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मुरहो एस्टेट: वह रियासत जहां यादवों का हुक्म चलता था

बिहार की तमाम रियासतों में से एक मुरहो रिसायत को मंडल परिवार की वजह से भी जाना जाता है। वही बी पी मंडल जिन्हें आरक्षण की वजह से जाना जाता है।

murho estate story

मुरहो एस्टेट की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

साल 1990 में एक रिपोर्ट बाहर आई और पूरे देश में जैसे भूचाल आ गया। सड़कों पर हंगामा, चौक-चौराहों पर आगज़नी। भारत की सियासत और समाज, दो फाड़ हो चुका था। वजह थी एक नाम - मंडल। मंडल कमीशन की रिपोर्ट। इस एक रिपोर्ट ने भारत की सत्ता और समाज के सारे समीकरण बदल दिए थे। इस रिपोर्ट को लिखने वाले शख़्स का नाम था बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल, यानी बी. पी. मंडल। मंडल की कहानी सिर्फ़ एक रिपोर्ट लिखने तक सीमित नहीं थी। उनकी रगों में जो खून दौड़ रहा था, उसमें बगावत की एक पुरानी विरासत थी।

 

यह एक ही परिवार की दो पीढ़ियों की कहानी थी, जिन्होंने अपने-अपने दौर की सबसे बड़ी ताक़तों को चुनौती दी। पहली पीढ़ी के मुखिया थे रास बिहारी लाल मंडल। मुरहो रियासत का वह ज़मींदार, जिसने 20वीं सदी की शुरुआत में अंग्रेज़ी हुकूमत से सीधी टक्कर ली। जिन्हें झुकाने के लिए अंग्रेज़ों ने एक-दो नहीं, बल्कि 120 से ज़्यादा मुक़दमे दायर कर दिए थे और फिर अगली पीढ़ी में आए उनके बेटे बी. पी. मंडल, जिन्होंने आज़ादी के बाद, देश के अपने ही सामाजिक ताने-बाने को चुनौती दे डाली। ये दोनों लोग जिस रियासत से ताल्लुक रखते थे- उसका नाम था- मुरहो एस्टेट। 

 

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बुनियाद

 

इस कहानी को पूरी तरह समझने के लिए, हमें वक़्त में थोड़ा पीछे चलना होगा। उस दौर में जब मुग़ल सल्तनत की पकड़ ढीली पड़ रही थी और ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी जड़ें जमा रही थी। बात 1793 की है, बिहार में कोसी नदी का इलाक़ा। गवर्नर-जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस ने 'परमानेंट सेटलमेंट' यानी स्थायी बंदोबस्त लागू किया। यह ज़मीन से लगान वसूलने का एक नया सिस्टम था। इसमें अंग्रेज़ों ने ज़मींदारों को ज़मीन का मालिक बना दिया और उनसे वसूले जाने वाले लगान की रक़म हमेशा के लिए फ़िक्स कर दी। ज़मींदार किसानों से चाहे जितना वसूले, उसे अंग्रेज़ों को एक तय रक़म ही देनी होती थी लेकिन इसमें एक सख़्त शर्त थी, जिसके तहत समय पर लगान न चुका पाने पर ज़मींदारी नीलाम हो जाती थी।


 
इसी दौर में मुरहो एस्टेट को एक औपचारिक ज़मींदारी का दर्जा मिला, जिसका रकबा लगभग 8000 बीघा था। इस जमींदारी की बुनियाद बाबू पंचानन मंडल ने रखी थी। दिलचस्प बात यह कि उस दौर में जब उत्तर भारत की ज़्यादातर बड़ी ज़मींदारियां राजपूत, ब्राह्मण या भूमिहार जैसी ऊंची जातियों के पास थीं, मुरहो एस्टेट की नींव रखने वाला मंडल परिवार यादव यानी अहीर जाति से था। यह उस समय के सामाजिक ढांचे के हिसाब से एक बहुत बड़ी बात थी। इस परिवार की एक और बात इसे सबसे अलग करती थी - औरतों का सम्मान। मुरहो परिवार में बेटियों को संपत्ति में हक़ देने की एक मज़बूत परंपरा थी।

 

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इसकी सबसे बड़ी मिसाल तब देखने को मिली जब ज़मींदार बाबू रघुवर दयाल मंडल का कम उम्र में निधन हो गया। उनका बेटा रास बिहारी उस वक़्त नाबालिग था। हिस्सा लेने के लिए कई दावेदार खड़े हो गए। ऐसे मुश्किल वक़्त में रियासत को बचाने के लिए आगे आईं रास बिहारी की दादी। वह कलकत्ता गईं, अंग्रेज़ अफ़सरों से गुहार लगाई। अगले दो साल तक, उन्होंने ख़ुद ज़मींदारी संभाली। वह कोसी के बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में हाथी पर बैठकर दौरा करती थीं और रियासत का काम देखती थीं।
 
