कहानी 1991 के आर्थिक संकट की, जिससे मनमोहन ने देश को निकाला
90 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर होती गई। हालत इतनी खराब हो गई थी कि सोना तक गिरवी रखना पड़ गया था। ऐसे दौर में मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने और देश को इस संकट से निकाला।

मनमोहन सिंह 1991 से 1996 तक वित्त मंत्री थे। (फाइल फोटो-PTI)
'दुनिया की कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ गया हो।' डॉ. मनमोहन सिंह ने ये बात तब कही थी, जब बतौर वित्त मंत्री उन्होंने अपना पहला बजट पेश किया था। वो 1991 की 24 जुलाई थी। इसे भारत की 'आर्थिक आजादी का दिन' भी कहा जाता है।
मनमोहन सिंह ऐसे वक्त में वित्त मंत्री बने थे, जब देश की माली हालत खराब थी। देश का विदेशी मुद्रा भंडार 1 अरब डॉलर से भी कम हो गया था। सामान खरीदने के लिए सरकार को सोना तक गिरवी रखना पड़ गया था। ऐसे वक्त में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने मनमोहन सिंह को अपना वित्त मंत्री नियुक्त किया।
बताया जाता है कि मनमोहन सिंह जब अपने बजट का ड्राफ्ट लेकर नरसिम्हा राव के पास पहुंचे तो उन्होंने इसे ये कहते हुए खारिज कर दिया था कि 'यही चाहिए था तो मैंने आपको क्यों चुना?' इसके बाद मनमोहन ने ऐसा बजट तैयार किया, जिसने भारत की अर्थव्यवस्था पर लगे ताले को खोल दिया। इस बजट को पेश करते हुए मनमोहन सिंह ने फ्रांसीसी विचारक विक्टर ह्यूगो के लिखे शब्दों को पढ़ते हुए कहा, 'दुनिया की कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ गया हो।'
क्यों कहा जाता है इसे ऐतिहासिक बजट?
जरा कल्पना कीजिए कि आप अपनी मेहनत की कमाई से एक गाड़ी खरीदने की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन उसके लिए आपको सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े। सरकार ही तय करे कि किस सामान का उत्पादन कितना होगा? कितने लोग काम करेंगे? और उसकी कीमत क्या होगी? आप जो कुछ भी करें, उसमें सरकार का दखल हो। आपके हर आर्थिक फैसलों पर सरकारी घुसपैठ हो। आज हम इसकी कल्पना ही कर सकते हैं, मगर 1991 से पहले का भारत ऐसा ही था।
भारतीय बाजार में प्रतिस्पर्धा थी ही नहीं। गिनी-चुनी कंपनियां थीं, जिसपर सरकार की पकड़ होती थी। हर काम के लिए परमिट से लेकर परमिशन लेनी पड़ती थी। बाजार पर सरकार का नियंत्रण हुआ करता था। अर्थशास्त्र के नियम में इसे बेमानी माना जाता है। इसे ही लाइसेंस राज कहा जाता था।
मगर, 24 जुलाई 1991 को मनमोहन ने बजट पेश कर सबकुछ बदल दिया। आमतौर पर किसी भी बजट को तैयार होने में 3 महीने लग जाते हैं, लेकिन मनमोहन ने महीनेभर में ही बजट तैयार कर दिया था। मई में नई सरकार बनी थी और जुलाई में बजट पेश हो गया था।
मनमोहन के बजट ने बंद पड़ी अर्थव्यवस्था को खोल दिया। परमिट राज और लाइसेंस राज खत्म कर दिया। विदेशी कंपनियों को भारत आने का न्योता दिया गया। भारतीय बाजार में प्रतिस्पर्धा का दौर शुरू किया। आयात-निर्यात की नीति बदल दी गई। सॉफ्टवेयर निर्यात के लिए आयकर कानून में बदलाव किया गया।
जल्द ही इस बजट का फायदा दिखना शुरू हो गया। विदेशी कंपनियां भारत में आईं। निजी कंपनियां भी फलने-फूलने लगीं। करोड़ों नौकरियां पैदा हुईं। पैसे से पैसा बनना शुरू हो गया। नतीजा ये हुआ कि 1991 में जो विदेशी मुद्रा भंडार 1 अरब डॉलर के भी नीचे चला गया था, वो 1993 तक 10 अरब डॉलर को पार कर दिया। 1998 में ये 290 अरब डॉलर पर पहुंच गया। आज भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में 650 अरब डॉलर से ज्यादा है।
पर ऐसा संकट आया क्यों?
