भारत के लिए POK वापस लेना आसान या मुश्किल? पूरा इतिहास समझिए
लंबे समय से भारत में मांग होती रही है कि पाक अधिकृत कश्मीर को वापस ले लेना चाहिए। खुद गृहमंत्री अमित शाह भी ऐसी बात कह चुके हैं। आइए समझते हैं कि यह काम कितना आसान या मुश्किल हो सकता है।

जम्मू-कश्मीर का नक्शा, Photo Credit: Khabargaon
साल 1971 की बात है। बांग्लादेश की आजादी को लेकर शुरू हुए युद्ध पर अमेरिका की कड़ी नज़र थी। 6 दिसंबर को युद्ध शुरू हुआ। 8 तारीख को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर की टेबल पर एक रिपोर्ट पहुंची। पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता लेखक थॉमस पावर्स की किताब 'द मैन हू केप्ट द सीक्रेट्स' के अनुसार इस रिपोर्ट को देखते ही किसिंजर के माथे पर बल पड़ गए थे। दरअसल, इस रिपोर्ट में एक मीटिंग का ब्यौरा था। यह मीटिंग इंदिरा और उनके कैबिनेट के साथियों के बीच हुई थी। जिसमें युद्ध को लेकर तीन ऑब्जेक्टिव पेश हुए थे।
पहला - बांग्लादेश की आजादी।
दूसरा - पाकिस्तान को इतना कमजोर कर देना कि दोबारा भारत से लड़ने की हिमाकत न कर पाए। इंडिया का यह उद्देश्य होगा, किसिंजर यह पहले से मानकर चल रहे थे लेकिन मीटिंग का तीसरा ऑब्जेक्टिव ऐसा था जिसने उन्हें चिंता में डाल दिया। वह तुरंत राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के पास पहुंचे। उन्होंने निक्सन को तीसरे ऑब्जेक्टिव के बारे में बताया। बोले, 'भारत का प्लान जाहिर हो गया है। पहले वह ईस्ट पाकिस्तान को अलग करेंगे। फिर कश्मीर(POK) को कब्ज़े में ले लेंगे।'
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निक्सन, जो इंदिरा से हद दर्ज़े की नफरत करते थे, यह सुनते ही उनकी हवाइयां उड़ने लगी। निक्सन को ईस्ट पाकिस्तान का डर नहीं था। उसे तो वह हाथ से निकला हुआ ही मान रहे थे। असली डर यह था कि वेस्ट पाकिस्तान भी टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। निक्सन ने किसिंजर को चीन के पास भेजा ताकि वह चीन को भारत पर प्रेशर बनाने और मिलिट्री मूवमेंट के लिए मनाए। किसिंजर, संयुक्त राष्ट्र में चीन के स्थायी प्रतिनिधि हुआंग हुआ से मिले। हुआ, ने 2 नवंबर को ही परमानेंट रिप्रेज़ेंटेटिव का चार्ज लिया था। हुआ से मुलाकात में चीन की ओर से कोई ठोस कमिटमेंट नहीं मिला तो अंत में अमेरिका ने अपनी सेवंथ फ्लीट इंडियन ओसियन की तरफ रवाना कर दी। यह आम धारणा है कि बांग्लादेश की आजादी रोकने के लिए अमेरिका ने अपना जंगी बेड़ा भेजा था लेकिन असल में उन्हें POK की चिंता थी। इतिहासकार श्रीनाथ राघवन 1971 युद्ध पर लिखी अपनी किताब में लिखते हैं, 'अमेरिका का एकमात्र उद्देश्य यह था कि इंडियन आर्मी वेस्ट फ्रंट पर आगे न बढ़ पाए।'
यह किस्सा हमने आपको सुनाया ताकि समझ आए कि पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर, POK के इंटरनेशनल लेवल पर क्या मायने हुआ करते थे। 1971 युद्ध को 54 साल बीत चुके हैं। कश्मीर आज भी दुनिया में सबसे विवादित इलाकों में से एक है। कश्मीर पर कोई भी बयान नेशनल ही नहीं इंटरनेशनल खबर बनाता है। हालांकि, कश्मीर पर अधिकतर भारत के हिस्से वाले कश्मीर की जितनी चर्चा ही होती है। POK की उतनी नहीं, यह भारतीय कूटनीति की एक शॉर्टकमिंग रही है। हाल के वर्षों में इस जानिब नैरेटिव बदलने की कोशिशें भी हुई। 2016 में स्वतंत्रता दिवस पर भाषण के दौरान PM नरेंद्र मोदी ने गिलगित बाल्तिस्तान का जिक्र किया। नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर अजीत डोवाल भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच 104 किलोमीटर सीमा रेखा का जिक्र कर चुके हैं। जिसका सीधा रिफरेन्स POK से जुड़ता है। गृह मंत्री अमृत शाह ने 2024 में कहा था, ‘POK भारत का है, हम इसे लेकर रहेंगे।’ ये तमाम बयान POK पर बदलते रेटोरिक की तरफ इशारा करते हैं। असल सवाल यह कि क्या ये मुमकिन है? क्या इंडिया POK वापिस ले सकता है?
अगर हां तो कैसे? POK में एडमिनिस्ट्रेशन कैसे चलता है? चीन POK में क्या इंटरेस्ट रखता है? POK पर पाकिस्तान के दावे की हकीकत क्या है?
कश्मीर का विवाद समझिए
शुरुआत नक़्शे से करते हैं। भारत का नक्शा देखेंगे तो हमें पूरा जम्मू कश्मीर दिखाई देगा। इसमें जम्मू, कश्मीर, लेह- लदाख आते हैं। पूर्व की तरफ अक्साई चिन है- जिस पर चीन का कब्ज़ा है। इसी तरह एक लाइन ऑफ़ कंट्रोल है। जिसकी दूसरी तरफ कश्मीर का वह हिस्सा आता है, जिसे हम POK कहते हैं। इसके अलावा एकदम टॉप में, एक छोटा सा हिस्सा है। यह हिस्सा चीन को पाकिस्तान से तोहफे में मिला है। क्यों कैसे,कब, ये सब आगे समझेंगे, लेकिन फिलहाल समझिए कि जिसे हम POK कहते हैं। पाकिस्तान उसमें दो हिस्से मानता है। और दोनों का एडमिनिस्ट्रेशन भी अलग-अलग है।
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पहला, जिसे वह आजाद जम्मू-कश्मीर कहता है। पुंछ, राजौरी, कुपवाड़ा, अखनूर, नौशेरा- कश्मीर के इन इलाकों के नाम आपने खबरों में सुने होंगे। ये सब लाइन ऑफ कंट्रोल के पास के इलाके हैं, जो जम्मू कश्मीर के उस हिस्से में हैं, जो भारत के पास है और इन्हीं की दूसरी तरफ पड़ता है, पाकिस्तान के कब्ज़े वाला कश्मीर जबकि दूसरा हिस्सा है- गिलगित-बल्तिस्तान। पाकिस्तान पहले इसे नॉर्थेर्न एरियाज कहता था लेकिन अब इसका आधिकारिक नाम गिलगित बल्तिस्तान है।
एरिया के लिहाज से बात करें तो पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर का कुल एरिया है 13,297 वर्ग किलोमीटर और गिलगित बल्तिस्तान का 72,495 वर्ग किलोमीटर। इन दोनों के अलावा कब्ज़े वाले कश्मीर का एक और हिस्सा है। शक्सगाम वैली- 5,180 वर्ग किलोमीटर का यह एरिया चीन के कब्ज़े में है। 1962 से पहले यह भी पाकिस्तान के कब्ज़े में था। POK की कहानी में पहला सवाल है कि ये तमाम इलाके पाकिस्तान के कब्ज़े में कैसे आए?
पाकिस्तानी ने POK पर कैसे कब्ज़ा किया?
एक किस्सा सुनिए। क़ायद-ए-आजम मुहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बने। जब बने तब तबीयत नासाज़ थी। मतलब भयंकर TB हो रखा था। डॉक्टर ने कहा, 'ऐसी जगह जाइए जहां साफ़ हवा हो।' जिन्ना ने चुना कश्मीर। अपना एक कर्नल भेजा- हरी सिंह के पास। जिन्ना आना चाहते हैं। हरी सिंह ने दो टूक जवाब दिया- जिन्ना की एंट्री नॉट अलाउड। जिन्ना इस बात से झल्ला उठे। बाद में उन्होंने कश्मीर को हड़पने का पूरा प्लान बनाया।
पार्टीशन के बाद। सितम्बर 1947। लाहौर में एक मीटिंग हुई। एजेंडा था- कश्मीर। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत खान बोले- हमला कर दो। किसी ने समझाया- अभी ऐसे हालत नहीं कि युद्ध कर सकें। तब प्लान बना कि कबीलाइयों को पहले भेजा जाएगा, बाद में आर्मी जाएगी। इसी प्लान के तहत 22 अक्टूबर 1947 के रोज़ ऑपरेशन गुलमर्ग की शुरुआत हुई। इकबाल मल्होत्रा अपनी किताब 'कश्मीर अनटोल्ड स्टोरी: डीक्लासिफाइड'में बताते हैं।
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कबीलाइयों के 20 लश्कर तैयार हुए। उन दिनों जम्मू कश्मीर एक आज़ाद रियासत थी, जिसकी अपनी सेना भी थी। पुंछ में जम्मू कश्मीर की फौज के कुछ सिपाही महाराजा के खिलाफ बगावत कर रहे थे। प्लान था कि इनके साथ कबाइलियों को मिलाकर श्रीनगर पर हमला किया जाएगा।
भारत इस समय क्या कर रहा था?
