मगध बनाम वज्जि का झगड़ा और वस्सकार की कहानी
विशेष
नीलेश मिश्र• PATNA 02 Aug 2025, (अपडेटेड 04 Aug 2025, 1:01 PM IST)
मगध और वज्जि की लड़ाई की वजहें कई रहीं। अजातशत्रु ने वस्सकार को भेजकर वज्जि संघ की एकता को भंग किया और उसे जीतने में कामयाबी हासिल की।

वस्सकार की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
कहानी शुरू होती है एक पारिवारिक झगड़े से। एक ऐसा झगड़ा जो अगर राजपरिवार में न हुआ होता तो शायद कुछ दिनों में सुलझ भी जाता लेकिन जब झगड़ा मगध के राजमहल में हो तो वह पारिवारिक नहीं रहता, राजनैतिक बन जाता है और उसकी चिंगारी से साम्राज्य जल उठते हैं। जैन परंपरा की कथाओं में इस झगड़े का ज़िक्र बड़े विस्तार से मिलता है।
कहते हैं मगध के महान राजा बिम्बिसार ने अपने छोटे बेटों, हल्ल और वेहल्ल को दो बेहद कीमती तोहफ़े दिए थे। पहला था सेचनक नाम का एक हाथी और दूसरा था अठारह लड़ियों वाला एक दिव्य हार। बिम्बिसार का एक और बेटा था, अजातशत्रु। जो अपने पिता को कैद कर मगध की गद्दी पर बैठा था। एक दिन अजातशत्रु की रानी पद्मावती ने अपनी देवरानी यानी वेहल्ल की पत्नी को वह बेशकीमती हार पहने देख लिया। देखते ही रानी ने ज़िद पकड़ ली कि वह हार और वह हाथी उसे लाकर दें। अजातशत्रु ने तुरंत अपने सौतेले भाइयों को संदेश भिजवाया। हुक्म था - 'सेचनक हाथी और वह हार, दोनों फ़ौरन मेरे हवाले कर दो।'
हल्ल और वेहल्ल जानते थे कि उनके बड़े भाई का हुक्म टालने का मतलब है मौत। उन्हें अपनी जान और अपने पिता की दी हुई विरासत, दोनों बचानी थी। वे रातों-रात वह कीमती तोहफ़े लेकर मगध की राजधानी राजगृह, जो आज के बिहार में राजगीर के नाम से जाना जाता है, वहां से भाग निकले। वे भागकर पहुंचे गंगा नदी के पार, वैशाली में। वैशाली, जो आज बिहार का एक ज़िला है, उस दौर में दुनिया के सबसे शक्तिशाली गणराज्य, वज्जि संघ की राजधानी थी और वहां राज करते थे उनके नाना, राजा चेतक। हल्ल और वेहल्ल ने अपने नाना की शरण ली और उन्हें पूरी कहानी सुनाई।
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जैसे ही अजातशत्रु को यह ख़बर मिली, वह आग-बबूला हो गया। उसने राजा चेतक को एक सख़्त संदेश भेजा- 'मेरे भगोड़े भाइयों और मेरी शाही संपत्ति, तुरंत मुझे सौंप दो। वरना जंग के लिए तैयार हो जाओ।' चेतक ने शरणागत को लौटाने से साफ़ इनकार कर दिया और बस, इसी 'न' के साथ उस महायुद्ध की नींव रखी गई, जो अगले 16 सालों तक चलना था। एक ऐसी जंग, जो एक पारिवारिक ज़िद से शुरू हुई और हिंदुस्तान के पहले गणराज्य की तबाही पर जाकर खत्म हुई। आज हम जानेंगे कहानी हिंदुस्तान के दो सबसे बड़े राजनैतिक खानदानों के बीच हुई एक ऐसी जंग की, जिसने भारत के पहले गणराज्य को हमेशा के लिए तबाह कर दिया। कहानी इतिहास की है लेकिन इसमें वर्तमान लोकतंत्र और गणतंत्र के लिए भी सबक है। सबक क्या, यह आपको आगे कहानी से समझ आएगा।
