मनमोहन सरकार में हुई भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील की कहानी क्या है?
मनमोहन सरकार के पहले कार्यकाल में भारत और अमेरिका के बीच ऐतिहासिक परमाणु समझौता हुआ था। लेफ्ट पार्टियां इसका कड़ा विरोध कर रही थीं लेकिन मनमोहन की जिद के कारण ये डील पूरी हो सकी। पढ़ें- ऋषिकेश शर्मा की ये पूरी रिपोर्ट।

मनमोहन सिंह। (फाइल फोटो-PTI)
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का गुरुवार रात 9 बजकर 51 मिनट पर निधन हो गया। मनमोहन सिंह लंबे वक्त से बीमार थे। गुरुवार को तबीयत बिगड़ने के बाद उन्हें दिल्ली एम्स में भर्ती कराया गया, जहां उनका निधन हो गया।
मनमोहन सिंह बोलते कम थे, लेकिन जब बोलते थे तो पूरी दुनिया उन्हें सुनती थी। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उनके लिए यही बात कही थी। मनमोहन सिंह अपनी सादगी के लिए जाने जाते थे। मनमोहन सिंह काफी शांत रहते थे, लेकिन जब उन्हें गुस्सा आता था तो वो किसी की नहीं सुनते थे। जिद्दी भी थे। ये उनकी ही जिद थी, जिस कारण भारत और अमेरिका के बीच ऐतिहासिक परमाणु समझौता हो पाया। लेफ्ट पार्टियां इसके विरोध में थीं। दबाव सोनिया गांधी की तरफ से भी था, लेकिन मनमोहन झुके नहीं।
जब लेफ्ट पार्टियों पर भड़क उठे मनमोहन
तारीख 11 अगस्त 2007। अंग्रेजी अखबार टेलीग्राफ में एक खबर छपती है, Anguished PM to Left : If You want to withdraw, so be it. सुबह जब घरों और दफ़्तर में यह अखबार पहुंचा, तो लोगों को भरोसा नहीं हो रहा था। अगर इसे भारतीय राजनीति का अबतक का सबसे बोल्ड और क्लियर स्टेटमेंट कहें, तो गलत नहीं होगा। खुद प्रधानमंत्री की पार्टी के नेताओं को भरोसा नहीं हो रहा था कि उन्होंने ऐसा स्टेटमेंट दिया है।
राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा होने लगी कि जल्दी ही इस स्टेटमेंट को झूठला दिया जाएगा। लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं हुआ। प्रधानमंत्री थे डॉ मनमोहन सिंह और उन्होंने दूसरे देश के साथ एक डील के कारण अपनी सरकार को समर्थन देने वाले घटक दलों यानी कि चार लेफ्ट पार्टियों को खुलकर यह कह दिया कि अगर आप समर्थन वापस लेना चाहते हैं, तो बिल्कुल ले लें। यह कहानी है एक ऐसे डील की, जिसके कारण प्रधानमंत्री ने खुद अपनी तरफ से फ्लोर टेस्ट कराने के लिए एक स्पेशल सेशन की मांग कर दी थी। यह कहानी है इंडिया-US न्यूक्लिर डील की। आज जितने हथियार भारत पश्चिम से खरीद पा रहा है, खासकर अमेरिका से, प्रीडेटर ड्रोन, एमएच 60 रोमियो हेलिकॉप्टर, c 130, c 17 हेवि लिफ्ट, सिग सौर बंदूकें, ये सब इसीलिए संभव हुआ क्योंकि डॉक्टर मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील की, फाउंडेशन्ल पैक्ट्स साइन करने की शुरुआत की.
इंडिया-US न्यूक्लियर डील है क्या?