भारत के कश्मीर के प्रति रुख को लेकर बड़ी चर्चा होती है। कई लोग मानते हैं कि कश्मीर के मामले में नेहरू ने थोड़ा देरी दिखाई। कश्मीर को लेकर क्या अड़चन थी, यह समझने के लिए हमें जूनागढ़ का मामला समझना होगा।
जूनागढ़ के दीवान शाह नवाज भुट्टो जिन्ना के काफी करीबी थे। वे जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे जबकि जिन्ना की 'टू नेशन थिअरी' के हिसाब से यह गलत था। आबादी में 80 फीसदी लोग हिंदू थे लेकिन जैसे ही 15 अगस्त की तारीख आई, शाह नवाज भुट्टो ने जूनागढ़ के पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी।
इधर भारत में सरदार वल्लभभाई पटेल, जो गृह मंत्री थे। शुरुआत में उन्होंने इस घोषणा को महत्त्व नहीं दिया। उन्हें यकीन था जिन्ना इसे नहीं मानेंगे लेकिन जिन्ना ने 13 सितंबर, 1947 को एक टेलिग्राम भेजा, जिसमें लिखा था कि वह जूनागढ़ के फैसले का स्वागत करते हैं। पटेल इस बात से भड़क गए।
30 सितंबर को भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के सामने आपत्ति जताई। माउंटबेटन, जो इस समय गवर्नर जनरल थे, उन्होंने सुझाव दिया कि जिन रियासतों पर विवाद है, वहां जनमत संग्रह कराना ठीक होगा।
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पाकिस्तान इसके लिए राजी नहीं था। बाद में वह राजी हुआ लेकिन तब तक भारतीय फौज जूनागढ़ पहुंच चुकी थी। जिन्ना की हिप्पोक्रेसी के चलते पटेल एकदम सीरियस थे। जूनागढ़ में जनता ने विद्रोह कर दिया था। अंत में जूनागढ़ के दीवान शाह नवाज भुट्टो ने भारत को आमंत्रण दिया और इस तरह जूनागढ़ का भारत में विलय हो गया। जूनागढ़ के नवाब अपना खजाना, अपने कुत्तों और परिवार समेत पाकिस्तान चले गए। शाह नवाज भुट्टो ने भी पाकिस्तान जाना चुना और बाद में इन्हीं के बेटे जुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बने।
बहरहाल 20 फरवरी, 1948 को जूनागढ़ में एक जनमत संग्रह कराया गया। जिसमें 2,01,457 रजिस्टर्ड वहटर्स में से बस 91 ने पाकिस्तान के साथ जाने को वहट दिया। यह तमाम घटनाक्रम बताना जरूरी है क्योंकि आगे जब कश्मीर में जनमत संग्रह वाला मुद्दा आएगा, तब आप बेहतर समझ पाएंगे कि जनमत संग्रह की बात उठी कहां से थी।
जूनागढ़ के मामले में जिन्ना ने जो चतुराई दिखाने की कोशिश की। उसके चलते ही कश्मीर का मामला कॉम्प्लिकेटेड हुआ। पटेल ने कहा, 'अगर हिन्दू बहुसंख्यक रियासत का मुस्लिम नवाब पाकिस्तान में जाने की बात कर सकता है, तो मुस्लिम बहुसंख्यक स्टेट भारत में क्यों नहीं आ सकता। खासकर तब जब भारत एक सेक्युलर स्टेट है।' जिन्ना मुस्लिमों के लिए पाकिस्तान चाहते थे। भारत तो सबका था। लिहाजा कश्मीर के मामले पर भारत ने ठान ली कि हरी सिंह को राजी कर विलय कराने की तमाम कोशिशें की जाएंगी।
इधर भारत महराजा हरी सिंह को मनाने की कोशिश कर ही रहा था कि कबीलाइयों ने कश्मीर में कोहराम मचाना शुरू कर दिया। पाकिस्तान के ‘आजादी के लड़ाके’ असल में क्या कर रहे थे- कुछ घटनाएं बताते हैं आपको। कबीलाइयों ने मुजफ्फराबाद चौकी कब्ज़े में ली। यहां से बारामुला का रास्ता लगभग 100 किलोमीटर के आसपास था लेकिन यहां पहुंचने में उन्हें पूरे 40 घंटे लग गए। क्यों? क्योंकि बीच-बीच में रुक-रुककर उन्हें लूटपाट मचानी थी।
‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लैपिएर लिखते हैं। कबीलाइयों के साथ चल रहे पाकिस्तान फौजी उन्हें समझाते-समझाते थक गए कि भाई आगे बढ़ना है लेकिन वे सुनने को तैयार न थे। बारामुला में जब ये पहुंचे तो वहां एक चर्च हुआ करता था। चर्च की 14 नन्स के साथ रेप किया गया। एक अस्पताल में भर्ती मरीजों की हत्या कर दी। यहां तक कि बारामुला पूरी तरह जला डाला गया। पाकिस्तान का दावा आपने सुना होगा- कश्मीरी चूंकि मुस्लिम हैं। इसलिए उसे पाकिस्तान में होना चाहिए। इसी कश्मीर के एक मुस्लिम लड़के मकबूल शेरवानी ने उस रोज़ जिन्ना की टू नेशन थियोरी की असलियत सामने ला दी थी। शेरवानी वह लड़का था जिसने कबीलाइयों को गलत रास्ता बताया। जब उन्हें इस बात का अहसास हुआ, मकबूल को खम्बे से लटकाकर गोली मार दी गई।
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दूसरा नाम है ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान। नौशेरा का शेर। पाक फौज ने कबीलाइयों के साथ मिलकर नौशेरा पर तीन अटैक किए। ब्रिगेडियर उस्मान वीरगति को प्राप्त हो गए लेकिन नौशेरा पर कब्ज़ा नहीं होने दिया। मरणोपरांत उन्हें महावीर चक्र से अलंकृत किया गया।
24 अक्टूबर की रात। कबीलाइयों ने उस पावरहाउस को उड़ा दिया, जो श्रीनगर में बिजली पहुंचाता था। महल की रौशनी गायब हुई तो महाराजा हरी सिंह जो अब तक हिचकिचा रहे थे, उन्हें भारत की याद आई।
क्या था ऑपरेशन गुलमर्ग?
भारत में ऑपरेशन गुलमर्ग की खबर तो पहले ही पहुंच चुकी थी लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। दरअसल, एक भारतीय अफसर, मेजर ओंकार सिंह कलकट के हाथ इस ऑपरेशन की जानकारी लगी। अपनी किताब 'द फार फ्लंग फ्रंटियर्स' में कलकट ने बाद में लिखा कि वह उन दिनों वज़ीरिस्तान के मीर अली में स्थित बन्नू फ्रंटियर ब्रिगेड ग्रुप में तैनात थे। यह वह वक्त था, जब बंटवारे के बाद सैनिकों और साज़ो सामान को भारत और पाकिस्तान के बीच बांटने की प्रक्रिया चल रही थी। खैर, पाकिस्तान में तैनात कलकट ब्रिगेड मेजर थे। उन्हें जल्द ही अपनी ब्रिगेड का चार्ज हैंडओवर करना था, जिसके बाद वह भारत लौट जाते। तभी एक लेटर दफ्तर पहुंचा और संयोग से कलकट ने उस खत को खोल लिया। यह खत जनरल फ्रैंक मेसर्वी ने रावलपिंडी स्थित जनरल हेडक्वार्टर्स से भेजा था, जो पाकिस्तानी सेना का मुख्यालय था। जनरल मेसर्वी आज़ादी के बाद पाकिस्तानी सेना के पहले कमांडर इन चीफ थे। इस लेटर के साथ एक और दस्तावेज़ नत्थी था, जिसका शीर्षक था - 'ऑपरेशन गुलमर्ग- द प्लान फॉर द इनवैजन एंड कैप्चर ऑफ कश्मीर'। पहला हमला 20 अक्टूबर 1947 को होना था। जैसे ही बाकी अफसरों को इसकी भनक लगी कि कलकट ने ऑपरेशन गुलमर्ग का प्लान देख लिया है, वह नज़रबंद कर लिए गए। तब कलकट ने एक बहुत बड़ा रिस्क लिया। वह नज़रबंदी तोड़कर भाग निकले और किसी तरह 18 अक्टूबर 1947 को दिल्ली पहुंचे। सबसे पहले उन्होंने अपनी बात मेजर जनरल कुलवंत सिंह और ब्रिगेडियर प्राण नाथ थापर तक पहुंचाई। ब्रिगेडियर थापर उन दिनों डायरेक्टर, मिलिट्री ऑपरेशनंस थे। यह वही ब्रिगेडियर थापर हैं, जो आगे चलकर जनरल थापर बने। 1962 के भारत-चीन युद्ध में इनके नेतृत्व पर सवाल उठे और उन्हें इस्तीफा भी देना पड़ा। खैर, हम कहानी पर लौटते हैं।
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19 अक्टूबर को कलकट रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह से मिले और उन्हें ऑपरेशन गुलमर्ग के बारे में जानकारी दी। सरदार बलदेव ने इंटेलिजेंस डायरेक्टोरेट से कहा कि कलकट की बातों को वेरिफाइ करें लेकिन बकौल कलकट वहां तैनात अंग्रेज़ अफसरों ने उनकी बातों पर यकीन करने से इनकार कर दिया। प्रधानमंत्री तक ये बात पहुंचाई ही नहीं गई कि वज़ीरिस्तान से कोई अफसर भागा भागा दिल्ली आया है और वह कश्मीर पर हमले का प्लान भी जानता है। 20 अक्टूबर की तारीख आई और चली गई लेकिन महज़ दो दिनों के भीतर कलकट का कहा एक-एक लफ्ज़ सच हो गया। 22 अक्टूबर को पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। तब हंगामा हुआ कि उस अफसर को खोजो जो हमले का प्लान बता रहा था। 24 अक्टूबर को जाकर मेजर कलकट को प्रधानमंत्री नेहरू के सामने पेश किया गया, जहां उन्होंने कलकट ने पूरी बात बताई।
प्रधानमंत्री नेहरू सेना के दखल को लेकर पशोपेश में थे। वह चाहते थे कि एक बार इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर साइन हो जाएं, उसके बाद अगर भारत आर्मी भेजेगा तो अंतरराष्ट्रीय बिरादरी कोई सवाल नहीं उठा पाएगी। इसके बाद VP मेनन और लेफ्टिनेंट कर्नल सैम मानेकशॉ श्रीनगर पहुंचे। दोनों ने महाराजा हरी सिंह से मुलाक़ात की। महाराजा को सलाह दी गई कि वह जम्मू निकल जाएं। महाराजा अभी भी इस बात पर अड़े हुए थे कि उन्हें स्वायत्त राज्य चाहिए। मेनन लौट आए। 26 अक्टूबर को नेहरू पटेल और माउंटबेटन के बीच एक मीटिंग हुई। मीटिंग में तय हुआ कि मेनन एक बार फिर जाएंगे और इस बार महाराजा को आख़िरी अल्टीमेटम दिया जाएगा। मेनन उसी दिन वापिस गए और महाराजा से विलय पत्र पर हस्ताक्षर करवाकर वापस लौट आए। अगले ही दिन भारतीय फौज श्रीनगर के लिए रवाना हो गई। अब विलय पत्र किस दिन साइन हुआ, इसे लेकर एक विवाद है। पाकिस्तान हमेशा इसे लेकर सवाल उठाता रहता है। उसका कहना है कि विलय पत्र बाद में साइन हुए, सेना पहले ही आ गई थी। हालांकि, इस मामले में उनका कहना बनता नहीं क्योंकि उनकी तरफ से कबीलाई पहले ही हमला कर चुके थे। पाकिस्तानी सेना उनके साथ थी और इसके तमाम सबूत बाद में भारत की तरफ से पेश भी किए गए थे।
विलय पत्र हुआ स्वीकार
बहरहाल, विलय पत्र की डेट को लेकर हमें VP मेनन के संस्मरणों से कुछ इशारा मिलता है। मेनन लिखते हैं, जम्मू से लौटकर जब वह दिल्ली पहुंचे, सरदार पटेल एयरपोर्ट पर ही उनका इंतज़ार कर रहे थे। जिसके बाद डिफ़ेंस कमिटी की मीटिंग बुलाई गई। विलय पत्र स्वीकार किया गया और अगले ही दिन हवाई मार्ग से और गुरदासपुर के रास्ते श्रीनगर के लिए फौज रवाना कर दी। सेना 27 को भेजी गई थी। इसलिए मेनन के लिखे अनुसार विलय पत्र पर 26 को साइन हुए थे। विलय पत्र में भी 26 ही तारीख मेंशन है। खैर, विलय के बाद फौज की जिन टुकड़ियों को कश्मीर भेजा गया, उनमें मेजर कलकट भी शामिल थे। सेना की पहली प्राथमिकता थी कि किसी भी कीमत पर श्रीनगर पर पाकिस्तान का कब्ज़ा नहीं होने देना है। शहर में आर्मी ने फ्लैग मार्च निकाला। कश्मीर के सबसे बड़े राजनैतिक दल नेशनल कांफ्रेंस के लोगों ने सेना की मदद की। सेना ने कबीलाइयों को पीछे खदेड़ना शुरू किया। ये देखकर पाकिस्तानी फौज ने पूरी ताकत से हमला शुरू कर दिया। युद्ध की शुरुआत हो गई। युद्ध जनवरी 1949 तक चला। इस दौरान सेना ने जम्मू कश्मीर का दो तिहाई हिस्सा तो खाली करवा लिया लेकिन एक तिहाई पर पाकिस्तान का कब्ज़ा हो गया।
गिलगित बल्तिस्तान पाकिस्तान के कब्ज़े में कैसे आया, इसकी अपनी अलग कहानी है। दरअसल, आजादी से पहले ब्रिटिश सरकार ने गिलगित बल्तिस्तान का इलाका महाराजा से 60 सालों की लीज पर लिया था और यहां अपनी फौज तैनात की। जिन्हें गिलगिट स्काउट्स कहते थे। ये सारा आयोजन सोवियत संघ के डर से किया गया था। आजादी के बाद महाराजा और अंग्रेज़ों के बीच अरेंजमेंट ख़त्म हुआ तो गिलगित स्काउट्स जम्मू कश्मीर सेना का हिस्सा बन गए। इनकी कमान अंग्रेज अफसर मेजर विलियम ब्राउन के हाथ में थी।
पाकिस्तान ने जब कश्मीर पर हमला किया, इन्हीं मेजर विलियम ब्राउन के नेतृत्व में गिलगिट स्काउट्स ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। इस मामले में कई लोग मानते हैं कि ब्रिटेन की सहमति से मेजर ब्राउन ने ये विद्रोह किया था क्योंकि बाद में मेजर ब्राउन को मेंबर ऑफ़ थे मोस्ट एक्सीलेंट आर्डर ऑफ़ ब्रिटिश एम्पायर अवार्ड से नवाज़ा गया था। पाकिस्तान ने भी उन्हें सितारा-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया।
ब्रिटेन के रोल को लेकर कुछ और सवाल भी हैं। मसलन 1947 में भारत और पाकिस्तान- दोनों सेनाओं के कमांडर इन चीफ ब्रिटिशर्स थे। पाकिस्तान के जनरल फ्रैंक मेसेर्वी और भारत के जनरल रॉब लॉकहार्ट। दोनों ब्रिटिश थे। कबीलाइयों का हमला जब शुरू हुआ, जिन्ना ने फ्रैंक मेसेर्वी को लन्दन भेज दिया था। जब वह लौटे, माउंटबेटन से मिलने के लिए दिल्ली में रुके। माउंटबेटन ने पूछा भी - ‘तुमने कबीलाइयों की मदद तो नहीं की?’