इसी परवरिश का नतीजा थे रास बिहारी लाल मंडल, जिनका जन्म 1866 में हुआ। वह सिर्फ़ 11वीं तक पढ़े थे लेकिन ज्ञान ऐसा कि सात भाषाएं जानते थे - हिंदी, उर्दू, मैथिली, संस्कृत, फ़ारसी, अंग्रेज़ी और फ़्रेंच। रोज़ उनके बिस्तर के पास तीन-चार अख़बार रखे होते थे। उन्होंने अपनी रियासत में दहेज़ और जातिगत भेदभाव जैसी सामाजिक कुरीतियों का खुलकर विरोध किया लेकिन रास बिहारी का असल क़द तब सामने आया जब उनका सामना अंग्रेज़ी हुकूमत से हुआ। क़िस्सा मशहूर है कि भागलपुर के अंग्रेज़ कलेक्टर मिस्टर एफ़. एफ़. लॉयल (F. F. Lyall) ने जब ज़बरदस्ती ज़मीन हथियाने की कोशिश की तो रास बिहारी उसके ख़िलाफ़ कलकत्ता हाई कोर्ट पहुंच गए। लॉयल ने उन्हें तोड़ने के लिए उन पर 120 से ज़्यादा मुक़दमे दायर कर दिए लेकिन रास बिहारी ने हार नहीं मानी। कहते हैं कि देश में अग्रिम ज़मानत यानी एंटिसिपेटरी बेल का पहला आदेश कलकत्ता हाई कोर्ट ने रास बिहारी के ही एक मामले में दिया था, जिस पर उस समय के मशहूर अख़बार 'अमृत बाज़ार पत्रिका' ने संपादकीय भी लिखा था।

 

उनकी दिलेरी के क़िस्से दरभंगा के महाराज तक पहुंचे। उन्होंने रास बिहारी को 'मिथिला का शेर' की उपाधि दी और अपने राजदरबार में अपने बराबर बैठने का सम्मान दिया। दिलचस्प बात यह है कि बाबू रास बिहारी के राष्ट्रवादी और बाग़ी तेवरों के बावजूद, अंग्रेज़ उनकी अहमियत समझते थे इसीलिए 1911 में किंग जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक के लिए हुए दिल्ली दरबार में उन्हें ख़ासतौर पर आमंत्रित किया गया।

 

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रास बिहारी की सक्रियता सिर्फ़ राजनीति तक सीमित नहीं थी। जब 1905 में अंग्रेज़ों ने बंगाल का विभाजन किया तो उन्होंने 'भारत माता का संदेश' नाम की एक राष्ट्रवादी किताब लिखी, जिसने उस इलाक़े में आज़ादी के आंदोलन की आग को और भड़का दिया। वह बिहार में इंडियन नेशनल कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। उन्होंने अपने समाज को संगठित करने के लिए भी काम किया। मुरहो एस्टेट के वर्तमान वारिस और रासबिहारी लाल मण्डल के प्रपौत्र डॉ. सूरज मण्डल बताते हैं कि बाबू रास बिहारी ने यादव समाज को जनेऊ पहनने के लिए प्रोत्साहित किया। यह उस दौर में एक बहुत बड़ा क्रांतिकारी क़दम था क्योंकि जनेऊ पहनने का हक़ सिर्फ़ ऊंची जातियों को ही था। इसका भारी विरोध हुआ। दरभंगा में तो जनेऊ पहनने वाले यादवों को दागा तक गया लेकिन रास बिहारी पीछे नहीं हटे। दिसंबर 1911 में उन्होंने मुरहो में गोप जातीय महासभा का एक विशाल आयोजन किया। यह पूर्वी भारत में यादवों का पहला बड़ा सम्मेलन माना जाता है।
 

एक अंत और एक नई जमीन

 

26 अगस्त, 1918। बनारस में रास बिहारी लाल मंडल ने अपनी आख़िरी सांसें लीं। उनके तीन बेटे थे। पिता की मृत्यु के बाद ज़मींदारी की देख-रेख की ज़िम्मेदारी उनके सबसे बड़े बेटे, बाबू  भुवनेश्वरी प्रसाद मंडल के कंधों पर आ गई। उन्होंने राजनीति में क़दम रखा और 1924 में बिहार-उड़ीसा विधान परिषद् के सदस्य चुने गए। पिता की तरह उन्होंने भी शिक्षा को बहुत महत्व दिया। मधेपुरा में रास बिहारी हाई स्कूल उन्हीं की दान की हुई ज़मीन पर बना है।  परंपरा को निभाते हुए उन्होंने भी अपनी बेटी शारदा देवी को 30 बीघा ज़मीन दी।

