logo

ट्रेंडिंग:

मनमोहन सिंह ने भारत को दिवालिया होने से कैसे बचाया? पूरी कहानी पढ़िए

भारत के दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने साल 1991 में भारत को कैसे दिवालिया होने से बचाया था, उस कहानी के हर महीन किस्से को इस आर्टिकल में जानिए।

Manmohan Singh 1991 economic reforms

दिवालिया होने से कैसे बचा भारत? Source- PTI

1991 का साल, 21 जून की तारीख। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उस रोज़ अपने कुछ खास दोस्तों को लंच पर इनवाइट किया था। लेकिन सुबह सुबह उनकी पत्नी गुरशरण कौर ने सब मेहमानों को कॉल किया और, लंच किसी और दिन पोस्टपोन करने के लिए माफी मांगी। वजह बताई कि कोई अर्जेन्ट काम आ गया है। सब मान भी गए। लेकिन शाम को जब सबने नई सरकार का शपथ ग्रहण समारोह देखने के लिए टीवी खोला, तो देखा, उनका दोस्त, वित्त मंत्री की शपथ ले रहा था।  

मंत्री बनना अधिकतर लोगों के लिए अवसर होता है। लेकिन मनमोहन सिंह आपदा मोल ले रहे थे। 31 जुलाई 1991 में छपी इंडिया टुडे मैगज़ीन की एक रिपोर्ट बताती है कि तब भारत पर 70 बिलयन डॉलर यानी तब के हिसाब से लगभग एक लाख, 82 हजार करोड़ रूपये का कर्ज़ा था। सरकार हर साल अपने बजट से 40 हजार करोड़ ज्यादा खर्च कर रही थी। जितना हम निर्यात कर रहे थे, उससे 10 हजार करोड़ रूपये अधिक का आयात कर थे। हालांकि ये कहानी हम आपको आंकड़ों में नहीं सुनाएंगे। क्योंकि ये कहानी है एक इंसान की। जो चला गया है। अब और मौका है , उसे याद करने का। वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी अपनी किताब, 'How Prime Ministers Decide' में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बारे में लिखती हैं, 'he was a blade of grass which bends when the storm comes'। इस बिम्ब को 1991 के भारत पर बिठाया जाए, तो कहना गलत न होगा कि 

1991 का भारत आर्थिक तूफानों के बीच डूबने की कगार पर था, और मनमोहन सिंह नाम का तिनका इसका आख़िरी सहारा था। क्या हुआ था 1991 में आइए विस्तार से जानते हैं कमल भट्ट की इस रिपोर्ट में?

हीरो जो साइड करैक्टर हुआ करता था

1991 का साल असल में उस फिल्म की कहानी की तरह था, जिसका प्रीक्वल 1989 में रिलीज़ हो चुका था और उसे समझे बिना 1991 की पिक्चर समझना भी मुश्किल है और पिक्चर के हीरो मनमोहन सिंह का रोल भी।

1989 में राजीव गांधी मुख्य किरदार में थे, लेकिन बोफोर्स नाम के एक्सपोजीशन ने राजीव को जनता की नजरों में विलेन बना डाला। कांग्रेस की हार, VP सिंह की ताजपोशी, और मंडल कामीशन- एक साल के अंदर कहानी में इतने ट्विस्ट आ गए थे कि क्लाइमेक्स का विष्फोटक होना निश्चित था। 1990 में VP की सरकार गई, सीन में एंट्री हुई चंद्रशेखर की।  वो प्रधानमंत्री बने, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पर्दा खुला तो पता चला कि अर्थव्यवस्था दिवालिएपन के राक्षस के हाथों किडनैप हो चुकी है। यशवंत सिन्हा उन दिनों वित्त मंत्री के रोल में थे। जबकि सुब्रमण्यम स्वामी के पास कॉमर्स मिनिस्ट्री थी। दोनों ने मिलकर अर्थव्यवस्था के फाइनल बॉस को हराने के लिए कमर कसी और एक के बाद एक तमाम हथियारों को आजमाने लगे। 

इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ाने का फैसला

सरकार ने रातों रात चुपके से इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ाने का फैसला किया। इम्पोर्ट ड्यूटी यानी विदेशों से आने वाले सामान , मसलन TV, फोन, सोना, आदि पर लगने वाला टैक्स। इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ाने का मतलब था, लोग बाहर से कम खरीदे, और भारत का डॉलर भण्डार कम खर्च हो। दुनिया का कर्ज़ डॉलर में चुकाना पड़ता था और जैसा पहले बताया, 1990 तक हम 70 बिलियन डॉलर कर्ज़ चढ़ा चुका था। 

