मिथिला के ऐसे राजा की कहानी जिन्हें ऋषि भी अपना गुरु मानते थे
आज के मिथिला को प्राचीन समय में विदेह के नाम से जाना जाता है। हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इसे रामायण की पात्र सीता के पिता जनक से जोड़कर देखा जाता है।

राजा जनक की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
एक घना जंगल और जंगल के बीचों-बीच बहती एक उफनती हुई नदी। नाम सदानीरा। नदी के पश्चिम में एक राजा खड़ा है, नाम विदेह माधव और उनके साथ हैं उनके पुरोहित, गौतम राहुगण। राजा के पास है एक अग्नि, जिसे वह अपने मुंह में धारण किए हुए हैं। पुरोहित गौतम राहुगण जब भी राजा माथव को पुकारते हैं, अग्नि उनके मुंह से बाहर नहीं आती लेकिन जैसे ही पुरोहित अग्नि का आवाह्न करते हैं, अग्नि धधकती हुई राजा के मुंह से निकलकर धरती पर गिर पड़ती है।
कथा आगे कहती है कि यह अग्नि पूरब की ओर बढ़ती हुई सब कुछ जलाती चली गई। पीछे-पीछे राजा माथव और पुरोहित गौतम राहुगण चलते रहे। आग बढ़ते-बढ़ते सदानीरा नदी तक आई लेकिन नदी को पार न कर सकी, रुक गई। क्यों? पुरोहित गौतम राजा को बताते हैं कि पहले ब्राह्मण इस नदी को पार नहीं करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि अग्नि ने अभी इसे पवित्र नहीं किया है इसीलिए नदी के पूरब का इलाका दलदली और बंजर बना हुआ था लेकिन विदेह माधव के आने के बाद बहुत से ब्राह्मण यहां आए और यज्ञों के द्वारा उन्होंने इस भूमि को उपजाऊ बनाया। माथव ने अग्नि से पूछा, 'मेरा निवास स्थान कहां होगा?' अग्नि ने जवाब दिया, 'इस नदी के पूर्व में तुम्हारा वास होगा?' वैदिक ग्रंथों के अनुसार, यही नदी आगे चलकर कोसल और विदेह राज्यों के बीच की सीमा बनी।
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विदेह- यह वह इलाका है, जिसे आज हम मिथिला के नाम से जानते हैं। मिथिला दरअसल विदेह राज्य की राजधानी हुआ करती थी। यहीं के राजा जनक की कहानी हम रामायण में सुनते हैं। हालांकि, एक दिलचस्प बात बताते हैं आपको। जैन और बौद्ध सोर्सेस से कंपेयर करने पर हमें पता चलता है कि जनक कोई एक राजा नहीं थे। यह असल में नाम ना होकर शायद एक उपाधि थी। आइए जानते हैं प्राचीन भारत के विदेह राज्य और जनक राजवंश की कहानी।
राजा जनक की कहानी
विदेह और राजा जनक की कहानी जानने से पहले, थोड़ा पीछे चलते हैं। महाभारत काल के बाद की बात करते हैं। कुरु वंश के राजा हुए परीक्षित। अथर्ववेद में उनके राज्य का गुणगान मिलता है। कहा गया है कि उनके राज में प्रजा बहुत सुखी थी। परीक्षित के बाद उनके बेटे जनमेजय राजा बने। जनमेजय का नाम इतिहास में एक महान विजेता के तौर पर याद किया जाता है। जिन्होंने तक्षशिला पर जीत हासिल की थी। तक्षशिला आज के पाकिस्तान में रावलपिंडी के पास है। यह गांधार राज्य का हिस्सा और शिक्षा-व्यापार का बड़ा केंद्र हुआ करता था।
वैदिक ग्रंथ बताते हैं कि राजा जनमेजय पारिक्षित ने चारों दिशाओं में पृथ्वी जीती थी। उन्होंने अश्वमेध यज्ञ भी किया था।
जनमेजय से जुड़ा एक प्रसिद्ध किस्सा सर्प यज्ञ का भी है। कहते हैं, उनके पिता परीक्षित की नाग के काटने से हुई मृत्यु हो गई थी। बदला लेने के लिए जनमेजय ने एक सर्प यज्ञ किया। जिसका मकसद दुनिया के सभी सांपों को भस्म करना था। जनमेजय के बाद उनके वंशज कुछ पीढ़ियों तक हस्तिनापुर और खांडवप्रस्थ (जिसे बाद में इन्द्रप्रस्थ कहा गया) से राज करते रहे लेकिन फिर कुरु वंश के बुरे दिन शुरू हुए। छांदोग्य उपनिषद में ज़िक्र है कि कुरु देश में 'मातची' (संभवतः ओले या टिड्डियों) के कारण फसलें बर्बाद हो गईं। उषास्ति चक्रायण जैसे ब्राह्मणों को अपना घर छोड़कर विदेह के राजा जनक की शरण में जाना पड़ा। पुराणों में कहानी है कि गंगा नदी की बाढ़ में हस्तिनापुर बह गया और राजा निचक्षु को अपनी राजधानी कौशाम्बी ले जानी पड़ी। धीरे-धीरे कुरु वंश का प्रभाव कम होता गया और इसी दौरान पूरब में उदय हुआ एक नए शक्तिशाली राज्य का- जिसका नाम था विदेह।
