मल्लिका-ए अवध, बेगम विलायत महल हैं और उनके दोनों बच्चे, बेटे ‘अली रजा उर्फ प्रिंस साइरस’ और प्रिंसेज सकीना हैं। यह सुनकर स्टेशन मास्टर सकपकाकर लौट गया। अगले दिनों में कहानी और रंग लाई। लोगों ने देखा रानी के नौकर घुटनों के बल चल रहे थे। कभी-कभी रानी के पैर छूते लेकिन फिर 10 कदम पीछे हट जाते। देखा-देखी लोगों ने भी यही करना शुरू कर दिया। स्टेशन पर कोई यात्री उन्हें देखता तो चाल धीमी कर लेता। 
कुछ लोगों ने रानी से बात करने की कोशिश की। कहा गया- ऐसे बात नहीं कर सकते। फिर कैसे? एक कागज पर लिखकर अपनी बात देनी पड़ती। कागज़ को फिर चांदी की थाली में रखा जाता, जिसे नौकर रानी के पास ले जाता और जोर से पढ़कर सुनाता।

 

सिर्फ रानी ही नहीं, शहजादे-शहजादी का भी ऐसा ही रुतबा था। किसी से कोई बात नहीं। इतने आज्ञाकारी कि केला खाने से पहले भी मां की इजाजत लेते। सॉरी माँ नहीं, हर हाइनेस- बच्चे भी अपनी मां को यही कहकर बुलाते थे। यह पूरा आयोजन लगभग दस साल चला। इस बीच जब लखनऊ के लोगों को पता चला कि अवध की बेगम दिल्ली में हैं। रेलवे स्टेशन पर रानी से मिलने वालों की भीड़ उमड़ने लगी। खासकर शिया मुसलमान, जिनके लिए अवध का शाही खानदान बहुत मायने रखता था। लखनऊ से आए कई लोग उन्हें देखकर रो पड़ते थे। कुछ लोग तो इतने प्रभावित थे कि उनके सामने से कभी पीठ नहीं दिखाते, बल्कि उल्टे पैर पीछे हटकर जाते। धीरे-धीरे कहानी अखबारों में छपने लगी। हेडलाइंस बनी - वाजिद अली शाह के वंशज रेलवे स्टेशन में रह रहे हैं।

 

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वाजिद अली शाह कौन? 

 

अवध के आखिरी नवाब। किस्सा है कि 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज़ों ने अवध पर कब्ज़े की कोशिश की। यह कहकर कि नवाब का वित्तीय प्रबंधन ठीक नहीं है। फौज लखनऊ पहुंची। नवाब महल में थे लेकिन भाग नहीं पाए। क्यों- क्योंकि जूती पहनाने वाला नौकर नहीं था। वाजिद अली शाह के ऐसे कई दिलचस्प किस्से हैं लेकिन कुल जमा बात यह कि वाजिद अली शाह को अवध से बेदखल कर दिया गया। आगे की जिंदगी उन्होंने कलकत्ता में गुजारी। हालांकि, उनके कई वंशज लखनऊ में रहते थे और उन्हें जनता से खूब इज्जत भी मिलती थी। ऐसे में जब सरकार के पास जब रानी और उनके स्टेशन में रहने वाली खबर पहुंची, अधिकारी घबरा गए। हंगामा कभी भी हो सकता था।
 
हेमवंती नंदन बहुगुणा उन दिनों UP के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। उनकी तरफ से एक अधिकारी को दिल्ली भेजा गया। बेगम विलायत महल को पेशकश दी गई कि 10 हजार रुपये लेकर लखनऊ में घर बसा लें लेकिन बेगम ने लिफाफा फाड़ा और नोटों की चिन्दी बनाकर उड़ा दिए। इसके बाद एक और पेशकश हुई। लखनऊ में चार बेडरूम का मकान लेकिन अवध की रानी के लिए यह भी छोटा था। सो उन्होंने VIP रूम में ही रहना बेहतर समझा।

 

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कहानी शायद यहीं तक रहती लेकिन फिर ‘वाइट गिल्ट’ ने कहानी में और मसाला डाल दिया। रानी के पास विदेशी पत्रकार पहुंचने लगे। न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट जैसे बड़े अखबारों ने 'देश निकाली रानी' की कहानी छापी। विलायत महल भी समझदार थीं। केवल विदेशी पत्रकारों को इंटरव्यू देती थीं। फोटों भी खिंचवाती थी। हालांकि एक शर्त के साथ। 'रानी की तस्वीर सिर्फ घटते चांद के समय ही ली जा सकती थी।'
 
