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रामपुर का करोड़ों का खजाना कहां गायब हुआ? पढ़िए पूरी कहानी

रामपुरि रियासत को अपनी महंगी चीजों और कई अन्य वजहों से याद किया जाता है। यह रियासत उनमें से थी जिसने तुरंत यह फैसला कर लिया था कि उसे भारत में ही रहना है।

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रामपुर रियासत की कहानी, Photo Credit: Rampur

रामपुर रियासत को अपनी महंगी चीजों और कई अन्य वजहों से याद किया जाता है। यह रियासत उनमें से थी जिसने तुरंत यह फैसला कर लिया था कि उसे भारत में ही रहना है।

इतिहासकार डोमीनिक लैपिये और लैरी कॉलिन्स अपनी किताब फ्रिडम एट मिडनाइट में रामपुर रियासत के ख़ज़ाने का जिक्र करते हैं। इस ख़ज़ाने में एक सिंहासन हुआ करता था, जिसकी खास बात थी- उसके बीचों बीच बना एक छेद। छेद के पीछे वजह नवाबी थी। दरअसल रामपुर के एक नवाब हुआ करते थे, नवाब का मानना था कि किसी भी हालत में बीच दरबार से उठकर नहीं जाना चाहिए। इसलिए सिंहासन में ही छेद बनवा दिया गया था, ताकि वहीं बैठे-बैठे फारिग हो सकें। शाही गरिमा के साथ!
रामपुर रियासत का यह सिहांसन अब कहां है?

 

किसी को नहीं पता क्योंकि जिस खजाने का ये हिस्सा था। वह चोरी हो गया। कैसे?

 

कहानी की शुरुआत होती है, 17 वीं सदी में। जब मुगल सम्राट औरंगजेब का शासन था, तब भारत के उत्तरी इलाकों में कई बदलाव हो रहे थे। गंगा के मैदानी इलाकों में आज जिसे हम उत्तर प्रदेश का पश्चिमी हिस्सा कहते हैं, यानी मेरठ मुरादाबाद, बरेली, पीलीभीत - इस इलाके को कटहेर नाम से जाना जाता था और यहां रहा करते थे - कटहेरिया राजपूत। इलाका उपजाऊ था - खेतों में फसलें अच्छी होती थीं, पानी भरपूर था लेकिन घने जंगलों से घिरा होने के कारण यह मुगल शासकों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं था। दिल्ली के शासक यहां अक्सर सिर्फ शिकार खेलने आते थे। उनके लिए कटहेर में बस एक दिक्कत थी - कटहेरिया राजपूत लगातार मुगल सत्ता के खिलाफ विद्रोह करते रहते थे। उन्हें पूरी तरह से नियंत्रित करना मुश्किल था। इसलिए साल 1705 के आसपास, मुगल शासन ने एक ऐसी चाल चली। जिसने उत्तर भारत में सत्ता के समीकरण बदलकर रख दिए।


 
पानीपत का बदला 

 

कटहेरिया राजपूतों से निपटने के लिए मुग़लों ने दाऊद खान नाम के एक अफगान सरदार को कटहेर में बसने का न्योता दिया। मुगल शासक चाहते थे कि दाऊद खान अपने लोगों के साथ आकर इस इलाके में बस जाए और कटहेरिया राजपूतों पर नज़र रखे।


दाऊद खान पश्तून (पठान) था और अफगानिस्तान के 'रोह' नामक पहाड़ी इलाके से आया था। उसके साथ कई अन्य पठान परिवार भी आए। इन्हें स्थानीय लोग 'रोहिल्ला' कहने लगे - यानी 'रोह' के रहने वाले।

 

