बिहार का टिकारी राज खत्म कैसे हो गया? पढ़िए पूरी कहानी
बिहार के तमाम जमींदारी घरानों में से एक टिकारी राज की कहानी खून और धोखे से जुड़ी हुई है। पढ़िए कि कैसे यह राज शुरू हुआ और खत्म हो गया।

टिकारी राज की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
बिहार का एक जमींदारी घराना- टिकारी राज। इनका शाही निशान था - एक कबूतर जो एक बाज़ पर झपट रहा है। यह एक प्रतीक है, टिकारी राज में लगभग 250 साल पहले हुई एक घटना का। साल 1762। जगह, बिहार में बहती गंगा नदी। उस रोज उसमें बिहार की एक बड़ी ज़मींदारी का भविष्य डूब रहा था। बंगाल के नवाब मीर क़ासिम के हुक्म पर टिकारी के राजा बुनियाद सिंह को नदी में डुबोकर मारा जा रहा था। यह क़त्ल सिर्फ़ एक राजा का नहीं, बल्कि एक पिता का भी था। उस वक़्त बुनियाद सिंह का बेटा, मित्रजीत सिंह, महज़ कुछ महीनों का था। दूध-पीता बच्चा, जो अब यतीम हो चुका था। सियासत की इस खूनी बिसात पर एक पूरी रियासत का वजूद दांव पर लगा था। एक तरफ़ नवाब की तलवार थी तो दूसरी तरफ़ एक मासूम की किलकारी।
यहीं से जन्म हुआ उस प्रतीक का। कबूतर जो एक बाज़ पर झपट पड़ा और आसमान की सत्ता हथिया ली। यह कहानी है उस ज़मींदारी की है जिसने ख़ून और धोखे के बीच से निकलकर अपना सुनहरा दौर देखा। आज पढ़िए बिहार के टिकारी राज की कहानी।
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कैसे हुई शुरुआत?
18वीं सदी की शुरुआत। दिल्ली में औरंगज़ेब की मौत के बाद मुग़ल सल्तनत कमज़ोर पड़ रही थी। दूर-दराज़ के सूबों में बादशाह का हुक्म बस नाम का रह गया था। बिहार का इलाका भी कुछ ऐसा ही था। कहने को तो यह बंगाल के नवाब के अधीन था लेकिन असल में यहां छोटे-छोटे ज़मींदार और फ़ौजदार ही अपने-अपने इलाक़े के मालिक थे। इसी उथल-पुथल के दौर में लगभग 1707 के आस-पास, उत्तर प्रदेश से एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार बिहार आया। इस परिवार के मुखिया थे धीर सिंह, जिन्हें वीर सिंह के नाम से भी जाना जाता था।
धीर सिंह बेहतर मौक़ों की तलाश में गया पहुंचे और वहां के मुग़ल फ़ौजदार की सेना में भर्ती हो गए। अपनी क़ाबिलियत के दम पर वह जल्द ही कमांडर बन गए। उन्होंने अपनी ज़मींदारी के लिए एक ठिकाना चुना। ठिकाना भी ऐसा जो सामरिक रूप से बेजोड़ था। मोरहर और जमुनी- नदियों के बीच की ऊंची ज़मीन। यहां बाढ़ का पानी नहीं पहुंचता था और दुश्मन की नज़र भी आसानी से नहीं पड़ती थी।
धीर सिंह, मूल रूप से उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले के टिकार (या जिसे द्रोणटिकार भी कहा जाता है) नामक स्थान के निवासी थे इसलिए जब उन्होंने जमींदारी का जो ठिकाना चुना, उसका नाम, अपने पैतृक गांव ‘टिकार’ के नाम पर टिकारी रख दिया। धीर सिंह ने नींव रखी लेकिन इस नींव पर आलीशान इमारत खड़ी की उनके बेटे सुंदर सिंह ने। सुंदर सिंह अपने पिता से ज़्यादा महत्वाकांक्षी थे। उन्होंने दिल्ली की कमज़ोर होती सल्तनत और बंगाल के नवाब की अंदरूनी लड़ाइयों को अपनी ताक़त बनाने का फ़ैसला किया।