उस समय तो मेसेर्वी ने साफ़ इनकार कर दिया लेकिन बाद में पता चला कि पाकिस्तान के लिए हथियार खरीदने में मदद कर रहे थे। इन्हीं के खत में ऑपरेशन गुलमर्ग की जानकारी वज़ीरिस्तान स्थित पाकिस्तानी टुकड़ियों तक गई थी। यह वही खत था, जो मेजर कलकट के हाथ लगा था। गौर कीजिए, मेजर कलकट की यह भी शिकायत थी कि इंटेलिजेंस डायरेक्टोरेट में तैनात अफसरों ने उनकी बात नहीं सुनी। 5 दिसंबर 2019 को रिडीफ पर छपे आर्टिकल में रश्मी सहगल लिखती हैं कि इंटेलिजेंस डायरेक्टोरेट में तब अंग्रेज़ अफसर तैनात थे। रश्मी ने ये भी कयास लगाया है कि अंग्रेज़ अफसर ऑपरेशन गुलमर्ग को लीड भी करते लेकिन चूंकि प्लान ही लीक हो गया था, अंतिम समय में उन्होंने पांव खींचे।
ब्रिटेन के रोल को लेकर PM नेहरू ने भी आशंका जताई थी। UN सिक्योरिटी काउंसिल में ब्रिटेन और अमेरिका के रवैये को लेकर विजयलक्ष्मी पंडित को लिखे एक खत में नेहरू लिखते हैं, 'मैं सोच भी नहीं सकता था कि सिक्योरिटी काउंसिल का रवैया इतना पक्षपात पूर्ण होगा । अमेरिका और ब्रिटेन को देखकर लगता है कि कश्मीर विवाद में शायद ब्रिटेन परदे के पीछे का मेन एक्टर है।' POK का मुद्दा समझने के लिए UN सिक्योरिटी काउंसिल में हुई बहस को भी देखना जरूरी है। सबसे पहले तो जानिए कि UN में भारत खुद गया था। जिसे पंडित नेहरू की भूल माना जाता है लेकिन यह इस बात की गवाही है कि यहां से कोशिश शान्ति की हुई।
UN जाने की भूमिका बनी नवम्बर 1947 में। जब माउंटबेटन जिन्ना से बातचीत करने पाकिस्तान गए। जिन्ना ने प्रस्ताव दिया कि दोनों पक्ष एक साथ अपनी सेनाएं वापस बुला लें। माउंटबेटन ने पूछा कि पाकिस्तान कबीलाई हमलावरों की वापसी की गारंटी कैसे दे सकता है। इस पर जिन्ना ने कहा कि अगर भारत अपनी सेना हटाएगा, तो वह भी हमलावरों को पीछे हटवा देंगे। यह साफ दर्शाता था कि हमले की योजना पाकिस्तान ने ही बनाई थी। माउंटबेटन ने सुझाव दिया कि जम्मू-कश्मीर का भविष्य जनमत संग्रह से तय किया जा लेकिन जिन्ना ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि भारतीय सेना की उपस्थिति और शेख अब्दुल्ला के सत्ता में होने के कारण कश्मीर के लोग पाकिस्तान के पक्ष में वोट करने से हिचकिचाएंगे। बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची।
2 नवंबर को नेहरू ने अपने भाषण में कहा कि कश्मीर में जो हो रहा है, वह हमलावरों के खिलाफ आम कश्मीरियों का संघर्ष है। उन्होंने यह भी कहा कि हालात सामान्य होने के बाद, वह संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में जनमत संग्रह कराने के लिए तैयार हैं। इस दौरान, भारतीय सेना लगातार हमलावरों को पीछे धकेल रही थी। भारत और पाकिस्तान के बीच लाहौर में प्रधानमंत्री स्तर पर बातचीत हुई लेकिन कोई हल नहीं निकला। इसी बैठक में माउंटबेटन ने सुझाव दिया कि यह मुद्दा संयुक्त राष्ट्र (UN) में ले जाया जाए। माउंटबेटन के एड डे कैंप नरेंद्र सिंह सरीला अपनी किताब में लिखते हैं, 'जून 1948 में माउंटबेटन ने गवर्नर जनरल के पद से इस्तीफ़ा दिया। वह चाहते थे कि इससे पहले ही कश्मीर सुलझ जाए। माउंटबेटन किसी कीमत पर समझौता चाहते थे, इसलिए उन्होंने VP मेनन से एक नक्शा तैयार करने को कहा। जिसमें जम्मू कश्मीर का पार्टीशन शामिल था। इस नक़्शे के हिसाब से मीरपुर, पुंछ, मुजफ्फराबाद और गिलगित- ये इलाके पाकिस्तान को सौंप दिए जाते।'
इस प्लान पर सहमति नहीं बन पाई। जब कोई और रास्ता भी नहीं बचा, तो नेहरू मुद्दे को UN में ले जाने को तैयार हो गए। 31 दिसंबर 1947 को भारत सरकार ने इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र (UN सिक्योरिटी काउंसिल में पेश किया। इतिहासकार श्रीनाथ राघवन अपनी किताब, 'वॉर एंड पीस इन मॉडर्न इंडिया' में लिखते हैं। कश्मीर के प्रति सिक्योरिटी काउंसिल का रवैया फिलिप नोएल-बेकर से प्रभावित था। बेकर ब्रिटिश सरकार में कॉमनवेल्थ सेक्रेटरी हुआ करते थे और UN में ब्रिटिश डेलिगेशन को लीड कर रहे थे। राघवन बताते हैं कि बेकर इस बात से चिंतित थे कि फिलिस्तीन मुद्दे पर ब्रिटेन पहले ही मुस्लिम देशों को नाराज़ कर चुका है। उनकी बात रिकॉर्ड में दर्ज़ है, जिसमें वह कहते हैं, भारत का पक्ष लेकर हम पूरी इस्लामिक दुनिया की नाराजगी का खतरा नहीं उठा सकत। इसी रवैये के चलते सिक्योरिटी काउंसिल पक्षपातपूर्ण फैसला लेते हुए UN रेजॉलूशन 47 के पास किया। जिसके तहत द यूनाइटेड नेशन्स कमीशन फॉर इंडिया एंड पाकिस्तान नाम की एक बॉडी बनाई गई। इसमें पांच देशों के मेंबर थे जिन्हें भारत पाकिस्तान के बीच मध्यस्तता करनी थी। इस रेजोलुशन के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय देखरेख में कश्मीर में जनमत संग्रह होना था।
पाकिस्तान का दावा है कि भारत ने इस प्रस्ताव का पालन नहीं किया लेकिन दो बातें। पहला - UN से पास होने वाले रेजोलूशन अलग-अलग तरह के होते हैं। मसलन चैप्टर 7 के तहत लाए गए रेजोलूशन बॉन्डिंग होते हैं। यानी सभी सदस्यों को इन्हें मानने की बाध्यता होती है। 1950 में जब उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच युद्ध शुरू हुआ। तब रेजोलूशन 82 और 83 पास किए गए थे। इन्हीं के तहत UN ने कोरिया में मिलिट्री ऐक्शन को मंजूरी दी थी। कश्मीर पर पास हुआ रेजोलूशन 47 चैप्टर 6 के तहत लाया गया था। जो बाइंडिंग नहीं है। मने इसका पालन करने की कोई बाध्यता नहीं है।
दूसरी ओर इसे लागू भी किया जाए तो अड़चन पाकिस्तान की तरफ से है। रेजोलूशन 47 के सेक्शन A का पहला बिंदु कहता है: पाकिस्तान कश्मीर से अपने सैनिक और नागरिक हटाएगा, साथ ही कश्मीर के मामलों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा।
इस पहले पॉइंट का पालन पहले होना है। इसके बाद तीसरे बिंदु में भारत के लिए कुछ सिफारिशें हैं, मसलन भारत को अपनी सेना पीछे हटाने होगी जिसके बाद जनमत संग्रह होगा। रेजोलूशन से साफ़ पता चलता है कि जब तक पाकिस्तान यह शर्त पूरी नहीं करता, तब तक इस प्रस्ताव का कोई वास्तविक असर नहीं हो सकता।
ये तमाम बातें हमने बताई ताकि आधिकारिक कहानी साफ़ हो जाए कि POK पर हुआ था। हालांकि, जमीनी हकीकत यही है कि कश्मीर में जनमत संग्रह दूर की कौड़ी है। इसकी बानगी है श्रीनगर के पॉश इलाके में बना UN मिलिट्री ऑब्जर्वर्स का ऑफिस जो अब किसी बीते जमाने का निशानी लगता है।
POK की पॉलिटिक्स
POK पर कब्ज़े के बाद पाकिस्तान के सामने सवाल था कि इस इलाके को कंट्रोल कैसे किया जाए। रेटोरिक के लिए पाकिस्तान आजाद जम्मू कश्मीर की बात करता है लेकिन शुरुआत से उसकी ऐसी कोई मंशा नहीं थी। इसी कारण एडमिनस्ट्रेशन के लिए POK को दो हिस्सों में बांटा गया। यह बंटवारा हुआ था 28 अप्रैल 1949 को। कश्मीर घाटी से जुड़े हिस्से को AJK नाम दिया गया जबकि गिलगित-बल्तिस्तान वाला इलाके को नॉर्थर्न एरियाज नाम मिला। दोनों हिस्सों को पाकिस्तान ने अलग-अलग स्टेटस दिया। जम्मू-कश्मीर को एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया, हालांकि यह स्वतंत्रता सिर्फ नाम की थी। दूसरी तरफ, नॉर्दर्न एरिया में फ्रंटीयर क्राइम्स रेगुलेशन (FCR) के तहत रखा गया, जो ब्रिटिश काल का क़ानून था।
कश्मीर में क्या गेम हुआ, पहले ये समझते हैं। सबसे पहले तो कश्मीर की फौज को तुरंत पाकिस्तान आर्मी ऐक्ट के तहत लाया गया। ब्यूरोक्रेट पदों पर पाकिस्तान आर्मी के अफसर नियुक्त हुए। मिनिस्ट्री ऑफ कश्मीर अफेयर्स (MKA)की स्थापना हुई। बाद में इसे मिनिस्ट्री ऑफ कश्मीर अफेयर्स एंड नॉर्थर्न एरियाज (MKANA) नाम दिया गया, जिसे इस्लामाबाद से चलाया जाता था। MKA के पहले प्रमुख मुश्ताक अहमद गुरमानी ने बड़ी चतुराई से फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई। कश्मीर की आजादी के नाम पर वहां एक सरकार बनाई गई। सरदार इब्राहिम खान को कश्मीर का राष्ट्रपति बनाया गया। ये वही थे जिन्होंने पुंछ में महाराजा के खिलाफ बगावत शुरू की थी। इनके बरक्स एक और प्लेयर को खड़ा किया गया। मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष चौधरी गुलाम अब्बास को। इसके अलावा POK में एक और प्लेयर थे- मीरवाइज़ युसूफ शाह। इनके ही भतीजे मीरवाइज उमर फारुख श्रीनगर में हुर्रियत कांफ्रेंस के वर्तमान लीडर हैं। इन तीन धड़ों को आपस में भिड़ाकर कश्मीर मिनिस्ट्री ने अपना कंट्रोल बनाए रखा। 1947 से 1959 के बीच, महज 12 सालों में कश्मीर में आठ राष्ट्रपति चुने गए।
गुलाम अब्बास और सरदार इब्राहिम के बीच तनातनी इतनी बड़ी कि उन्होंने सरदार इब्राहिम की सरकार को बर्खास्त कर दिया।
नतीजा हुआ कि 1955 में पुंछ में एक बड़ा विद्रोह हुआ। इस विद्रोह को दबाने के लिए पंजाब कॉन्स्टेबुलरी और पाकिस्तानी सेना की 12वीं डिवीजन को भेजकर पूंछ में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। इस दौरान पाकिस्तान की आर्मी ने पुंछ के नई नेताओं की हत्या की वहीं घरों को जला दिया गया। 1950 से 1970 तक पाकिस्तान अपना कंट्रोल बढ़ाता गया। 1970 तक POK में कोई चुनाव नहीं हुए। पाकिस्तान जिसे चाहता, वह राष्ट्रपति बन जाता। 12 साल में 8 राष्ट्रपति बदले गए। एक दिलचस्प किस्सा 1961 का है। के.एच. खुर्शीद, जो मुहम्मद अली जिन्ना के निजी सचिव रह चुके थे, POK के राष्ट्रपति बने। उन्होंने कुछ स्वतंत्र फैसले लेने की कोशिश की। खुर्शीद ने एक बार कहा - POK को पाकिस्तान का गुलाम नहीं बनने देंगे। बस, उनकी किस्मत का फैसला हो गया। 1964 में एक पुलिस अधिकारी खुर्शीद के घर पहुंचा। इस्तीफे का कागज थमाया। कहा - या तो साइन करो, या जेल जाओ। खुर्शीद ने इस्तीफा दे दिया। खुर्शीद का अंत कितना दर्दनाक था, ये इस बात से समझा जा सकता है कि 1988 में जब उनकी मौत हुई, उनकी जेब में सिर्फ 37 रुपये थे। इस बीच जो सरकारें रही, उनके पास नाममात्र की शक्ति थी। अंदाज़ा ऐसे लगाइए कि सरकार डेढ़ सौ रूपये से ज्यादा की सैलरी वाली पोस्ट नहीं बना सकती थी। एक लाख से ऊपर का कोई भी खर्च करने के लिए इस्लामाबाद से परमिशन लेनी होती थी।