दो ताकतें, दो निजाम
यह जंग सिर्फ़ ज़मीन के दो टुकड़ों के बीच नहीं थी। यह दो अलग-अलग सोच, दो अलग-अलग व्यवस्थाओं की टक्कर थी। एक तरफ़ थी राजशाही और दूसरी तरफ़ था गणराज्य। इस लड़ाई का नतीजा यह तय करने वाला था कि आने वाले हिंदुस्तान का भविष्य कैसा होगा।
चलिए, पहले उस तरफ़ चलते हैं जहां एक आदमी का हुक्म चलता था - मगध। मगध उस वक़्त उत्तरी भारत की सबसे तेज़ी से उभरती हुई ताक़त था। इसकी राजधानी थी राजगृह, आज का राजगीर, जो पांच तरफ़ से पहाड़ियों से घिरी एक अभेद्य राजधानी थी। मगध की ताकत की नींव राजा बिम्बिसार ने रखी थी लेकिन अब गद्दी पर उसका बेटा अजातशत्रु बैठा था। वही अजातशत्रु, जो राजा बनने से पहले अंग महाजनपद की जीती हुई राजधानी, चंपा का गवर्नर रह चुका था। उसकी व्यवस्था बहुत सीधी थी। सबसे ऊपर राजा और बाकी सब उसके नीचे। फ़ैसले तेज़ी से लिए जाते थे।
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मगध एक तेज़ धार वाले भाले की तरह था, जिसे एक ही मज़बूत हाथ ने पकड़ रखा था। वहीं दूसरी तरफ़ वैशाली एक मज़बूत ढाल की तरह था, जिसे कई हाथों ने मिलकर पकड़ा हुआ था। वैशाली वज्जि संघ का दिल था। वज्जि कोई एक राजघराना नहीं, बल्कि आठ कुलों का एक महासंघ था और इन आठ कुलों में सबसे ताक़तवर थे वैशाली के लिच्छवी। यहां कोई एक राजा नहीं था। यहां एक गणराज्य था, जिसे हम उस दौर का लोकतंत्र कह सकते हैं। सारे बड़े फ़ैसले वैशाली के सभा-भवन, जिसे संथागार कहते थे, में लिए जाते थे। उस सभा में सभी आठ कुलों के प्रमुख सरदार बैठते थे। किसी भी मुद्दे पर लंबी बहस होती, हर पहलू पर विचार होता और फिर सबकी सहमति या बहुमत से कोई फ़ैसला लिया जाता।
उनके नेता थे राजा चेतक। चेतक को मगध के राजा की तरह मत समझिए। वह कोई सम्राट नहीं थे, बल्कि लिच्छवियों के चुने हुए या सबसे सम्मानित प्रमुख थे। एक ऐसा नेता जिसका हर कोई सम्मान करता था। दिलचस्प बात यह है कि चेतक का ख़ून दोनों तरफ़ मौजूद था। वह जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर, महावीर के नाना थे और मगध के राजा अजातशत्रु की मां भी चेतक की ही बेटी, यानी लिच्छवी राजकुमारी थीं। इस नाते से चेतक, अजातशत्रु के भी नाना हुए। यानी यह लड़ाई नाना और नाती के बीच भी थी। बिसात बिछ चुकी थी। एक तरफ था मगध का तेज़ धार वाला भाला और दूसरी तरफ़ थी वैशाली की मज़बूत ढाल। हाथी और हार के झगड़े ने इन दोनों को आमने-सामने ला खड़ा किया था। अब सवाल यह नहीं था कि कौन जीतेगा। सवाल यह था कि पहले टूटेगा कौन?