आजादी के साथ-साथ भारत को एक बदहाल अर्थव्यवस्था भी मिली थी। नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकार ने तमाम आर्थिक सुधार किए, मगर अर्थव्यवस्था उतनी तेजी से नहीं बढ़ी, जितनी उम्मीद थी। इसकी वजह ये थी कि आजादी के बाद भारत ने 'समाजवादी मॉडल' को अपनाया था। समाजवादी मॉडल में अर्थव्यवस्था बंद रहती है। बाहरी अर्थव्यवस्था से बहुत ज्यादा लेन-देन नहीं होता।
1980 के दशक में आर्थिक हालात और खराब होते हैं। चंद्रशेखर की सरकार में वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने एक इंटरव्यू में कहा था, 'दिसंबर 1990 में जब मैं वित्त मंत्री बना तो भारत का विदेशी मुद्रा भंडार सिर्फ 2 अरब डॉलर रह गया था। इसका मतलब था कि हम सिर्फ दो हफ्ते का ही सामान आयात कर सकते थे।'
ऐसा कहा जाता है कि 1988 में IMF ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से कहा था कि भारत की आर्थिक हालत अच्छी नहीं है। IMF ने भारत को लोन की पेशकश भी की थी। राजीव गांधी इससे सहमत थे लेकिन चुनाव सिर पर होने की वजह से उन्होंने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
1990 के आखिर में राजनीति अस्थिरता भी बनी। इसके अलावा उसी दौर में खाड़ी युद्ध भी शुरू हो गया। इस युद्ध की वजह से तेल की कीमतें आसमान छूने लगीं। इसने आर्थिक संकट को और गहरा कर दिया।
जब सोना रखना पड़ा था गिरवी
1990 के आखिर तक भारत पर 72 अरब डॉलर से ज्यादा का कर्ज बढ़ गया। उस वक्त दुनिया में तीसरा सबसे कर्जदार देश भारत ही था। भारत को कर्ज की किश्तें भरनी थीं और आयात भी करना था। इसके लिए अरबों डॉलर की जरूरत थी। ऐसे में चंद्रशेखर सरकार ने 20 टन सोना गिरवी रखा।
हालांकि, सोना गिरवी रखने का बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ा। हालात बिगड़ते ही जा रहे थे। खाड़ी युद्ध की वजह से खाड़ी देशों में काम करने वाले भारतीयों की कमाई पर असर पड़ा और वहां से आने वाला रेमिटेंस भी प्रभावित हुआ।
जब मनमोहन वित्त मंत्री बने तो विदेशी मुद्रा भंडार 1 अरब डॉलर ही रह गया था। सरकार के पास सिर्फ कुछ दिन का ही आयात बिल चुकाने का पैसा बचा था। इस संकट में फिर सोना काम आया। मात्र 40 अरब डॉलर के लिए नरसिम्हा राव की सरकार को 47 टन सोना बैंक ऑफ इंग्लैंड और बैंक ऑफ जापान में गिरवी रखना पड़ा।
24 जुलाई 1991 को मनमोहन ने जो बजट पेश किया, उसका असर ये हुआ कि दिसंबर में ही सरकार ने गिरवी रखा सोना वापस ले लिया।
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