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साल 1739, ईरान का बादशाह नादिर शाह दिल्ली पर क़हर बनकर टूटा। उसने दिल्ली को लूटा, कत्लेआम मचाया और मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह को बेबस कर दिया। जब दिल्ली में यह सब चल रहा था तो पूरे उत्तर भारत में अफ़रातफ़री मच गई। सुंदर सिंह ने इसी मौक़े को पहचाना। उन्होंने अपनी फ़ौज के दम पर आस-पास के इलाक़ों पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया। उसी दौर में बंगाल के सूबेदार अलीवर्दी ख़ान मराठों के हमलों से परेशान थे। सुंदर सिंह ने अपनी फ़ौज के साथ अलीवर्दी ख़ान की मदद की। उनकी इस मदद से ख़ुश होकर, मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह ने सुंदर सिंह को ‘राजा’ का ख़िताब दिया। यह एक बहुत बड़ी कामयाबी थी। अब सुंदर सिंह सिर्फ़ एक ज़मींदार नहीं, बल्कि मुग़ल सल्तनत द्वारा मान्यता प्राप्त राजा बन चुके थे।
राजा बनते ही सुंदर सिंह ने टिकारी के उस मशहूर क़िले का निर्माण पूरा करवाया, जिसकी नींव उनके पिता ने रखी थी। यह किला किसी पहाड़ी पर नहीं बल्कि मैदानी इलाक़े की सबसे ऊंची ज़मीन पर बना था। सुरक्षा के लिए चारों तरफ़ गहरी खाई थी। आज भी यह किला अपनी टूटी-फूटी हालत में उस दौर की शान की गवाही देता है। अगर इसकी मरम्मत की जाए तो यह राजस्थान और बुंदेलखंड के बड़े-बड़े क़िलों को टक्कर दे सकता है। सुंदर सिंह ने टिकारी राज को ताक़त और पहचान, दोनों दी लेकिन 1758 में एक जंग के मैदान में उनकी मौत हो गई। इस मामले में एक और कहानी चलती है कि सुंदर सिंह को उनके अपने ही एक सुरक्षा गार्ड, गुलाम गौस ने 1758 में मोरहर नदी के तट पर बसंत पंचमी उत्सव के दौरान खंजर से मारकर हत्या कर दी थी।
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सुंदर सिंह की कोई औलाद नहीं थी इसलिए उन्होंने अपने एक रिश्तेदार के बेटे, बुनियाद सिंह को गोद ले लिया था और यही बुनियाद सिंह, टिकारी राज की कहानी के सबसे दर्दनाक अध्याय का किरदार बनने वाले थे। वही किरदार, जिनका ज़िक्र हमने कहानी की शुरुआत में किया था।
कत्ल, वफ़ादारी और अंग्रेज़ों से दोस्ती
राजा सुंदर सिंह की मौत के बाद 1758 में टिकारी की गद्दी पर उनके गोद लिए हुए बेटे बुनियाद सिंह बैठे। बुनियाद सिंह ने एक ऐसे दौर में राज संभाला था, जब हिंदुस्तान की सियासत तेज़ी से बदल रही थी। एक साल पहले, 1757 में, प्लासी की लड़ाई हो चुकी थी। बंगाल का नवाब अब सिर्फ़ नाम का शासक था; असली ताक़त कलकत्ता के फोर्ट विलियम में बैठी ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ में थी।