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विदेह राज्य की स्थापना और मिथिला
विदेह राज्य की कहानी वैदिक काल के आख़िरी दौर में शुरू होती है। यह समय लगभग 1000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व के बीच का माना जाता है। Political History of Ancient India में इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी बताते हैं कि यजुर्वेद की संहिताओं में पहली बार विदेह राज्य का ज़िक्र आया है।
इस राज्य की स्थापना कैसे हुई? इसका सबसे पुराना और दिलचस्प ब्यौरा हमें शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। शतपथ ब्राह्मण यजुर्वेद से जुड़ा एक महत्वपूर्ण वैदिक ग्रंथ है। इसमें यज्ञों और कर्मकांडों के नियमों के साथ-साथ कई कथाएं और दार्शनिक विचार भी दर्ज़ हैं। इसी ग्रंथ में विदेह माधव और पुरोहित गौतम राहुगण की वह कहानी है, जिसका ज़िक्र हमने शुरू में किया था। कहानी के मुताबिक, अग्नि देवता सदानीरा नदी पर आकर रुक गए। उन्होंने माधव राजा को नदी के पूर्व में बसने का आदेश दिया।
यह घटना क्यों महत्वपूर्ण थी? क्योंकि यह सिर्फ एक राज्य की स्थापना नहीं थी। यह आर्य संस्कृति और वैदिक रीति-रिवाजों के पूरब की ओर फैलाव का बड़ा कदम था। सदानीरा नदी, जिसे आज हम गंडक नदी कहते हैं, एक तरह की सीमा थी। यह नदी नेपाल के हिमालय से निकलती है फिर दक्षिण की ओर बहती है। कुछ दूर तक यह उत्तर प्रदेश और बिहार के बीच सीमा बनाती है और आखिर में पटना के पास हाजीपुर में गंगा नदी में मिल जाती है। इस नदी के पूरब का इलाका दलदली माना जाता था। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, विदेह माधव और उनके साथ आए ब्राह्मणों ने यज्ञ करके इस भूमि को खेती लायक बनाया। उन्होंने यहां वैदिक संस्कृति की नींव डाली। इस तरह विदेह राज्य आर्य सभ्यता के पूरब की ओर बढ़ने का एक अहम पड़ाव बना।
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हालांकि, विदेह की शुरुआत को लेकर सिर्फ यही एक कहानी नहीं है। दूसरी प्राचीन परंपराएं अलग किस्से बताती हैं। उदाहरण के लिए, पुराण और रामायण कहते हैं कि इस राज्य की नींव इक्ष्वाकु वंश के राजा निमि ने रखी थी। कहानी है कि उन्हें एक ऋषि ने श्राप दिया था जिससे वह 'विदेह' यानी देह-रहित हो गए। इसीलिए उनके वंशज और राज्य का नाम विदेह पड़ा। कहा जाता है कि निमि के पुत्र मिथि ने ही राजधानी मिथिला बसाई और वह पहले राजा थे जिन्हें 'जनक' कहा गया। वहीं, बौद्ध जातक कथाएं मखादेव नाम के राजा को इस वंश का पूर्वज बताती हैं।
भौगोलिक रूप से देखें तो विदेह राज्य आज के उत्तरी बिहार के तिरहुत क्षेत्र में फैला था। इसकी सीमाएं पश्चिम में गंडक नदी से लेकर पूर्व में शायद महानंदा नदी तक थीं। उत्तर में हिमालय की तलहटी और दक्षिण में गंगा नदी इसकी सीमाएं थीं। जातक कथाओं के मुताबिक, विदेह राज्य 300 लीग (यानी करीब 1440 किलोमीटर या 900 मील) में फैला था। कहा जाता है कि इसमें 16,000 गांव थे। हो सकता है ये आंकड़े थोड़े बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हों, जैसा कि अक्सर पुरानी कहानियों में होता है।
