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हरियाणा की 'मंत्री' रहीं सुषमा दिल्ली की CM कैसे बनी थीं? पढ़ें किस्सा

सुषमा स्वराज के नाम पर कैसे मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा तैयार हो गए थे? 52 दिनों की सीएम रहीं सुषमा के बाद कैसे BJP दिल्ली विधानसभा में वनवास पर गई, पूरी कहानी जानते हैं।

Sushma Swaraj

सुषमा स्वराज। (File Photo Credit: Sushma Swaraj/Facebook)

दिल्ली के मुख्यमंत्री का पद 37 साल तक रिक्त रहा। कहां तो दिल्ली 3 दशकों तक मुख्यमंत्री बिना तरसती रही, कहां महज 5 साल के कार्यकाल के भीतर 3 सीएम बदल गए। वजह कुछ और नहीं, भारतीय जनता पार्टी (BJP) की आंतरिक कलह थी। इस कलह में एक नाम अचानक उभरा और छा गया। नाम पार्टी की तेज तर्रार महिला नेता सुषमा स्वराज का था। मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा की रस्साकशी में उन्हें दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री होने का तमगा मिल गया।

2 दिसंबर 1993 को दिल्ली के सीएम बने मदन लाल खुराना। 26 फरवरी 1996 को ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ गया। 2 साल 86 दिनों के कार्यकाल में खीझ जाना पड़ा। जिस नाम से वह सबसे ज्यादा परेशान थे, वह साहिब सिंह वर्मा थे। साहिब सिंह वर्मा और उनकी तनातनी लंबी खिंची लेकिन कुछ दिनों के लिए बाजी वही मार ले गए। 

साहिब सिंह वर्मा ने 26 फरवरी को सीएम पद की शपथ ली। 12 अक्तूबर 1998 को उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। 2 साल 228 दिन तक वह सीएम रहे। उन्हें हटाने के पीछे जो नाम उभरा, वह मदन लाल खुराना का था। दोनों नेताओं ने एक-दूसरे की सियासी जमीन कमजोर की। इस सियासी जंग में मौका मिला सुषमा स्वराज को। दोनों उन्हें अपना नेता मानने लिए तैयार हो गए। लेकिन क्या यह सब इतना आसान था? आइए शुरू से शुरू करते हैं।

राजनीति में कैसे आईं थीं सुषमा स्वराज?

सुषमा स्वराज 14 फरवरी को अंबाला में पैदा हुई थीं। वह हरियाणा की रहने वाली थीं लेकिन दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं। उनके पिता राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के नेता थे। उनके पिता पाकिस्तान के लाहौर के धर्मपुरा इलाके से आए थे। उन्होंने सनातन धर्म कॉलेज, अंबाला से पढ़ाई की। वहां संस्कृत और राजनीति विज्ञान में डिग्री हासिल की। पंजाब विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की। 

सुषमा स्वराज, दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने से पहले हरियाणा सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुकी थीं। साल 1977 में उनके सक्रिय राजनीतिक करियर की शुरुआत हुई। यह वही साल था, जब सीधे तत्कालीन मुख्यमंत्री देवीलाल की कैबिनेट में उन्हें जगह मिल गई। 1977 से लेकर 1982 तक वह अंबाला कैंट से विधायक रहीं। 

महज 25 साल की उम्र में उन्हें कैबिनेट मंत्री बना दिया गया। साल 1987 से लेकर 1990 तक वह मंत्री रहीं। जुलाई 1977 में ही उन्हें देवी लाल की कैबिनेट में श्रम और रोजगार मंत्रालय की कमान सौंपी गई। 1979 तक वह इस पद पर रहीं लेकिन उन्हें देवीलाल पसंद नहीं करते थे। वह उनके अनुभवों को देखते हुए अयोग्य मानते थे।

साल 1987 से लेकर 1990 के बीच हरियाणा में ही उन्हें शिक्षा मंत्रालय की कमान सौंपी गई। सुषमा का स्वराज का कद बढ़ता गया। जनता पार्टी (हरियाणा) ने उन्हें साल 1979 में राज्य  का प्रमुख का पद दे दिया। 

हरियाणा से दिल्ली में कैसे जमी धाक?
यह वही दौर था जब सुषमा स्वराज का हरियाणा में राजनीति से दूर जाने का वक्त हो चला था। अप्रैल 1990 में उन्हें राज्यसभा भेजा गया। 1996 में वह दक्षिणी दिल्ली से संसद पहुंची। सुषमा स्वराज का धाक इतनी थी कि हरियाणा में कैबिनेट मंत्री बनने के बाद सीधे केंद्र में जगह मिली। उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में 13 दिनों के लिए ही सही सूचना और प्रसारण मंत्रालय मिल गया था। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव में बहुमत न साबित करने की वजह से गिर गई थी। 

दिल्ली की सीएम सुषमा ही क्यों?
मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा एक-दूसरे के खिलाफ खुलकर आ गए थे। दोनों एक-दूसरे का इस्तीफा लेने के लिए बेताब थे। मदन लाल खुराना को पहले ही 2 साल सीएम रहने के बाद हट जाना पड़ा था। अब साहिब सिंह वर्मा की भारी बारी थी। उन्हें भी इस्तीफा देना पड़ गया। सुषमा स्वराज अल्पकालिक सीएम थीं। वह महज 54 दिन तक मुख्यमंत्री रहीं।

सुषमा स्वराज का मुख्यमंत्री बनना तो राजनीतिक दिग्गजों का समझौता था। यह समझौता मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा के बीच हुआ था। साहिब सिंह वर्मा ने साफ कह दिया था कि मदन लाल खुराना सीएम नहीं होंगे। उन्होंने सुषमा स्वराज का नाम आगे बढ़ा दिया। 

दिलचस्प बात यह थी कि बीजेपी नेताओं ने सुलह की स्थिति कायम करने के लिए उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी थी। वह दिल्ली की मुख्यमंत्री तो बन गई थीं लेकिन वह दिल्ली की विधानसभा सदस्य तक नहीं थीं। 49 दिनों का कार्यकाल बेहद कम होता है। इस बात का एहसास सुषमा स्वराज को हमेशा रहा।

सियासी जानकारों का कहना है कि बीजेपी के पूर्व मुख्यमंत्रियों के झगड़े की वजह से बीजेपी की साख गिरी थी। जिस बीजेपी के पास  1993 के चुनावों में 49 सीटें थीं, साल 1998 के विधानसभा चुनाव में महज 15 सीटें रह गईं। बीजेपी सत्ता से दूर हो गई और दिल्ली में शीला दीक्षित के युग की शुरुआत हो गई।

एक दिलचस्प बात यह भी रही कि उनसे पहले जितने सीएम हुए कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। उन्होंने भी इसी परंपरा को कायम रखा। रिवाज बदलने की जिम्मेदारी कांग्रेस नेता शीला दीक्षित की थी। वह डेढ़ दशक तक अपने पद पर कायम रहीं।

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