1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य कमजोर होने लगा। इस अराजकता में रोहिल्लों ने अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया। वे अब सिर्फ मुगल साम्राज्य के मातहत नहीं रहे, बल्कि अपनी छोटी-छोटी रियासतें बनाने लगे। रोहिल्लों ने अपनी संस्कृति और शासन प्रणाली अफगानिस्तान से ही ली थी। वहां कबीलाई व्यवस्था होती थी - हर कबीले का अपना सरदार होता था और इन सरदारों में से एक को मुख्य सरदार चुना जाता था। रोहिल्लों के मुख्य सरदार हाफिज रहमत खान थे, जिनकी राजधानी पीलीभीत थी लेकिन सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण सरदार थे नजीबुद्दौला, जिन्हें नजीब खान रोहिल्ला के नाम से भी जाना जाता था। इन नजीब खान रोहिल्ला को भारतीय इतिहास में एक खास घटना के लिए जाना जाता है। 

मुग़लों के पतन के बाद जब उत्तर में मराठों का प्रभाव बढ़ा तो उनसे निपटने की जिम्मेदारी नजीब ख़ान को मिली लेकिन हुआ यूं कि मराठा सेनापति राघोबा दादा की फौज ने नजीब खान को हरा दिया और दिल्ली से बाहर कर दिया। मराठे आगे बढ़कर पंजाब और अटक तक पहुंच गए, जहां उन्होंने अपने ठिकाने बनाए। नजीब खान को इस हार से गुस्सा आया। उसने अफ़ग़ानिस्तान के ताक़तवर शासक अहमदशाह अब्दाली को भारत आने का न्योता दिया। इस बार मराठों की पूरी सेना सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में उत्तर भारत आ गई थी।


अब्दाली मराठों के साथ समझौता करना चाहता था लेकिन नजीब खान ने ऐसा नहीं होने दिया। परिणाम हुआ 1761 का पानीपत का तीसरा युद्ध, जिसमें मराठों की भयंकर हार हुई और हजारों मराठा सैनिक मारे गए।

 

इस युद्ध के बाद नजीब खान की शक्ति चरम पर पहुंच गई। उन्हें दिल्ली दरबार में 'मीर बख्शी' यानी सेना प्रमुख का पद मिला। रोहिलखंड में उन्होंने अपनी एक नई राजधानी बनाई, जिसे नजीबाबाद कहा गया। नजीबाबाद में आज भी पत्थरगढ़ नाम का किला मौजूद है।


नजीब ख़ान जब अपनी जीत का जश्न मना रहे थे। ठीक उसी समय एक 18 साल का लड़का, तैयारी कर रहा था। पानीपत के मैदान में अपने दो भाइयों की मौत के बाद उसने प्रतिज्ञा ली थी कि वह अपने भाइयों के खून का बदला जरूर लेगा। इस युवक का नाम था महादजी सिंधिया।

 

पानीपत की हार के बाद मराठा साम्राज्य को खड़ा करने में महादजी सिंधिया ने अहम भूमिका निभाई। 1772 में उन्होंने रोहिलखंड पर हमला किया। नजीबाबाद को तबाह कर दिया और नजीब खान की कब्र तक खोदकर उसकी हड्डियां बाहर निकालकर फेंक दीं। पानीपत में लूटे गए मराठा खजाने को भी वापस ले लिया गया। इस हमले से डरकर रोहिल्ला सरदारों ने अवध के नवाब से मदद मांगी। अवध के नवाब शुजा-उद-दौला ने मदद का वादा किया लेकिन बदले में भारी रकम मांगी। मराठों के वापस जाने के बाद, जब अवध के नवाब ने रोहिल्लों से पैसे मांगे, तो वे मुकर गए।

एक रोहिल्ला सरदार बच गया

 

गुस्से में अवध के नवाब ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स से मदद मांगी। यह अंग्रेजों के लिए भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने का अच्छा मौका था। 1774 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और अवध के नवाब ने मिलकर रोहिलखंड पर हमला कर दिया। एक-एक करके सभी रोहिल्ला सरदारों को हरा दिया गया। सिवाय एक के। इस तबाही में एक रोहिल्ला सरदार ने चालाकी से अपनी जान बचाई - फैज़ुल्लाह खान। वह सीधे वारेन हेस्टिंग्स के पास पहुंचे। समझौता हुआ: "मैं अंग्रेज़ों और अवध का वफादार रहूंगा," फैज़ुल्लाह ने कहा, "बदले में मुझे सिर्फ़ चार गांव दे दीजिए।"

