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बाबूलाल मरांडी: कैसे भटके 'मुखिया' को बीजेपी ने सौंपी कमान?

झारखंड की राजनीति में बाबूलाल मरांडी का कद बड़ा है। सूबे की 28 विधानसभाएं ऐसी हैं, जिन पर बाबूलाल मरांडी की मजबूत पकड़ है। बीजेपी ने उन्हें झारखंड प्रदेश अध्यक्ष बनाया है।

Babulal Marandi

झारखंड बीजेपी के अध्यक्ष हैं बाबूलाल मरांडी। (इमेज क्रेडिट- www.facebook.com/yourbabulal)

बाबूलाल मरांडी, गिरिडीह जिले के कोड़िया बैंग गांव से आते हैं। वे झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं। बीजेपी के दिगग्ज नेताओं में उनकी गिनती होती है। संघ में उनकी मजबूत पकड़ है, पेशे से शिक्षक रहे हैं। मरांडी के एक स्कूल से सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की उनकी कहानी दिलचस्प है। बाबू लाल मरांडी के हिस्से कई उपलब्धियां आईं, लेकिन सबसे बड़ी उपलब्धि रही कि वे झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बने। साल था 2000 और तारीख थी 15 नवंबर। बाबू लाल मरांडी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। गिरिडीह जिले के कोड़िया बैंग जिले में पैदा 11 जनवरी 1958 को जन्मे बाबूलाल मरांडी ने कभी सोचा नहीं होगा कि उनके हिस्से वह उपलब्धि जुड़ने जा रही है, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं की होगी।

बाबूलाल मरांडी, भारतीय जनता पार्टी (BJP) के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष हैं। एक बार बीजेपी से रिश्ते तल्ख हुए तो उन्होंने झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) का गठन कर लिया, बाद में जब ठीक हुए तो उन्होंने बीजेपी में विलय कर लिया। वे 12वीं, 13वीं, 14वीं और 15वीं लोकसभा के सदस्य भी रहे हैं। साल 1998 से 2000 तक के बीच एनडीए सरकार के दौरान वे केंद्रीय मंत्री भी रहे। 4 जुलाई 2023 को उन्हें राज्य बीजेपी की कमान सौंप दी गई। 

किस समुदाय से आते हैं बाबूलाल मरांडी?
बाबूलाल,संथाली आदिवासी समुदाय से आते हैं। उनकी पकड़ हर राजनीतिक समूह पर है। वे संथाली समुदाय के बड़े नेताओं में गिने जाते हैं। बीजेपी के पास यह सच है कि राज्य में उनसे बड़ा चेहरा नहीं है। हाई स्कूल की पढ़ाई करने के बाद वे गिरिडीह में आगे की पढ़ाई के लिए चले गए थे। यहीं वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में शामिल हो गए। 


कैसे राजनीति में आए मरांडी?
रांची विश्वविद्यालय से उन्होंने पोस्ट ग्रेजुएशन की और एक गांव में सरकारी शिक्षक हो गए। कहते हैं कि शिक्षक बनने के बाद उनसे किसी काम के लिए शिक्षा विभाग के एक बाबू ने घूस मांग लिया। इसमें वे इतने भड़के कि अपने पद से इस्तीफा देकर संघ में शामिल हो गए। विश्व हिंदू परिषद में वे संघठन मंत्री के पद तक पहुंचे। वे साल 1983 में संथाल परगना प्रखंड में काम करने लगे। यहीं से उनकी सियासत चमक पड़ी। साल 1991 में भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें दुमका लोकसभा सीट से उतारा। वे चुनाव हार गए थे। साल 1996 में इसी सीट से उन्हें शिबू सोरेन ने हरा दिया था। इसी साल वे झारखंड यूनिट के अध्यक्ष बना दिए गए।  

1998 में हुए चुनाव के रहे हैं हीरो
साल 1998 में लोकसभा चुनाव हुए। झारखंड की 14 लोकसभा सीटों में से 12 सीटों पर बीजेपी जीत गई। उन्होंने शिबू सोरेन जैसे दिग्गज नेता को करारी हार दी। मरांडी की ताकत बढ़ती चली गई। जब अलग झारखंड बना तो वे ही बीजेपी के सबसे बड़े नेता थे, जिनके नाम पर वोट पड़े थे। एनडीए सत्ता में आई और बाबू लाल मरांडी राज्य के पहले मुख्यमंत्री बन गए। सत्ता में रहने के 2 साल 123 दिन पूरे हुए, उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। उन्हीं की जगह अर्जुन मुंडा को 18 मार्च 2003 को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई।