विदेह की राजधानी थी मिथिला। वैदिक ग्रंथों में मिथिला का नाम सीधे तौर पर नहीं आता लेकिन रामायण, महाभारत और जातक कथाओं में इसका खूब ज़िक्र है। रामायण इसे राजा जनक की नगरी कहता है। आज के ज़माने में इसे नेपाल की सीमा के पास बसे जनकपुर शहर से जोड़ा जाता है। जातक कथाओं में मिथिला को एक भव्य और अमीर शहर बताया गया है। महाजनक जातक में इसका सुंदर वर्णन मिलता है। ऊंची दीवारों, फाटकों और बुर्जों वाला एक सलीके से बसा शहर। चौड़ी सड़कें, जिन पर घोड़े, गाय और रथ चलते थे। सुंदर तालाब और बगीचे इसकी शोभा बढ़ाते थे। कहते हैं यहां के योद्धा बाघ की खाल के कपड़े पहनते थे। ब्राह्मण काशी के बने रेशमी वस्त्र पहनते थे और रानियां रत्नों से जड़े मुकुट लगाती थीं। मिथिला सिर्फ एक राजधानी नहीं थी। यह ज्ञान, दर्शन, कला और व्यापार का एक बड़ा केंद्र थी। इसने प्राचीन भारत की संस्कृति को बहुत कुछ दिया।
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इसी मिथिला में राज करते थे राजा जनक। उनकी शोहरत दूर-दूर तक फैली थी। खासकर उनके ज्ञान और दार्शनिक चर्चाओं के लिए। हेमचन्द्र रायचौधरी के अनुसार जनक असल में कोई एक राजा नहीं थे। संभवतः जनक एक उपाधि का वंश का नाम था। जिनमें से एक राजा जनक को हम रामायण के जनक के रूप में जानते हैं।
राजा जनक का युग
विदेह का उभार उस समय हुआ जब पश्चिम में कुरु वंश का सितारा डूब रहा था। इसके बरअक्स विदेह लगातार ख्याति हासिल कर रहा था । जिसकी वजह थी - यहां के राजा जनक। जिन्हें सिर्फ़ एक शासक ही नहीं, दार्शनिक और ज्ञानी के रूप में भी जाना जाता है। वैदिक ग्रंथों में जहां कुरु वंश के राजाओं को सिर्फ 'राजन' यानी राजा कहा गया है। वहीं जनक को 'सम्राट' की उपाधि दी गई है। हेमचन्द्र रायचौधरी बताते हैं कि शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, 'सम्राट' का पद 'राजन' से ऊंचा माना जाता था। यह दिखाता है कि जनक का रुतबा उस समय के बाकी राजाओं से कहीं ज़्यादा था।
राजा जनक कब हुए? यह सवाल इतिहासकारों के लिए लंबे समय तक पहेली बना रहा। यह तो तय है कि वह महाभारत काल के कुरु राजाओं, यानी परीक्षित और जनमेजय के बाद हुए। कैसे पता? क्योंकि बृहदारण्यक उपनिषद, जो एक प्रमुख वैदिक ग्रंथ है, उसमें ज़िक्र है कि जनक की सभा में इस बात पर चर्चा होती थी कि 'परीक्षित के पुत्र कहां गए?' इससे साफ है कि जनक के समय तक परीक्षित और उनके पुत्र इतिहास बन चुके थे। यह बात महाभारत और रामायण की टाइमलाइन से थोड़ा अलग है क्योंकि माना जाता है कि रामायण पहले हुई और फिर महाभारत लेकिन हेमचन्द्र रायचौधरी के अनुसार राजा जनक कुरु वंश के पतन के बाद आए थे।
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एक और बात - महाभारत और पुराणों में अक्सर जनमेजय और जनक को एक ही समय का बताया जाता है। जैसे महाभारत में कहानी है कि जनक के दरबार के प्रसिद्ध ऋषि उद्दालक आरुणि, जनमेजय के सर्प यज्ञ में शामिल हुए थे। विष्णु पुराण कहता है कि जनमेजय के बेटे शतानिक ने ऋषि याज्ञवल्क्य से वेदों की शिक्षा ली, जो जनक के दरबार के मुख्य ऋषि थे लेकिन हेमचन्द्र रायचौधरी वैदिक ग्रंथों के आधार पर इस बात को सही नहीं मानते। वह बताते हैं कि वैदिक ग्रंथों में गुरु-शिष्य परंपरा की जो लिस्ट मिलती है, उससे पता चलता है कि जनमेजय और जनक के बीच कम से कम 5 से 6 पीढ़ियों का अंतर था। अगर एक पीढ़ी या गुरु-शिष्य परंपरा के एक चरण को औसतन 30 साल मानें, तो जनमेजय और जनक के बीच करीब 150 से 180 साल का फासला रहा होगा। यानी जनक, राजा परीक्षित के लगभग 200 साल बाद हुए।
इस हिसाब से अगर परीक्षित का समय, जैसा कि कुछ पुराणों की परंपरा मानती है, 14वीं सदी ईसा पूर्व में था तो जनक 12वीं सदी ईसा पूर्व में हुए होंगे। अब सवाल उठता है कि वेदों और उपनिषदों में जिस महान सम्राट जनक का ज़िक्र है, वह असल में कौन थे? यह पता लगाना थोड़ा मुश्किल है। मुश्किल इसलिए क्योंकि 'जनक' शायद सिर्फ़ एक राजा का नाम नहीं था, बल्कि यह पूरे विदेह राजवंश की उपाधि या कुलनाम बन गया था। जैसे पुराणों में इस वंश को 'जनक वंश' कहा गया है। इसका मतलब है कि विदेह में कई राजा हुए होंगे जिनका नाम या उपाधि जनक रही होगी।