अगस्त 2008 में अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया। लगभग दो साल के नेगोसिएशन के बाद यह समझौता हो पाया। जिसे 123 एग्रीमेंट के नाम से जाना जाता है। भारत के लिए परमाणु ऊर्जा स्त्रोतों के विस्तार के लिए यह समझौता बहुत ज़रूरी था। जो कि भारत और अमेरिका के बीच बरसों से प्रतिबंधित था। इस समझौते के बाद भारत अमेरिका के अलावा रूस और फ्रांस जैसे देशों से भी यूरेनियम का आयात कर सकता था, जो कि परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को संचालित करने के लिए बेहद जरूरी था।
भारत हमेशा से गुटनिरपेक्ष देश रहा है। सोवियत संघ से नज़दीकी के दिन लग गए थे और 1991 के बाद भारत ने पश्चिम की तरफ देखना शुरू किया. लेकिन इस दोस्ती को पक्का करने के लिए अमेरिका से हाथ मिलाना ज़रूरी था। इसलिए सरकार इस समझौते की तरफ आगे बढ़ी। लेकिन यह डील देश के अंदर ही बहुत ज्यादा विवादों में रही। एक जनकल्याणकारी विचार पर चलने वाला, समाजवाद के सिद्धांत को अपने संविधान की प्रस्तावना में लिखने वाला देश एक ऐसे देश से कैसे हाथ मिला सकता है, जो सरासर पूंजीवादी है. जो बस दो मूल्यों को मानता है, नफा और नुकसान. लेफ्ट पार्टियों ने UPA से अपना समर्थन तक वापस ले लिया। जिसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को फ्लोर टेस्ट के लिए स्पेशल सेशन बुलाने की ज़रूरत पड़ गई।
जनवरी 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका के साथ इस डील की शुरुआत की थी। भारत हमेशा से यह मानता आया कि न्यूक्लियर पावर्स ने उनके साथ भेदभाव किया है। इसलिए भारत ने जब परमाणु ऊर्जा स्त्रोतों को बढ़ाने के लिए अमेरिका की तरफ हाथ बढ़ाया, तो दूसरे पक्ष ने भी वैसी ही रूचि दिखाई। मगर किस्मत में इस डील को मनमोहन सिंह के हाथों होना लिखा था।
1974 के पोखरण टेस्ट यानी कि ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा के बाद भारत ने NPT यानी न्यूक्लियर Non Profileration Treaty को साइन करने से इनकार कर दिया था। जिसके बाद से अमेरिका ने भारत को न्यूक्लियर फ्यूल या उसकी अन्य टेक्नोलॉजी के एक्सपोर्ट पर रोक लगा दिया था। चीन ने अपना न्यूक्लियर टेस्ट 1970 में इस एग्रीमेंट के आने से पहले ही कर लिया था। जिसके कारण वो इस रेस्ट्रिक्शन से बचा रहा। मतलब चीन न्यूक्लियर पावर घोषित हो चुका था।
भले ही 1998 में भारत ने एक और न्यूक्लियर टेस्ट कर लिया हो लेकिन अमेरिका के साथ वो रिस्ट्रिक्शन अभी भी थे। जॉर्ज बुश ने खुलकर यह स्वीकारा कि एक परमाणु संपन्न देश होने के बावजूद ये रिस्ट्रिक्शन भारत के साथ गलत है। लेकिन इस रिस्ट्रिक्शन को हटाने के लिए अमेरिकी कानून में संशोधन की ज़रूरत थी। अमेरिका ने ऑफर दिया लेकिन भारतीय राजनयिकों को अमेरिका पर ज्यादा भरोसा नहीं हो रहा था। न्यूक्लियर पावर बनने के लिए कोई बोल्ड स्टेप उठाना भी जरूरी था। कमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथों में थी। लेकिन जितना डर अमेरीका के प्रति अविश्वास से नहीं था, उससे कहीं ज़्यादा डर UPA के घटक दलों यानि कि कम्युनिस्ट पार्टियों से था।
अड़े रहे मनमोहन सिंह
एक तरफ सरकार इस अमेरिका के साथ इस डील को आगे बढ़ा रही थी। तो वहीं दूसरी तरफ मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से अपने घटक दलों को कन्विंस करने में लगे हुए थे। सरकार का पूरा सर्वाइवल लेफ्ट फ्रंट पर टिका हुआ था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों का स्टैंड एंटी-अमेरिका था और वो नहीं चाहते थे कि भारत अमेरिका के साथ ऐसी कोई डील करे। भारत के लिए अपना न्यूक्लियर आइसोलेशन खत्म करने का एक बड़ा मौका था। इसलिए मनमोहन सिंह अपने स्टैंड पर अड़े रहे।