ये तस्वीरें इंटरनेशनल अखबारों पत्रिकाओं में छपी। टाइम मैगज़ीन ने लिखा, 'भारत की एक ऐसी राजकुमारी जो रेलवे स्टेशन पर राज करती हैं।' इस लेख में उनके पूर्वजों को मुक्ति दिलाने, सदियों से सहे गए अन्याय और न्याय की लड़ाई का ज़िक्र था। पीपल मैगजीन ने लिखा, 'दुनिया को पता चले कि अवध के अंतिम नवाब के वंशजों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है।' इन तमाम ख़बरों के चलते अब यह मामला केंद्र सरकार के लिए नया सिरदर्द बन चूका था। रानी की एक ही मांग थी। हमारा चोरी हुआ राज्य वापस दो।

अंत में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को मामले में दखल देना पड़ा। इंदिरा ने स्टेशन जाकर खुद बेगम विलायत से मुलाक़ात की। साथ में आश्वासन दिया कि उनके रहने का इंतज़ाम किया जाएगा। सरकारी कवायद की बदौलत, अंततः साल 1985 में विलायत महल को अपना खुद का महल, खुद की जागीर मिल गई।
 
मालचा महल 

 

1920 के दशक में अंग्रेज़ों ने दिल्ली में एक नई राजधानी बनाने का काम शुरू किया, लुटियंस दिल्ली - इसे बनाने के लिए कई गांवों को खाली कराया गया। मसलन रायसीना हिल्स, जहां राष्ट्रपति भवन बना हुआ है, यह एक गांव का नाम हुआ करता था और भी थे, तोड़पुर, अलीगंज, पिलांजी, जयसिंहपुर आदि। इन्हीं गांवों में एक नाम था - मालचा। इसी मालचा गांव में घने जंगलों के बीच एक ढांचा बना हुआ है। जिसे 14 वीं शताब्दी में तुगलकों ने शिकारगाह के तौर पर बनवाया था। साल 1985 में सरकार ने इसे बेगम विलायत महल को दे दिया। रहने के लिए।

 

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रानी और उसके बच्चों ने इसे अपना आशियाना बना लिया। महल के चारों ओर कांटेदार तार और बोर्ड लगा दिए। एक पर लिखा था: 'बिना पूछे अंदर आने वालों को गोली मार दी जाएगी।' दूसरे पर: 'चोरों से सावधान। ये कुत्ते तुम्हें नहीं छोड़ेंगे।' और तीसरे पर: 'खतरनाक इलाका। अंदर आना जानलेवा हो सकता है।'

 

धीरे-धीरे लोगों के बीच इसे मालचा महल के नाम से जाने जाना लगा। कहने को यह महल था लेकिन हालत खंडहर जैसी थी। महल तक जाने के लिए पत्थर की बड़ी-बड़ी सीढ़ियां चढ़नी पड़ती थीं। ऊपर एक लोहे का गेट था, जिसकी एक छड़ ढीली थी। उसी से अंदर-बाहर आ जा सकते थे। महल खुला और हवादार था, पत्थर की पुरानी दीवारों वाला लेकिन न बिजली थी न पानी। अंदर का माहौल किसी अजीब म्यूज़ियम जैसा था। दीवारों पर पुराने हथियार और अवध के नवाबों की तस्वीरें टंगी थीं। विक्टोरियन ज़माने का फर्नीचर रखा था। एक कोने में पुरानी तलवारें और दुर्लभ सिक्के भी थे, जिन्हें रानी और उनके बच्चे अपना शाही खज़ाना बताते थे।

 

रानी और उनका परिवार यदा कदा ही महल से बाहर निकलते थे। वह भी रात के अंधेरे में ताकि कोई देख न ले। कई बार उन्हें रात को मशाल जलाकर जंगल में घुमते देखा गया। बाकी दुनिया से मालचा महल पूरी तरह कटा हुआ था। रानी न किसी से मिलती न बात करती। 

 