टकराव की चिंगारी
जैसा कि हमने शुरू में ज़िक्र किया था, जैन ग्रंथ इस महायुद्ध का कारण एक पारिवारिक झगड़े को बताते हैं - सेचनक हाथी और वह बेशकीमती हार इसकी वजह बना। हालांकि, बौद्ध परंपरा इस जंग की एक और ज्यादा व्यावहारिक वजह बताती है, जिसका ताल्लुक़ सीधे-सीधे पैसे और व्यापार से था। गंगा नदी के किनारे एक बंदरगाह पर मगध और वज्जि, दोनों का साझा नियंत्रण था। यहां एक बेहद कीमती सुगंधित पदार्थ मिलता था, जिससे दोनों राज्यों को भारी मुनाफ़ा होता था। एक बार लिच्छवियों ने सारा माल उठा लिया। यह व्यापारिक समझौते का सीधा उल्लंघन था। इस धोखे ने अजातशत्रु को वह बहाना दे दिया, जिसकी उसे शायद तलाश थी।
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अजातशत्रु ने वज्जि संघ को हमेशा के लिए खत्म करने का फ़ैसला कर लिया लेकिन वह यह भी जानता था कि जब तक वज्जि एक हैं, उन्हें सीधी लड़ाई में हराना नामुमकिन है। इसके लिए ताक़त से पहले ज़रूरत थी एक ऐसे मोहरे की, जो दुनिया के सबसे मज़बूत गणराज्य को अंदर से खोखला कर दे और यहीं से कहानी में उस किरदार की एंट्री होती है, जो इस जंग का सबसे बड़ा रणनीतिकार था।
वस्सकार की चाल
अजातशत्रु ने जंग का फ़ैसला तो कर लिया था लेकिन उसके सामने एक बहुत बड़ी चुनौती थी। वज्जि संघ की एकता। वह जानता था कि जब तक लिच्छवी और दूसरे वज्जि कुल एक हैं, उन्हें कोई हरा नहीं सकता। जैसा कि बौद्ध ग्रंथों में बताया गया है, खुद गौतम बुद्ध ने कहा था कि जब तक वज्जि अपनी सभाएं करते रहेंगे, एक होकर फ़ैसले लेंगे और अपनी परंपराओं का सम्मान करेंगे, वे अजेय रहेंगे।
अजातशत्रु को एक ऐसा रास्ता निकालना था, जिससे यह एकता टूट जाए। इसके लिए ज़रूरत थी एक ऐसी चाल की जो बाहर से नहीं, बल्कि अंदर से काम करे और इस काम के लिए उसने अपने सबसे शातिर मंत्री को चुना। एक ब्राह्मण, जिसका नाम था वस्सकार।
एक रोज़ अजातशत्रु ने भरी सभा में वस्सकार को बुलाया। उसने वज्जियों पर हमला करने की अपनी योजना बताई। वस्सकार ने नाटक के अनुसार, इस योजना का विरोध किया। उसने कहा कि वज्जियों पर हमला करना मगध के लिए घातक होगा। इसी बात पर राजा और मंत्री में एक झूठी लेकिन ज़बरदस्त बहस हुई। अजातशत्रु ने गुस्से में आकर वस्सकार पर देशद्रोह का आरोप लगाया और उसे तुरंत देश निकाला दे दिया। अजातशत्रु जैसा शख्स जो गद्दी के लिए अपने पिता की जान ले सकता है, उसने वस्सकार को बख्श दिया तो शुबहा पैदा होता लेकिन यहीं वस्सकार का ब्राह्मण होना काम आया। तमाशा देख रहे लोगों ने यही मतलब निकाला कि अजातशत्रु ने जान इसीलिए बख्शी, क्योंकि वह ब्रह्रमहत्या का दोष अपने सिर नहीं चाहता था।
माने जो खेल चल रहा था, वह हकीकत के इतना करीब था कि किसी ने सोचा भी नहीं होगा। वस्सकार अपमानित होकर मगध से निकल गया। कुछ समय बाद, वह एक भगोड़े की हालत में वैशाली पहुंचा। उसने लिच्छवी सरदारों को बताया कि कैसे अजातशत्रु ने उसकी वफ़ादारी का अपमान किया है। लिच्छवियों को लगा कि मगध का एक नाराज़ और अनुभवी मंत्री उनके लिए बहुत काम आ सकता है। उन्होंने वस्सकार को न सिर्फ़ शरण दी, बल्कि उसे अपनी न्याय व्यवस्था में एक ऊंचा पद भी दे दिया। यह उनकी सबसे बड़ी गलती थी।