मामला यहां तक गड़बड़ था कि कांग्रेस के भीतर ही कई नेता डरे हुए थे। जिन्हें अपना चुनाव जीतने के लिए जिनकी डिपेंडेंसी लेफ्ट कैडर पर भी थी। इनमें से एक नाम खुद तत्कालीन रक्षामंत्री प्रणब मुखर्जी थे। कांग्रेसी नेताओं को डर था कि अगर भविष्य में उन्हें कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थन नहीं मिला था वो अपने क्षेत्र से चुनाव भी हार सकते हैं, जिन राज्यों में लेफ्ट पार्टियां मजबूत थी। जैसे बंगाल और बिहार।
भारतीय राजनीति का एक विलक्षण समय दिखा जब लेफ्ट और भाजपा दोनों एक ही स्टैंड लेकर मनमोहन सिंह पर हमलावर थी। फिर भी मनमोहन सिंह के नेतृत्व में डिपार्टमेंट ऑफ एटॉमिक एनर्जी ने एक ECC मीटिंग बुलाई। ये सारी कहानी 2005 से शुरू होकर 2008 तक सिलसिलेवार तरीके से चली। एक नहीं कइयों बार।
मनमोहन सिंह ने उस मीटिंग में कहा कि भारत को परमाणु ऊर्जा में निवेश करना चाहिए और इस संबंध में भारत के वैश्विक अलगाव को समाप्त करने के लिए हाल ही में जो कदम उठाए गए हैं, वे देश को अर्थव्यवस्था के समग्र ऊर्जा मिश्रण में परमाणु ऊर्जा के हिस्से को बढ़ाने में मदद करेंगे।
'देश के लिए इतना रिस्क लिया जा सकता है'
मनमोहन सिंह ने लेफ्ट के सामने हथियार डालने की बजाय दोनों सदनों में इस बारे में विस्तार से बात की ताकि जनता को इसके बारे में पता चल सके। इसमें एक अहम भूमिका वर्तमान में देश के विदेश मंत्री एस जयशंकर की भी थी। डॉ. जयशंकर 2004 से 2007 के बीच भारत के विदेश मंत्रालय में अमेरिका डेस्क के अध्यक्ष थे। भारत अमेरिका न्यूक्लियर डील के लिए हो रही बातचीत में वो बहैसियत जॉइंट सेक्रेटरी, समन्वय का काम देख रहे थे. बाद में डॉ जयशंकर मोदी सरकार में विदेश मंत्री बने. उनसे जब न्यूक्लियर डील को लेकर पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि वो एक प्रोफेशनल के तौर पर किए अपने काम पर कायम हैं और इंडो यूएस न्यूक्लियर डील, देशहित में उठाया कदम था.
मनमोहन सिंह ने कई बार संसद को एड्रेस करते हुए कहा कि वो ये जानते हैं कि उन्होंने रिस्क लिया है लेकिन देश के लिए इतना रिस्क लिया जा सकता है। महत्वपूर्ण ये है कि हम उस बात की चिंता करना छोड़ दें कि दुनिया हमें कैसे देखेगी। हम उससे बाहर निकलें और इस बात की चिंता करें कि हम दुनिया को कैसे प्रभावित करेंगे।
इससे एक चीज़ स्पष्ट हो गया था कि इस न्यूक्लियर आइसोलेशन को खत्म करने को लेकर मनमोहन सिंह का स्टैंड बिल्कुल क्लियर था।
राजनीतिक विश्लेषक संजय बारू अपनी मनमोहन सिंह को लेकर लिखी अपनी किताब “द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर” में लिखते हैं कि CPI(M) के लीडर प्रकाश करात ने निजी मुलाकात में इस डील का समर्थन किया था, लेकिन राजनीतिक रूप से वो मनमोहन सिंह के इस फैसले के खिलाफ रहे। उस वक्त लेफ्ट के कई नेता इस डील के समर्थन में थे लेकिन लेफ्ट पार्टियों ने अमेरिका को लेकर अपना स्टैंड बिल्कुल क्लियर रखा और UPA से समर्थन वापस लेने की धमकी दे डाली। एक दूसरे से इन्फ्लुएंस होकर या एक दूसरे के साथ आइडियोलॉजिकली खड़े रहने के कारण CPI-M, CPI-ML और CPI सबका स्टैंड वही रहा।
विपक्ष मान गया, लेकिन लेफ्ट नहीं माना