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'उधर मत जाना, राजकुमार गोली मार देगा!' पुराने दिनों में दिल्ली के रिक्शावाले और चायवाले अक्सर लोगों को डराते थे। कई सालों तक मालचा महल ख़बरों से गायब रहा लेकिन फिर 1997 में टाइम मैगजीन ने परिवार का इंटरव्यू छापा। पता चला बेगम विलायत महल की 1993 में ही मौत हो चुकी है। बच्चों ने बताया कि रानी ने हीरे पीसकर खा लिए थे। हीरों को पीसा कैसे जाता है? जवाब किसी के पास नहीं था। रानी का बेटा, अली रज़ा जिसे प्रिंस साइरस के नाम से बुलाते थे, उसने बताया कि रानी की मौत के बाद शव को पास ही दफना दिया था। इस समय तक मालचा महल को लेकर कई अफवाहें गर्म थीं। लोग उसे भूतिया महल समझते थे तो किसी के लिए वहां शाही खजाना गड़ा हुआ था। इसी उम्मीद में साल 1994 में कुछ सिरफिरे महल में घुस आए। राजकुमार साइरस और प्रिसेज़ सकीना को डर लगा कि कहीं वे उनकी मां का शव न खोदकर निकाल दें। लिहाजा उन्होंने शव निकालकर जला दिया। आगे क्या हुआ?

 

सकीना और सायरस अकेले थे, न कमाई का जरिया न कोई साधन, इसके बावजूद दोनों ने महल में ही रहना चुना। एक-एक करके उन्होंने अपनी कीमती चीज़ें बेचनी शुरू कर दीं। जिंदगी अभी भी वैसी ही थी। विलायत महल की मौत हो चुकी थी लेकिन दोनों बर्ताव करते जैसे वह जिन्दा हो। विलायत महल के बिस्तर को सजाना, उन्हें खाना परोसना, जारी रहा। कभी-कभी वह उनकी तस्वीर से बातें भी किया करते। वक्त यूं ही बीतता गया। 21वीं सदी आई। महल अब खंडहर हो चुका था। यदा कदा महल की ख़बरें इंटरनेशनल अखबारों में आई लेकिन लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया, फिर 2016 में एक घटना घटी। न्यू यॉर्क टाइम्स की पत्रकार एलन बैरी के पास एक कॉल आया। प्रिंस साइरस ने बताया कि वह उनसे मिलना चाहता है। यहां से मालचा महल की कहानी में आया असली ट्विस्ट, न्यू यॉर्क टाइम्स की पड़ताल से पता चला कि कहानी असल में कुछ और ही है। 

शहजादे का अकेलापन 

 

एलन बैरी उन दिनों न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार की साउथ एशिया ब्यूरो चीफ हुआ करती थी और दिल्ली में ही रह रही थी। इनका इंट्रोडक्शन ऐसे समझिए कि 2002 में बैरी कि एक रिपोर्ट ‘रूस के व्याप्त भ्रष्टाचार’ के लिए उन्हें और उनके साथी क्लिफर्ड लेवी को पुलित्ज़र पुरूस्कार मिला। इसके अलावा दो बार वह पुलित्ज़र फाइनलिस्ट रहीं। 2016 में जब बैरी साइरस से मिलने जा रही थीं, उन्हें अंदाज़ा नहीं था उनका यह सफर उन्हें चौथी बार पुलित्ज़र की फाइनल लिस्ट में ले जाएगा। एलेन बैरी को मालचा महल की कहानी में लम्बे समय से इंटरेस्ट था।

 

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कई बार उन्होंने साइरस से बातचीत की कोशिश की लेकिन मौका मिला 2016 में। सुनसान जंगल से होते हुए बैरी मालचा महल तक गई। ड्राइवर को बाहर ही रहने को कहा और खुद अंदर चली गई। रिपोर्ट में वह बताती हैं, 'अचानक झाड़ियों से आवाज़ आई और एक आदमी सामने आया। छोटे कद का, सफेद बालों वाला, अजीब सी ऊंची कमर वाली जीन्स पहने हुए। उसके गाल पिचके हुए थे और बाल बिखरे हुए थे। 'मैं सायरस हूं,' उसने ऊँची, कांपती आवाज़ में कहा। ऐसा लग रहा था जैसे उसने बहुत समय से किसी से बात न की हो।


वह एलन को पत्थरों और कांटों भरे रास्ते से महल तक ले गया। गेट की ढीली छड़ हटाकर वे अंदर गए। अंदर का नज़ारा हैरान करने वाला था। खाली, पुराने पत्थर के कमरे। पीतल के गमलों में ताड़ के पेड़ लगे थे। फीके पड़ चुके कालीन बिछे थे। दीवार पर विलायत महल की एक तस्वीर टंगी थी, जिसमें वह आंखें बंद किए ध्यान में बैठी लग रही थीं।

 