तो फिर रामायण के जनक यानी देवी सीता के पिता कौन थे? रामायण और पुराणों में सीता के पिता का नाम राजा सीरध्वज जनक बताया गया है। क्या यही सीरध्वज जनक वेदों वाले प्रसिद्ध सम्राट जनक थे? कुछ बातें इस तरफ इशारा करती हैं। जैसे, रामायण के अनुसार सीरध्वज जनक और केकय देश के राजा अश्वपति समकालीन थे। यही अश्वपति राम के भाई भरत के नाना थे। वहीं, वैदिक ग्रंथों से पता चलता है कि सम्राट जनक के दरबार में आने वाले ऋषि उद्दालक आरुणि केकय के राजा अश्वपति के दरबार में भी जाते थे। यानी वेदों वाले जनक और केकय के अश्वपति भी एक ही समय के थे।
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इन सोर्सेस के आधार पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि शायद सीरध्वज जनक और वेदों वाले जनक एक ही व्यक्ति थे। प्रसिद्ध संस्कृत कवि भवभूति ने भी अपने नाटक 'महावीरचरित' में सीता के पिता सीरध्वज को ही वह जनक बताया है जिन्हें ऋषि याज्ञवल्क्य ने ब्रह्मज्ञान दिया था लेकिन इसमें एक पेच है। हो सकता है 'अश्वपति' भी 'जनक' की तरह एक उपाधि हो, जो केकय देश के राजा इस्तेमाल करते थे। अगर ऐसा है तो फिर यह कहना मुश्किल है कि दोनों जनक एक ही थे। इसी तरह, बौद्ध जातक कथाओं में भी कई जनक राजाओं का ज़िक्र है, जैसे महाजनक प्रथम और महाजनक द्वितीय। क्या यह वही वैदिक जनक हैं?
महाजनक द्वितीय का एक प्रसिद्ध कथन है, 'मिथिला जल जाए पर मेरा कुछ नहीं जलता।' यह बात जनक की दार्शनिक छवि से मेल खाती है। इससे लगता है कि जातक कथाओं वाले महाजनक और वैदिक जनक एक ही थे। हालांकि, इसमें भी मतभेद है। महाभारत में के अनुसार मिथिला जल जाए वाला कथन 'जनक जनदेव' का था, वहीं जैन ग्रंथों के अनुसार यह बात राजा नमि ने कही थी। अगर महाजनक और नमि एक ही हैं तो वह वेदों वाले जनक नहीं हो सकते क्योंकि वैदिक ग्रंथों में नमि और जनक अलग-अलग राजा बताए गए हैं। इसलिए पक्के तौर पर ये पहचान करना बहुत मुश्किल है कि उपनिषदों के प्रसिद्ध सम्राट जनक कौन थे।
पहचान चाहे जो भी हो, जिस राजा जनक का ज़िक्र उपनिषदों में मिलता है, उनकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण उनका राजपाट या यज्ञ नहीं, बल्कि ज्ञान और दर्शन था। मिथिला में उनका दरबार उस युग का सबसे बड़ा बौद्धिक केंद्र बन गया था। दूर-दूर से, कुरु-पांचाल देश से, कोसल से, शायद मद्र देश से भी, बड़े-बड़े विद्वान और ऋषि उनकी सभा में आते थे। ख़ुद राजा जनक को एक 'राजर्षि' माना जाता है - राजा भी और ऋषि भी। ऋषि अष्टावक्र के साथ उनके संवाद 'अष्टावक्र गीता' में दर्ज़ हैं, जो आज भी दर्शन के विद्यार्थियों के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
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इतिहासकार ओल्डेनबर्ग ने जनक के दरबार की तुलना करते हुए लिखा है कि जैसे एथेंस के बुद्धिजीवी मेसेडोनिया के राजाओं के दरबार में इकट्ठा होते थे। वैसे ही पश्चिम (कुरु-पांचाल) के विद्वान पूरब के राजा जनक के दरबार में खिंचे चले आते थे। जनक के समय में विदेह केवल एक राज्य नहीं, बल्कि ज्ञान, दर्शन और संस्कृति केंद्र था। उस समय उत्तर भारत में विदेह के अलावा गांधार, केकय, मद्र, कुरु, पांचाल, कोसल, काशी, मत्स्य और उशीनर जैसे और भी महत्वपूर्ण राज्य थे लेकिन ज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में मिथिला का स्थान सबसे ऊंचा था लेकिन इस महान राजा और उनके वंश का आगे क्या हुआ? और सीता की कहानी मिथिला से कैसे जुड़ती है?
