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दशकों के इंतजार के बाद दिल्ली को कैसी मिली अपनी विधानसभा?

दिल्ली के राजनीतिक समीकरण शायद पूरे देश में सबसे अनोखे हैं। इसका विवाद सड़क से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जाता है और हर दिन कुछ न कुछ चर्चा में भी आता है।

Delhi Assembly Building

दिल्ली की विधानसभा, Image Credit: Delhi Assembly Official Channel

दिल्ली की राजनीति पिछले एक दशक से पूरे देश में चर्चा का केंद्र रही है। अरविंद केजरीवाल के सत्ता में आने से लेकर अब तक हर महीने कुछ न कुछ ऐसा होता आ रहा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। 1993 में विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश बनने से पहले दिल्ली का प्रशासनिक ढांचा दो बड़े बदलावों से होकर गुजरा है। अभी भी इसके प्रशासनिक ढांचे को लेकर सवाल उठते हैं, पार्टियों की लड़ाई अदालतों तक जाती है और कई बार तो अदालतें भी स्पष्ट रूप से यह नहीं बता पाती हैं कि आखिर दिल्ली पर किसका शासन अंतिम होगा। इसी द्वंद्व और दिल्ली के प्रशासनिक ढांचे में फंसने वाले पेच को फंसने के लिए आइए समझते हैं कि कभी बिना विधानसभा वाली दिल्ली को यह विधानसभा आखिर मिली कैसे?

 

भारत को जब आजादी मिली तो तीन कैटगरी के राज्य  बनाए गए थे। पार्टी-सी राज्य के रूप में दिल्ली को साल 1952 में विधानसभा दी गई। इस विधानसभा में कुल 48 सदस्य थे। इसकी पहली मंत्रिपरिषद के अध्यक्ष चौधरी ब्रहम प्रकाश थे। हालांकि, साल 1956 में जब राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के तहत नए सिरे से राज्य बने तो दिल्ली की विधानसभा और मंत्रिपरिषद को समाप्त भी कर दिया गया।

महानगर परिषद से विधानसभा तक का सफर

 

दिल्ली की जनता के दबाव और लोकतांत्रिक व्यवस्था की मांग के चलते बनाए गए प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों के आधार पर दिल्ली प्रशासन अधिनियम 1966 लागू हुआ। इसी के तहत 1966 में दिल्ली को मेट्रोपोलिटन काउंसिल (महानगर परिषद) मिली। इसके शीर्ष अधिकारी उपराज्यपाल या प्रशासक थे। एक कार्यकारी परिषद गठित की गई जिसमें एक मुख्य कार्यकारी पार्षद और तीन कार्यकारी पार्षद रखे गए। इसमें कुल 61 सदस्य होते थे जिसमें से 56 चुने जाते थे और 5 को राष्ट्रपति की ओर से मनोनीत किया जाता था। इसकी भूमिका सिर्फ सलाहकार जैसी ही थी जिसके चलते इसके खिलाफ आवाज भी उठती थी। 1993 में फिर से दिल्ली को विधानसभा मिलने तक इसी महानगर परिषद के सहारे ही दिल्ली की 'सरकार'चली। आखिरी महानगर परिषद 1983 से 1990 तक चली जिसके कार्यकारी पार्षद जगप्रवेश चंद्र रहे।

 

प्रशासनिक मामले में तमाम चुनौतियों से जूझ रही दिल्ली में मांग उठने लगी थी कि यहां भी विधानसभा बनाई जाए। मांग पूर्ण राज्य की भी थी। 24 दिसंबर 1987 को भारत सरकार ने सरकारिया कमीशन (बालकृष्ण कमेटी बाद में) का गठन किया जिसका मकसद दिल्ली के प्रशासन से जुड़े मामलों का अध्ययन करना और प्रशासनिक ढांचे को ठीक करने से जुड़े सुझाव देने का था। इस कमीशन ने 14 दिसंबर 1989 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस कमेटी की राय थी कि दिल्ली को केंद्र शासित ही रहना चाहिए लेकिन एक विधानसभा का गठन किया जाना चाहए। साथ ही, राष्ट्रीय राजधानी को विशेष दर्जा देने के लिए संविधान में प्रावधान किए जाने चाहिए।


इसी कमेटी की सिफारिशों के आधार पर संसद ने 69वां संविधान संशोधन अधिनियम 1991 पारित किया। इसी के तहत संविधान में धारा 239AA और 239AB की नई धाराएं जोड़ी गईं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम 1991 नाम से एक विस्तृत कानून लाया गया जिसके तहत विधानसभा और मंत्रिमंडल समेत तमाम अन्य विषयों के बारे में बताते थे। इसी के तहत दिल्ली को 70 सीटों वाली विधानसभा मिली जिसमें 13 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित की गईं। तब से अब तक इसी के तहत चुनाव होते आ रहे हैं। 

दिल्ली विधानसभा का इतिहास

 

दिल्ली में पहला विधानसभा चुनाव 1993 में, दूसरा 1998 में, तीसरा 2003, चौथा 2008 में और पांचवां 2013 में हुआ था। फिर एक साल तक राष्ट्रपति शासन लागू रहा। 2015 में छठा और 2020 में सातवां विधानसभा चुनाव हुआ। इन 31 सालों में कुल सात बार दिल्ली में विधानसभा के चुनाव हुए हैं और कुल 6 नेता दिल्ली के सीएम रह चुके हैं। इन 6 में तीन महिलाएं भी रही हैं। 2025 में होने वाला चुनाव दिल्ली का आठवां विधानसभा चुनाव है। 

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