कश्मीर के घटनाक्रम में एक बड़ा बदलाव आया 1970 में। याहया खान के निज़ाम में कश्मीर में वोटिंग का अधिकार दिया गया। सोचिए, राइट टू वोट आया 1970 में। साथ ही, विधानसभा का गठन भी हुआ। इस विधानसभा में 24 निर्वाचित सदस्य और एक मनोनीत महिला सदस्य थी। विधानसभा को कुछ विधायी शक्तियां दी गईं। हालांकि, रक्षा और विदेश मामले और मुद्रा जैसे महत्वपूर्ण विषय पाकिस्तान सरकार के पास ही रहे। इस समय में एक विशेष क़ानून बनाया गया जिसके तहत गैर-कश्मीरियों को POK की नागरिकता नहीं मिल सकती थी। ये पॉइंट नोट कीजिएगा क्योंकि आगे जब गिलगित बल्तिस्तान की बात होगी, नागरिकता का ये पहलू वहां एक इम्पोर्टेन्ट फैक्टर है।
खैर, POK में 1972 के शिमला समझौते के बाद कुछ और बदलाव हुए। 1949 में जो सीजफायर लाइन बनी थी, उसका नाम लाइन ऑफ़ कंट्रोल हो गया। इसके दो साल बाद 1974 में AJK अंतरिम संविधान कानून लाया गया। राष्ट्रपति शासन की जगह संसदीय व्यवस्था बनाई गई। इससे पहले प्रेजिडेंट हेड हुआ करता था। 1974 के बाद POK में प्रधानमंत्री प्रमुख हो गए। इसी समय एक नई संस्था भी बनाई गई।- 'AJK काउंसिल'। यह काउंसिल तब से लेकर आज तक पाकिस्तान के हिस्से वाले कश्मीर की सर्वोच्च संस्था है। मतलब ग्राउंड लेवल पर असली ताकत इसी संस्था है। 1974 से POK का निज़ाम कैसे चलता है। पॉइंट्स वाइज़ समझ लेते हैं।
POK का निज़ाम 1974 में बने एक अंतरिम संविधान कानून के तहत चलता है। POK को तीन डिवीजन्स में बांटा गया है। मुजफ्फराबाद, मीरपुर और पुंछ। मुजफ्फराबाद इसकी कैपिटल है। POK की अपनी असेम्बली है। जिसका पाकिस्तान की संसद में कोई रिप्रजेंटेशन नहीं है।
इस अस्मेबली में 53 सीटें हैं। जिनमें आठ रिजर्व होती है। बची 45 सीटों में भी एक दिलचस्प खेल है। 33 सीटें तो POK के इलाकों से आती हैं लेकिन 12 सीटें ऐसी हैं जो पाकिस्तान में रहने वाले कश्मीरी रिफ्यूजीज के लिए रिजर्व हैं। यानी पाकिस्तान के पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में रहने वाले कश्मीरी वहट करते हैं।
निजाम चलाने के लिए POK में दो एग्जीक्यूटिव बॉडीज हैं। पहली कश्मीर की सरकार - दूसरी काउंसिल जिसे AJK काउंसिल कहा जाता है। सरकार का मुखिया प्राइम मिनिस्टर होता है। वहीं प्रेजिडेंट की पोस्ट भी होती है। दोनों का चुनाव लेजिस्लेटिव असेम्ब्ली के जरिए होता है। हालांकि असली पॉवर AJK काउंसिल के पास होती है। काउंसिल इस्लामाबाद में बैठती है। इसमें 11 मेंबर होते हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इसके मुखिया होते हैं। और 5 मेंबर को नॉमिनेट भी वही करते हैं। बचे हुए 6 मेंबर लेजिस्लेटिव असेम्ब्ली से चुने जाते हैं।
ज्यादातर पावर काउंसिल के पास होती है। मसलन POK का अपना सुप्रीम कोर्ट है। इसके जज काउंसिल के द्वारा चुने जाते हैं। इसके चीफ सेक्रेटरी, ऑडिटर जनरल, IG पुलिस- इनकी नियुक्ति भी काउंसिल के जरिए होती है। इसके अलावा इनकम टैक्स, एयरकराफ्ट, बैंकिंग, सेंसस, रेलवे, ऑयल एंड गैस, बिजली, प्रेस, एजुकेशन और टूरिजम- इनका कंट्रोल भी काउंसिल के ही पास है।
2018 में POK के संविधान में हुए बदलाव के बाद आधिकारिक रूप से काउंसिल की ज्यादातर शक्तियां लेजिस्लेटिव असेंबली को ट्रांसफर कर दी गई हैं लेकिन जमीनी स्तर पर AJK काउंसिल के जरिए पाकिस्तान POK पर कंट्रोल बनाए रखता है। ये कंट्रोल सिर्फ अडमिंस्ट्रेटिव लेवल पर ही नहीं है, बल्कि पोलिटिकल मनुवरिंग से भी अचीव किया जाता है।
POK की पॉलिटिक्स बिरादरी सिस्टम के हिसाब से चलती है। दो समुदाय सबसे ज्यादा पावरफुल हैं। गुज्जर और सुधान। इन्हीं दोनों बिरदारी से अब तक कश्मीर के प्रधानमंत्री बनते आए हैं। तीसरा पॉवरफुल ग्रुप है- मीरपुर के जाट। इनकी संख्या कम है लेकिन फाइनेंशियल पावर ज्यादा होने के चलते मीरपुर के जाट अच्छी साख रखते हैं। 1960 के दशक में मीरपुर से बहने वाले झेलम पर पाकिस्तान ने एक डैम बनाया, जिसका नाम है मंगला डैम। इस डैम को बनाने में विस्थापित हुए लोग यहां से माइग्रेट हो गए। मीरपुर को 'मिनी इंग्लैंड' कहा जाता है। क्यों? क्योंकि यहां के 70% लोगों का कोई न कोई रिश्तेदार UK में है। इनके भेजे पाउंड्स के चलते ही मीरपुर के जाट पैसे और पॉलिटिक्स- दोनों पहलुओं पर पावरफुल हुए। इसी का नतीजा हुआ कि 1996 में मीरपुर के सुल्तान महमूद चौधरी POK के राष्ट्रपति बने।
पॉलिटिक्स का यह समीकरण इसलिए जानना जरूरी है क्योंकि हर समुदाय के लिए कश्मीर अलग मायने रखता है। सुधान गर्व करते हैं कि 1947 में महाराजा के खिलाफ पहला विद्रोह उन्होंने किया था। इसलिए सुधान नेता कश्मीर के पाकिस्तान में विलय की वकालत करते हैं। जबकि मीरपुर के नेता पाकिस्तान से अलग कश्मीर चाहते हैं। अलग कश्मीर।
पार्टियों के हिसाब से इन्हें बांटा जाए तो POK में चार बड़ी पार्टियां हैं।
नवाज़ शरीफ की Pakistan Muslim League-N (PMLN), बिलावल भुट्टो की Pakistan People’s Party (PPP), इमरान खान की Pakistan Tehreek-e-Insaf (PTI) और लोकल मुस्लिम कांफ्रेंस। इसके अलावा भी कई छोटी बड़ी पार्टियां हैं। मसलन जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, जिसका एक धड़ा श्रीनगर में भी हुआ करता था। POK में JKLF के चुनाव लड़ने पर बैन है। पाकिस्तान से अलग कश्मीर की वकालत करने वाली ऐसी तमाम पार्टियां बैन हैं। यह रिवायत जिया उल हक़ के दौर में शुरू हुई थी। जिन्होंने 1979 में तमाम पार्टियों से ये दस्तखत करवाए कि वे कश्मीर के पाकिस्तान में विलय का समर्थन करती हैं। पाकिस्तान की तरफ से POK में कैसे आर्म ट्विस्टिंग की जाती है। इसके कई उदाहरण है।
1970 के बाद ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो की PPP सबसे लोकप्रिय पार्टी हुआ करती थी। भुट्टो की मौत के बाद एक घटना हुई। 1981 में भुट्टो के बेटे, मुर्तज़ा भुट्टो के बनाए एक संगठन अल- ज़ुल्फ़िकार ने पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइन्स का एक प्लेन हाईजैक कर लिया। POK में मुस्लिम कांफ्रेंस के नेता सरदार कय्यूम ने इसके लिए भारत और PPP को जिम्मेदार ठहराया और पाकिस्तानी फौज के चहेते बन गए। इसके बाद इस्लामाबाद ने PPP को दबाने के लिए लगातार कय्यूम का इस्तेमाल किया।
एक और उदाहरण है 1999 के चुनाव। जब PPP और मुस्लिम कांफ्रेंस दोनों को 16-16 सीटें मिली थी। चुनाव के बाद PPP के राजा मुमताज राठौर प्रधानमंत्री चुने गए लेकिन सरदार कय्यूम ने राठौर को शपथ दिलाने से ही मना कर दिया। इस्लामाबाद में तब बेनजीर भुट्टो की सरकार थी। उनके दखल के बाद सरदार कय्यूम को शपथ दिलाई जा सकी। अगस्त 1990 में भुट्टो की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। तब राठौर की मुश्किलें और बढ़ गईं। कय्यूम ने उनकी सरकार गिराने की कोशिशें तेज़ कर दी। राठौर ने गुस्से में पाकिस्तान को बुरा भला कहा। अगले ही रोज़ पाकिस्तानी फौज के ब्रिगेडियर आए और प्रधानमंत्री राठौर को गिरफ्तार कर इस्लामाबाद ले गए। जहां उन्हें 30 दिन हाउस अरेस्ट में रखा गया।अब एक सरसरी नज़र, 2000 से लेकर अब तक POK में आए पोलिटिकल चेंजेस पर डाल लेते हैं।
1990 के दशक में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस, पाकिस्तान मुस्लिम लीग और सेना के बीच साठ-गांठ हुआ करती थी। इस इक्वेशन में चेंज आया परवेज़ मुशर्रफ के दौर में। भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में भारत-पाक वार्ता में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस को शामिल किया गया। मुस्लिम कांफ्रेंस के सरदार कय्यूम ने इसकी तारीफ़ की। यहीं से वह मुशर्रफ की आंख में खटकने लगे। तुरत फुरत कश्मीर में खेल पलटा और रातों रात पाकिस्तानी आर्मी के मेजर जनरल सरदार मुहम्मद अनवर खान को आर्मी से इस्तीफ़ा दिलाकर POK का राष्ट्रपति नियुक्त कर दिया गया।
मुशर्रफ के जाने के बाद POK में मुस्लिम कांफेरेंस की वापसी हुई और तब से 2021 तक, कभी मुस्लिम कांफ्रेंस तो कभी PPP सत्ता में आते रहे। 2021 में पहली बार PML-N सत्ता में आई। आगे मुस्लिम कांफ्रेंस और बाकी लोकल पार्टियों की अहमियत लगातार कम होती गई।
कुल जमा निचोड़ यह कि कश्मीर को आज़ाद कहने वाला पाकिस्तान लोकल कश्मीर की आजादी की मांग करने वाली तमाम पार्टियों को हाशिए पर रखता है और पाकिस्तान की मुख्य पार्टियों की बदौलत POK पर नियंत्रण बनाए रखता है। POK की सरकार लगभग एक नगरपालिका जितनी शक्ति रखती है। उन्हें टैक्स वसूलने का तक अधिकार नहीं है। 1974 में बनाए संविधान के अनुसार POK के सारे टैक्स कश्मीर काउंसिल वसूलती है। POK को मिलता है सिर्फ 3%। बाकी 97% इस्लामाबाद की तिजोरी में।