इस बीच कहानी जब तक जनवरी 1991 तक पहुंची। फिल्म का बैकग्राउंड मिडिल ईस्ट के नज़ारे दिखाने लगा था। जहां अमेरिका के बॉम्बर विमान, किसी वीडियो गेम की माफिक गोले बरसाते नजर आ रहे थे। 

इराक में अमेरिका की एंट्री हो चुकी थी। ईराक यानी तेल। तेल में लगी आग तो भारत का दामन भी अछूता न रहा। डॉलर भंडार में पहले ही जो सुराख हो रखा था, तेल के बढ़ते दामों ने उसे और भी गहरा कर दिया। हर महीने अब तेल पर दोगुना खर्च होने लगा था। 

संकट से बचने का भारत के पास एक ही रास्ता

इस संकट से बचने का भारत के पास एक ही रास्ता था। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से कर्ज़। आईएमएफ के सबसे बड़े लाला का नाम था- USA यानी अमेरिका। उसकी मंजूरी के बिना कर्ज़ नहीं मिल सकता था। भारत को मदद की उम्मीद थी। लेकिन लाला यूं ही लाला नहीं बना था। उसने मांग लिए मां के कंगन। सुब्रमण्यम स्वामी बताते हैं कि उन दिनों अमेरिका का एक राजदूत उनसे मिलने आया और इराक तक उड़ने वाले विमानों की रिफ्यूलिंग के लिए भारत की जमीन मांगी। बदले में लाला का वादा था वो दो बिलियन डॉलर कर्ज़ दे देगा। रकम बड़ी थी लेकिन कंगाली का आलम वो कि ये पैसा भी ऊंट के मुंह में जीरा साबित हुआ। यशवंत सिन्हा जिनके सर पर वित्त मंत्री होने के नाते इस समस्या से लड़ने का जिम्मा था। उनका पावर लेवल भी आधा हो गया, जब फरवरी में बजट पेश होने से ठीक पहले, कांग्रेस ने चंद्रशेखर सरकार के पूर्ण बजट को समर्थन देने से इनकार कर दिया। यशवंत सिन्हा को एक अंतरिम बजट पेश करना पड़ा।

अब तक हमने इस कहानी में 1991 के हीरो मनमोहन सिंह का जिक्र नहीं किया। मनमोहन सिंह दरअसल इस वक्त तक साइड करैक्टर की भूमिका में थे। वे प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के वित्त सलाहकार हुआ करते थे। इस रोल में भी हालांकि उन्होंने एक बोल्ड एक्शन को अंजाम देने में मदद की। उनकी सलाह से प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सोना बेचने को राजी हो गए। सोने के गिरवी रखने का जो मशहूर किस्सा है। ये वो वाली बात नहीं है। वो चैप्टर तो मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री बनने के बाद आया। इससे पहले कस्टम से पकड़ा गया स्मगलिंग का सोना बेचा भी गया था। इस डील में एक ये ऑप्शन जरूर था कि भारत दोबारा उस सोने को खरीद सकता था। सोने की फ़िक्र हालांकि इस समय किसी को नहीं थी। काहे की खाने के लाले पड़ने वाले थे। 

क्लाइमेक्स का क्राइसिस सामने था और ऐसे में रहनुमाओं ने फैसला किया कि चलो क्यों न एक बार फिर लोकतंत्र का पर्व मनाया जाए। 

बदलाव की सांकल इस बार हरियाणा से खनकी। हरियाणा के दो पुलिसवाले राजीव गांधी के घर के बाहर चाय पीते पकड़े गए। कांग्रेस ने कहा- सरकार जासूसी कर रही और अपना समर्थन वापिस ले लिया। चंद्रशेखर सरकार गिर गई। मई जून में चुनाव हुए। कांग्रेस को सबसे ज्यादा सीट मिली। राजीव कांग्रेस का चेहरा थे। लेकिन उनकी हत्या कर दी गई और नरसिम्हा राव देश के अगले प्रधानमंत्री बन गए। नरसिम्हा राव एक ऐसा नेता, जिसे राजीव गांधी ने चुनाव लड़ने का टिकट तक नहीं दिया था। बहरहाल निजाम बदल चुका था। लेकिन अर्थव्यस्था को इससे कोई फर्क न पड़ा था। बाजार के हाल कांचा चीना के मंडावा जैसे हो चुके थे और इस अग्निपथ पर चलने वाला कोई दीनानाथ चौहान दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा था।

सीन में हीरो की एंट्री

नरसिम्हा राव के कैरियर को देखकर ऐसा कोई नहीं कह सकता था कि वो बोल्ड कदम उठाने के पक्ष में हैं। वह समाजवादी सोच के नेता थे। लेकिन सारा चिंतन हवा हुआ जब राव के हाथ लगा एक कागज़ का टुकड़ा। जयराम रमेश अपनी किताब 'टू द ब्रिंक एंड बैक: इंडिया 1991 स्टोरी' में बताते हैं कि शपथ से दो दिन पहले, कैबिनेट सेक्रेटरी ने एक नोट पकड़ाया। नोट देखते ही माथे पर पसीने की बूंदे चमक उठीं। राव ने पूछा, क्या इतनी खराब हालत है?

