दिल्ली की कुर्सी पर किसका कब्जा होगा? 8 फरवरी को इसका पता चल जाएगा। पिछले दो चुनावों की तरह इस बार भी विधानसभा चुनाव में मुकाबला आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच ही दिखाई पड़ रहा है। आम आदमी पार्टी को सत्ता में वापसी की उम्मीद है तो बीजेपी दिल्ली का किला भेदने की पुरजोर कोशिश कर रही है।
दिल्ली में बीजेपी तमाम कोशिशों और अच्छे-खासे वोट शेयर के बावजूद सत्ता से दूर है। 1998 के बाद से दिल्ली में बीजेपी का कोई मुख्यमंत्री नहीं बन सका है। दिल्ली में बीजेपी की आखिरी मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज थीं।
पहली बार में ही सरकार बनी, लेकिन...
1991 में संविधान संशोधन के बाद दिल्ली में विधानसभा बनी। 1993 में विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी ने 70 में से 49 सीटें जीतीं। उस चुनाव में बीजेपी को लगभग 48 फीसदी वोट मिले थे। चुनाव जीतने के बाद मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री बने। हालांकि, पहली बीजेपी सरकार में 5 साल में दिल्लीवालों ने 3-3 मुख्यमंत्री देखे। पहले मदनलाल खुराना, फिर साहिब सिंह वर्मा और आखिरी में सुषमा स्वराज। 1993 से 1998 तक 3 मुख्यमंत्री बदलकर बीजेपी ने 5 साल सरकार तो चला ली, लेकिन उसके बाद कभी सत्ता में वापसी नहीं कर पाई।
लेकिन वोट शेयर स्थिर रहा
बीजेपी भले ही लंबे वक्त से दिल्ली की सत्ता से दूर हो, लेकिन उसका वोट शेयर स्थिर बना हुआ है। 2015 के विधानसभा चुनाव में जब आम आदमी पार्टी ने 67 सीटें जीती थीं, तब भी बीजेपी का वोट शेयर 32.3 फीसदी रहा था। भले ही उस चुनाव में बीजेपी 3 सीट ही जीत पाई हो। जबकि इससे पहले 2013 के चुनाव में बीजेपी ने 33.3 फीसदी वोट हासिल किए थे और उसे 31 सीटें मिली थीं।
2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर और बढ़ गया। बीजेपी को 38.7 फीसदी वोट मिले थे। 2015 की तुलना में उसकी सीटें भी बढ़कर 8 हो गईं।
1998 से लेकर 2020 तक दिल्ली में 6 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं और हर बार बीजेपी को 30 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं। इन 6 चुनावों में सिर्फ एक बार ही 2013 में बीजेपी 30 से ज्यादा सीटें जीत पाई है। अगर उस वक्त आम आदमी पार्टी नहीं आई होती तब जाकर बीजेपी कहीं सरकार बनाने की स्थिति में आ सकती थी।
हालांकि, दिल्ली में बीजेपी के लिए सबसे बड़ी खुशी की बात ये है कि वो लगातार तीन लोकसभा चुनावों से सभी सातों सीटें जीत रही है।
कहां चूक रही बीजेपी?
दिल्ली में बीजेपी के पास सबसे बड़ी कमी चेहरे की है। पहले शीला दीक्षित और अब अरविंद केजरीवाल का मुकाबला करने के लिए बीजेपी के पास कोई चेहरा नहीं है। बीजेपी के पास सबसे बड़ा चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं और उन्हीं के दम पर इस बार का भी चुनाव लड़ा जा रहा है। हालांकि, दिल्ली की जनता लोकसभा में तो मोदी को पसंद करती है, लेकिन विधानसभा में केजरीवाल को चुन लेती है।
2015 के चुनाव में बीजेपी ने किरण बेदी को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया। आईपीएस रह चुकीं किरण बेदी अन्ना आंदोलन के बड़े चेहरों में से एक थीं। बीजेपी को उम्मीद थी कि किरण बेदी का चेहरा अरविंद केजरीवाल का मुकाबला कर सकेगा। मगर ऐसा हुआ नहीं। दांव उल्टा पड़ गया और बीजेपी 3 सीट पर सिमट गई।
केजरीवाल का मुकाबला करना बीजेपी के लिए इसलिए भी मुश्किल है, क्योंकि उसके पास आम आदमी पार्टी की योजनाओं का तोड़ नहीं है। केजरीवाल ने जिस तरह की योजनाएं शुरू की हैं और जिनका ऐलान किया है, उसके जवाब में बीजेपी के पास ऐसी योजना नहीं है जो दिल्ली की जनता को लुभा सके। और तो और, बीजेपी तो ये भी वादा कर चुकी है कि अगर वो सत्ता में आई तो केजरीवाल सरकार की योजनाओं को बंद नहीं करेगी।
क्या इस बार कुछ चमत्कार होगा?
लगभग 10 साल में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है। आमतौर पर इतने वक्त तक सरकार में रहने के बाद सत्ता विरोधी लहर आ ही जाती है। मगर दिल्ली में केजरीवाल के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर भी बहुत ज्यादा दिखाई नहीं पड़ रही है।
हालांकि, बीजेपी को इस बार पिछले दो चुनावों की तुलना में ज्यादा बेहतर करने की उम्मीद है। बीजेपी केजरीवाल और उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर घेरने की कोशिश कर रही है। बीते दो साल में आम आदमी पार्टी के तमाम बड़े नेताओं को कथित शराब घोटाले में जेल जाना पड़ा। अरविंद केजरीवाल को भी महीनों जेल में बिताने पड़े। बाद में सुप्रीम कोर्ट से सशर्त जमानत मिली। मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन और संजय सिंह जैसे नेता भी जेल में गए। अब सभी नेता जमानत पर हैं, लेकिन बीजेपी इसे मुद्दा बनाकर AAP को घेरने की कोशिश कर रही है।
बीजेपी की काफी उम्मीदें कांग्रेस के प्रदर्शन पर भी टिकी होंगी। इस बार भी कांग्रेस बहुत बड़ी भूमिका में नहीं है। वो सिर्फ वोट कटवा की भूमिका में है। अब कई सीटों पर हार-जीत का फैसला इससे होगा कि वहां कांग्रेस का प्रदर्शन कैसा रहा। अगर कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के वोट काटे तो इससे बीजेपी को फायदा हो सकता है।
बहरहाल, दिल्ली की 70 सीटों पर 5 फरवरी को वोट डाले जाएंगे। 8 फरवरी को नतीजे आएंगे और तब पता चलेगा कि केजरीवाल के मॉडल पर बीजेपी का मॉडल कितना भारी पड़ा?