ऐसा ही कुछ हाल नेचुरल रिसोर्सेस का है। मीरपुर के मंगला डैम से 46 अरब रुपये की बिजली बनती है। इसके बावजूद कश्मीर के लोग 12-12 घंटे का पावर कट सहते हैं। नीलम-झेलम पावर प्रोजेक्ट से 500 मेगावाट बिजली बनती है। सारी बिजली पंजाब को जाती है। POK में खनिज संपदा की कमी नहीं है: मुजफ्फराबाद में सोना, कोटली में कोयला, भिम्बर में बॉक्साइट, पूंछ में ग्रेफाइट लेकिन खनन का अधिकार किसके पास है? पाकिस्तान के पास।
POK में पाकिस्तान का एक खास इंटरेस्ट और है- आंतकी कैम्प्स। हाल में खबर आई थी कि मुजफ्फराबाद में फिलिस्तीनी संगठन हमास की मेजबानी की गई। इस आयोजन में आतंकी संगठन भी शामिल थे। जो लम्बे समय से POK में एक्टिव रहे हैं। ISI की शह पर हिजबुल मुजाहिद्दीन (HM), जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा, POK में ट्रेनिंग कैम्प्स चला रहे हैं।
POK की कहानी समझने के बाद अब गिलगित बल्तिस्तान का रुख करते हैं।
गिलगित बल्तिस्तान
शुरुआत में हमने बात की थी कि कश्मीर को पाकिस्तान दो हिस्सों में बांटे हुए हैं। दोनों को कंट्रोल करने का तरीका अलग-अलग है। इसलिए अब आपको गिलगित बल्तिस्तान की कहानी सुनाते हैं। सबसे पहले कुछ मेन पॉइंट्स:
गिलगित-बल्तिस्तान को तीन डिवीजनों में बांटा गया है, जो आगे दस जिलों में बंटे हुए हैं। प्रमुख जिले हैं- गिलगित, हुंजा, नागर, घिज़र और स्कर्दू।
81 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, जबकि 19 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में।
यहां आठ प्रमुख जातीय समूह हैं - बाल्टी, शिना, यशकुन, मुगल, कश्मीरी, पठान, लद्दाखी और तुर्की।
धर्म के हिसाब से इस्लाम के चार सम्प्रदायों के लोग यहां रहते हैं - सुन्नी, शिया, इस्माइली और नूरबख्शी
पाकिस्तान के संविधान में चार प्रांतों का जिक्र है - पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा। गिलगित बल्तिस्तान को पांचवा प्रांत बनाने की मांग लम्बे समय से चल रही है।
पहले इसे 'नार्दर्न एरिया' कहा जाता था लेकिन 2009 में इसका आधिकारिक नाम "गिलगित-बल्तिस्तान" कर दिया गया।
पाकिस्तान की "मिनिस्ट्री ऑफ कश्मीर अफेयर्स एंड गिलगित-बल्तिस्तान" GB के मामलों को देखती है। गिलगित-बल्तिस्तान की विधानसभा (GBLA) में 33 सीटें हैं। विधानसभा के जरिए ही मुख्यमंत्री भी चुना जाता है। हालांकि CM के ऊपर एक गवर्नर होता है- जिसकी नियुक्ति सीधे पाकिस्तान से होती है। जिस तरह POK के लिए अलग काउंसिल है, उसी तरह एक गिलगित-बल्तिस्तान काउंसिल (GBC) भी बनाई गई है। जिसके अध्यक्ष पाकिस्तान के प्रधानमंत्री होते हैं। GBC में कुछ सदस्य विधानसभा से चुने जाते हैं और बाकी पाकिस्तान सरकार नॉमिनेट करती है। गिलगित-बल्तिस्तान में कोई स्वतंत्र सुप्रीम कोर्ट नहीं है। गिलगित-बल्तिस्तान चीफ कोर्ट और सुप्रीम अपीलेट कोर्ट हैं लेकिन इनमें जजों की नियुक्ति पाकिस्तान से होती है।
पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में गिलगित बल्तिस्तान का कोई रेप्रेसेंटेशन नहीं होता। यहां के लोग पाकिस्तान का राष्ट्रीय पहचान पत्र (CNIC) रखते हैं लेकिन उन्हें पाकिस्तान का आधिकारिक नागरिक नहीं माना जाता। पहले GB में "स्टेट सब्जेक्ट रूल" लागू था, जिसके तहत बाहरी लोग जमीन नहीं खरीद सकते थे। बाद में यह कानून समाप्त कर दिया, जिससे पाकिस्तान के अन्य हिस्सों के लोग GB में जमीन खरीद सकते हैं। गिलगित बल्तिस्तान पाकिस्तान के हिस्से में कैसे गया, कहानी हमने पहले बताई थी। अब देखिए। 1947 के बाद गिलगित बल्तिस्तान में क्या हुआ। मेजर ब्राउन की लीडरशिप में जो विद्रोह किया था। उसके बाद एक सरकार बनी, जिसके लीडर थे, शाह रैस खान। हालांक, यह सरकार सिर्फ 15 दिन चली। अपने संस्मरणों में मजेर ब्राउन लिखते हैं, 'गिलगित में विद्रोह की खबर लगते ही पाकिस्तान की तरफ से एक पोलिटिकल एजेंट भेजा गया। नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के एक तहसीलदार सरदार मुहम्मद आलम गिलगित पहुंचे और स्थानीय लोगों को शाह रैस खान के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया। उन्होंने धमकी दी कि अगर भारतीय सेना यहां आएगी तो पाकिस्तान कोई मदद नहीं करेगा। इसके बाद शाह रैस खान की सरकार भंग हो गई।'
POK वाले चैप्टर में हमने बताया था कि 1949 में समझौता हुआ था जिसके तहत कश्मीर में AJK काउंसिल बनी थी। इसी समझौते के तहत गिलगित बल्तिस्तान का एडमिनिस्ट्रेशन टेम्पररी तौर पर पाकिस्तान को सौंप दिया गया। 1970 तक गिलगित बल्तिस्तान के लोगों का एडमिनिस्ट्रेशन में कोई Say नहीं था। यहां छोटी-छोटी रियासतें थीं, जिन्हें पोलिटिकल एजेंट के जरिए कंट्रोल किया जाता था। यहां का क़ानून ब्रिटिश काल के फ्रंटियर क्राइम रेगुलेशन (FCR) के तहत चलता था। 1970 में गिलगित और बल्तिस्तान को मर्ज करके एक सिंगल यूनिट बनाई गई और इसे नाम दिया गया- नॉर्दर्न एरियाज। 1972 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने इस क्षेत्र का दौरा किया और सभी रियासतों को समाप्त करने की घोषणा की, भुट्टो ने गिलगित बलिस्तान के लिए एक नई काउंसिल बनाई- जिसे नॉर्दन एरियाज काउंसिल NAC कहा जाता था। 2009 में यहां विधानसभा का गठन हुआ। चुनाव हुए। इसके बावजूद सभी फैसले इस्लामाबाद से होते हैं। इसके लिए एक अलग मंत्रालय है, जिसका नाम है- मिनिस्ट्री ऑफ कश्मीर अफेयर्स एंड नॉर्दन एरियाज। पॉलिटिक्स की बात करें तो गिलगित बल्तिस्तान में सबसे बड़ा मुद्दा है- प्रोविंसियल स्टेटस का।
2012 में विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास कर गिलगित बल्तिस्तान को पांचवां प्रान्त बनाने की मांग की। लगभग सभी पार्टीज़ ने इस मांग का समर्थन किया। 2015 में PML-N की जीत के बाद यह मांग और तेज़ हुई। इस मांग के पीछे एक बड़ी वजह है - CPEC चीन-पाकिस्तान इकनोमिक कॉरिडोर। इसकी बात आगे डिटेल में करेंगे लेकिन अभी समझिए कि चीन चाहता है कि गिलगित-बल्तिस्तान की कानूनी स्थिति क्लियर हो। लोकल नेताओं में भी CPEC की मलाई सबको चाहिए। प्रोविंसियल स्टेटस को लेकर पब्लिक का भरपूर सपोर्ट है। इसे लेकर पिछले एक दशक में गिलगित बल्तिस्तान में कई बार विरोध प्रदर्शन हुए हैं। इन तमाम कारणों के चलते 2015 में पाकिस्तान सरकार ने प्रोविंसियल स्टेटस की मांग पर एक कमिटी गठित की। कमिटी ने गिलगित-बल्तिस्तान को पाकिस्तान के साथ डी-फैक्टो एकीकरण की सिफारिश की, लेकिन डी-ज्यूर यानी यानी कानूनी रूप से किसी बदलाव से बचने की बात कही।
नतीजा हुआ कि पाकिस्तान सरकार ने एक आदेश जारी किया। जिसके तहत गिलगित- बल्तिस्तान से जुड़े 68 विषयों के अधिकार सीधे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को दे दिए गए। इस आदेश को लेकर बड़ा हंगामा हुआ। जून 2018 में गिलगित-बल्तिस्तान के अपेलेट सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी। जिसके पास पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में दखल देना पड़ा। जिसके बाद सरकार का आदेश दोबारा लागू हो गया। कहने को यह आदेश गलिगित बल्तिस्तान को ज्यादा आजादी देने वाला था लेकिन पाकिस्तान ह्यूमन राइट्स कमीशन की अपनी रिपोर्ट के अनुसार, इस आदेश के तहत स्थानीय प्रेस पर प्रतिबंध लगाए दिए गए थे। मीडिया को विशेष चेतावनी थी कि वे सरकार के बारे में नेगेटिव रिपोर्टिंग न करें।
2018 में प्रधानमंत्री बनने के बाद इमरान खान ने वायदा किया कि वे गिलगित बल्तिस्तान को सेमि प्रोविंसियल स्टेटस दिलाएंगे लेकिन फिर खुद उनकी ही रुखसती हो गई। गिलगित बल्तिस्तान को प्रांतीय हैसियत देने का एक मसौदा पाकिस्तान की संसद में लंबित है। अभी तक इस पर कोई फैसला नहीं हुआ है। यहां एक सवाल- पाकिस्तान गिलगित बल्तिस्तान को प्रांतीय हैसियत क्यों नहीं दे देता। इस एक सवाल से आपको गिलगित बल्तिस्तान से जुड़े तमाम जवाब मिल जाएंगे।
गिलगित बल्तिस्तान को लेकर फैसला लेने में कतराने के कई कारण है। पहला तो है धार्मिक विवाद- गिलगित बल्तिस्तान एक शिया बहुल इलाका है जबकि पाकिस्तान में सुन्नी बहुसंख्यक हैं। 1979 में जिया उल हक़ की रिजीम में शिया नेताओं को दबाने की कोशिश हुई। पाकिस्तान के दूसरे इलाकों से सुन्नी मुसलामानों को यहां लाकर बसाया गया। इस आग में घी डाला ईरानी क्रांति ने। ईरान के बढ़ते प्रभाव के डर से सऊदी अरब का पैसा यहां पम्प होना शुरू हुआ। नतीजा हुआ की धार्मिक दंगे शुरू हुआ। कुछ घटनाएं नोट किए जाने लायक हैं।
1983 में चांद देखने को लेकर पहला हंगामा हुआ। शियाओं ने अपने लीडर की मानी और रोजा तोड़कर ईद मनाना शुरू कर दिया। दूसरी ओर, सुन्नियों ने रोजा नहीं तोड़ा। इसी बात पर दंगे शुरू हो गए।
1988 में एक बार फिर दंगा भड़का। इस बार पाकिस्तान से सुन्नी मुस्लिम गिलगित में घुसे। गिलगित में शियाओं के नरसंहार की ये पहली बड़ी घटना थी। 17 अगस्त, 1993 को जिया की पुण्यतिथि के मौके पर एक बार फिर दंगे हुए। 20 लोग मारे गए। 2004 में पाठ्यक्रम को लेकर झड़प शुरू हुई। शियाओं की शिकायत थी कि उन पर जबरदस्ती सुन्नी शिक्षाएं थोपी जा रही हैं। 1998 से 2004 तक कुल 117 सांप्रदायिक झगड़े हुए। 117 लोगों की जान गई। यह सिलसिला हालिया समय में भी रुका नहीं है। अकेले 2012 में 138 शिया हत्याओं की घटनाएं सामने आई थीं।