सायरस एलन को छत पर ले गया। वे किनारे पर खड़े होकर नीचे फैले हरे जंगल और दूर दिखते धूल भरे शहर को देखने लगे। जब एलन ने परिवार के बारे में पूछा, तो सायरस ने सरकारों द्वारा किए गए धोखे की लंबी कहानी सुनाई। बात करते-करते वह हाथ हिलाता, कभी चिल्लाने लगता, तो कभी रहस्यमयी ढंग से फुसफुसाने लगता। 'मैं सिकुड़ रहा हूँ', उसने कहा। 'हम सब सिकुड़ रहे हैं। राजकुमारी भी सिकुड़ रही है।'

 

जब एलन ने इंटरव्यू छापने की इजाज़त मांगी तो उसने मना कर दिया। कहा, इसके लिए बहन राजकुमारी सकीना की इजाज़त लेनी होगी, जो अभी दिल्ली में नहीं हैं। एलन को फिर आना होगा। एलन महीनों तक सायरस से मिलती रहीं। हर बार वह कोई न कोई बात बना देता।


एलन साइरस और मालच महल की असली कहानी दुनिया के सामने लाना चाहती थीं लेकिन साइरस ने इसकी परमिशन नहीं दी। एलन को लगा चैप्टर यहीं क्लोज़ लेकिन फिर एक रात, सायरस का फिर कॉल आया। उसने फोन पर रोते हुए बताया कि उसकी बहन सकीना कई महीने पहले ही मर चुकी है। उसने अकेले ही उसे दफना दिया था।

 

एलन और सायरस के बीच मुलाकातों का सिलसिला फिर शुरू हुआ। एलेन स्टोरी की तलाश में थीं जबकि सायरस अकेलेपन जूझ रहा था। एक रोज़ उसने एलन से कहा क्या वह उसे गाल पर चूम सकती हैं। इसके बाद उसने एलन को बताया कि 10 साल में पहली बार किसी ने उसे छुआ था। साइरस ने एलन को सकीना की एक डायरी दी। जिसमें सकीना की जिंदगी के बारे में लिखा था। एलन के पास छापने लायक एक स्टोरी थी लेकिन जर्नलिस्टिक इंस्टिन्क्स्ट के चलते उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्हें लग रहा कि जरूर इस कहानी में कुछ ऐसा है जो सामने नहीं आया है।
 
2017 में एलन और साइरस के बीच आख़िरी मुलाक़ात हुई। एलन को चीफ इंटरनेशनल कॉरेस्पोंडेंट बना दिया गया था। वह लंदन चली गईं। लन्दन में एक रोज़ उन्हें खबर मिली कि सायरस की मौत हो गई है। उसे डेंगू हुआ था लेकिन उसने अस्पताल जाने से मना कर दिया था। 


एक चौकीदार ने उसकी मदद की कोशिश की लेकिन उसने कहा, 'मैं राजकुमार हूँ। मैं आम लोगों की तरह नहीं मर सकता।' आठ दिन बीमार रहने के बाद, एक लड़के ने उसे महल के पत्थर के फर्श पर मरा हुआ पाया। दिल्ली गेट कब्रिस्तान में अवध के शहजादे को एक लावारिस लाश की तरह दफना दिया गया। कब्र पर कोई नाम नहीं था, बस एक नंबर - DD33B। 

सच्चाई का खुलासा

 

सायरस की मौत के बाद, एलन बैरी ने इस रहस्यमयी परिवार की असली कहानी जानने की ठानी। उन्होंने महल में मिले पुराने खत खंगाले। उन्हें कुछ वेस्टर्न यूनियन की रसीदें मिलीं, जो इंग्लैंड के ब्रैडफोर्ड शहर से आई थीं। एक पुराना खत भी मिला। किसी रिश्तेदार ने लिखा था कि वह विलायत और बच्चों को लगातार पैसे भेज रहा है। खत में लिखा था, 'भगवान के लिए, अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करो। अगर मुझे कुछ हो गया तो तुम्हारा क्या होगा?' खत पर 'शाहिद' नाम के दस्तखत थे।

 