 

अवध के नवाब को यह डील अच्छी लगी। एक रोहिल्ला कम, एक दोस्त ज्यादा। फैज़ुल्लाह को रामपुर और आसपास के कुछ गांव जागीर के रूप में दे दिए गए। इस तरह 7 अक्टूबर 1774 को का जन्म हुआ रामपुर रियासत का। रामपुर रियासत को भारतीय इतिहास में दो कारणों से जाना जाता है- हैदराबाद और भोपाल के बाद रामपुर भारत की तीसरी सबसे ताक़तवर मुस्लिम रियासत थी। दूसरा - रामपुर के नवाबों का कला और साहित्य प्रेम। जिसकी शुरुआत रियासत की नींव रखने वाले फैज़ुल्लाह खान ने की थी। 

फैज़ुल्लाह सिर्फ एक योद्धा नहीं बल्कि एक विद्वान भी थे। उन्होंने रामपुर में एक किला बनवाया और अपने शौक के अनुसार अरबी, फारसी और उर्दू की दुर्लभ पांडुलिपियां इकट्ठा करना शुरू किया। यही संग्रह आगे चलकर विश्व प्रसिद्ध रामपुर रज़ा लाइब्रेरी बना। 

बेगम को तालाब में फेंका 

 

रियासत की नींव डाले जाने से 1947 तक रामपुर का इतिहास कई उतार चढ़ावों का गवाह रहा है। मसलन रामपुर के दूसरे नवाब मुहम्मद अली ख़ान सिर्फ़ 24 दिनों तक शासन कर पाए। रोहिल्ला सरदारों ने उन्हें मार डाला। अंग्रेज़ों को यह बगावत पसंद नहीं आई। अंग्रेज़ों की मदद से मुहम्मद अली ख़ान के बेटे को वापस गद्दी मिली। कुल मिलाकर बात यह कि रामपुर रियासत और अंग्रेज़ों के बीच हमेशा अच्छे संबंध रहे।
 
1857 के विद्रोह में जब पूरा रोहिलखंड विद्रोह में शामिल था। अंग्रेज़ अफसरों का सफाया किया जा रहा था, तब रामपुर के नवाब यूसुफ अली खान ने अंग्रेज़ों को शरण दी और उनकी रक्षा की। यह वफादारी अंग्रेज़ों ने याद रखी। रामपुर को 15 तोपों की सलामी वाली रियासत का दर्जा दिया गया (बाद में बढ़ाकर 21 तोपें कर दिया गया)। अंग्रेज़ों की कृपा से रामपुर धीरे-धीरे उत्तर भारत का सांस्कृतिक केंद्र बनने लगा। जब दिल्ली में अंग्रेज़ों ने मुग़ल दरबारियों को प्रताड़ित किया, तब कई लोग रामपुर आकर बस गए। यहां तक कि महशूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब भी कुछ समय के लिए रामपुर आए थे। इतना ही नहीं प्रसिद्ध गायिका बेगम अख्तर (अख्तरी बाई फैज़ाबादी) भी रामपुर दरबार में गाया करती थीं।

 

सांस्कृतिक धरोहरों के अलावा रामपुर जिस एक चीज के लिए जाना जाता था - वह था नवाबी शौक। रामपुर के इतिहास पर शोध करने वाली डॉ तराना हुसैन खान एक दिलचस्प क़िस्सा बताती हैं। यह क़िस्सा जुड़ा है रामपुर के नवाब हामिद अली खान से। डॉक्टर हुसैन के अनुसार, नवाब हामिद अली सुन्नी मुसलमान परिवार से थे लेकिन अपनी दाई मां जनाब आलिया के प्रभाव में आकर वह शिया हो गए। यह बात रामपुर के पठान सरदारों को बिल्कुल पसंद नहीं आई। अब हुआ यूं कि एक पठान सरदार, जो खुले तौर पर शिया धर्म की आलोचना करता था, उसकी बेटी से हामिद अली खान ने शादी कर ली। लड़की को 'मुनव्वर दुल्हन बेगम' का खिताब दिया गया। अब चूंकि मुनव्वर बेगम पठान परिवार से ताल्लुक़ रखती थीं, इसलिए उनके तेवर अलग थे। वह बाकी बेगमों से बात तक करना पसंद नहीं करती थीं। 