बंगाल की गद्दी पर अब एक नया नवाब था। मीर क़ासिम, वह नाम का नवाब और काम की कठपुतली बनकर नहीं रहना चाहता था। वह अपनी ताक़त की एक-एक ईंट ख़ुद जोड़ रहा था और उसकी शक की निगाह बिहार के उन सभी ज़मींदारों पर थी, जिनकी वफ़ादारी की पतंग कलकत्ता की ओर उड़ रही थी। इनमें से एक थे टिकारी के राजा बुनियाद सिंह -जिन्होंने मीर क़ासिम की बजाय अंग्रेज़ों का साथ देने का फ़ैसला किया। यह एक बहुत बड़ा जुआ था और इस जुए की क़ीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।
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मीर क़ासिम अपने ख़िलाफ़ पनप रहे किसी भी गठबंधन को कुचल देना चाहता था। उसने एक साज़िश रची। 1762 में नवाब ने राजा बुनियाद सिंह समेत उन सभी ज़मींदारों को, जो अंग्रेज़ों के वफ़ादार माने जाते थे, पूर्णिया आने का न्योता भेजा। बहाना था किसी मसले पर बातचीत का। राजा बुनियाद सिंह नवाब के इरादों को भाँप नहीं पाए और पूर्णिया पहुंच गए। वहां पहुंचते ही उन्हें और बाक़ी ज़मींदारों को क़ैद कर लिया गया।
नवाब का हुक्म साफ़ था। अंग्रेज़ों से दोस्ती की सज़ा मौत। राजा बुनियाद सिंह को सिपाहियों ने पकड़ा और गंगा नदी के किनारे ले गए। वहां सबके देखते-देखते, टिकारी के राजा को ज़िंदा नदी में डुबो दिया गया। नवाब ने सोचा था कि राजा को मारकर वह टिकारी राज को हमेशा के लिए ख़त्म कर देगा लेकिन वह वफ़ादारी की ताक़त को कम आंक रहा था।
जिस वक़्त बुनियाद सिंह का क़त्ल हुआ, उनका बेटा मित्रजीत सिंह सिर्फ़ कुछ महीनों का था। नवाब के जासूस उसे ढूंढ रहे थे ताकि टिकारी का कोई वारिस ही न बचे। ऐसे मुश्किल वक़्त में, राज के दीवान, दलील सिंह बच्चे को एक महफ़ूज़ जगह पर ले गए। दो साल तक उथल-पुथल का माहौल रहा। फिर आया साल 1764। बक्सर की लड़ाई हुई। इस लड़ाई में अंग्रेज़ों ने मीर क़ासिम को बुरी तरह हरा दिया। इस जीत के बाद बंगाल और बिहार पर अंग्रेज़ों का एकछत्र राज क़ायम हो गया। लड़ाई के बाद, अंग्रेज़ों ने अपने पुराने दोस्त के बेटे को पूरा सम्मान दिया। जब मित्रजीत सिंह बड़े हुए तो कंपनी ने उन्हें टिकारी राज की पूरी ज़मींदारी वापस सौंप दी।
महाराजा मित्रजीत सिंह का सुनहरा दौर
जिस बच्चे को बचाने के लिए दीवान दलील सिंह ने अपनी जान की बाज़ी लगा दी थी, वह अब बड़ा हो चुका था। महाराजा मित्रजीत सिंह का राज 1841 में उनकी मौत तक चला। इसे टिकारी के इतिहास का 'सुनहरा दौर' माना जाता है। उनके दौर में टिकारी दक्षिण बिहार की सबसे प्रमुख रियासतों में से एक बन गई । यह रियासत गया शहर के पास थी और इसके अंतर्गत 2,000 से अधिक गांव आते थे । अपने चरम पर, यह रियासत गया, औरंगाबाद, नवादा, जहानाबाद, मुजफ्फरपुर, छपरा और चंपारण के बड़े हिस्सों में फैली हुई थी।
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महाराजा मित्रजीत सिंह सिर्फ़ नाम के नहीं थे। उन्होंने अपनी फ़ौजी क़ाबिलियत भी साबित की। जब छोटानागपुर के इलाक़े में कोल आदिवासियों ने बगावत की, जिसे 'कोल विद्रोह' के नाम से जाना जाता है तो मित्रजीत सिंह अपनी सेना लेकर अंग्रेज़ों की मदद के लिए पहुंच गए। उन्होंने इस विद्रोह को कुचलने में कंपनी का भरपूर साथ दिया। इसका फ़ायदा भी उन्हें मिला। वह टिकारी के पहले शासक थे जिन्हें 'महाराजा' की उपाधि से नवाज़ा गया।