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अगले तीन साल तक, वस्सकार एक दीमक की तरह वज्जि संघ की जड़ों को खोखला करता रहा। उसने बहुत धीरे-धीरे और चालाकी से काम किया। वह लिच्छवी सरदारों के बीच फूट डालने लगा। उसका तरीक़ा बहुत सरल था। वह एक सरदार के पास जाकर दूसरे की झूठी तारीफ़ करता और फिर दूसरे के पास जाकर पहले वाले के ख़िलाफ़ उसके कान भरता। वह बच्चों के बीच हुए छोटे-मोटे झगड़ों को उनके परिवारों के बीच दुश्मनी का मुद्दा बना देता।
जब संथागार यानी सभा में किसी बात पर बहस होती तो वस्सकार एक सरदार को अकेले में सलाह देता कि वह अपनी बात पर अड़ा रहे। फिर वह बाक़ी सरदारों से कहता कि देखो, वह सरदार कितना अहंकारी है, किसी की सुनता ही नहीं। धीरे-धीरे, लिच्छवी एक-दूसरे पर शक करने लगे। उनकी सभाओं में अब सहमति नहीं, सिर्फ़ झगड़े होते थे। तीन साल के अंदर, वज्जि संघ का हर सरदार दूसरे को अपना दुश्मन समझने लगा था। उनकी एकता पूरी तरह टूट चुकी थी। जब वस्सकार को यकीन हो गया कि उसका काम पूरा हो चुका है तो उसने चुपके से अजातशत्रु को एक संदेश भेजा। संदेश था - 'अब हमला करो। लिच्छवी एक साथ लड़ने के लिए कभी इकट्ठा नहीं होंगे।' मगध के जासूस ने अपना काम कर दिया था। अब बारी थी मगध के सिपाहियों की।
मगध के महा-विनाशक हथियार
जैसे ही वस्सकार का संदेश मगध पहुंचा, अजातशत्रु ने अपनी सेना को कूच करने का हुक्म दे दिया। उसे पता था कि वज्जि संघ अंदर से खोखला हो चुका है और यही हमला करने का सबसे सही वक़्त है लेकिन हमला करने से पहले उसने एक बहुत बड़ा रणनीतिक काम पूरा कर लिया था। उसने गंगा और सोन नदी के संगम पर बसे एक छोटे से गांव, पाटलिग्राम में एक विशाल और मज़बूत किला बनवाया था। यही किला आगे चलकर मगध की नई राजधानी पाटलिपुत्र बना जो आज पटना कहलाता है। यह किला वज्जियों के इलाके के ठीक सामने, एक फ़ॉरवर्ड मिलिट्री बेस की तरह था, जहां से मगध की सेना आसानी से गंगा पार हमला कर सकती थी लेकिन यह जीत उतनी आसान नहीं थी, जितनी अजातशत्रु ने सोची थी।
जैन ग्रंथों के अनुसार, यह जंग एक-दो साल नहीं, बल्कि पूरे 16 साल तक चली। यह इस बात का सबूत है कि अंदरूनी फूट के बावजूद लिच्छवियों ने बहुत बहादुरी से लड़ाई लड़ी। सालों तक मगध की सेना वैशाली के मज़बूत किलों को भेद नहीं पाई। जब अजातशत्रु को लगा कि ताक़त और साज़िश, दोनों कम पड़ रही हैं, तब उसने अपने दो गुप्त हथियार मैदान में उतारे। ये ऐसे हथियार थे जो उस ज़माने ने पहले कभी नहीं देखे थे। इन हथियारों का ज़िक्र हमें जैन ग्रंथ 'भगवती सूत्र' में मिलता है।
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पहला हथियार था - महाशिलाकंटक, इसे आप उस ज़माने की एक विशाल गुलेल या तोप समझ सकते हैं। यह एक ऐसी मशीन थी, जो बड़े-बड़े पत्थरों को बहुत ताक़त से दूर तक फेंक सकती थी। जब वैशाली की सेना अपने तीरों और भालों से लड़ रही थी, तब मगध की सेना इस मशीन से शहर की दीवारों और दरवाज़ों पर विशाल पत्थर बरसा रही थी। यह एक ऐसा हथियार था जिसने युद्ध के तरीक़े को बदल दिया। इसने लिच्छवियों के किलों को कमज़ोर कर दिया और उनकी सेना के दिल में ख़ौफ़ भर दिया। दूसरा हथियार और भी ज़्यादा विनाशकारी था। इसका नाम था - रथमूसल।