पूरी कहानी जानने के लिए एलन लखनऊ गईं। वहां उन्होंने कुछ बुज़ुर्गों से बात की। उन्होंने बताया कि 1970 के दशक में भी कई लोगों को विलायत के दावों पर शक था। एक बुज़ुर्ग ने बताया कि उन्होंने विलायत से सबूत मांगे थे। विलायत ने कुछ पुराने बर्तन दिखाए पर कोई कागज़ नहीं दिखाया। यहां से भी जब कोई खास जानकारी नहीं मिली, एलन ने इंग्लैंड के ब्रैडफोर्ड शहर का रुख किया। यहीं से रानी के परिवार को खत और पैसे भेजे जाते थे। पता मालूम कर एलन एक छोटे से घर तक पहुंची। घंटी बजाई। दरवाज़ा खुला। सामने वही शख्स खड़ा था जिसके दस्तखत खत पर थे - शाहिद। पता चला कि वह सायरस का बड़ा भाई था। वही शक्ल, वही नाक। कमरे में दीवार पर विलायत महल की तस्वीरें भी लगी थीं। यहां शाहिद ने एलन को विलायत महल की असली कहानी बताई। कहानी जिसकी शुरुआत लखनऊ से हुई थी। हालांकि, किसी नवाबी खानदान ने नहीं बल्कि एक यूनिवर्सिटी से। 

 

बेगम विलायत महल का असली नाम दरअसल विलायत बट था। उनके पिता, इनायतुल्लाह बट, लखनऊ यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार थे। 1947 में देश के बंटवारे के समय, जब वह साइकिल से घर लौट रहे थे, कुछ लड़कों ने उन्हें हॉकी स्टिक से पीटा। इस घटना के बाद, उन्होंने परिवार सहित पाकिस्तान जाने का फैसला किया। विलायत पाकिस्तान तो चली गईं लेकिन उन्हें भारत छोड़ना कभी पसंद नहीं आया। वह हमेशा लखनऊ में छूटी अपनी जायदाद के बारे में सोचती रहतीं। फिर उनके पति की अचानक मौत हो गई। इसके बाद, विलायत का बर्ताव अजीब होने लगा।

 

1954 में, उन्होंने कराची में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को सरेआम थप्पड़ मार दिया था। इसके बाद उन्हें 6 महीने तक लाहौर के एक मानसिक अस्पताल में रखा गया, जहां उन्हें बिजली के झटके (इलेक्ट्रोशॉक थेरेपी) दिए गए। अस्पताल से छूटने के बाद, विलायत अपने छोटे बच्चों को लेकर भारत वापस आ गईं। भारत में कहां? उनके रिश्तेदार कश्मीर में थे। इसलिए वह सीधे श्रीनगर पहुंचीं। श्रीनगर में, विलायत और उनके बच्चों को सरकारी क्वार्टर मिला - गवर्नमेंट क्वार्टर नंबर 24, जवाहर नगर में। यहीं से उन्होंने खुद को रानी बताना शुरू किया। 
'हम अवध के शाही वारिस हैं!' - पड़ोसियों को विलायत अक्सर ऐसा बताती थीं। न्यू यॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, जवाहर नगर के बुजुर्ग आज भी याद करते हैं कि कैसे विलायत ने अपने घर की दीवारें तुड़वा दीं। क्यों? ताकि उनके बच्चे अंदर क्रिकेट खेल सकें! क्योंकि उनके अनुसार, 'शाही बच्चे बाहर के बच्चों के साथ नहीं खेल सकते।'

अजीब बर्ताव करती थीं विलायत महल

 

पड़ोसियों के साथ उनका व्यवहार अजीब और अपमानजनक था। वह अपने बच्चों को पड़ोसियों से बात करने से रोकती थीं। कहती थीं - 'ये मामूली लोग हैं, तुम शाही हो।'एक बार एक पड़ोसी ने उनके बच्चों को मिठाई खिलाई तो बेगम ने क्या किया? पड़ोसी का दरवाजा तोड़ दिया और चिल्लाईं - 'मेरे बच्चों को जहर देने की कोशिश की तुमने!' विलायत महल ने दिल्ली में अपने बच्चों का नाम साइरस और सकीना बताया था जबकि उनका असली नाम कुछ और था। प्रिंस सायरस का असली नाम मिकी बट और राजकुमारी सकीना का असली नाम फरहान। NY टाइम्स की पड़ताल में एक दिलचस्प कहानी और सामने आई। विलायत बट्ट के असल में तीन बच्चे थे। तीसरे बेटे का नाम - असद बट।
 
असद की कहानी इस परिवार का सबसे दर्दनाक अध्याय है। जब विलायत अपने बाकी बच्चों के साथ श्रीनगर छोड़कर गईं, असद वहीं रह गया। क्यों? क्योंकि वह अपनी मां की 'शाही कल्पनाओं' में शामिल नहीं होना चाहता था। वह उसी खाली सरकारी क्वार्टर में अकेला रहने लगा। धीरे-धीरे उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा। कोई देखभाल नहीं, कोई आमदनी नहीं और फिर एक दिन - उसकी लाश मिली उसी खाली घर में। कश्मीर में रहते हुए, विलायत ने अपने 'शाही अधिकारों' को मान्यता दिलाने की कोशिश की। वह तत्कालीन गवर्नर से मिलीं। मांग रखी कि डल झील किनारे एक महल बनाकर दिया जाए।
 