मित्रजीत सिंह की ताक़त सिर्फ़ तलवार में ही नहीं, बल्कि उनके दिमाग़ में भी थी। वह सियासत के साथ-साथ हिसाब-किताब के भी माहिर थे। यह वह दौर था जब अंग्रेज़ों ने 'परमानेंट सेटलमेंट' की नीति लागू की। यह ज़मींदारों से लगान वसूलने का एक ऐसा सिस्टम था जिसमें लगान की रक़म हमेशा के लिए तय कर दी गई थी चाहे फ़सल हो या न हो। ज़रा सी चूक पर ज़मींदारी नीलाम हो जाती थी। इसी नीति ने बंगाल और बिहार की कई बड़ी-बड़ी रियासतों को बर्बाद कर दिया। कंपनी का तय किया हुआ लगान इतना ज़्यादा होता था कि ज़मींदार क़र्ज़ में डूब जाते थे और उनकी रियासतें नीलाम हो जाती थीं लेकिन इस मुश्किल दौर में भी महाराजा मित्रजीत सिंह ने अपनी रियासत को न सिर्फ़ बचाया, बल्कि उसकी आमदनी को लगभग दोगुना कर दिया। उस ज़माने में जहां महाराजा कंपनी को सालाना 3 लाख रुपये का लगान देते थे, वहीं वह अपनी रियासत से 60 लाख रुपये की कमाई करते थे।
कमाई आती कहां से थी? इसका एक बड़ा ज़रिया था गया आने वाले तीर्थयात्री। गया हिंदू और बौद्ध, दोनों धर्मों के लिए एक पवित्र शहर है। महाराजा मित्रजीत सिंह को वहां आने वाले तीर्थ यात्रियों से वसूले जाने वाले टैक्स का 10% हिस्सा मिलता था। यह एक बहुत बड़ी रक़म होती थी। हालांकि, इस आमदनी के बदले में उन्हें धार्मिक त्योहारों और मंदिरों के रखरखाव पर भी ख़र्च करना पड़ता था।
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मित्रजीत सिंह सिर्फ़ एक दौलतमंद राजा नहीं थे। वह ख़ुद एक बड़े विद्वान, कवि और इतिहासकार थे। उन्होंने टिकारी को सिर्फ़ राजनीतिक और आर्थिक ताक़त नहीं दी, बल्कि उसे ज्ञान और साहित्य का भी एक केंद्र बनाया। उनकी सबसे बड़ी देन थी शिक्षा के क्षेत्र में। 1835 में पटना में मौजूद उनके ही एक घर में 'पटना हाई स्कूल' की शुरुआत हुई। यह उस दौर में बिहार में आधुनिक शिक्षा का एक बहुत बड़ा केंद्र बना।
महाराजा मित्रजीत सिंह ने उस रियासत को संभाला था, जिसके राजा का बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया था और जब 1840 में उनकी मौत हुई, तो वह अपने पीछे बिहार की सबसे अमीर और सबसे प्रतिष्ठित रियासतों में से एक छोड़कर गए।
जब रानियों ने संभाला राज
महाराजा मित्रजीत सिंह ने टिकारी राज को जिस बुलंदी पर पहुंचाया था, उसे बनाए रखना किसी के लिए भी आसान नहीं था। 1841 में उनके बाद गद्दी पर बैठे उनके बड़े बेटे, महाराजा हित नारायण सिंह पर हित नारायण सिंह का मन राज-पाठ के दांव-पेच में नहीं बल्कि पूजा-पाठ और ध्यान में लगता था। उनकी गद्दी संभालने के बाद ही टिकारी राज का बंटवारा हो गया। रियासत का बड़ा हिस्सा, जिसे '9 आना स्टेट' कहा जाने लगा, महाराजा हित नारायण सिंह के पास रहा। '9 आना' का मतलब था 16 में से 9 हिस्से क्योंकि उस ज़माने में एक रुपये में 16 आने होते थे। रियासत का छोटा हिस्सा, यानी '7 आना स्टेट', उनके छोटे भाई मोद नारायण सिंह को मिला।