यह एक तरह का बख्तरबंद रथ था, जिसमें तेज़ धार वाली तलवारें और गदा लगी होती थीं, जो अपने रास्ते में आने वाले हर सिपाही को काटती हुई आगे बढ़ती थीं। अगर आपको 'बाहुबली' फ़िल्म का वह सीन याद है जिसमें भल्लालदेव का रथ अपने-आप दुश्मनों को काटता हुआ आगे बढ़ता है तो आप रथमूसल की भयावहता का अंदाज़ा लगा सकते हैं। यह उस दौर का एक तरह का टैंक था, जिसे रोकना लगभग नामुमकिन था।
इन दो महा-विनाशक हथियारों ने जंग का पासा पलट दिया। महाशिलाकंटक ने वैशाली की मज़बूत दीवारों को तोड़ दिया और रथमूसल ने उसकी बहादुर सेना को कुचल दिया। लिच्छवियों की एकता पहले ही टूट चुकी थी और अब उनकी सैन्य ताक़त भी इन नए हथियारों के सामने जवाब दे रही थी। 16 साल की लंबी और खूनी लड़ाई के बाद, अब मगध की सेना वैशाली के दरवाज़े पर खड़ी थी। हिंदुस्तान के पहले गणराज्य का सूरज अब डूबने वाला था।
भारत के पहले गणराज्य का पतन
16 साल की लंबी लड़ाई, एक धूर्त जासूस की साज़िश और महा-विनाशक हथियारों के दम पर आख़िरकार मगध की सेना ने वैशाली की दीवारों को तोड़ दिया। अजातशत्रु की सेना शहर के अंदर घुस गई। एक समृद्ध और गौरवशाली शहर को लूटा गया और तबाह कर दिया गया।
इस तबाही के बीच, वज्जि संघ के प्रमुख, राजा चेतक ने दुश्मनों के हाथों पकड़े जाने या मारे जाने से इनकार कर दिया। जैन परंपरा के अनुसार, अपनी आंखों के सामने अपने गणराज्य को मरता देख, उन्होंने हार स्वीकार करने के बजाय मृत्यु को गले लगाना बेहतर समझा।magadha and vajji
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वैशाली के पतन के साथ ही वज्जि संघ का भी अंत हो गया। लिच्छवियों की ताक़त हमेशा के लिए टूट गई। उनके पूरे इलाके को मगध साम्राज्य में मिला लिया गया। माना जाता है कि जो लिच्छवी इस विनाश से बच गए, वे उत्तर की ओर भाग गए और आज के नेपाल की पहाड़ियों में बस गए।
यह सिर्फ़ एक शहर या एक संघ की हार नहीं थी। यह इतिहास का एक बहुत बड़ा मोड़ था। इस जीत के साथ ही पूर्वी भारत में मगध को चुनौती देने वाली कोई बड़ी ताक़त नहीं बची। कोसल और काशी पहले ही मगध के अधीन आ चुके थे। अब वज्जि संघ के पतन के बाद, अजातशत्रु उत्तरी भारत का सबसे शक्तिशाली सम्राट बन गया। सिर्फ एक महाजनपद थी, जो मगध की बराबरी के बारे में सोच सकती थी - अवंति लेकिन वह मगध से कहीं दूर आज के पश्चिम मध्यप्रदेश में थी तो उसे लेकर इतनी चिंता मगध में नहीं थी। आगे जाकर लड़ाई हुई ज़रूर लेकिन उसकी कहानी फिर कभी।
बहरहाल, मगध और वृज्जियों के बीच इस जंग का एक और बड़ा नतीजा निकला। यह राजशाही की गणराज्य पर एक निर्णायक जीत थी। इसने यह साबित कर दिया कि आने वाली सदियों में भारत की राजनीति का भविष्य बड़े, केंद्रीयकृत और एक राजा वाले साम्राज्यों के हाथ में होगा। अजातशत्रु की इसी जीत ने उस ज़मीन को तैयार किया, जिस पर आगे चलकर नंद और फिर मौर्य साम्राज्य की विशाल इमारत खड़ी हुई।
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