राव को इस समस्या का हल निकालने के एक ही आदमी मुफीद जान पड़ा। 

ऑक्सफोर्ड से पढ़कर लौटे मनमोहन सिंह, राजनेता नहीं थे लेकिन चोटि के अर्थशास्त्री माने जाते थे। इस तरह चंद्रशेखर सरकार में साइड रोल निभाने वाले मनमोहन सिंह को मिल गई वित्त मंत्री की कमान और अचानक वो बन गए, कहानी के मुख्य किरदार। बजट पेश होने में अभी वक्त था। लेकिन डॉयलॉग बोलने से पहले ही मनमोहन सिंह ने एक्शन दिखाना शुरू कर दिया। 

शपथ ग्रहण के दो हफ़्तों के अंदर ही रूपये का अवमूल्यन कर दिया गया। मने अगर एक डॉलर आज 85 रूपये का है, अगर वो 90 रूपये का हो जाए, तो इसे करेंसी का अवमूल्यन कहते हैं। आज ये बाजार के हिसाब से होता है। लेकिन तब सरकार ने जानबूझकर ऐसा किया था। 1 जुलाई को रूपये के दाम 7% गिरा दिए गए। दो दिन बाद 11 परसेंट और गिराने का प्लान था। लेकिन जैसे ही नरसिम्हा को ये खबर मिली, 

प्रधानमंत्री आवास से सीधा एक कॉल गया, अवमूल्यम का प्लान अभी टाल दो। 

मनमोहन सिंह फैसला कर चुके थे

 

मनमोहन सिंह हालांकि फैसला कर चुके थे। रुपया 11 परसेंट और गिराया गया। मनमोहन जानते थे इस कदम का असर क्या होगा। एक्शन उनकी जिम्मेदारी थी लेकिन राजनीति का ड्रामा तो नरसिम्हा राव को झेलना था। लिहाजा राव को पोलिटिकल सुरक्षा देने के लिए मनमोहन सिंह ने इस्तीफे की पेशकश कर डाली। राव ने साफ इनकार कर दिया। इस ना का मतलब था, हां, फ्रंटफुट पे खेलो। इसके बाद मनमोहन खाता बनाने में लग गए। बजट का पहला ड्राफ्ट तैयार कर उन्होंने राव को दिखाया। राव बोले, ‘क्या मैंने तुम्हें इसलिए ही चुना था?’

 

दरअसल मनमोहन सिंह ने जो बजट बनाया था, वो थोड़ा रूढ़िवादी था। राव जानते थे, इतने से कुछ नहीं होगा, इसलिए उन्होंने नया ड्राफ्ट तैयार करने को कहा।  मनमोहन सिंह समझ गए, कुछ बड़ा करना होगा। तमाम मंत्रालय के सचिवों को बुलाकर उन्होंने अपना प्लान बताया और अंत में कहा,  “मुझे प्रधानमंत्री से मैंडेट मिला है। जिसे दिक्कत है, उसके लिए दूसरा काम ढूंढा जा सकता है।” ये कहानी का टीजर था। पूरी फिल्म दुनिया ने देखी। तारीख 24 जुलाई- 1991। 

डेढ़ घंटे में नेहरू युग के तीन स्तम्भ को ढहा दिया गया

नीली पगड़ी और नेहरू जैकेट में मनमोहन सिंह सदन में खड़े हुए। 1 घंटे 35 मिनट की स्पीच दी, जिसके आखिरी शब्द थे- "दुनिया की कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया हो।" बेंच पर बैठे बिमल जालान ने जयराम रमेश की ओर देखकर 'थम्स अप' का इशारा किया और नरसिम्हा राव की बायोग्राफी लिखने वाले विनय सीतापति के शब्दों में कहें तो, महज डेढ़ घंटे में नेहरू युग के तीन स्तम्भ-

  • लाइसेंस राज,
  • पब्लिक सेक्टर का एकाधिकार और
  • विश्व बाजार से भारत का अलगाव- इन्हें ढहा दिया गया।

आर्थिक मंदी ने खलनायक को हराने के लिए मनमोहन सिंह ने जो किया उसकी उपमा करने का एक तरीका ये है कि फ़्रोडो बैगिन्स के पास जादुई अंगूठी थी, लेकिन सौरोन को हराने के लिए वो उसका इंतज़ार नहीं करता। कई बार ताकत का इस्तेमाल न करना ही सबसे बड़ी ताकत होती है। 