गिलगित बल्तिस्तान को प्रोविंसियल स्टेटस देने में एक और रोड़ा है। दसअसल, गिलगित बल्तिस्तान में अधिकतर लोग खुद को कश्मीर मुद्दे से जोड़कर नहीं देखते जबकि पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीरी नेता गिलगित बल्तिस्तान को प्रोविंसियल स्टेटस देने का विरोध करते हैं। उन्हें लगता है इससे कश्मीर का मुद्दा कमजोर होगा। जमात-ए-इस्लामी और जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम जैसी पार्टियां गिलगित को कश्मीर में मिलाने का समर्थन करती हैं। इन तमाम दिक्कतों के चलते प्रोविंसियल स्टेटस देने में दिक्कतें हैं। पाकिस्तान के लिए गिलगित और बल्तिस्तान पर पकड़ बनाए रखना जरूरी है। भारत के साथ सीमा विवाद तो एक कारण है ही, साथ ही दूसरी वजह है यहां के रिसोर्सेज़। यूं गिलगित बल्तिस्तान दक्षिण एशिया का सबसे पिछड़ा और गरीब क्षेत्र है। बजाय इसके कि यहां नेचुरल सोर्सेस की भरमार है। निकल, कोबाल्ट, तांबा, सीसा, टिन, बिस्मथ, कोयला, सोना, चांदी, लोहा, जस्ता, संगमरमर, यूरेनियम - इनकी खानों से यह इलाका भरा हुआ है। 1995 में ऑस्ट्रेलियाई एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट के सर्वेक्षण के अनुसार, यहां 1,480 सोने की खानें हुआ करती थीं, जिनमें से 123 में दक्षिण अफ्रीका की खानों से भी बेटर क्वालिटी का सोना था।
पाकिस्तान में पर्यटन से होने वाली अधिकांश इनकम गिलगित बल्तिस्तान से होती है। दुनिया की सबसे बड़ी पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा यह क्षेत्र 32 बर्फीली चोटियों और संकरी घाटियों का घर है। K2 नंगा पर्बत, चिगोरी - ये तमाम पीक्स इसी इलाके में हैं। गिलगित बल्तिस्तान की नदियां पाकिस्तान के पावर का बड़ा सोर्स हैं। खैबर पख्तूनख्वा और गिलगित बल्तिस्तान के बीच सिंधु नदी पर पाकिस्तान एक बांध बना रहा है - दियामर-बाशा डैम। पूरा हो जाने पर इस डैम से 4,500 मेगावाटबिजली पैदा होगी। हालांकि, डैम को बनाने में लगातार अड़चनें आई हैं। दो बार इस डैम की आधारशिला रखी जा चुकी है। 2006 में और 2011 में। 14 अरब डॉलर की इस परियोजना की फंडिंग के पाकिस्तान वर्ल्ड बैंक गया था लेकिन वहां से जवाब मिला कि पहले भारत से NOC लेना होगा। इसके बाद चीन से मदद लेकर इस बांध का काम हो रहा है।
चीन का इंटरेस्ट
आजादी के बाद अक्साई चिन को लेकर जैसा विवाद भारत चीन के बीच हुआ था। कुछ वैसा ही विवाद पाकिस्तान के साथ भी हुआ। गिलगित बल्तिस्तान के पूर्व में बसी है शक्सगाम घाटी या जिसे ट्रांस-काराकोरम ट्रैक्ट भी कहते हैं। यह हिस्सा जम्मू कश्मीर रियासत का हिस्सा हुआ करता था लेकिन 1950 के दशक में चीन ने इसे अपने नक़्शे में दिखाना शुरू कर दिया। 1961 में अयूब खान ने इस बाबत चीन को एक चिट्ठी भेजी लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं आया। पाकिस्तान को लगा भारत के चलते चीन पाकिस्तान के साथ नेगोशिएट करने से गुरेज कर रहा है लेकिन 1962 में भारत चीन युद्ध के बाद पाकिस्तान के सुर बदल गए। मार्च 1963 में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो बतौर विदेश मंत्री चीन गए और वहां दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ। जिसके तहत 5000 स्क्वायर किलोमीटर से ज्यादा इलाका चीन को दे दिया गया।
पाकिस्तान हालांकि ये बात नहीं मानता। उनके अनुसार दोनों देशों के बीच लगभग 1900 स्क्वायर किलोमीटर की जमीन का आदान प्रदान हुआ। इस समझौते का आर्टिकल सिक्स कहता है कि कश्मीर विवाद सुलझने के बाद कश्मीर ये इलाका जिसके हिस्से में आएगा वह नई ट्रीटी कर सकता है लेकिन इस समझौते का कुल नतीजा हुआ कि चीन का नाम कश्मीर विवाद से जुड़ गया। 1978 में चीन ने शक्सगाम घाटी से एक सड़क बनाई जिसने काशगर को इस्लामाबाद से जोड़ दिया। इस सड़क को काराकोरम हाईवे के नाम से जाना जाता है। 1300 किलोमीटर लम्बी ये सड़क गिलगित बल्तिस्तान से होकर गुजरती है और वर्तमान में CPEC का हिस्सा है। CPEC यानी चीन पाकिस्तान इकनोमिक कॉरिडोर। CPEC पाकिस्तान के वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट का हिस्सा है। इसके जरिए चीन अपने शिनजियांग प्रांत को पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट से जोड़ रहा है।
वर्तमान में चीन को मलेशिया और इंडोनेशिया के बीच मलक्का स्ट्रेट से अपने जहाज ले जाने पड़ते हैं। युद्ध की हालत में यह रास्ता बंद हुआ तो चीन संकट में आएगा, इसलिए चीन का प्लान है कि ग्वादर से शिनजियांग तक एक जमीनी रास्ता तैयार किया जाए। ताकि यूरोप और चीन के बीच एक दूसरा रास्ता तैयार हो। इस प्रोजेक्ट के तहत चीन पाकिस्तान में ढेरों इंफ्रास्ट्रक्टर और पावर प्रोजेक्ट्स में निवेश कर रहा है। भारत से नजरिए से गिलगित बल्तिस्तान में होने वाले महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट कौन से हैं।
अपनी किताब, कश्मीर अनटोल्ड स्टोरी में इकबाल चंद मल्होत्रा बताते हैं कि चीन ने गिलगित बल्तिस्तान में माइक्रोचिप मैन्युफैक्चरिंग प्लांट्स लगाने शुरू कर दिए हैं। ये प्लांट पहले काशगर में थे। अब इन्हें गिलगित में सुरंगों के नीचे, सैटेलाइट की आंखों से दूर बनाया जा रहा है। इक़बाल बताते हैं कि गिलगित में बनाई जा रही माइक्रोचिप्स के लिए GCL-Poly Energy Holdings से रॉ मटेरियल आता है। यह चीन की स्टेट कंट्रोल्ड कम्पनी है। इसे Zhu Gongshan family मैनेज करती है, जिसके शी जिनपिंग से नजदीकी रिश्ते हैं।
गिलगित-बल्तिस्तान में CPEC के तहत 750 किलोमीटर लंबी रेलवे लाइन बनाई जा रही है, जो 4600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित खुंजराब दर्रे तक जाएगी। खुंजराब दर्रा ही चीन और पाकिस्तान के बीच मुख्य दरवाजा है।
हुंजा लेक के ऊपर पांच सुरंगें बनाई जा रही हैं ताकि काराकोरम हाइवे पूरे साल हर मौसम में चालू रह सके। कुल 870 किलोमीटर की सड़कें बनाई जा रही हैं। CPEC के तहत काराकोरम हाइवे को फोर और सिक्स लेन बनाया जा रहा है, ताकि मूवमेंट में आसानी हो सके।
गिलगित से स्कर्दू तक 175 किलोमीटर लम्बी सड़क को 4 लेन बनाया जा रहा है। इसके अलावा, गिलगित बल्तिस्तान के बुंजी इलाके में चीन एक हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट बना रहा है जिसकी कैपेसिटी 7100 मेगावाट होगी। गिलगित बल्तिस्तान खुंजराब दर्रे से रावलपिंडी तक 820 किलोमीटर लम्बी ऑप्टिकल फाइबर केबल बिछाई गई है।
गिलगित बल्तिस्तान के सोस्त में एक ड्राई पोर्ट है। यानी जमीन पर बना बंदरगाह, जो गिलगित बल्तिस्तान में ट्रेड का मेन पॉइंट है। CPEC के तहत इसे भी डेवेलप किया जा रहा है।
ये तमाम निर्माण बाहरी रूप से डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स हैं लेकिन इनके स्ट्रेटेजिक महत्व भी कम नहीं है। चीन कश्मीर विवाद में सीधे शामिल नहीं होता लेकिन CPEC के ज़रिए वह कश्मीर में एक ‘स्टेकहोल्डर’ बन चुका है। इसके अलावा ग्वादर पोर्ट चीन की स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स नीति का हिस्सा है। श्रीलंका के हम्बनटोटा पोर्ट के बारे में आपने सुना होगा। निवेश के नाम पर चीन ने इसे 100 साल की लीज पर लिया है। इसके बाद ग्वादर भी 40 साल के लिए लीज पर लिया जा चुका है। बांग्लादेश के चटगांव में चीन पोर्ट तैयार कर रहा है। इन तीनों को आपस में जोड़ दें तो आपको दिखाई देगा कि भारत के चारों तरफ एक घेरा तैयार हो रहा है। सिर्फ समुद्र ही नहीं जमीन पर चीन अपनी ताकत बढ़ा रहा है। CPEC के नाम पर गिलगित बल्तिस्तान में खनन शुरू किया। फिर कंस्ट्रकशन के लिए अपने लोग भेजे और सुरक्षा के नाम पर चीनी सुरक्षा बल यहां तैनात किए जा रहे हैं। अभी हमने बताया कि गिलगित से स्कर्दू तक एक फोर लेन हाइवे तैयार कर रहा है। स्कर्दू में पाकिस्तान सेना की नॉर्दन लाइट इन्फैंट्री रेजिमेंट का मुख्यालय है। स्कर्दू स्ट्रेटेजिक रूप से बहुत इम्पोर्टेन्ट है। 1947 में हुई जंग में भारतीय फौज ने दो बार इस पर कब्ज़ा किया था। महज 250 लोगों के साथ मेजर शेर जंग थापा ने 6 महीने तक मोर्चा संभाले रखा लेकिन स्कर्दू की पोजीशन इसे होल्ड करने के लिए काफी मुश्किल बना देती है। लिहाजा एक साल की सीज के बाद इंडियन आर्मी को यहां से पीछे हटना पड़ा। भविष्य में होने वाली किसी भी जंग में POK में स्कर्दू पाकिस्तान का मुख्य रणनीतिक अड्डा होगा। स्कर्दू की अहमियत ऐसे समझिए कि हाल में स्कर्दू से होकर एक नई सड़क का प्रस्ताव पास हुआ है। यह सड़क 10 मीटर चौड़ी होगी और मुस्तघ दर्रा जो शिनजियांग में खुलता है उसे स्कर्दू से होकर सीधे मुजफ्फराबाद से जोड़ देगी। यानी गिलगित बल्तिस्तान के बाद अब कश्मीर वाले हिस्से में भी चीन का दखल होगा। इस सड़क की एक और विशेषता है कि सियाचिन स्कर्दू के पूर्व में पड़ता है। अभी तक काराकोरम हाइवे पाकिस्तान की मुख्य सप्लाई लाइन है। नया हाइवे बन जाने के बाद स्कर्दू तक पाकिस्तान एक और सप्लाई लाइन बना लेगा, जिसका मतलब सियाचिन में भारत को ज्यादा फ़ोर्स लगानी पड़ेगी।