एक बार नवाब हामिद अली खान ने नौरोज़ (फारसी नववर्ष) का जश्न मनाने का फैसला किया। यह त्योहार मूलतः शिया मुसलमानों द्वारा मनाया जाता है। नवाब ने सभी बेगमों को सफेद कपड़े पहनकर रंग खेलने के लिए बुलाया। तमाम बेगमें आई लेकिन मुनव्वर बेगम नहीं। पूछा तो जवाब मिला, ‘बेगम बीमार हैं।’
 
ये सुनते ही नवाब गुस्से से तिलमिला उठे। उन्होंने हुक्म दिया, 'जिस बिस्तर पर लेटी है, उसी के साथ उठाकर लाओ।' हुक्म की तामील हुई। पहरेदार गए और बेगम को बिस्तर समेत उठाकर बगीचे में ले आए। जहां रंग खेला जा रहा था। मुनव्वर बेगम फिर भी नहीं उठी, न ही नवाब को सलाम किया। नवाब ने गुस्से में कहा, 'इसे बिस्तर समेत तालाब में फेंक दो!' पहरेदारों ने ऐसा ही किया। बेगम को बिस्तर समेत तालाब में फेंक दिया गया। डॉ. तराना हुसैन खान लिखती हैं, ‘इस घटना के बाद मुनव्वर बेगम ने रामपुर की दूसरी बेगमों से कभी बात नहीं की, जिन्हें वह अपने अपमान का कारण मानती थी। हालांकि, बाद में नवाब ने उनसे सुलह कर ली और अपने एक बेटे को उनकी देखभाल में भेज दिया।’

खड़ी कब्र और रामपुरी कुत्ते 

 

रामपुर के एकि नवाब हुए कल्बे अली ख़ान। साहित्य के पारखी, कई किताबें लिखी। इनके भी कई किस्से कहानियां आपको रामपुर में सुनने मिलेगी। एक किंवदंती है कि कल्बे अली ख़ान की मौत के बाद जब उन्हें दफनाया गया, तो अगले दिन उनकी लाश कब्र से बाहर आ गई थी। दूसरी बार दफनाया गया, फिर वही हुआ। आखिरकार एक रास्ता निकाला गया। नवाब के लिए एक खड़ी कब्र तैयार करवाई गई। इस किस्से का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है लेकिन किस्से कहानियां चलती हैं। असली उपलब्धि की बात करें तो रामपुर को नवाबों को एक खास श्रेय जाता है। कुत्तों की रामपुर हाउंड' नस्ल विकसित करने का।
 
रामपुर के एक नवाब अहमद अली खान कुत्ते पालने के शौकीन थे। ख़ासकर शिकारी कुत्ते। उनके पास दो तरह के कुत्ते हुआ करते थे- अफगानी कुत्ते जो बेहद ताकतवर और आक्रामक होते थे लेकिन भारतीय जलवायु में ज्यादा समय तक काम नहीं कर पाते थे। दूसरी तरफ, अंग्रेज़ी ग्रेहाउंड तेज़ दौड़ने वाले और आज्ञाकारी होते थे लेकिन उतने ताकतवर नहीं होते थे।