 

वहीं, रास बिहारी के दूसरे बेटे, बाबू कमलेश्वरी प्रसाद मंडल, सीधे-सीधे आज़ादी के आंदोलन में कूद पड़े। 1937 में वह बिहार विधान परिषद् के सदस्य बने और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें जयप्रकाश नारायण जैसे बड़े नेताओं के साथ गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया।

 

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Murho की कहानी में सबसे अहम अध्याय लिखने का श्रेय जाता है रास बिहारी के तीसरे बेटे को। इनका नाम था बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल, जिन्हें दुनिया आज बी. पी. मंडल के नाम से जानती है। मंडल ने सियासत की ज़मीन पर अपना पहला बड़ा क़दम 1952 के बिहार विधानसभा चुनाव में रखा। कांग्रेस के टिकट पर उन्होंने मधेपुरा सीट से सोशलिस्ट पार्टी के कद्दावर नेता भूपेंद्र नारायण मंडल के ख़िलाफ़ चुनाव जीता लेकिन बी. पी. मंडल के सियासी चरित्र का सबसे बड़ा इम्तिहान कुछ साल बाद हुआ। बिहार के पामा गांव में स्थानीय ज़मींदारों ने कुर्मी जाति के लोगों पर हमला कर दिया। उस वक़्त बी. पी. मंडल सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के विधायक थे। उन्होंने अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का फ़ैसला किया। जब विधानसभा का सत्र चल रहा था तो उन्होंने पीड़ितों के लिए मुआवज़े और दोषी पुलिस अफ़सरों पर कार्रवाई की मांग की। जब उनकी बात नहीं सुनी गई तो उन्होंने एक ऐसा क़दम उठाया जिसने बिहार की सियासत में हलचल मचा दी। वह अपनी सीट से उठे, सत्ता पक्ष की बेंचों को पार किया और सीधा विपक्ष की बेंचों पर जाकर बैठ गए। इस एक घटना ने बी. पी. मंडल को पिछड़ों और शोषितों से जुड़े मुद्दों का एक निर्विवाद नेता बना दिया। बिहार की विधानसभा में उस दिन जो चिंगारी भड़की थी, वह जल्द ही दिल्ली के तख़्त तक पहुंचने वाली थी।

'मंडल' जिसने देश बदल दिया

 

पामा गांव की घटना ने बी. पी. मंडल को उसूलों की राजनीति करने वाले एक ऐसे नेता के तौर पर स्थापित कर दिया था, जो पिछड़ों और शोषितों के लिए अपनी ही सरकार से टकरा सकता था। इस घटना के बाद, उन्होंने कांग्रेस का हाथ छोड़ दिया और राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए लेकिन उनका सफ़र यहीं नहीं रुका। कुछ वैचारिक मतभेदों के बाद, उन्होंने अपनी एक अलग पार्टी बनाई, जिसका नाम था 'शोषित दल'। फिर आया साल 1968। बिहार की सियासत में एक ऐसा तख़्तापलट हुआ जो चला तो सिर्फ़ 47 दिन लेकिन अपनी छाप हमेशा के लिए छोड़ गया। बी. पी. मंडल बिहार के सातवें मुख्यमंत्री बने। यह महज़ एक राजनीतिक फेरबदल नहीं था, यह एक ऐतिहासिक पल था। वह उत्तर भारत के पहले ऐसे मुख्यमंत्री थे जो पिछड़े समाज से आते थे। उनके मंत्रिमंडल में भी पहली बार ऊंची जातियों के मुक़ाबले पिछड़े वर्ग के मंत्रियों का दबदबा था। यह बिहार जैसे राज्य के लिए एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति थी, जहां सदियों से सत्ता पर कुछ गिनी-चुनी जातियों का ही क़ब्ज़ा रहा था। हालांकि, उनकी सरकार ज़्यादा दिन नहीं चली। जब केंद्र की कांग्रेस सरकार ने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ बने 'अय्यर कमीशन' को हटाने का दबाव डाला, तो उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया।

 