मनमोहन सिंह के लिए ये डील इतनी इंपोर्टेंट थी कि उन्होंने विपक्षी पार्टियों को भी कन्विंस करने में पूरा समय लगाया। अटल बिहारी वाजपेयी को एक पार्टी मीटिंग के दौरान उन्होंने कहा कि मैं कुछ भी अलग नहीं कर रहा हूं। प्रधानमंत्री रहते हुए आपने जो शुरू किया, बस उसको ही पूरा करने जा रहा हूं। तब अटल बिहारी वाजपेयी ने भी मुस्कुराते हुए मानो अहसास दिलाया कि इस मामले में वो उनके साथ हैं।
मगर लेफ्ट को मनाना अभी भी आसान नहीं था। इसके बाद पहली बार प्रधानमंत्री ने लेफ्ट पार्टियों के खिलाफ तब बयान दिया, जब टेलिग्राफ की एक रिपोर्टर माणिनी चक्रवर्ती उनसे मिलने पहुंची। इस इंटरव्यू के बाद जैसे हंगामा मच गया हो।
मनमोहन सिंह ने उस इंटरव्यू में कहा, “I told them that it is not possible to renegotiate the deal. It is an honourable deal, the cabinet has approved it, we cannot go back on it. I told them to do whatever they want to do, if they want to withdraw support, so be it”
कांग्रेस के नेता मीडिया में प्रतिक्रिया देने लगे कि प्रधानमंत्री UPA के घटक दलों के बारे में ऐसा कह ही नहीं सकते। सोनिया गांधी भी इस बयान के बाद थोड़ी असहज हो गईं। लेकिन जब मनमोहन सिंह की तरफ से इस बयान पर कोई सफाई नहीं आई, तो ये मैसेज भी क्लियर चला गया कि मनमोहन सिंह और कांग्रेस लीडरशिप दोनों का स्टैंड बहुत क्लियर है।
सोनिया गांधी की लेफ्ट से असहमति
सिंतबर 2007 में लेफ्ट और कांग्रेस की एक 15 सदस्यीय कमिटी बनाई गई। जिसमें कांग्रेस लेफ्ट के हर सवाल का जवाब देने की कोशिश करती। मगर कई बैठकों के बाद भी लेफ्ट का स्टैंड बस इतना ही बदला, जो न बदलने के बराबर था। उनका कहना था कि जॉर्ज बुश के राष्ट्रपति रहते वो इस डील को नहीं चाहते।
मनमोहन सिंह भी पीछे हटने के मूड में नहीं थे। उन्होंने AICC की एक बैठक में कहा कि वो अमेरिका के साथ इस डील को फाइनल करने जा रहे हैं। ये डील हमें अपने न्यूक्लियर पावर का प्रोडक्शन बढ़ाने में मदद करेगी। इस डील के फाइनल होने के बाद हमारे लिए दूसरे देशों से न्यूक्लियर फ्यूल और टेकनॉल्जी लाने के रास्ते खुल सकेंगे।
सोनिया गांधी ने भी सहमति जताते हुए कहा कि गठबंधन की सरकार चलाने का ये मतलब नहीं कि कांग्रेस अपना पॉलिटिकल स्पेस हमेशा के लिए खो दे। इसके बाद लेफ्ट लीडर्स की तरफ से ये स्टेटमेंट्स आम हो गए थे कि अगर सरकार इस दिशा में आगे बढ़ती है, तो उन्हें UPA को समर्थन देने पर पुनर्विचार करना पड़ेगा।
लेफ्ट ने दी समर्थन वापस लेने की धमकी
अब आती है तारीख 4 जून 2008। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में तेल की कीमत बढ़ने के बाद सरकार को भी तेल की कीमत बढ़ानी पड़ती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तय किया कि वो देश को एड्रेस करेंगे। उन्होंने कहा कि अब हमें एनर्जी के दूसरे सोर्सेज की तरफ बढ़ना पड़ेगा। जैसे कि न्यूक्लियर एनर्जी। इस एड्रेस के बाद लेफ्ट फ्रंट ने सरकार से अपना समर्थन फिर से खींच लेने की धमकी दी।
फिर भी मनमोहन सिंह झुके नहीं। सिर्फ दो दिनों बाद ही मनमोहन सिंह ने भारतीय विदेश सेवा के प्रोबेशनर्स को एड्रेस किया और वही बातें दोहराई। उन्होंने कहा, “यह डील हमारे राष्ट्रीय हितों की रक्षा करेगा। यह डील परमाणु ऊर्जा का उपयोग करने की हमारी क्षमता की रक्षा करेगा। लेकिन हमारे देश की राजनीति ने हमें आगे बढ़ने से रोक दिया है। मुझे अभी भी उम्मीद है कि हम आने वाले महीनों में इसपर आगे बढ़ेंगे। लेकिन यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम इस परमाणु अलगाव को समाप्त करने के लिए आगे बढ़ें जिसे दुनिया ने भारत पर थोप रखा है।”