नवाब अहमद अली खान ने दोनों नस्लों के बेहतरीन गुणों को मिलाने की कोशिश की। कई पीढ़ियों तक चले प्रयोगों के बाद, उन्होंने सफलतापूर्वक 'रामपुर हाउंड' नस्ल विकसित की। ये कुत्ते तेज़ दौड़ सकते थे, भारतीय जलवायु में अच्छे से रह सकते थे और शिकार में माहिर थे। आज भी 'रामपुर हाउंड' भारत की सबसे प्रसिद्ध कुत्ता प्रजातियों में से एक है। रामपुर रियासत की निशानियों में एक और बड़ा नाम है - रामपुर रज़ा लाइब्रेरी का। इस लाइब्रेरी में 17,000 से अधिक दुर्लभ पांडुलिपियां, 80,000 से अधिक किताबें और कई बेशकीमती चित्रकारियां हैं। इसकी कुछ किताबें तो सोने के पानी से लिखी गई हैं, जिन पर कीमती पत्थरों का काम भी किया गया है। इनमें से कई पांडुलिपियां मुग़ल बादशाहों की निजी लाइब्रेरी से आई हैं। रज़ा लाइब्रेरी में एक ऐसी पांडुलिपि भी है जिसमें उस्ताद रिज़ा-ए-अब्बासी (ईरान के मशहूर चित्रकार) के काले और सफेद रंग में बनाए गए चित्र हैं। इसके अलावा मुग़ल काल के चित्रकला के नमूने और कुरान की अलग-अलग समय की प्रतियां भी यहां मौजूद हैं।

खजाना कहां गया?

 

रामपुर के इतिहास में सबसे योगदान माना जाता है नवाब रज़ा अली खान का, जो 1930 में गद्दी पर बैठे। जब रज़ा अली खान ने शासन संभाला, तब तक दुनिया बदल चुकी थी। पश्चिमी शिक्षा, औद्योगिकीकरण और आधुनिक विचारों का प्रभाव बढ़ रहा था। रज़ा अली खान ने रामपुर में चीनी मिलें, डिस्टिलरीज़, रेलवे और नहरें बनवाईं। नतीजा हुआ कि रामपुर रियासत की वार्षिक आय एक करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गई - उस समय के हिसाब से बहुत बड़ी रकम।
 
रज़ा अली खान ने रामपुर में 'कोठी खासबाग' का निर्माण करवाया, जो एशिया का पहला पूरी तरह से एयर-कंडीशंड महल था। इसमें गर्म पानी के स्विमिंग पूल, सिनेमा हॉल और अन्य आधुनिक सुविधाएं थीं लेकिन इस इमारत की सबसे खास विशेषता थी इसके नीचे बना तहखाना, जिसमें रामपुर के नवाबों का खज़ाना रखा गया था।

 

खासबाग के तहखाने तक पहुंचने के लिए सात भारी दरवाज़ों से होकर जाना पड़ता था। हर दरवाज़े पर गोरखा पहरेदार तैनात रहते थे। हर दरवाज़े की चाबी एक गुप्त बक्से में रखी जाती थी और इन बक्सों की चाबियां भी अलग-अलग व्यक्तियों के पास रहती थीं। तिजोरियों में दोहरे कॉम्बिनेशन वाले ताले लगे हुए थे, जिनका कोड केवल नवाब और उनके एक विश्वसनीय व्यक्ति को ही पता था। भारत के आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने अपनी डायरी में इस खज़ाने का वर्णन करते हुए लिखा है: 'जवाहरात का बक्सा मेरे सामने खोला गया। इतने सारे जवाहरात देखकर मुझे लगा मानो मेरे सामने अरेबियन नाइट्स की कोई कहानी जिंदा हो गई हो।'

 

इस खज़ाने में दुनिया के सबसे मूल्यवान हीरों में से एक 'एम्प्रेस ऑफ़ इंडिया' शामिल था। खज़ाने में तीन हार थे, जिनमें अंगूठे के नाखून के बराबर मोती लगे हुए थे। खुले मोतियों की संख्या दस हज़ार थी। इसके अलावा पन्ना, माणिक, रूबी और सोने के बने अमूल्य आभूषण भी इस खज़ाने का हिस्सा थे। 1947 में आज़ादी के बाद इस खज़ाने का मूल्यांकन किया गया। तब इसकी कुल कीमत साढ़े तीन करोड़ रुपए आंकी गई थी - आज के हिसाब से अरबों रुपये।

सारा खजाना गया कहां?

