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दिल्ली विधानसभा चुनाव 1998: मर्दों की लड़ाई में जीत महिला की हुई

साल 1998 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में आपसी कलह से जूझ रही बीजेपी को चुनौती देने के लिए कांग्रेस ने तेजतर्रार नेता शीला दीक्षित पर दांव खेला था। यह दांव भरपूर सटीक भी साबित हुआ।

Sheila Dixit with Sonia Gandhi

सोनिया गांधी के साथ शीला दीक्षित, Image Credit: INC Social Media

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दिल्ली का दूसरा विधानसभा चुनाव साल 1998 में हुआ। पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदल चुकी भारतीय जनता पार्टी आपस में ही जूझ रही थी। उधर इसी साल हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली की पूर्वी दिल्ली सीट से चुनाव हार चुकीं शीला दीक्षित पर कांग्रेस ने फिर से दांव खेला था। उस वक्त कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित थीं और पहली बार ऐसा हो रहा था जब दो पार्टियों की ओर से मोर्चा संभालने की जिम्मेदारी महिलाओं पर ही थी।। चुनाव से पहले आ रहे सर्वे में बताया जा रहा था कि कांग्रेस इस बार सरकार बना सकती है और बीजेपी की विदाई हो सकती है।

पांच साल के कार्यकाल के आखिर में बीजेपी ने सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बना दिया था और उन्हीं की अगुवाई में चुनाव में उतरी थी। वहीं, सर्वे में ही यह दिखने लगा था कि कांग्रेस की शीला दीक्षित अब सुषमा स्वराज पर भारी पड़ रही थीं।  दलित, मुस्लिम और ईसाई वोटर कांग्रेस के समर्थन में जा रहे थे। साथ ही, जाटों के भी कांग्रेस के साथ आने से कांग्रेस अपना माहौल बनाने में कामयाब हो रही थी।

खुराना vs साहिब की लड़ाई में फंस गई BJP

 

मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा की आपसी खींचतान अब पार्टी पर भारी पड़ रही थी और उसके लिए अपने मतदाताओं को संभाल पाना मुश्किल हो रहा था। सुषमा स्वराज भी इन चुनौतियों से दो चार हो रही थीं और साहिब सिंह वर्मा के हटाए जाने की वजह से जाट तो मदन लाल खुराना के हटने से पंजाबी मतदाता साथ छोड़ रहे थे। खींतचान से परेशान बीजेपी के लिए बागियों ने और चिंता पैदा कर दी थी। कई बागी दूसरी पार्टियों के टिकट पर या फिर निर्दलीय ही चुनाव मैदान में उतर गए थे। ऐसे ही एक बागी वेद सिंह की हत्या हो जाने के बाद मामला और बिगड़ गया क्योंकि आरोप साहिब सिंह वर्मा पर लगने लगे।

 

उधर, कांग्रेस यह कहकर हमलावर थी कि बीजेपी के बस का नहीं है कि वह दिल्ली को संभाल सके। हालांकि, कांग्रेस के सामने चुनौती थी कि वह सिख वोटरों को अपने साथ ले पाए। दरअसल, 1984 के सिख विरोधी दंगों के आरोपी सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर और एच के एल भगत जैसे नेता ही कांग्रेस के मुख्य प्रचारकर्ता थे।

 

इन सबके बीच दिल्ली में प्याज की कीमतें अचानक बढ़ गईं। सत्ता पर काबिज बीजेपी की मुश्किलें और बढ़ीं। माहौल कांग्रेस के पक्ष में बन गया। आखिर में जब नतीजे आए तो बीजेपी नेताओं ने कहा कि प्याज ने उनकी सरकार छीन ली।

 

हालांकि, नतीजे आखिर में कांग्रेस के ही पक्ष में आए। वेद सिंह की हत्या की वजह से नांगलोई सीट पर चुनाव नहीं हुए। 69 सीटों पर वोटिंग हुई जिसमें से कुल 51 सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की और बीजेपी सिर्फ 14 सीटें ही जीत पाई। जनता दल को एक सीट मिली और अन्य को दो सीट पर जीत हासिल हुई। इस तरह कांग्रेस ने अपने दम पर ही दिल्ली में सरकार बना ली।

कांग्रेस ने जताया था भरोसा

 

शीला दीक्षित को कांग्रेस ने पूर्वी दिल्ली से लोकसभा चुनाव लड़ाया था और वह चुनाव हार गई थीं। दिल्ली की 7 में से 6 सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की थी और कांग्रेस की ओर से सिर्फ मीरा कुमार चुनाव जीत पाई थीं। इससे पहले 1984 में शीला दीक्षित उत्तर प्रदेश की कन्नौज लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर सांसद बनी थीं। इतना ही नहीं, उनके काम से प्रभावित कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें केंद्र सरकार में संसदीय कार्य राज्यमंत्री और फिर प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री बनाया। ऐसे में जब 1989 में वह लोकसभा चुनाव हारीं तो कांग्रेस ने उन्हें घर नहीं बिठाया। उन्हें दिल्ली में चुनाव लड़ाया गया और वह कीर्ति आजाद को हराकर न सिर्फ विधायक बनीं बल्कि दिल्ली की मुख्यमंत्री भी बनीं।

 


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