पद गया तो वे नाराज भी हुए। साल 2004 में लोकसभा चुनाव में उन्हें उतारा गया। कोडरमा लोकसभा सीट से वे सीज गए लेकिन यशवंत सिन्हा और रीता वर्मा जैसे बीजेपी के दिग्गज हार गए। राज्य के शीर्ष नेतृत्व के साथ उनकी तकरार बढ़ती गई। वे अपनी नाराजगी सार्वजनिक मंचों से भी जाहिर करने लगे।

बीजेपी से नाराज होकर बनाया झारखंड विकास मोर्चा
बाबूलाल मरांडी ने साल 2006 में ही सांसद पद से और बीजेपी के प्राथमिक सदस्य के पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने झारखंड विकास मोर्चा के नाम से राजनीतिक पार्टी बनाई। बीजेपी के 5 विधायक उनके साथ आ गए। कोडरमा सीट पर उपचुनाव हुए और उन्होंने अपना दबदबा साबित कर दिया। निर्दलीय ही वे चुनाव जीत गए। साल 2009 के चुनाव में उन्होंने झारखंड विकास मोर्चा के टिकट पर चुनाव लड़ा, फिर सीट जीत ली। साल 2014 की मोदी लहर में उनकी पार्टी एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो पाई और राज्य की 14 में से 12 सीटें बीजेपी ने हासिल कर ली। कोडरमा से बीजेपी नेता रविंद्र कुमार रे जीत गए थे। फरवरी 2020 में उन्होंने अपनी पार्टी का विलय बीजेपी में कर लिया।  

2024 में बीजेपी ने क्यों खेला उन पर दांव?
झारखंड में बीजेपी के 3 बड़े नेता थे, अर्जुन मुंडा, रघुवर दास और बाबूलाल मरांडी। थे इसलिए क्योंकि अब रघुवर दास राज्यपाल हैं। अर्जुन मुंडा और बाबूलाल मरांडी भरोसे झारखंड में बीजेपी है। अर्जुन मुंडा, मुंडा आदिवासियों में लोकप्रिय हैं लेकिन वे ओबीसी और अन्य जातियों की राजनीति नहीं साध पाते हैं। बाबूलाल मरांडी संथालियों के सबसे बड़े नेता हैं लेकिन उनकी स्वीकृति दूसरे समुदायों में भी है। उनके नाम पर बीजेपी नेताओं में भी सहमति है।

राज्य की 81 विधानसभा सीटों में से 28 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। 60 सीटें ऐसी हैं, जिन पर आदिवासियों का दबदबा है। बाबूलाल मरांडी का कद, बड़ा है, उनकी लोकप्रियता के लिए बीजेपी ने इस बार का दांव उन्हीं पर चला है। उन्हें ही आगे किया गया है। बीजेपी के नेताओं की छवि आदिवासी विरोधी होने की गढ़ी गई है। जमीनों के ड्रोन सर्वे से लेकर संविधान संशोधन, सीएनटी एक्ट ऐसे कई मुद्दे हैं, जिन्हें लेकर आदिवासियों को लगता है कि नियम-कायदे बदले जाएंगे। बाबूलाल मरांडी के नाम से न तो कोई विवाद जुड़ा है, न ही उनकी छवि ऐसी रही है।
 

बेटे की मौत का दर्द आज भी है साथ
बाबूलाल मरांडी के बेटे अनूप मरांडी की 27 अक्तूबर 2007 को माओवादियों ने मार डाला था। वे गिरिडीह जिले के चिलकारी इलाके में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने गए थे। माओवादियों के हथियारबंद दस्ते ने अचानक वहां धावा बोल दिया। वह नूनूलाल मरांडी को मारने आए थे। नूनूलाल, बाबूलाल मरांडी के भाई हैं। अनूप ने मौके पर ही दम तोड़ दिया था, उनके साथ 19 अन्य लोगों की मौत हुई थी। इस केस में छत्रपति मंडल, जीन मरांडी,अनिल और मनोज को सजा मिली थी।

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