जल-जंगल-जमीन से अलग क्या सरकारों से क्या चाहते हैं झारखंड के आदिवासी?
झारखंड के लोगों की सत्ता से उम्मीद क्या है। वे अपनी सरकार से चाहते क्या हैं। उनकी नजर में कौन से मुद्दे ऐसे हैं, जिन्हें अलग राज्य बनने के 24 साल बात तक भी नहीं सुलझाया जा सका है। वहां की जर-जंगल-जमीन से अलग ऐसे कौन से मुद्दे हैं, जिन्हें सरकारों ने दरकिनार किया है।

झारखंड विधानसभा चुनावों से पहले चुनाव आयोग घर-घर जाकर मतदान जागरूकता अभियान चला रहा है। (इमेज क्रेडिट- www.x.com/ECISVEEP)
झारखंड। उलगुलान की जन्मभूमि। जब अंग्रेजों की गिद्ध निगाहें इस आदिवासी बाहुल जमीन पर पड़ी तो उन्होंने जर, जंगल और जमीन को हड़पने के लिए कमर कस ली। आदिवासियों को ही वे जंगलों से बेदखल करने लगे। जिन आदिवासियों का जंगल की जमीनों पर पहला हक था, उन्हें भगाया जाने लगा। साल 1895 में एक बागी आया। अपनी अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति को बचाने के लिए हुंकार भरने वाले योद्धा बिरसा मुंडा। उन्होंने आदिवासियों को संगठित किया और अंग्रेजों के खिलाफ उलगुलान का ऐलान कर दिया। उन्हें जेल हुई, षड्यंत्र हुआ और 9 जून 1900 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका जन्म 15 नवंबर 1875 को मुंडा जन जनजाति में हुआ था। उन्हीं के जन्मदिन पर ही झारखंड राज्य की स्थापना हुई। क्या आप जानते हैं बिरसा मुंडा की धरती पर जनहित के मुद्दे क्या हैं, लोग सरकारों से क्या चाहते हैं?
पेसा अधिनियम, आदिवासी चाहते हैं ये कानून
आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन की सुरक्षा के लिए झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार, पेसा अधिनियम का ड्राफ्ट लेकर आई थी। पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल एरिया एक्ट (पेसा) के जरिए पंचायतों को स्वायत्तता देना है। यह अधिनियम, ग्राम पंचायतों को यह अधिकार देता है कि वे अपने हित के लिए व्यवस्था बना सकें, लोककल्याणकारी योजनाएं बना सकें। आदिवासियों की जमीन और जंगल पर उनका अधिकार मिले। इसकी नियमावलियों को ही लागू नहीं किया जा सका है। लोकसभा चुनावों में भी पेसा पर खूब सियासत हुई, विधानसभा चुनावों में भी इस मुद्दे पर सियासत हो रही है। यह अधिनियम, आदिवासियों को ज्यादा सशक्त बना सकता है, उन्हें आर्थिक तौर पर मजबूत कर सकता है। झारखंड हाई कोर्ट भी पेसा अधिनियम पर राज्य सरकार के रवैये पर सवाल उठा चुका है।
यह अधिनियम, ग्रामसभा में शिक्षा, सार्वजनिक संपत्ति, तालाब, खनिज से जुड़े नियम, रेत, मोरंग के खनन के कुछ अधिकार ग्राम पंचायतों को ही देता है, जिससे वे अपने ग्रामसभा का विकास कर सकें। यह अधिनियम वैसे तो साल 1996 में ही बन गा था लेकिन झारखंड में लागू नहीं हो पाया। आदिवासियों का एक तबका इसका विरोध करता है। आदिवासी इसे अपनी संस्कृति में दखल मान लेते हैं। यह अधिनियम कुछ मामलों में ग्राम पंचायत को न्यायलय जैसे अधिकार देता है, जिस पर भी लोगों को ऐतराज है। वैसे इंडिया ब्लॉक ने दावा किया था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो वे आदिवासियों के खिलाफ कानूनों को वापस ले लेंगे और पेसा अधिनियम लागू करेंगे। झारखंड के लोग इस कानून पर भी आशंकित हैं।
आसमान में ड्रोन, खतरे में 'जमीन' डरे हुए हैं लोग
झारखंड के लोगों को सरकारी अधिग्रहण का डर सता रहा है। जब भी सरकार की ओर से लैंड बैंक बनानी कवायद शुरू होती है, ड्रोन सर्वे के खिलाफ लोग भड़क जाते हैं। लोगों का कहना है कि केंद्र सरकार की ये नीति, हमारी जमीन छीन लेगी। विधानसभा चुनावों में यह भी एक मुद्दा है। लोग केंद्र के रुख से नाराज हैं।
आदिवासियों को चाहिए जंगल पर कानूनी हक
झारखंड में वन अधिकार कानून 2006 भी एक चुनावी मुद्दा है। यहां के लोग चाहते हैं कि आदिवासियों के हितों में ये कानून लागू हो, जिससे जंगली जमीन की उपज पर उनके भी कुछ अधिकार हों, उनका सामुदायिक हित, इससे पूरा हो। यह कानून, आदिवासियों को जंगल की जमीन पर कुछ हक देता है, पैतृक संपत्ति और वनोपज से जुड़े अधिकारों का भी संरक्षण करता है। यह कानून कभी ढंग से लागू नहीं हो पाया। स्थानीय नेता ही इस पर बात नहीं करते हैं।
आदिवासियों की जमीन, खरीद रहे बाहरी लोग, आखिर क्यों?