POK में चीन के प्रोजेक्ट्स का एक पहलू यह भी है कि अगर कल भारत और पाकिस्तान के बीच गिलगित-बल्तिस्तान पर कोई संघर्ष हुआ तो चीन को वहां अपने हितों की रक्षा के नाम पर दखल देने का बहाना मिल जाएगा। CPEC के तहत पाकिस्तान चीन से सैकड़ों बिलियन डॉलर का लोन ले चुका है। जिस तरह श्रीलंका में हुआ। पाकिस्तान ने लोन के एवज में हम्बनटोटा पोर्ट ले लिया, इसी तरह कल संभव है कि POK में कुछ और स्ट्रटेटिक पॉइंट्स चीन के हवाले कर दिए जाएं। ये तमाम बातें आशंकाएं हैं लेकिन चीन पाकिस्तान और भारत के आपसे रिश्तों के लिहाज से भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं दे रही हैं। हालांकि, भविष्य से पहले कश्मीर को लेकर भारत पाक सम्बन्धों में आए उतार चढ़ावों पर एक नज़र डाल लेते हैं।
कश्मीर पर भारत-पाकिस्तान
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि पाकिस्तान के टीवी पर भारतीय प्रधानमंत्री की अपील तीन दिनों तक प्रसारित हो। बात है 1990 के दशक की। चंद्रशेखर प्रधानमंत्री हुआ करते थे। इस दौरान एक रोज़ उन्हें कश्मीर के नेता प्रोफ़ेसर सैफुद्दीन सोज़ का कॉल आया। सोज़ परेशान थे। आतंकियों ने उनकी बेटी को किडनैप कर लिया था। यह वह दौर था जब कश्मीर में उन्माद चरम पर था। 'हम क्या चाहते! आजादी' और 'जो करे खुदा का खौफ, वह उठा ले क्लाश्निकोव' जैसे नारों से घाटी गूंज रही थी। कश्मीरी पंडितों को चुन-चुनकर निशाना बनाया जा रहा था। किडनैपिंग की घटनाएं आम थीं। यहां तक कि 1989 में तो गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया सईद तक को किडनैप कर लिया था। पांच मिलिटेंट्स की रिहाई के बाद रुबिया सईद रिहा हो पाई। इस समय VP सिंह के सरकार थी। VP के बाद चंद्रशेखर PM बने। उन्हें जब सोज़ का कॉल आया तो पशोपेश में पड़ गए। सोज़ के पास गृह मंत्री जितनी पहुंच तो थी नहीं। फिर भी उन्होंने निजी रिश्तों के नाते PM से मदद मांगी। चंद्रशेखर ने तुरंत पाकिस्तान के वजीर-ए-आज़म नवाज़ शरीफ को कॉल मिला दिया। पता चला कि वह बीजिंग गए हुए हैं।
चंद्रशेखर तरीका खोज ही रहे थे कि तभी उनकी मुलाक़ात अब्दुल सत्तार से हुई। सत्तर पाकिस्तानी डेलिगेशन का हिस्सा बनकर भारत आए थे। आगे चलकर वह विदेश मंत्री बने। उन दिनों चंद्रशेखर के बड़े मुरीद हुआ करते थे। उनसे मिलते ही चंद्रशेखर ने कहा, आप नवाज़ शरीफ तक मेरा एक पैगाम पहुंचा दें। सत्तार को उन्होंने सैफुद्दीन सोज़ की बेटी की किडनैपिंग की कहानी सुनाई। सत्तार ने यह बात इस्लामाबाद पहुंचाई। इसके बाद अगले तीन दिनों तक POK में रेडियो और TV पर एक संदेश प्रसारित हुआ। जिसमें कहा गया कि लड़की की किडनेपिंग इस्लाम के खिलाफ है। सोज़ की बेटी को इसके बाद रिहा कर दिया गया।
यह वाकया उदाहरण है, उतार चढ़ावों का, जो भारत पाकिस्तान रिश्तों में आते रहे हैं। 1949 में युद्ध विराम के बाद कश्मीर के मुद्दे पर दोनों देशों के बीच तनाव जारी रहा। 1947 में जिस तरह कबीलाइयों को भेजकर पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्ज़े की कोशिश की थी। कुछ वैसी ही कोशिश 1965 में दोबारा हुई।
28 जुलाई, 1965, ऑपरेशन जिब्राल्टर की शुरुआत हुई। प्लान था कश्मीर में घुसपैठ करेंगे। सारे पुल और दूरसंचार के माध्यम नष्ट कर भारत से नेटवर्क तोड़ देंगे। इसके बाद कश्मीर में रेडियो से आजाद कश्मीर की घोषणा हो जाएगी। इस सपने को पंख लगते इससे पहले ही भारत ने चार घुसपैठी पकड़े, सारी कहानी उगलवा ली। 8 अगस्त को AIR पर एक प्रसारण हुआ। जिसमें पूरे प्लान को खोलकर रख दिया। ऑपरेशन जिब्राल्टर के फेलियर के बाद पाकिस्तान ने ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम शुरू किया। भारत ने जवाब दिया। बॉर्डर पार कर सेना लाहौर पहुंच गयी। पाकिस्तान को इसकी उम्मीद नहीं थी। बाजी पटलती देख पहले पाकिस्तान चीन के पास गया फिर UN, चीन पाकिस्तान को समर्थन तो देना चाहता था लेकिन लम्बी लड़ाई के लिए। चीन की तरफ से कहा गया कि लाहौर हार भी जाओ तो कोई बात नहीं, लड़ाई जारी रखो। पाकिस्तान लम्बी जंग के लिए तैयार नहीं था। उसे उम्मीद थी जल्द से जल्द सीजफायर हो जाएगा और वह भारत का कुछ और हिस्सा हड़प लेंगे। भुट्टो UN गए। वहां पहले कहा कि हम हजार साल लड़ेंगे, फिर सीजफायर को तैयार हो गए। सीजफायर की घोषणा के तहत पाकिस्तान का 1900 स्क्वायर किलोमीटर एरिया भारत के कब्ज़े में आ गया। भारत की भी 500 किलोमीटर जमीन पाकिस्तान के कब्ज़े में थी। इसका निपटारा करने के लिए ताशकंद समझौता हुआ। कब्जाई जमीन वापिस कर दी गई। भारत पाकिस्तान दोनों जगह बहुत हो हल्ला हुआ। अंत में इसी चक्कर में अयूब खान की कुर्सी भी चली गई। ताशकंद समझौते में यह तय हुआ कि दोनों देश एक दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे लेकिन न इससे कश्मीर का मुद्दा सुलझा न शांति का कोई रास्ता तैयार हुआ।
इसके बाद बारी आई 1971 युद्ध की। ईस्टर्न फ्रंट पर पाकिस्तान के दो टुकड़े तो हुए ही। साथ ही इस युद्ध में भारत ने पंजाब, POK और सिंध में 15000 स्क्वायर किलोमीटर जमीन हासिल कर ली थी। युद्ध के बाद एक और समझौता हुआ। 84 लोगों का लाव लश्कर लेकर ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो शिमला पहुंचे। शिमला समझौते के तहत कश्मीर में सीजफायर लाइन को LOC मान लिया गया।
1971 युद्ध में मिली हार के बाद पाकिस्तान समझ गया था कि अब डायरेक्ट कंफ्रंटेशन से कोई फायदा नहीं है। 1978 में जिया उल हक़ के सत्ता में आने के साथ ही कश्मीर में एक नया गेम शुरू हुआ। इस बार प्रॉक्सी वॉर का सहारा लिया गया। रूस अफ़ग़ानिस्तान में एंट्री कर चुका था। पाकिस्तान ने रूस के खिलाफ मुजाहिद्दीनों को ट्रेन किया। वहीं कश्मीर के लिए आतंकी गुट बनाए गए। 1985-86 में लश्कर-ए- तैय्यबा का गठन हुआ। ऑपरेशन टू पाक की शुरुआत हुई। घाटी में आतंक इतना बढ़ा कि कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया जाने लगा। उन्हें कश्मीर से निकाल दिया गया।
इधर 1980 के दशक में ही POK फ्रंट पर एक और बड़ी घटना घटी। भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी RAW को लंदन की एक कंपनी से टिप मिली। कंपनी आर्कटिक गियर बनाती थी। माने जूते, कपड़े, बर्फ में चलने वाली कुल्हाड़ी वगैरह। पता चला कि पाकिस्तान ये सब खरीद रहा है। इसी के साथ जर्मनी से आए कुछ पर्वतरोहियों से भारत को एक नक्शा मिला, जिसमें सियाचिन का इलाका पाकिस्तान में दिखाया गया था। कर्नल नरेद्र बुल्ल कुमार एक टीम लेकर सियाचिन का जायजा लेने पहुंचे। वहां उन्हें खाने के कुछ डिब्बे मिले। भारत ने सियाचिन में पट्रोलिंग बढ़ा दी। धीरे-धीरे पकिस्तान ने वार्निंग देना शुरू कर दिया। हमारे इलाके में दाखिल मत हो। इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स से पता चला कि पाकिस्तान सियाचिन पर कब्ज़े की तैयारी कर रहा है। भारत ने इसके जवाब में ऑपरेशन मेघदूत लांच किया।
13 अप्रैल, 1984 बैशाखी का दिन। भारतीय सैनिक सियाचिन पर चढ़े और उसे कब्ज़े में ले लिया। जवाब में पाकिस्तान ने 'ऑपरेशन अबाबील' लॉन्च किया। दुनिया की सबसे ऊंची बैटलफील्ड में गोलियां और मोर्टार दागे गए लेकिन अंत में भारत ने सियाचिन को पूरी तरह कब्ज़े में ले लिया। 1986 में पाकिस्तान ने एक और कोशिश की। पाकिस्तानी सेना के स्पेशल सर्विस ग्रुप ने सियाचिन के पश्चिम में मौजूद एक पीक पर कब्ज़ा कर इसका नाम क़ायद रख दिया। इसके जवाब में भारत ऑपरेशन राजीव लांच किया और क़ायद पीक को वापस जीत इसे बाना टॉप बना दिया। ये नाम ऑपरेशन राजीव में शामिल सूबेदार बाना सिंह। जिन्हें परमवीर चक्र से नवाजा गया।
1984 में सियाचिन बाद 1987 की हार पाकिस्तान के लिए एक और शर्मिंदगी का कारण बनी। परवेज़ मुशर्रफ, जो तब SSG को कमांड कर रहे थे। उन्होंने इसे निजी फेलियर के रूप में लिया और यहीं से भूमिका बनी कारगिल युद्ध की। 1999 में जब मुशर्रफ़ जब पाकिस्तान के DGMO (Director General of Military Operations) बने, तब उन्होंने कारगिल पर कब्ज़े की योजना दोबारा शुरू की। हालांकि, कारगिल से पहले दो प्रकरणों का जिक्र जरूरी है।
भारत पाक संबंधों में आए पड़ावों का जब जिक्र होता है तो इंदिरा से लेकर अटल सबकी बात होती है लेकिन चंद्रशेखर का कार्यकाल चूंकि छोटा था, इसकी चर्चा कम होती है। चंद्रशेखर के कार्यकाल में कश्मीर मुद्दे पर बर्फ पिघलना शुरू हुई थी। पूर्व सांसद संतोष भारतीय अपनी किताब 'वीपी सिंह चंद्रशेखर सोनिया गांधी और मैं' में एक किस्सा दर्ज़ करते हैं। साल 1991 में चंद्रेशखर राष्ट्रमंडल देशों के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के मालदीव की राजधानी माले गए। यहां उनकी मुलाकात नवाज़ शरीफ से हुई। बातों-बातों में चंद्रशेखर ने कहा, 'आप बदमाशी बहुत करते हैं।' नवाज़ ने कहा, 'आप कश्मीर दे दीजिए, बदमाशी दूर हो जाएगी।' चंद्रशेखर तपाक से बोले, 'चलो कश्मीर आपको दिया।' नवाज़ के चेहरे के भाव बदलने की वाले थे कि चंद्रशेखर ने साथ में जोड़ा, लेकिन एक शर्त है। कश्मीर के साथ भारत के पंद्रह करोड़ मुसलमानों को भी लेना होगा। इस पर नवाज़ शरीफ मुस्कुरा दिए। दोनों के बीच इस मुलाक़ात के एक फायदा हुआ कि दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच एक डायरेक्ट हॉटलाइन की शुरुआत हो गई।