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मंडल का CM कार्यकाल छोटा रहा लेकिन उनकी सबसे बड़ी भूमिका अभी बाकी थी। एक दशक बाद 1978 में जब देश में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी तो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का पता लगाने के लिए एक आयोग का गठन किया गया। इसी को ही हम आज मंडल कमीशन के नाम से जानते हैं और इसका अध्यक्ष बनाया गया मुरहो के बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को।

इस कमीशन ने पूरे भारत का दौरा किया, हज़ारों लोगों से बात की और यह समझने की कोशिश की कि मौक़े की बराबरी का असल मतलब क्या होता है। अंत में एक रिपोर्ट तैयार की गई, जिसकी शुरुआत में लिखा था- 'बराबरी सिर्फ़ बराबर वालों में होती है। ग़ैर-बराबर लोगों को बराबर मानना, असमानता को और बढ़ावा देना है।' इसी सोच के आधार पर, कमीशन ने देश भर में 3,743 जातियों की पहचान अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के तौर पर की। 31 दिसंबर 1980 को कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। इसकी सबसे प्रमुख सिफ़ारिश थी कि अन्य पिछड़ा वर्ग, जिनकी आबादी देश में 52% आँकी गई थी, उन्हें केंद्रीय सरकारी नौकरियों और संस्थानों में 27% आरक्षण दिया जाए।

 

10 साल तक यह रिपोर्ट सरकारी अलमारियों में धूल फांकती रही। फिर आया 7 अगस्त, 1990 का दिन। तत्कालीन प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को लागू करने का ऐलान कर दिया। इस ऐलान के साथ ही देश में एक तूफ़ान खड़ा हो गया। आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में हज़ारों छात्र सड़कों पर उतर आए। इस एक फ़ैसले ने भारत की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया। देश 'मंडल' (सामाजिक न्याय की राजनीति) और 'कमंडल' (धार्मिक पहचान की राजनीति) के दो ध्रुवों में बंट गया। बी. पी. मंडल का 1982 में ही निधन हो चुका था। वह अपनी रिपोर्ट का असर देखने के लिए ज़िंदा नहीं थे लेकिन मुरहो के उस ज़मींदार के बेटे ने एक ऐसी वैचारिक चिंगारी छोड़ दी थी, जिसने भारत के सत्ता के ढांचे को हमेशा के लिए हिलाकर रख दिया।

विरासत के मायने

 

आज अगर आप बिहार के मधेपुरा ज़िले के मुरहो गांव जाएंगे तो आपको कोई आलीशान हवेली या ज़मींदारी का तामझाम नहीं मिलेगा। वक़्त की धूल ने बहुत कुछ बदल दिया है। वह हवेली, जहां कभी रियासत के फ़ैसले होते थे, अब एक खंडहर में तब्दील हो चुकी है। 1950 के दशक में जब आज़ाद भारत की सरकार ने ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून लागू किया। मुरहो एस्टेट की हज़ारों एकड़ ज़मीन, जो उनकी ताक़त और रसूख का ज़रिया थी, अब सरकार के हाथ में थी। क़ानूनी तौर पर ज़मींदारी ख़त्म हो गई। लगान आना बंद हो गया, हवेली की रौनक़ फीकी पड़ गई। हालांकि, मुरहो की असली विरासत ज़मीन या इमारतों में नहीं, बल्कि उस सोच में थी जो उसने पैदा की।

 

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आज भी मधेपुरा के इलाक़े को 'मंडल की धरती' के रूप में जाना जाता है। यह वही ज़मीन है जिसने बाद में लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जैसे नेताओं की सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए एक मज़बूत आधार तैयार किया। मुरहो की कहानी आज भी उस इलाक़े के लोक-गीतों और कहावतों में ज़िंदा है। वहां के बड़े-बुज़ुर्ग आज भी रास बिहारी लाल मंडल के क़िस्से सुनाते हैं कि कैसे उन्होंने अंग्रेज़ों को अदालत में हराया था। वहां एक कहावत मशहूर है- 'जब मुरहो गिरा, तब सब के भाग जागे,' जो मज़ाक़ में ही सही लेकिन बताती है कि ज़मींदारी के ख़त्म होने से आम किसानों को ज़मीन का हक़ मिला।
 
आज मुरहो गांव भी उन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है, जिनसे बिहार के हज़ारों गांव जूझते हैं- कोसी नदी की बाढ़, गरीबी और रोज़गार के लिए युवाओं का पलायन लेकिन गांव के लोगों में अपने इतिहास को लेकर एक गर्व का भाव है। वे गर्व से बताते हैं कि यह वही गांव है जिसने एक ऐसा मुख्यमंत्री दिया, जिसकी एक रिपोर्ट ने पूरे देश की राजनीति बदल दी।

 

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