लेफ्ट का विरोध, सोनिया का दबाव... फिर भी नहीं झुके थे मनमोहन
मार्च 2006 में भारत और अमेरिका के बीच अहम परमाणु समझौता हुआ था। इस समझौते का लेफ्ट पार्टियों ने पुरजोर विरोध किया। लेफ्ट ने मनमोहन सरकार से समर्थन भी वापस ले लिया था।

पूर्व पीएम मनमोहन सिंह। (फाइल फोटो-PTI)
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह नहीं रहे। 92 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। 10 साल देश के प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह की सरकार में एक वक्त ऐसा भी आया था जब उनकी सरकार संकट में आ गई थी।
ये वो वक्त था जब भारत और अमेरिका के बीच एक परमाणु समझौता होने वाला था। यूपीए सरकार को समर्थन देने वाली लेफ्ट पार्टियों ने इसका विरोध किया। यहां तक कि लेफ्ट ने समर्थन वापस लेने तक की धमकी दे दी थी। लेफ्ट के विरोध के चलते सोनिया गांधी ने भी दबाव बढ़ाया लेकिन मनमोहन सिंह झुके नहीं। ये मनमोहन सिंह की ही जिद थी कि तमाम विरोध और दबाव के बावजूद अमेरिका के साथ परमाणु समझौता हो पाया।
हुआ क्या था?
18 मई 1974 को राजस्थान के पोखरण में भारत ने पहला परमाणु परीक्षण किया। इसे 'स्माइलिंह बुद्धा' नाम दिया गया था। परीक्षण सफल हुआ। इससे अमेरिका को सबसे ज्यादा दिक्कत हुई।
इस परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत पर कई सारे प्रतिबंध लगा दिए। उसी साल 'न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप' बना और भारत को परमाणु सामग्री और परमाणु तकनीक निर्यात करने पर रोक लगा दी। इस ग्रुप ने नियम बनाया कि जो देश परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर दस्तखत नहीं करेगा, उसके साथ कोई परमाणु व्यापार नहीं होगा। भारत ने इस संधि पर साइन करने से मना कर दिया।
फिर 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में दूसरा परमाणु परीक्षण हुआ तो इससे अमेरिका और आगबबूला हो गया। इससे भारत और अमेरिका के रिश्ते भी बिगड़े। अमेरिका ने पहले से ज्यादा सख्त प्रतिबंध लगा दिए।
मनमोहन सरकार में हुआ समझौता
मई 2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो भारत ने अमेरिका के साथ रिश्ते सुधारने की पहल शुरू की। जुलाई 2005 में मनमोहन सिंह अमेरिका और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश को एक परमाणु समझौते के लिए मना लिया।
अमेरिका इसके लिए मान तो गया, लेकिन दो शर्तें भी रखीं। पहली ये कि भारत अपनी सैन्य और नागरिक परमाणु गतिविधियों को अलग-अलग रखेगा। और दूसरी कि परमाणु तकनीक और सामग्री देने के बाद भारत के परमाणु केंद्रों की निगरानी अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी यानी IAEA करेगा।
अगले साल 2 मार्च 2006 को जॉर्ज बुश भारत के दौरे पर आए। इसी दौरे में भारत और अमेरिका के बीच अहम परमाणु समझौता हुआ। इसे 'इंडिया-अमेरिका सिविल न्यूक्लियर डील' कहा गया।

'शाम 5 बजे तक सुरक्षित है सरकार'
जब जॉर्ज बुश भारत आए थे तो उस वक्त केरल और बंगाल में चुनाव थे, इसलिए लेफ्ट पार्टियां थोड़ी शांत थीं। इन दोनों राज्यों में जीत के बाद लेफ्ट पार्टियां खुलकर मनमोहन सरकार का विरोध करने लगीं।
मनमोहन सरकार को बाहर से समर्थन दे रहीं लेफ्ट पार्टियों ने परमाणु समझौते से हटने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। सीपीआई नेता एबी वर्धन से मीडिया वालों ने जब सवाल किया कि सरकार कब तक सुरक्षित है? तो उन्होंने जवाब दिया, 'शाम 5 बजे तक तो सुरक्षित है, लेकिन आगे का नहीं बता सकता।'
लेफ्ट पार्टियों का कहना था कि ये समझौता अमेरिका की ओर से फेंका गया जाल है। लेफ्ट का विरोध जब बढ़ गया तो सोनिया गांधी ने भी मनमोहन सिंह से इस डील पर दोबारा सोचने को कहा था। ऐसा कहा जाता है कि कांग्रेस की एक बैठक में परमाणु समझौते पर चर्चा हुई तो उन्होंने अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी। आखिरकार 8 जुलाई 2008 को लेफ्ट ने अपना समर्थन वापस ले लिया। लेफ्ट ने दावा किया कि सरकार अल्पमत में है। 22 जुलाई 2008 को मनमोहन सरकार ने विश्वास मत पेश किया। इसके पक्ष में 275 और विरोध में 256 वोट पड़े। इस तरह से मनमोहन की सरकार बच गई।
डील पर लगी मुहर
मार्च 2006 में भारत-अमेरिका के बीच परमाणु समझौते पर दस्तखत तो हो गए थे, लेकिन डील अब तक फाइनल नहीं हुई थी। उसकी वजह ये थी कि इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA), न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (NSG) और अमेरिकी संसद की मंजूरी जरूरी थी।
8 अगस्त 2008 को IAEA ने इसे मंजूरी दे दी। 6 सितंबर 2008 को NSG से भी इसे मंजूरी मिल गई। अब तीसरा पड़ाव था अमेरिकी संसद की मंजूरी। 27 सितंबर 2008 को अमेरिकी संसद के निचले सदन ने इस समझौते को 298 वोटों के साथ मंजूरी दे दी। 2 अक्टूबर 2008 को अमेरिकी सीनेट की भी इसकी मंजूरी मिल गई। आखिरी में 8 अक्टूबर 2008 को अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने इस समझौते पर दस्तखत कर आखिरी औपचारिकता भी पूरी की। इस समझौते का सबसे बड़ा फायदा ये हुआ कि दुनियाभर का परमाणु बाजार भारत के लिए खुल गया।
क्या चीन के कहने पर लेफ्ट ने किया था विरोध?
विदेश सचिव रहे विजय गोखले ने अपनी किताब 'द लॉन्ग गेमः हाउ द चाइनीज नेगोशिएट विद इंडिया' में दावा किया था कि चीन के कहने पर लेफ्ट पार्टियों ने परमाणु समझौते का विरोध किया था। उन्होंने लिखा था, '2008 में चीन ने भारत में लेफ्ट पार्टियों के साथ अपने संबंधों का इस्तेमाल किया। लेफ्ट पार्टियों ने परमाणु समझौते का विरोध करने का फैसला चीन की वजह से लिया था।' गोखले का कहना था कि भारत के अंदरूनी मामले में चीन के दखल का ये पहला मामला था।
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