आदिवासियों के लिए एक बड़ा मुद्दा ये है कि उनकी जमीनों को गैर आदिवासी लोग खरीद रहे हैं। स्थानीय नेता भी इस बारे में बात नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें भी उनसे धन लाभ मिलता है। आदिवासियों की जमीनों के संरक्षण के लिए ट्रेडिशनल फॉरेस्ट ड्वेलर्स (रिकग्नीशन ऑफ फॉरेस्ट राइट्स) एक्ट 2006 बना है। वनाधिकार अधिनियम की धारा 4(5) कहती है कि जिस जमीन पर आदिवासी का स्वामित्व हो, या कब्जा हो, उसे बिना सत्यापित किए गए नहीं हटाया जा सकता है। झारखंड में जमीन क्रय-विक्रय में धांधली की कई खबरें सामने आती हैं। लोगों का कहना है कि आदिवासियों के पट्टे वाले जमीन को भी सामान्य बताकर बेच दिया जा रहा है, इसमें ग्रामसभा तक भ्रष्टाचार बैठा है। गैर आदिवासियों द्वारा क्रय की गई जमीनों का फिर से सत्यापन हो और आदिवासियों को उनका हक मिले।
पशु संरक्षण के लिए बना कानून, अब परेशान हो गए हैं लोग
रघुवर दास अपने मुख्यमंत्री रहने के दौरान साल 2015 में पशुओं की बिक्री से जुड़ा एक नियम लेकर आए थे कि पशुओं की खरीद या बिक्री करने पर कागजात दिखाने होंगे। पशु तस्करी और गोवध के खिलाफ लाया गया ये कानून अब लोगों के गले की फांस बन गया है। स्थानीय लोग चाहते हैं कि इस नियम में बदलाव हो, जिससे लोग पशुओं को आसानी से खरीद-बेच सकें। किसानों के लिए कागजी दौड़ में फंसना, मुसीबत का सबब है।
संताल परगना टेनेंसी (SPT) एक्ट से भी परेशान हैं लोग
एसपीटी एक्ट 1949 में अंग्रेज लेकर आए थे। इस एक्ट का मकसद था कि आदिवासियों और पिछड़ी जनजातियों की जमीनों को संरक्षित किया जाए। आदिवासियों की जमीन को कोई व्यवसायी अपने हित के लिए नहीं खरीद सकता है। जाति के लोगों को छोड़कर, अन्य जाति या समुदाय के लोग भी इस जमीन को नहीं खरीद सकते हैं। आरोप हैं कि हिंदू और मुसलमान समुदाय के लोग आदिवासियों की लड़कियों से शादी कर रहे हैं और जमीन पर कब्जा जमा रहे हैं।
आदिवासी दर्जे पर भी मंडरा रहा खतरा
आदिवासी, देश के सबसे पिछड़े तबकों में से एक हैं। धीरे-धीरे वे समाज की मुख्य धारा में आ रहे हैं। कुछ आदिवासियों ने अपना धर्म बदल लिया है। वे इस्लाम या ईसाई बन गए हैं। लंबे समय से ये कवायद चल रही है कि जिन लोगों ने धर्म बदला है, उनका आदिवासी स्टेटस हट जाए और उन्हें आदिवासी होने के विशेषाधिकार न मिलें, जैसे नौकरी और शिक्षा में आरक्षण, भूमि बिक्री खरीद से जुड़े नियम और विशेषाधिकार। आदिवासियों का कहना है कि उनका धर्म कुछ भी हो, उनकी मूल पहचान आदिवासी की है, इसलिए यह भी चुनाव में एक बड़ा मुद्दा है।
शिक्षा, सड़क और स्वास्थ्य
झारखंड में शिक्षा, सड़क और स्वास्थ्य आज भी खराब हालत में हैं। यह हम नहीं, आंकड़े कह रहे हैं। झारखंड में त्रिकूट, कनगोई, पारसनाथ और लुगु जैसी कुछ पहाड़ी इलाके हैं। इन इलाकों में बसे गावों में बिजली और पानी और सड़क, आज भी ढंग से नहीं पहुंची है। सड़कों को लेकर यहां की हालत बदहाल है। यहां रहने वाले ग्रामीण आज भी बुनियादी जरूरतों के लिए तरस रहे हैं। इस इलाके में पर्यटन की व्यापक संभावनाएं हैं, जिन पर सरकारों को काम करना चाहिए। झारखंड, राज्य अल्पसंख्यक आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में साक्षरता दर अभी 66.41 है। यह आंकड़ा साल 2011 का है।झारखंड में शिक्षा पर अभी काम करने की जरूरत है। झारखंड सरकार के आर्थिक सर्वे के मुताबिक बेरोजगारी दर साल 2022-23 में 1.7 प्रतिशत थी। राज्य का एक बड़ा हिस्सा, रोजगार चाहता है। संसाधनों से भरपूर इस राज्य में विकास की अनंत संभावनाएं हैं, जिन पर काम होना बाकी है।
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