गद्दी संभालने के कुछ ही साल बाद, हित नारायण सिंह ने एक ऐसा फ़ैसला लिया जिसने सबको चौंका दिया। महाराजा हित नारायण सिंह ने राज-पाठ त्याग दिया और एक तपस्वी बन गए। उन्होंने अपनी विशाल रियासत की पूरी ज़िम्मेदारी अपनी पत्नी को सौंप दी। यह एक हैरान करने वाला फ़ैसला था। एक ताक़तवर महाराजा अपनी मर्ज़ी से अपनी गद्दी छोड़ रहा था और बागडोर एक महिला के हाथ में दे रहा था। यहीं से टिकारी राज में औरतों के शासन का एक नया दौर शुरू हुआ।
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सबसे पहले कमान संभाली महारानी इंद्रजीत कुंवर ने। उन्होंने बड़ी क़ाबिलियत से राज-काज को संभाला। वंश को आगे बढ़ाने के लिए, उन्होंने अपने पति की सहमति से अपने एक रिश्तेदार राम नारायण कृष्ण सिंह को गोद ले लिया लेकिन क़िस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। राम नारायण कृष्ण सिंह की भी जल्द ही मौत हो गई। टिकारी राज पर एक बार फिर संकट के बादल मंडराने लगे। ऐसे में एक और महिला ने आगे बढ़कर इस ज़िम्मेदारी को अपने कंधों पर उठा लिया। यह थीं राम नारायण कृष्ण सिंह की विधवा, महारानी राजरूप कुंवर। महारानी राजरूप कुंवर टिकारी के इतिहास की सबसे काबिल शासकों में से एक साबित हुईं। उन्होंने यह साबित कर दिया कि राज चलाने के लिए सिर्फ़ तलवार नहीं, बल्कि दूरदृष्टि और अपनी प्रजा के लिए दर्द भी चाहिए। उनके दौर में टिकारी राज सिर्फ़ लगान वसूलने वाली ज़मींदारी नहीं रहा, बल्कि एक कल्याणकारी स्टेट बन गया। उनके कामों की लिस्ट देखिए और आप समझ जाएंगे कि क्यों उन्हें आज भी याद किया जाता है।
सेहत: महारानी ने रानी विक्टोरिया के सम्मान में 30,000 रुपये की भारी रक़म ख़र्च करके टिकारी में एक अस्पताल बनवाया, जिसका नाम था 'द एम्प्रेस डिस्पेंसरी'।
शिक्षा: उन्होंने टिकारी स्कूल की इमारत के लिए 5,000 रुपये दिए। सिर्फ़ इतना ही नहीं, स्कूल चलता रहे, इसके लिए 30,000 रुपये की सरकारी प्रतिभूतियां दान कीं।
सड़कें और तालाब: उन्होंने टिकारी और फतेहपुर के बीच सड़क की मरम्मत के लिए सालाना 16,000 रुपये का बजट रखा।
महारानी टिकारी में रोज़ाना क़रीब 200 ग़रीब लोगों को खाना खिलाती थीं। उन्होंने कलकत्ता के चिड़ियाघर के विकास के लिए भी 5,000 रुपये का दान दिया। महारानी राजरूप कुंवर ने अपनी बेटी, राधेश्वरी कुंवर को अपना वारिस बनाया। इस तरह, टिकारी में महिलाओं के हाथ में सत्ता बनी रही। 1886 में महारानी राधेश्वरी कुंवर की मौत के बाद, गद्दी उनके बेटे को मिली, जो उस वक़्त नाबालिग था। उनका नाम था गोपाल शरण नारायण सिंह। टिकारी के आख़िरी और सबसे अनोखे महाराजा।
आख़िरी महाराजा और एक नए दौर की शुरुआत