 

जैसा शुरुआत में बताया, चोरी हो गया। सितंबर 1980 की बात है। रामपुर के खास बाग महल के पास एक बच्ची खेल रही थी। अचानक उसकी नज़र जमीन पर पड़ी एक चमकीली चीज़ पर गई। उसे उठाकर देखा - सोने की प्लेट थी! चमचमाती हुई, महंगे नक्काशी वाली। वह दौड़कर अपने मां-बाप के पास गई। फिर पुलिस के पास और फिर रामपुर के मौजूदा नवाबज़ादे मुर्तज़ा अली खान के पास। प्लेट देखते ही मुर्तज़ा के चेहरे का रंग उड़ गया। 'खज़ाना चोरी हो गया!' उन्होंने कहा और महल के तहखाने की ओर भागे।

मुर्तजा ने दरवाज़े छूकर देखे, सलामत थे। तिजोरियों पर लगे ताले भी ठीक थे लेकिन महल की छत में एक छेद था, जिससे रस्सियां लटक रही थीं। तहखाने के अंदर खुदाई के औज़ार, सिगरेट के टुकड़े और पानी के बर्तन मिले। यानी पूरा खजाना गायब कर दिया गया। 

किसने चोरी किया?

 

मामले की छानबीन सीबीआई को सौंपी गई। जांच में एक अजीब बात सामने आई - छत का छेद इतना छोटा था कि उससे न कोई वयस्क अंदर आ सकता था, न कोई बच्चा! और रस्सियों पर चढ़ने-उतरने का कोई निशान नहीं था! सबसे अजीब बात - खज़ाने की जो लिस्ट सरकारी दफ्तर में थी, वह भी गायब हो गई थी। नवाब के भाई ज़ुल्फ़िकार अली खान ने आरोप लगाया कि यह काम किसी अंदरूनी व्यक्ति का है। उन्होंने यह भी दावा किया कि चोरी का सामान भारत-पाकिस्तान सीमा पार कर गया है।
चोरी किसने की, खजाना कहां गया? यह रहस्य आज तक अनसुलझा है।

 

2020 में इस ख़ज़ाने को आख़िरी बार खोला गया था। पुलिस की मौजूदगी में ख़ज़ाने का दरवाज़ा तोड़ा गया। कयास लगाए जा रहे थे कि अंदर से करोड़ों का खज़ाना निकलेगा लेकिन वहां से एक चवन्नी भी नहीं मिली। 

रामपुर का विलय

 

रामपुर रियासत अब मौजूद नहीं है लेकिन भारतीय इतिहास में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। जैसा पहले बताया आजादी के वक़्त रामपुर एक ताक़तवर मुस्लिम रियासत हुआ करती थी। मुस्लिम लीग की तरफ़ से तमाम मुस्लिम रियासतों पर दबाव था कि वे पाकिस्तान को चुने। हैदराबाद, जूनागढ़ और भोपाल के मामले में इसी वजह से देर लगी लेकिन रामपुर के मामले में ऐसा नहीं हुआ। रामपुर के नवाब रज़ा अली खान ने तुरंत भारत में विलय का फैसला किया। उन्होंने स्पष्ट कहा, 'मेरी रियासत भारत में है और हम भारत का ही समर्थन करेंगे।'

 

मुस्लिम लीग ने रामपुर में दंगे भी करवाए, लेकिन नवाब अपने फैसले पर अडिग रहे। यहां एक बात गौर करने वाली है कि रामपुर के नवाबों ने हमेशा हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया था। नवाब रज़ा अली खान के प्रधानमंत्री लेफ्टिनेंट कर्नल होरिलाल वर्मा एक हिंदू थे। आज़ादी के बाद, नवाब रज़ा अली खान ने अपना अमूल्य पांडुलिपि और पुस्तक संग्रह रामपुर रज़ा लाइब्रेरी के रूप में भारत सरकार को दान कर दिया। आज यह भारत की सबसे इंपोर्टेंट लाइब्रेरीज में से एक है।

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