सीता, जनक और विदेह का अंत
जैसा पहले बताया यह कहना मुश्किल है कि उपनिषदों वाले सम्राट जनक और रामायण वाले राजा जनक (जिनका नाम सीरध्वज बताया गया है) एक ही व्यक्ति थे लेकिन रामायण की कथा के अनुसार, मिथिला के राजा जनक की पुत्री थीं सीता। सीता मिथिला की राजकुमारी थीं और उनका विवाह अयोध्या के राजकुमार राम से हुआ। रामायण के अनुसार, राजा जनक और उनकी पत्नी सुनयना को संतान नहीं थी। एक बार जब राजा जनक यज्ञ के लिए भूमि जोत रहे थे तो हल का फल (जिसे सीत कहते हैं) एक जगह अटक गया। जब उस जगह को खोदा गया, तो वहां एक कलश में एक सुंदर कन्या मिली। हल के फल यानी 'सीत' से मिलने के कारण ही उस कन्या का नाम सीता पड़ा। इनकी शादी बाद में अयोध्या के राजकुमार राम से हुई।
जनक वंश का अंत कैसे हुआ?
पुराणों में जो जनक वंश की सूची मिलती है, उसका अंत राजा कृति के साथ हो जाता है। हालांकि, कई विद्वान जनक वंश के आखिरी राजा के तौर पर कराल जनक का नाम लेते हैं। खासकर चाणक्य के अर्थशास्त्र और अश्वघोष के बुद्धचरित में उनका ज़िक्र मिलता है। धर्मेंद्र कुमार अपने लेख 'मिथिला आफ्टर द जनकास' में बताते हैं कि जनक वंश ने मिथिला पर करीब पांच सदियों तक राज किया और कराल जनक इस वंश के संभवतः आखिरी शासक थे। कराल जनक के अंत की कहानी बड़ी नाटकीय है। कहा जाता है कि राजा कराल जनक योगेश्वर की तीर्थयात्रा पर थे। वहां मेले की भीड़ में उनकी नज़र एक ब्राह्मण की सुंदर और जवान पत्नी पर पड़ी। राजा वासना में अंधे हो गए और उस महिला को जबरन उठाकर अपने महल ले आए।
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यह देखकर वह ब्राह्मण गुस्से और दुख से भर गया। वह रोते हुए शहर में गया और श्राप दिया, 'यह शहर क्यों नहीं टूट पड़ता, जहां ऐसा पापी राजा रहता है?' कहते हैं कि ब्राह्मण के श्राप के कारण वहीं पर धरती फट गई और राजा कराल जनक अपने पूरे परिवार समेत उसी में समा गए। कौटिल्य के अर्थशास्त्र और बुद्धचरित में इस कहानी का ज़िक्र मिलता है।
इस घटना के बाद मिथिला का क्या हुआ? कुछ विद्वानों का मानना है कि कराल जनक की मौत के बाद मिथिला एक गणराज्य बन गया और वृज्जि संघ का हिस्सा बन गया, जिसे बाद में मगध के राजा अजातशत्रु ने नष्ट कर दिया। हालांकि, कुछ दूसरे विद्वान मानते हैं कि जनक वंश के खत्म होने के बाद भी मिथिला में राजशाही बनी रही। जनक वंश के बाद मिथिला उस कदर शक्तिशाली नहीं रहा, जैसा पहले हुआ करता था लेकिन इसका सांस्कृतिक महत्व बना रहा। यह इलाका अपनी विशेष कला (जैसे मधुबनी पेंटिंग), भाषा (मैथिली) और विद्वानों की परंपरा के लिए आज भी जाना जाता है।
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