संजय सिंह, पटना। इस बार के विधानसभा चुनाव में कई घराने का सूरज अस्त हो गया। प्रमुख दलों ने भी ऐसे घरानों से दूरी बना ली है। कुछ पुराने सियासी घराने इतिहास के पन्नों में दफन होकर रह गए हैं। ऐसे लोगों की सबसे ज्यादा संख्या मुजफ्फरपुर और वैशाली में है।
एक जमाने में पूर्व केंद्रीय मंत्री उषा सिन्हा, ललितेश्वर शाही, रघुनाथ पांडेय, महेंद्र सहनी और रमई राम की तूती पूरे प्रदेश में बोलती थी। ऐसे परिवारों को इस बार के चुनाव में या तो राजनीतिक दलों ने टिकट नहीं दिया या फिर इन परिवारों ने राजनीति से दूरी बना ली। पूर्व केंद्रीय मंत्री उषा सिन्हा के पिता महेश सिन्हा तबके मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के परम मित्र थे।
वे उनके मंत्रिमंडल के सदस्य भी रहे। उनकी पुत्री उषा सिन्हा भी केंद्रीय मंत्री रहीं। उषा सिन्हा के पुत्र अनुनय सिंह को भी कांग्रेस पार्टी ने कई बार टिकट देकर विधायक बनने का मौका दिया, लेकिन वे चुनावी राजनीति में सफल नहीं हो सके। धीरे-धीरे यह परिवार राजनीति से ओझल हो गया।
राजनीति से दूर ललितेश्वर प्रसाद का परिवार
ललितेश्वर प्रसाद शाही भी बिहार की राजनीति का जाना पहचाना नाम था। शाही की मजबूत पकड़ वैशाली की राजनीति पर थी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी से बेहतर संबंध रहने के कारण ये उनके मंत्रिमंडल के सदस्य भी थे। उनकी पुत्रवधु वीणा शाही भी राजनीति में आई। उन्हें भी मंत्री बनने का मौका मिला, लेकिन पति हेमंत शाही की हत्या के बाद इस परिवार ने राजनीति से दूरी बना ली। अब यह परिवार राजनीति से ओझल है।
खत्म हुआ रघुनाथ पांडेय के परिवार का सियासी दबदबा
मुजफ्फरपुर की बड़ी राजनीति हस्तक्षेप रघुनाथ पांडेय का दबदबा पूरे बिहार की राजनीति पर था। उन्हें 1980 में विधायक बनने का मौका मिला। पांडेय के पुत्र अमरनाथ और पुत्रवधु विनीता विजय भी राजनीति में आईं, लेकिन दोनो को जनता का समर्थन नहीं मिला। अब उनकी तीसरी पीढ़ी सहकारिता की राजनीति कर रही है।
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ऐसा ही एक परिवार मुंगेर के हवेली खड़गपुर में भी है। यहां के विधायक नरेंद्र सिंह के बाद उनके पुत्र शमशेर जंगबहादुर सिंह विधायक और मंत्री बने, लेकिन उनके परिवार के अन्य किसी सदस्य को राजनीति दलों ने टिकट के लिए नहीं पूछा। अब यह परिवार भी राजनीतिक हाशिए पर है।
यही हाल हवेली खड़गपुर अनुमंडल के गौरवडीह गांव निवासी नंदकुमार सिंह के परिवार का है। बिहार के मुख्यमंत्री जब श्रीकृष्ण सिंह थे तब नंदकुमार सिंह बिहार कांग्रेस प्रदेश कमेटी के अध्यक्ष हुआ करते थे। वे विधायक भी रहे। उनके निधन के बाद इस परिवार का राजनीतिक विरासत आगे नहीं बढ़ सका।
चुनाव माहौल से गायब अनिल सहनी
महेंद्र सहनी का भी राजनीतिक फलक बड़ा था। इन्हें राज्यसभा का सदस्य बनने का मौका मिला। इनके पुत्र अनिल सहनी को 2020 में विधायक बनने का मौका मिला था। इस बार के चुनावी रण में अनिल दूर-दूर तक नहीं दिख रहे हैं।
प्रहलाद यादव को भी नहीं मिला टिकट
लखीसराय की भी स्थिति कमोवेश ऐसी ही है। सूर्यगढ़ा विधानसभा क्षेत्र से कई बार विधायक रहे प्रहलाद यादव को इस बार टिकट नहीं मिला। प्रहलाद यादव पहले राजद में थे। नीतीश कुमार के बहुमत परीक्षण के दौरान इन्होंने राजद से नाता तोड़ लिया। उन्हें उम्मीद थी कि बीजेपी के टिकट पर वे सूर्यगढ़ा से चुनाव लड़ेंगे, लेकिन सीट शेयरिंग के दौरान यह सीट जदयू के पास चली गई।
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मुजफ्फरपुर के बोचहा विधानसभा सीट से रमन राम नौ बार विधायक रहे। इनकी पुत्री गीता कुमारी को बीजेपी ने विधान पार्षद बनाया। इस बार बोचहा की सीट लोजपा (आर) के खाते में चली गई। परिणामस्वरूप रमन राम का पूरा परिवार राजनीति से बाहर हो गया। यही स्थिति महराजगंज के पूर्व सांसद उमाशंकर सिंह, मधेपुरा के पूर्व सांसद शरद यादव, वैशाली के पूर्व विधायक रामा सिंह और पूर्व मंत्री राजेंद्र राय के परिवारों की है।