1991 के सुधारों के बाद भारत को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 2।2 बिलियन डॉलर का लोन मिला, जिसके लिए सरकार को सोना गिरवी रखना पड़ा। इस पैसे से शॉर्ट टर्म लोन चुकाया जाना था लेकिन मनमोहन सिंह ने इस पैसे का इस्तेमाल भारतीय बाजार में निवेशकों का विश्वास बढ़ाने के लिए किया। बजट के बाद कई लोन चुकाने की टाइम लिमिट भी बढ़ा दी गई। लिहाजा तो तात्कालिक संकट पैदा हो गया था। उसे टालने में मनमोहन सिंह सफल रहे। आगे वही हुआ, जिसकी वो उम्मीद कर रहे थे। धांसू डॉयलॉग, तगड़े एक्शन के बाद फिल्म का हिट होना तय था। 

फोन, टीवी, फ्रिज से लेकर चिप्स, कोला और केबल टीवी तक। 1991 रिफॉर्म्स ने न केवल ये सब चीजें भारतीयों के लिए सहज उपलब्ध हुईं, बल्कि विदेशी निवेश के चलते रोजगार के अवसर भी बढ़े। 

पूरा किस्सा सुनिए

जनवरी 1990। इनफोसिस के फाउंडर नारायणमूर्ति अपने बाकी तीन साथियों के साथ एक रेस्त्रां में खाना खा रहे थे। गरमागरम बहस चल रही थी। मुद्दा था कि क्या कम्पनी को बेच दिया जाए। नारायणमूर्ति के पास 2 करोड़ रूपये का ऑफर था और मार्केट के हालात ऐसे थे कि कुछ वक्त पहले ही कम्पनी दिवालिया होते-होते बची थी। बाकी तीन फाउंडर कंपनी बेचने के हिमायती थे लेकिन नारायणमूर्ति ने उन्हें किसी तरह रोक लिया। उनका ये फैसला सही साबित हुआ। इनफोसिस बाद में एक जायंट में तब्दील हुई। 

और इसमें एक बहुत बड़ा रोल था 1991 के आर्थिक सुधारों का। 

1991 के बजट में मनमोहन सिंह ने आयकर अधिनियम 80 HHC के तहत टैक्स में छूट की घोषणा की। ये निर्णय भारत के सॉफ्टवेयर क्रांति का सबब बना। इनफोसिस जो 1990 में बिकने की कगार पर थी। 1993 में IPO निकाल रही थी। 

सब रातो- रातों- सबकुछ  नहीं हुआ

 

ऐसे और कई उदाहरण हैं। ऐसा नहीं है कि ये सब रातों-रात हो गया था। 1991 के बजट के बाद मनमोहन सिंह अचानक सबके निशाने पर आ गए थे। लेफ्ट की पार्टियों ने उन पर जमकर हमला बोला। चंद्रशेखर, जो मनमोहन सिंह को अपना आर्थिक सलाहकार बना चुके थे। उन्होंने भी मनमोहन सिंह के फैसलों की खूब बुराई की। नरसिम्हा राव ने जब सफाई दी कि मैंने तो आपके ही आदमी को ही रखा है। चंद्रशेखर बोले, 

 

जिस चाकू को हम सब्जी काटने लाए थे, उससे आप दिल का ऑपरेशन कर रहे हैं। 

 

आर्थिक सुधारों का ऑपरेशन रिस्की जरूर था लेकिन बाद में बाकायदा पब्लिक को अहसास हुआ कि जिसे वो ट्रैजिक एन्ड समझ रहे हैं, वो बस इंटरवल तक की कहानी थी।  

भारत आर्थिक तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़

 

इसके बाद तो इस फिल्म के सीक्वल बनते रहे। भारत आर्थिक तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ गया। किसी फिल्म की कहानी होती तो तब भी यकीन करना आसान था। लेकिन मनमोहन सिंह उस वक्त हीरो बने थे, जब दुनिया मान रही थी, भारत डूबती नाव है। ये कितना बड़ा रिस्क था, इस किस्से से समझिए कि प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव एक बार उनसे मजाक में बोले थे, 

“अगर सब ठीक रहा तो हम इसका क्रेडिट मिलकर लेंगे। लेकिन अगर चीजें सही नहीं हुई तो मैं सारा ठीकरा तुम्हारे सर फोड़ दूंगा

Related Topic:#Manmohan Singh

शेयर करें

संबंधित खबरें

Reporter

और पढ़ें

design

हमारे बारे में

श्रेणियाँ

Copyright ©️ TIF MULTIMEDIA PRIVATE LIMITED | All Rights Reserved | Developed By TIF Technologies

CONTACT US | PRIVACY POLICY | TERMS OF USE | Sitemap