गोपाल शरण नारायण सिंह। गद्दी मिलते वक़्त वह नाबालिग थे, इसलिए 1886 से लेकर 1904 तक, जब तक वह बालिग नहीं हुए, रियासत का कामकाज अंग्रेज़ों के कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स ने संभाला। गोपाल शरण की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई अंग्रेज़ी तौर-तरीक़ों से हुई थी। मसूरी के मशहूर सेंट जॉर्ज कॉलेज में पढ़ने की वजह से उनकी सोच पुराने ज़मींदारों से बिल्कुल अलग थी। वह एक नए ज़माने के राजकुमार थे, जिनकी दिलचस्पी क़िले की सियासत से ज़्यादा दुनिया में हो रही नई चीज़ों में थी।
उनकी जवानी के क़िस्से किसी फ़िल्म की कहानी से कम नहीं हैं। वह पहले भारतीय राजकुमार थे, जिन्होंने 20वीं सदी की शुरुआत में फ़्रांस और इंग्लैंड के रेस ट्रैक पर मोटर रेसिंग में हिस्सा लिया। आप कल्पना कीजिए, जिस दौर में भारत में ज़्यादातर लोगों ने मोटर गाड़ी देखी तक नहीं थी, टिकारी का राजा यूरोप में ग्रैंड प्रिक्स रेस में हिस्सा ले रहा था।
जब 1914 में पहला विश्व युद्ध छिड़ा तो महाराजा लेफ्टिनेंट के तौर पर फ़ौज में शामिल हुए। फ़्रांस के मोर्चों पर खाइयों में रहकर जंग लड़ी। उनकी बहादूरी के लिए उन्हें तरक़्क़ी देकर कैप्टन बना दिया गया लेकिन जंग के मैदान से लौटने के बाद, इस महाराजा का दिल पूरी तरह बदल चुका था। वह इंडियन नेशनल कांग्रेस के सदस्य बन गए। सियासत में भी उन्होंने अपना लोहा मनवाया। उन्होंने उस दौर के सबसे ताक़तवर ज़मींदारों में से एक, दरभंगा के महाराजाधिराज सर रामेश्वर सिंह को चुनावों में दो बार हराया।
उनका सबसे बड़ा योगदान आया साल 1922 में। उन्होंने गया में मौजूद अपने व्हाइट हाउस नाम के निवास पर कांग्रेस का 37वां अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित करवाया। इसी सम्मेलन में मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दास ने मिलकर स्वराज पार्टी की नींव रखी थी।
महाराजा गोपाल शरण की निजी ज़िंदगी भी बहुत दिलचस्प थी। उन्होंने चार शादियां कीं। उनकी दूसरी पत्नी, एल्सी थॉम्पसन, ऑस्ट्रेलिया की एक स्टेज एक्ट्रेस थीं, जिन्होंने शादी के बाद अपना नाम महारानी सीता देवी रख लिया था। महाराजा गोपाल शरण ने टिकारी राज को बदलते वक़्त के साथ बदला लेकिन वक़्त का पहिया किसी के लिए नहीं रुकता। 1947 में भारत आज़ाद हुआ और 1950 में ज़मींदारी प्रथा को ख़त्म कर दिया गया। इसी के साथ, 200 साल से ज़्यादा पुराने टिकारी राज का आधिकारिक तौर पर अंत हो गया। 17 फ़रवरी 1958 को महाराजा गोपाल शरण सिंह का निधन हो गया। वह टिकारी के आख़िरी महाराजा थे।
उनकी मृत्यु के बाद, राज की सीधी राजनीतिक शक्ति समाप्त हो गई। बची हुई संपत्तियों (जैसे महल, बाग़ और निजी ज़मीनें) का प्रबंधन करने के लिए एक 'टिकारी राज ट्रस्ट' बनाया गया। परिवार के कुछ सदस्य आधुनिक राजनीति और व्यापार में सक्रिय हो गए लेकिन अब उनके पास पुराने ख़िताब या राजस्व नहीं थे। धीरे-धीरे टिकारी राज का अंत हो गया लेकिन आज भी इलाके के लोग इसे टिकारी राज के नाम से ही बुलाते हैं।
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