गवर्नर ने जवाब दिया, 'मैडम, अगर आप सच में अवध की रानी हैं, तो आपको लखनऊ जाना चाहिए, कश्मीर नहीं।' यह जवाब सुनकर विलायत भड़क गईं। वह चिल्लाईं - 'मैं जहां चाहूं रह सकती हूं! मेरा खानदान भारत का सबसे अमीर शाही परिवार है!' गवर्नर ने एक बार फिर कहा - 'अगर आप शाही हैं, तो सबूत दिखाइए।' उस दिन के बाद, विलायत ने सरकारी अफसरों से मिलना बंद कर दिया। उन्होंने अपने बच्चों को बताया - 'सरकार हमारे शाही ताज चुराना चाहती है।' कश्मीर में ही विलायत ने पहली बार मीडिया का इस्तेमाल अपनी 'शाही पहचान' बनाने के लिए किया। स्थानीय अखबारों में छपवाया कि वह अवध की आखिरी बेगम हैं।

 

एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा - 'अंग्रेजों ने 1856 में हमारा राज छीन लिया लेकिन हमारा खजाना, हमारे हीरे-जवाहरात, सब सुरक्षित हैं। मैं अपने बच्चों को शाही तरीके से पालूंगी।' जब पत्रकारों ने उनसे दस्तावेज मांगे, तो वह कहती - 'हमारे खानदान के दस्तावेज इतने कीमती हैं कि मामूली लोगों को नहीं दिखाए जा सकते।' 1970 के दशक की शुरुआत में, विलायत ने कश्मीर छोड़ने का फैसला किया। वह अपने दो बच्चों - सायरस (जिसे तब अली रज़ा कहा जाता था) और सकीना के साथ लखनऊ गईं। वहां क्या किया? सीधे कोतवाली चौक में पहुंचीं और घोषणा की - 'मैं बेगम विलायत महल हूं, अवध की आखिरी रानी। मुझे मेरा महल और मेरी जागीरें लौटा दो!'

 

लखनऊ के लोग हैरान थे। उनमें से कुछ, खासकर शिया समुदाय के लोग, जिनके लिए अवध का खानदान महत्वपूर्ण था, इन्हें देखकर रो पड़े लेकिन अधिकारियों ने क्या किया? उन्होंने इनके दावों की जांच शुरू की। लखनऊ के इतिहासकारों और अवध के पुराने खानदानों से जुड़े लोगों ने बताया - 'इस नाम की कोई बेगम अवध के इतिहास में नहीं है।' जब उनसे सबूत मांगे गए, तो विलायत ने कुछ पुराने बर्तन और तलवारें दिखाईं लेकिन कोई दस्तावेज नहीं था। अधिकारियों ने उनके दावों को खारिज कर दिया। लखनऊ में असफल होने के बाद, विलायत नई दिल्ली आ गईं। वहां उन्होंने रेलवे स्टेशन के VIP वेटिंग रूम में डेरा डाल दिया। यहीं से शुरू होती है वह कहानी जो हम पहले सुना चुके है।

 

सवाल ये कि क्यों एक महिला ने अपनी और अपने बच्चों की जिंदगी का इतना बड़ा झूठ बुना? साइरस के लन्दन वाले सौतेले भाई शाहिद बट ने बाद में न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया - 'यह बंटवारे का दर्द था। वे पाकिस्तान गए, वहां उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसकी वह हकदार थीं। फिर उनके पति की मौत, लाहौर के अस्पताल में बिजली के झटके। ये सब एक के बाद एक झटके उन्हें ऐसी मानसिक स्थिति में ले गए जहां उन्होंने अपनी नई पहचान गढ़ ली।' 2019 में एलेन ने यह पूरी कहानी न्यू यॉर्क टाइम्स में छापी। तब जाकर दुनिया को इस असलियत का पता चला। मालचा महल - आज खाली पड़ा है। सुनसान दीवारें, उजाड़ कमरे - फिर एक बार उस कहावत को दुरुस्त करते हैं कि कभ- कभी सच्चाई कल्पना से भी हैरतअंगेज़ होती है। 

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