चंद्रशेखर के बाद नरसिम्हा राव के कार्यकाल में कश्मीर दोबारा हॉट टॉपिक बना। फरवरी 1994 की बात है। पाकिस्तान ने इस्लामिक देशों के संगठन, OIC के साथ मिलकर कश्मीर मुद्दे पर भारत को घेरने की कोशिश की। UN मानवाधिकार कमीशन में भारत के खिलाफ एक प्रस्ताव लाया गया। जिसमें कहा गया था कि भारत कश्मीर में जेनेवा कन्वेशन के उल्लंघन कर रहा है। प्रस्ताव पास हो जाता तो भारत पर UN सुरक्षा परिषद से प्रतिबन्ध लगा सकते थे। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने तब चीन के साथ दो सीमा समझौते किए। इन समझौतों से दो फायदे हुए। चीन सीमा पर तैनात भारतीय ट्रुप्स को कश्मीर में मिलिटेंसी रोकने के लिए लगा दिया गया। वहीं, UN में भी चीन ने भारत के विरोध में मतदान करने से इनकार कर दिया। ईरान ने भी भारत का साथ दिया और प्रस्ताव रद्द हो गया। चीन की मदद से राव ने पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दे पर पटखनी दी। 1996 में कश्मीर में चुनाव हुए और स्थितियां बेहतर होनी शुरू हो गई। इस दौर एक-एक किस्सा है कि बेनजीर भुट्टो ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉन मेजर को एक चिठ्ठी लिखी। वह चाहती थीं कि मेजर नरसिम्हा राव के साथ चाय पर चर्चा अरेंज करवाएं लेकिन राव इस इस पेशकश को ये कहते ठुकरा दिया कि छुपकर चाय पीना काफी मुश्किल काम है।
ये मुश्किलें और बढ़ीं जब 1998 में दोनों देशों ने न्यूक्लियर टेस्ट किए लेकिन सरप्राइजिंगली इस घटना के बाद तनाव बढ़ने के बाद कम होने लगे। सितम्बर 1998, भारत के PM अटल बिहारी वाजपेयी और नवाज शरीफ, दोनों न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र जनरल असेम्बली की बैठक में शिरकत करने पहुंचे। यहां दोनों देशों के बीच एक बस सेवा शुरू करने का प्रस्ताव रखा गया। लाहौर से दिल्ली सिर्फ बस सेवा ही शुरू नहीं हुई। बस में बैठकर अटल पाकिस्तान के ऐतिहासिक दौरे पर गए। खुद मेहमाननवाजी हुई। हालांकि, एक मेजबान इस कार्यक्रम से अलग थलग नज़र आया। पाकिस्तान आर्मी के चीफ परवेज़ मुशर्रफ पर्दे के पीछे ऑपरेशन कोह-ए-पैमा की प्लानिंग कर रहे थे। इसी ऑपरेशन के तहत कारगिल में घुसपैठ हुई। कारगिल युद्ध के बाद वार्ताओं का एक और राउंड शुरू हुआ। जिसके तहत मुशर्रफ आगरा आने को भी तैयार हो गए। हालांकि, अब तक पानी सर से ऊपर गुजर चुका था। आगरा समिट विफल रही। वाजपेयी इतने नाराज़ थे कि मुशर्रफ को उनकी कार तक छोड़ने भी नहीं आए। आगे बातचीत होती इससे पहले ही दिसंबर 2001 में पाक स्पॉन्सर्ड आतंकियों ने संसद पर हमला कर दिया।
डॉक्टर मनमोहन सिंह के कार्यकाल में कश्मीर मुद्दे पर एक बार फिर बातचीत की कोशिश हुई। 2006 मुशर्रफ ने कहा कि वह चेनाब फॉर्मूले पर कश्मीर के हल के लिए तैयार हैं। चेनाब फॉर्मूला 1950 के दशक का एक फार्मूला था, जिसे UN द्वारा कश्मीर मुद्दे पर बनाए गए United Nations Commission for India and Pakistan ने तैयार किया था। इस फॉमूले के तहत गिलगित बल्तिस्तान पाकिस्तान के हिस्से में जाता, लदाख भारत के, वहीं कश्मीर में जनमत संग्रह कराया जाता। मुशर्रफ इस आइडिया को पिच करने की बात कहते रहे लेकिन फिर पाकिस्तान ने वही किया जो दशकों से होता आया है। 2008 में मुंबई अटैक के बाद भारत पाकिस्तान के बीच पूरी बातचीत डीरेल हो गई। 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यकाल शुरू हुआ। तबसे कश्मीर मुद्दे पर भारत के रुख में एक डिसाइसिव चेंज आया है। यूं 2015 में नरेंद्र मोदी जब अचानक का प्लेन लाहौर में लैंड हुआ। नवाज शरीफ के साथ गले मिलते हुए तस्वीरें सामने आई। इसके बाद लगा कि भारत पाकिस्तान वार्ता का एक नया दौर शुरू हो सकता है लेकिन पहले उरी और फिर पुलवामा आतंकी हमला, 2016 से 2019 के बीच हुई आतंकी घटनाओं के बाद लगभग सारे रास्ते बंद हो गए। 2019 में कश्मीर में धारा 370 हटाने के बाद भारत पाकिस्तान के बीच रिश्तों का आख़िरी लिंक लाहौर दिल्ली बस सेवा भी बंद कर दी गई। जैसा शुरुआत में बताया इस बीच भारत की तरफ से रेटोरिक में बदलाव आया। गृह मंत्री अमित शाह से लेकर तमाम नेताओं ने कई बार POK वापिस लेने की बात कही। तबसे यही सवाल चर्चा का विषय बना हुआ है।
POK वापस हासिल करना
मान लीजिए POK को लेकर भारत पकिस्तान में जंग शुरू हो जाती है। भारत के लिए कश्मीर निश्चित महत्वपूर्ण है लेकिन ये एक्सिस्टेंशियल स्टेटस नहीं है जबकि कश्मीर को पाकिस्तान जीने मरने का मुद्दा मानता है। मने अगर POK के मोर्चे पर युद्ध शुरू होता है तो पाकिस्तान इसे इतने तक सीमित नहीं रखेगा, यह लड़ाई फैलेगी। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस के एक आर्टिकल में डिफेन्स जर्नलिस्ट एनसी बिपिंद्र लिखते हैं, POK में किसी ऑपरेशन के लिए भारतीय सेना के पास तीन कोर हैं। लेह में 14 कोर, श्रीनगर में 15 कॉर्प्स, और नगरोटा में 16 कोर। बकौल बिपिन्द्र, पिछले दशक में इंडियन आर्मी कई बार वॉर गेम्स में इस सिनारियो को प्रैक्टिस कर चुकी है। 740 किलोमीटर लम्बी LOC पर भारत एक लाख सैनिकों के साथ कॉर्डिनेटेड अटैक कर सकता है। भारत के हमले पर एक संभावित सिनारियो क्या हो सकता है?
न्यू इंडियन एक्सप्रेस के ही एक दूसरे आर्टिकल में, श्रीनगर में स्थित 15 कॉर्प्स के पूर्व कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन लिखते हैं, 'मान लीजिए सुबह की पहली किरण के साथ भारतीय फाइटर जेट्स POK में एंटर होते हैं। उनका पहला टारगेट होगा पाकिस्तान के मिलिट्री इंफ्रास्ट्रक्चर। ब्रह्मोस से लैस राफेल और सुखोई पाकिस्तान के रडार स्टेशन्स, एयर डिफेंस सिस्टम्स और कम्युनिकेशन नेटवर्क पर बमबारी करेंगे।'
नेवी के जरिए बंदरगाहों को निशाना बनाया जाएगा, जैसा 1971 की लड़ाई में हुआ था। इसके बाद ग्राउंड पर, भारतीय आर्मी के K9 वज्र होवित्जर और पिनाका MLRS रॉकेट सिस्टम्स एक्शन में आ जाएंगे। ये सिस्टम्स दुश्मन के डिफेंस को तोड़ने में सक्षम हैं लेकिन यहां टेरेन एक बड़ी चुनौती है। पहाड़ी इलाकों में टैंक्स और आर्टिलरी की मूवमेंट सीमित होती है। इसलिए स्पेशल फोर्सेज की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। इस सबकी बदौलत हो सकता है भारत जल्द ही LOC को स्ट्रेच करने में सफल हो जाए। The प्रिंट में छपे एक आर्टिकल में लेफ्टिनेंट जनरल, HS पनाग लिखते हैं, 7 -10 दिन की लिमिटेड वॉर में LOC को 10 किलोमीटर पीछे धकेला जा सकता है लेकिन इसके बाद शुरू होगी असली चुनौती।
जनरल हसनैन आगाह करते हुए लिखते हैं, यह 1971 नहीं है। पाकिस्तान के पास चीन से मिले LY-80 एयर डिफेंस सिस्टम हैं, जो लाहौर के आउटस्कर्ट्स में तैनात हैं। भारतीय पायलट्स को सिर्फ पाकिस्तानी एयर डिफेंस से ही नहीं, बल्कि चीनी टेक्नोलॉजी से भी जूझना होगा। मुजफ्फराबाद और कोटली सेक्टर में एडवांस करती भारतीय फौज को सबसे बड़ी चुनौती मिलेगी चीन से। गिलगित बल्तिस्तान के चैप्टर में हमने बताया था कि कैसे चीन और पाकिस्तान के बीच एक कॉरिडोर तैयार हो रहा है। काराकोरम हाइवे को और चौड़ा किया जा रहा है। युद्ध की स्थिति में चीन की एंट्री होती है तो चीन की फोर्सेस इस रास्ते से मूव करेंगी।
यह रास्ता सियाचिन के एकदम बगल में है। कराकोरम पास और शक्सगाम वैली में मौजूद चीनी सैनिक, सियाचिन में तैनात भारतीय सैनिकों को कट ऑफ करने की कोशिश करेंगे। समंदर में लड़ाई की बात करें तो नेवी के लिहाज से भारत पाकिस्तान से मजबूत है। INS विक्रमादित्य और INS विक्रांत जैसे एयरक्राफ्ट कैरियर्स, गाइडेड मिसाइल डिस्ट्रॉयर्स और न्यूक्लियर सबमरीन INS अरिहंत पाकिस्तान की नेवी को चेक में रख सकते हैं लेकिन चीन की नेवी भारत से स्ट्रांग है। चीन के पास 3 एयरक्राफ्ट कैरियर्स हैं। 4 हेलिकॉप्टर कैरियर्स भी हैं। चाहे फ्रिगेट हो, डिस्ट्रॉयर हो, कॉरवेट्स हों या सबमरीन; चीन भारत से काफ़ी आगे है। बाकी मामलों में भी तमाम विश्लेषण बताते हैं कि चीन, चाहे सैन्य बल के लिहाज से हो या टेक्नोलॉजी के लिहाज से। चीन हर मामले में आगे है। भारत को न सिर्फ फिजिकल बैटलफील्ड पर, बल्कि साइबर स्पेस में भी लड़ाई लड़नी होगी। कम्युनिकेशन सिस्टम्स, सैटेलाइट डेटा, और मिलिट्री नेटवर्क्स की सुरक्षा एक बड़ी प्रायोरिटी होगी।
POK के मोर्चे पर जंग छिड़ने की स्थिति में सबसे बड़ी चिंता होगी न्यूक्लियर हथियारों की। भारत पाकिस्तान चीन- तीनों न्यूक्लियर पावर हैं। इस इलाके में हल्का सा तनाव बाकी दुनिया को चिंता में डाल देता है। लिहाजा जंग छिड़ने की स्थिति में अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का पूरा प्रेशर होगा। मान लें न्यूक्लियर वेपन्स तक नौबत आ भी गई तो पाकिस्तान के पास शाहीन मिसाइल्स हैं, जो न्यूक्लियर वारहेड्स ले जा सकती हैं। भारत के पास अग्नि-5 है, जो 8000 किलोमीटर तक मार कर सकती है। वहीं, अग्नि 6 पर काम चल रहा है। चीन की बात करें तो चीन के पास 12000 किलोमीटर तक ट्रेवल करने वाली ICBM हैं और चीन का न्यूक्लियर जखीरा भी भारत से बड़ा है। तमाम तरीके के तुलनात्मक अध्ययन बताते हैं कि POK के मोर्चे पर भारत पाकिस्तान को पिछाड़ने की ताकत रखता है लेकिन चीन जब तक पाकिस्तान के पाले में है। POK दूर की कौड़ी है। इस मसले पर भारत का रुख बदलना हालांकि एक अच्छी निशानी है। लम्बे समय से कश्मीर को पाकिस्तान मुद्दा बनाए हुए है। भारत के लिए जरूरी है कि वह POK को मुद्दा बना और POK पर आने वाले तमाम बयान इसी तरफ इशारा करते हैं।
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