मनमोहन सिंह तब तक बिल्कुल स्पष्ट समझ चुके थे कि उन्हें इस मामले में लेफ्ट का समर्थन तो नहीं मिलने वाला। क्योंकि बीते दो सालों में कई दौर के बैठक हो चुके थे लेकिन लेफ्ट का स्टैंड थोड़ा भी नहीं बदला था।
समर्थन के लिए मुलायम को मनाया
इसी बीच 29 सांसदों वाली समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव अपना समर्थन UPA को देने का मन बना रहे थे। अब इस डील को पूरा कराने की जिम्मेदारी अमर सिंह को दी गई। उन्होंने ही कड़ी बनकर मुलायम सिंह यादव और कांग्रेस के बीच यह समझौता करवाया कि समाजवादी पार्टी UPA को अपना समर्थन दे। हालांकि इसमें सबसे बड़ा योगदान एपीजे अब्दुल कलाम का था। कलाम खुद एक साइंटिस्ट थे और मुलायम सिंह यादव उनपर पूरा यकीन करते थे। कलाम ने मुलायम सिंह यादव को भरोसा दिलाया कि उन्हें सरकार का समर्थन करना चाहिए। कि यह डील देश के हित में होगा। मुलायम सिंह यादव को अपना स्टैंड बदलने के लिए एक अच्छा तर्क भी मिल गया था कि वो कलाम से कन्विंस हुए हैं। तब सपा के पास 29 सांसद थे। जो कि सरकार बचाने के लिए काफी थे।
इन सबके बीच 8 जुलाई 2008 को आख़िरकार लेफ्ट की चार पार्टियों से अपना समर्थन वापस ले लिया। लेफ्ट पार्टियों ने अपने स्टेटमेंट में कहा कि महंगाई के दौर में इस डील को फाइनल करना बताता है कि मनमोहन सिंह की सरकार भारत की जनता के प्रति कम और अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के प्रति ज़्यादा जवाबदेह हैं। यह न्यूक्लियर डील भारत को ऊर्जा सुरक्षा प्रदान नहीं करेगा। चूंकि यह अमेरिकी कानून, हाइड एक्ट में निहित है, इसलिए यह डील भारत के इंडिपेंडेंट फॉरेन पॉलिसी को बाधित करेगा और हमारी रणनीतिक स्वायत्तता को भी प्रतिबंधित करेगा। इसलिए वामपंथी दल ऐसे किसी कदम का समर्थन नहीं कर सकते जो देश के लोगों और देश की संप्रभुता के लिए हानिकारक हो।
फ्लोर टेस्ट में पास हुई मनमोहन सरकार
मनमोहन सिंह ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल और लोकसभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी से बातकर फ्लोर टेस्ट के लिए कहा। 22 जुलाई को फ्लोर टेस्ट का दिन तय हुआ। भाजपा ने आरोप लगाया कि उनके नेताओं को वोट के बदले पैसे देने की पेशकश की गई। सोमनाथ चटर्जी CPI(M) के नेता थे लेकिन उन्होंने लोकसभा स्पीकर का दायित्व निभाते हुए फ्लोर टेस्ट के लिए सदन को राजी कराया। पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर उन्होंने मनमोहन सिंह को भी अपना सपोर्ट एक्सटेंड किया। गुस्साये प्रकाश करात ने अगले ही दिन सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निष्कासित कर दिया था। तब सोमनाथ चटर्जी ने कहा था कि लोकसभा अध्यक्ष की जवाबदेही संसद के प्रति है, न कि पार्टी के प्रति.
खैर जब सदन में वोटिंग हुई, तो सरकार के समर्थन में 275 और सरकार के विरोध में 256 वोट पड़े। सरकार के समर्थन में सपा सांसदों ने वोट किया। इसकी वजह से ना सिर्फ सरकार बची बल्कि इस न्यूक्लियर डील पर भी सहमति बन पाई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वी का विनिंग साइन दिखाते हुए फोटो खिंचवाते नजर आए। मनमोहन सिंह यूं तो बहुत शांत स्वभाव के माने जाते हैं, लेकिन अपने घटक दलों के खिलाफ इस आक्रामकता की यह कहानी उनके स्वभाव से काफी अलग था। कॉन्फ़िडेंस मोशन के अंत में उन्होंने कहा कि मैं देश के लोगों को यह बताना चाहता हूँ कि हम आज जो भी फैसला वो ले रहे हैं, वो इस देश के लोगों के पूरी तरह से हित में होगा।
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