तेलंगाना हाई कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाया है, जिसमें कहा गया है कि मुस्लिम महिलाओं को खुला के जरिए शादी खत्म करने का पूरा हक है। इसके लिए पति की सहमति जरूरी नहीं है। यह फैसला मुस्लिम महिलाओं के हक और उनकी आजादी को मजबूती देता है। खुला इस्लामी कानून के तहत तलाक का वह तरीका है जिसमें महिला खुद शादी तोड़ने की पहल करती है। आमतौर पर वह मेहर या भरण-पोषण के अपने दावे को छोड़ देती है।

 

24 जून को जज मौसमी भट्टाचार्य और बीआर मधुसूदन राव की बेंच ने साफ कहा कि खुला एक ऐसा तरीका है जिसमें पत्नी बिना किसी गलती या झगड़े के, अपनी मर्जी से तलाक मांग सकती है और जैसे ही वह खुला मांगती है, यह तलाक निजी तौर पर मान्य हो जाता है। कोर्ट ने कहा, 'खुला मांगने का हक पूरी तरह से पत्नी के पास है। इसके लिए न पति की इजाजत चाहिए, न ही कोई वजह बताने की जरूरत है। कोर्ट का काम सिर्फ इतना है कि वह इस तलाक को कानूनी रूप दे दे।'

 

पूरा मामला क्या है?

यह मामला एक मुस्लिम शख्स द्वारा दायर की गई अपील से जुड़ा था, जिसमें उसने फैमिली कोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी जिसने 2020 में एक गैर-सरकारी संस्था सदा-ए-हक शरई परिषद द्वारा जारी खुला प्रमाणपत्र को मान्यता दी थी। इस संस्था में मुफ्ती, इमाम और इस्लामी जानकार होते हैं, जो शादी-ब्याह से जुड़े झगड़ों को इस्लामी कानून के हिसाब से सुलझाते हैं।

 

पति ने पत्नी के इस खुला को यह कहते हुए चुनौती दी थी कि उसने इस तलाक से सहमति नहीं दी थी लेकिन हाई कोर्ट ने साफ कहा कि पत्नी को तलाक देने के लिए पति की इजाजत लेना जरूरी नहीं है। इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी साफ किया कि तलाक के लिए मुफ्ती से कोई सर्टिफिकेट लेना जरूरी नहीं है। कोर्ट ने कहा, 'मुफ्ती की राय सिर्फ सलाह है, कोई कानूनी आदेश नहीं।' यानी साफ शब्दों में कहें तो मुस्लिम महिलाओं को अब अपने फैसलों पर खुद की मुहर लगाने का हक है और खुला उनका कानूनी अधिकार है।

 

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कोर्ट ने क्या कहा?

कोर्ट का कहना है कि जब कोई मुस्लिम महिला अपने पति से 'खुला' मांगती है, तो वह तभी से प्रभावी माना जाएगा जब वह शादी खत्म करने की अपनी मंशा साफ तौर पर जाहिर कर देती है। जब तक कि मामला कोर्ट तक न पहुंचे। ऐसे मामलों में फैमिली कोर्ट की भूमिका बस यह देखने की होती है कि दोनों के बीच सुलह की कोशिश हुई या नहीं और क्या महिला ने मेहर वापस करने की बात कही है या नहीं। कोर्ट को लंबी-चौड़ी जांच करने की जरूरत नहीं होती।

 

पत्नी को भी 'खुला' का अधिकार

कोर्ट ने साफ कहा कि 'खुला' का अधिकार एक पत्नी को भी है, जैसे 'तलाक' का हक एक पति को होता है। दोनों तरीके बिना शर्त शादी तोड़ने के लिए होते हैं। कुरान और कई पुराने फैसलों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि अगर पत्नी खुला मांग रही है, तो पति उसे शादी में बने रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। हां, पति मेहर लौटाने की बात पर मोलभाव कर सकता है लेकिन पत्नी की रजामंदी के बिना शादी जबरदस्ती नहीं चल सकती।

 

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पति की सहमति जरूरी नहीं

कोर्ट ने यह भी साफ किया कि न तो कुरान और न ही हदीस में ऐसा कोई नियम है कि अगर पति खुला देने से इनकार करे, तो पत्नी को शादी में बने रहना पड़े। यानी पति की सहमति जरूरी नहीं है और उस पर जोर देना धर्म और कानून दोनों के खिलाफ है। इस मामले में महिला ने कई बार पंचायत से संपर्क किया, सुलह की कोशिशें कीं लेकिन जब बात नहीं बनी, तो पंचायत ने उसे खुला का सर्टिफिकेट दे दिया।

 

फिर पति कोर्ट गया और कहा कि यह सर्टिफिकेट अमान्य है लेकिन फैमिली कोर्ट ने पति की याचिका खारिज कर दी। जब उसने ऊपरी कोर्ट में अपील की, तो हाई कोर्ट ने भी साफ कहा कि वह फैसले में दखल देने का कोई कारण नहीं देखता। हालांकि कोर्ट ने यह जरूर कहा कि किसी मौलवी या धार्मिक व्यक्ति को खुला को 'कानूनी तौर पर मान्य' घोषित करने का अधिकार नहीं है। वह सिर्फ सलाह दे सकते हैं लेकिन उनका फैसला कोर्ट के बराबर नहीं होता।

 

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'खुला' और 'मुबारत' अलग-अलग

महिला की वकील ने कोर्ट के सामने यह चिंता भी रखी कि खुला लेने के बाद बहुत सी मुस्लिम महिलाओं की स्थिति असमंजस वाली हो जाती है। इस पर कोर्ट ने उम्मीद जताई कि उसका यह फैसला हालात को बेहतर करने में मदद करेगा और मुस्लिम महिलाओं को उनका हक पाने में थोड़ी राहत देगा। अंत में कोर्ट ने यह भी समझाया कि 'खुला' और 'मुबारत' (जिसमें दोनों पति-पत्नी मिलकर आपसी सहमति से शादी तोड़ते हैं) अलग चीजें हैं। खुला पूरी तरह पत्नी का अधिकार है और एक बार वो इसे अपना ले, तो फिर यह फैसला पलटा नहीं जा सकता।