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बिहार की खास 40 सीटें, जिन पर NDA और महागठबंधन दोनों की है नजर

बिहार की 40 आरक्षित सीटों पर महागठबंधन और एनडीए दोनों की नजर है। पिछली बार भी इन सीटों पर दोनों के बीच कड़ा मुकाबला हुआ था।

representational image । Photo Credit: AI Generated

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: AI Generated

संजय सिंह, पटना: विधानसभा चुनाव की आहट शुरू होते ही टिकटों के लिए जोड़-तोड़ की राजनीति तेज़ हो गई है। आरक्षित 40 सीटों पर एनडीए और महागठबंधन के बीच कांटे की टक्कर होने की संभावना है। पिछले विधानसभा चुनाव में भी दोनों गठबंधनों के बीच ज़बरदस्त मुकाबला हुआ था। उस कड़े संघर्ष में 21 सीटों पर एनडीए और 18 सीटों पर महागठबंधन के उम्मीदवार विजयी हुए थे। इस बार भी दोनों गठबंधन का शीर्ष नेतृत्व पूरी ताक़त झोंककर उम्मीदवारों के चयन की तैयारी कर रहा है।

 

सरकार गठन में इन आरक्षित सीटों पर जीतने वाले उम्मीदवारों की भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रहती है। पहले आरक्षित सीटों पर दावेदारों की संख्या कम होती थी, लेकिन पिछले चुनाव से यह देखा जा रहा है कि अब इन सीटों पर भी दावेदारों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। विशेषकर सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त लोग राजनीति में आने के लिए अधिक उत्सुक दिखाई दे रहे हैं। अब एक-एक सीट पर पांच से दस दावेदार सामने आ रहे हैं। सबके पास जीत के अपने-अपने समीकरण और दावे हैं। हालांकि दोनों गठबंधन के नेता उम्मीदवारों की दावेदारी की परख गंभीरता से कर रहे हैं।

 

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दलित राजनीति रही है खास

बिहार में दलित राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा बाबू जगजीवन राम रहे हैं। उनकी राजनीतिक विरासत को पुत्री मीरा कुमार ने आगे बढ़ाया, लेकिन धीरे-धीरे उनकी सक्रियता कम होती चली गई। दलित राजनीति का दूसरा बड़ा चेहरा रामविलास पासवान थे। उनके परिवार ने लोकसभा और विधानसभा, दोनों चुनावों में जीत दर्ज की थी। मगर पासवान के निधन के बाद परिवार में मतभेद गहराते चले गए। उनके भाई पशुपति पारस और भतीजे चिराग पासवान के बीच राजनीतिक तल्ख़ी बढ़ती ही गई। आज स्थिति यह है कि पशुपति पारस अलग-थलग पड़ गए हैं और उन्होंने अलग पार्टी बना ली है।

 

दलित राजनीति का तीसरा प्रमुख चेहरा जीतन राम मांझी हैं। मांझी का प्रभाव अपने क्षेत्र में भले ही मज़बूत हो, लेकिन पूरे प्रदेश में उनका असर सीमित है। कांग्रेस ने अन्य दलों से सीख लेते हुए दलित नेता राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया है। 1977 से पहले कांग्रेस का आधार वोट बैंक दलित ही हुआ करता था, लेकिन जब लालू प्रसाद यादव ने पिछड़ी जातियों का गठजोड़ बनाया तो दलित मतदाता भी उस गठजोड़ में शामिल हो गए।

 

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क्या हुआ था पिछले चुनाव में

साल 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को 7 और बीजेपी को 11 आरक्षित सीटें मिली थीं। कांग्रेस 5 और राजद 9 सीटों पर विजयी हुआ था। माले और सीपीआई ने 4-4 सीटें जीती थीं। जीतन राम मांझी की हम पार्टी को 3 और मुकेश सहनी की वीआईपी को 1 सीट पर सफलता मिली थी। वहीं, बीजेपी ने 16, जेडीयू ने 15, राजद ने 19, कांग्रेस ने 14 और हम ने 4 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। तब का मुकाबला भी बेहद कांटे का रहा था। इस बार भी आरक्षित सीटों पर चुनावी राह आसान नहीं दिख रही है।

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